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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 अगस्त, 2018

दोलन राय की कविताएँ



दोलन राय 



केंचुली

मैं मानव हूँ
रोज के केंचुली बदलता हूँ
सत्य जँहा मुखरित हो जाए।
झटपट वँहा से निकलता हूँ
नित्य नई शिकार की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखता हूँ
रोज के केंचुली बदलता हूँ

सजता हूँ सवारता हूँ
बाहर की ओर नज़रें कर कब अंदर की ओर झांकता हूँ
सदा भय रहता है, कहीं कोई पहचान ना ले कहीं कोई जान ना ले के अंदर का इंसान कौन है?
मैं कितना भिन्न हूँ
अंदर और बाहर से
इधर उधर से छिपता हुआ
भ्रम में स्वयं को असाधारण समझकर फिरता हूँ
पर डरता हूँ
हासिल हासिल केवल हासिल करना चाहता हूँ
रोज अकारण
केंचुली में खोजू निवारण
 गिरता हूँ फिसलता हूँ
अपने ही आत्मा को निगलता हूँ
 भिन्न रंग की केंचुली
भिन्न ढंग की केंचुली
पहन के फिरता हूँ
       



 गुरूत्वाकर्षण

क्या तुम्हें ज्ञात है तुम खींचे जा रहे हो
बंधे हो झूठे हो ,कटे-फटे हो ,बटे हो ,कितनी कुशलता से
सफलता से जो ,तुम्हारा नहीं
उसही आकर्षण से
धैर्य धारा के साथ
अनुकूलता में
प्रतिकूलता में
व्याकुलता में
प्रतिबद्ध हो
यह आकर्षण मौलिक है अलौकिक है पारलौकिक है
जो सरल और निर्दोष हैं

वह सदैव खींचेगा ,खींचा नहीं जाएगा जुड़ेगा पर टूटेगा नहीं एक निर्दिष्ट श्रृंखला की ओर बहेगा उसी   ऊर्जा से होकर  ओत-प्रोत
जहाँ नित नवीन सृजन के स्रोत

एक दृष्टिकोण भी है गुरुत्वाकर्षण एक भाव भी है गुरुत्वाकर्षण एक आमंत्रण भी है गुरुत्वाकर्षण अपने हृदय में सहृदय हो
               





लोकतंत्र की जय हो

षड्यंत्र या स्वतंत्र क्या हैं लोकतंत्र?
कोलाहल या हल
या मात्र दो चार दल
सरोकार या परोपकार
या निरर्थक कोई सत्कार
करो स्वीकार
अपने ही स्वरलिपि पर यह दूसरे का कैसा अधिकार?
आरोप लगाओ या आरोपित हो जाओ
शांति के आड़ में
उच्छृंखल उस बाढ़ में
खेलो कोई खेल
गाढ़े घुप्प अंधेरे में

लोकतंत्र की गाड़ी को हाथों से ठेलों
बेकसूर हो कर भी खूब झेलो
समस्या प्रचुर हैं
निदान नशे में चूर है
योग्यता भरपूर हैं पर स्वार्थ बड़ा  क्रूर है

लोकतंत्र के इस विचार को खोजों जो दूर हैं------
गरीबों की जय हो
लोकतंत्र की विजय हो



           
 उपन्यास

मैं एक उपन्यास हूँ
चित्र और चरित्र का शिलान्यास हूँ

शब्दों के बीच जूझते प्रयास
एक दूसरे के प्रति जुड़ने का एहसास
लड़ी हूँ कड़ी हूँ
एक श्रृंखला से जुड़ा हूँ

एक अध्याय में मिलन
दूसरे में बिछड़न

फिर पलायन
पुरातन चयन
अश्रुपूरित नैन
मन में स्थापित हुआ साहित्य में प्रतिष्ठित हुआ
मन ही मन प्रारंभ गढ़ा गया  अंतिम पृष्ठ को प्रारंभ में ही पढ़ा गया
अकारण ही युद्ध लड़ा गया

भूमिका सर्वश्रेष्ठ होती है
कोई भी विमर्श निष्कर्ष कैसे हो सकता है?
समीक्षा की भी परीक्षा होती है हर एक पात्र की यहाँ दीक्षा होती है

शब्द विचार और कलम कब किसके अधीन हुए अनायास ही स्वाधीन थे और स्वाधीन हुए
उपन्यास का हर पात्र बेचैन हैं
निवृत्ति ही............... प्रारंभ है और अंत है

उपन्यास की परिभाषा अनंत हैं.......*
         



कहाँ

हम सभी एक छोटी सी यात्रा पर आए हैं
अनगिनत ,अंजानी, आत्माओं के साथ जीने आए हैं
वसुंधरा का विद्रोह देखने
प्रकृति की अभिव्यक्ति को सीखने

अंदरुनी विश्वको बाह्य विश्व से जोड़ने
शून्य की असंख्य कृतियों को जानने


यह समझना होगा जड़ सदा नवीन
 रहेगा प्राण शक्ति में
चाहे मनुष्य कितना भी हिंसक हो जाए पर वह प्रेम चाहता है, युक्ति में
अपने प्रति अहिंसा चाहता है
सत्य चाहता है

तभी तो जड़ को जड़ता से दूर कर
वह सृजन  करता है
               


जनसमुद्र

कुछ लोग बिल्कुल एक से रूप रंग वाले एक ही दिशा में एक दूसरे को पीछे छोड़ते हुए.....
एक दूसरे का मनोबल अनजाने में मगर तोड़ते हुए........

बढ़ रहे हैं, ना जाने किस ओर
कहाँ है, वह निर्दिष्ट छोर
आगे की पीछे
ऊपर की नीचे संदेहजनक है, न जाने अब प्रगति का क्या मानक है?

भीड़ में कुछ अति उत्तम कुछ मध्यम कुछ अति निम्न हैं

पर अधिकांश भ्रमित शंकित चकित लग रहे हैं
कुछ-कुचले जा रहे हैं कुछ कुचल रहे हैं..........
कुछ मनचले विपरीत दिशा में कूच कर रहे हैं कुछ दिलजले चुपचाप   ताक रहे हैं
सबके सब कहाँ भाग रहे हैं?
जाने किस ओर बहे जा रहे हैं?
क्या क्या सहे जा रहे हैं?

यह कैसा ,जन समुद्र है?
जिसमें ना लहरें हैं
ना समुद्र जैसी तेजस्वी ओज
ना ही कोई स्पंदन....
जैसा टूटा हुआ कोई मानवीय बंधन
घुटा हुआ सा, असहाय क्रंदन.......

         



औचित्य

अलौकिक चयन
अथाह की ओर दृष्टि
मेरे यह दो शून्य नयन

अविभक्त अनावृत
औचित्य पर मनन
वही आत्मिक अनुरोध होगा 
तब जीवन शोध होगा
धेय सत्य की ओर 
निश्छल भोर
तब विचार प्रशस्त होगा
मनोबल कभी ना अस्त होगा   
उसी प्रवाह में
उसी अथाह में   
दिव्य दिव्यमान होगा
सत्य का औचित्य सदा विद्यमान होगा...........
जो स्वतंत्र है वही जागृत होगा
उसका ही औचित्य है
जो पूर्ण चित्य होगा....
     



उड़ना या उगना

उड़ना सतह से कुछ ऊपर की ओर उठना है
उगना सृजन है
उड़ना मूल से दूर होकर महत्वाकांक्षी बन जाना
उगना जड़ से जुड़ जाना मिट जाना घुल जाना मिल जाना

उड़ना उन्नति प्रगति और तीव्र गति
उगना संघर्ष में छिपा हर्ष

उड़ना स्वप्न
उगना सार्थक सत्य से भरा ज्ञान
उड़ना एक अभिमान, विज्ञान , उपलब्धि
उगना प्रारब्ध निशब्द
दोनों है शब्द
उड़ने से पहले उठना होगा जगना होगा करना होगा अंगीकार
उड़ने से पहले करो धरती को स्वीकार तुम्हें उगना ही होगा
           




 चप्पल

नंगे पांव आरंभ हो गया
एक खुरदुरा सफर
पदचाप से पदचिन्ह की ओर
निरंतर अभ्यंतर
बहुत सुंदर

कंकड़ का चुभ जाना
मैंने तो सदा शुभ माना

दुर्बल आंसू को चुभता हुआ शूल जाना
मिला जो आधार
वह था ,आघात
अनुप्राणित
विलक्षण आनंद केवल पीड़ा है

बौद्धिक संघर्ष का नैतिक किस्सा
चलने दो डूबने दो
यही तो एक मात्र  नैतिक किस्सा
सुनो ! नंगे पांव ही रहना

आने दो लिपटकर पांव के साथ धूल
निश्चय ही पाओगे
संघर्षरत प्राण के अद्भुत उसूल
           



 चीटियां

चढ़ाई हो या हो ढलान
कब रूकती हैं,कब थकती हैं
चीटियां

विशिष्ट, शिष्ट हैं
कभी किसी से नहीं उलझती

अनवरत ,कार्यरत
जब लेती है ठान
कभी ना होती फिर प्लान

नहीं मचाती शोर ना ही कोई हंगामा
स्वयं सिद्ध सी गिरकर भी नहीं गिरती  चीटियां

भीषण सहनशील तपस्यारत अनुशासित  स्वयं ही प्रशासित

अविनाशी  चीटियां
कार्यरत चीटियां

 दोलन राय परिचय: 



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