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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 अगस्त, 2018

परखः तेरह

छाते में बादल !


गणेश गनी


गणेश गनी



वो जिस दिशा भी जाए, कोई भी ऋतु हो, बसंत हमेशा उसके साथ चलता । एक दिन वो उतर दिशा में बर्फ़ के इलाके में चला गया। सब अचंभित थे, चारों ओर सात रंगों के फूल खिल उठे। तितलियाँ और भँवरे फूलों के आसपास मंडराने लगे। बर्फ़ पर बसंत की मोटी चादर दूर तक फैल गई, तो एक आदमी ने इस अद्भुत घटना के बारे उससे पूछा। वो क्या बताता, बस मुस्कुरा दिया। फिर और फूल खिलने लगे। वो आदमी भी खिलखिलाने लगा।

बसंत तो आता ही है मस्ती के लिए, झूमने के लिए, गाने के लिए और उसके बाद जेठ आषाढ़ के दिन कुछ अधिक परिश्रम के होते, लेकिन इन दिनों को भी लोग खेत खलिहानों, चरागाहों, घासणियों में कठोर परिश्रम करते हुए गीत गाकर आसानी से बिता देते। झींगुर की तानें मिलकर इन गीतों को और सुरीला बनातीं। महिलाएं सुगलियाँ गाकर आपस में प्रतियोगिताएं करतीं। कई बार तो चनाब के आर पार घास काटती औरतें तार स्वर में सुगलियाँ गातीं हुई एक दूसरे को चुनौती देतीं। झींगुर दीखते नहीं, वरना यह पता चल जाता कि वे कौन से साज़ पर तान छेड़े बैठे हैं। यह पहाड़ हैं, ऊंचे वाले, बर्फ़ से लकदक और जिन झरनों की कभी आप कल्पना करते हैं तो वो इधर फूटते हैं।

संगीत साधना में लीन एक मुनि का कण्ठ जब सूखने लगा तो वो अपना कण्ठ तर करने के लिए एक जलप्रपात तक पहुंचे। झरने की गिरती सफेद जलधारा की ओर अपनी अंजुरी बढ़ाई ही थी कि उनके हाथ रुक गए, पांव ठिठक गए, कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हुआ, आंखें इधर उधर भटकने लगीं खोज में। इतना अद्भुत और विराट संगीत सुनकर  जलप्रपात के पास ही पेड़ों के झुरमुट में जाकर छिप बैठे स्वाति मुनि। ओट से झाँकते रहे कि शायद यह संगीतकार कहीं से प्रकट हो तो दर्शन कर लूं। झरने का जो पानी बौछार के रूप में सूखे पत्तों पर गिर रहा है और संगीत पैदा हो रहा है, उसे सुनकर स्वाति नामक मुनि अपनी प्यास भूलकर वापिस चले गए और रियाज़ करने लगे। वो अब इन सुरों को साधना चाहते हैं।
एक बार की बात है। पिताजी का तबादला लाहुल के अंदरूनी भाग मयाड़ नाला के चिमरेट बीट से लाहुल के ही कुछ अधिक ऊंचाई पर बसे अंतिम गांव भुजून्ड बीट में हुआ। गांव पीठ पर पहाड़ उठाए और चन्द्रभागा में पांव डाले हमेशा चिंतामुक्त रहता। पूरे एक दिन का थका देने वाला पैदल सफ़र था। मैं या तो पिता के कंधों पर सवार होता या फिर किसी मजदूर के। चनाब के बहते पानी की महक और संगीत आज भी महसूस करता हूँ। रास्ते में जहां भी चश्मों और झरनों का मीठा पानी बहता, ऐसे स्थान भोजन करने के लिए चिन्हित होते थे। बच्चों को ये जगहें कुछ अधिक ही लुभातीं। लम्बे सफ़र में हमेशा झोलों में भोजपत्र में बांध कर रोटी और आलू की सूखी सब्जी रखी होती। चश्मों के मीठे पानी के साथ दोपहर का भोजन भूख को शांत करता। भोजन की मिठास को शहद और घी में सने जौ के सत्तु की डली और भी बढ़ा देती।

गर्मियों में यह सफ़र फिर भी उतना कठिन नहीं रहता, परंतु सर्दियों में बर्फ़ के बीच अधिक देर तक चलने पर कई बार पैरों की उंगलियां जल जातीं। बर्फ़ की आंच आग की आंच से भी ज़्यादा खतरनाक होती है, यह बर्फ़ के क्षेत्र के लोग ही महसूस कर सकते हैं।

जाड़े के दिन पहाड़ को कम्पा देते हैं। पहाड़ों में जाड़े के दिनों में लम्बी रातों को काटने के लिए अक्सर किस्से- कहानियां सुनाई जाती हैं और यह काम घर के बूढ़े ही नहीं बल्कि कोई भी कुशल क़िस्सागो अच्छे से निभाते हैं। एक अफ्रीकी कहावत है, अच्छा क़िस्सागो , सुनने वाले के कानों को आंखें बना देता है। एक कवि है पहाड़ में जिसकी कविता सुनकर यही एहसास होता है। कुल राजीव पन्त पहाड़ के बारे सोचते हैं और यह भी सोचते हैं कि पहाड़ क्या सोचता है-

पहाड़ सोचता है
बादल बनाएंगे पक्के मकान
यहीं टिक जाएंगे
खोलेंगे खिड़कियां
परदे लगाएंगे
घर की दहलीज़ पर
रंगोली सजाएंगे... पहाड़ सोचता है।

पहाड़ सोचता है
सूरज से कहूं- ना जाए
एक शाम अपने घर
यहीं ठहर जाए
बरसों से नहीं मिले हैं
रात भर गप्पें लगाएं
सुने कुछ मेरा दर्द
कुछ अपने सुनाए...पहाड़ सोचता है।

कोई जानता भी नहीं होगा राजधानी दिल्ली में कि कुल राजीव पन्त के सन्दूक में कविताओं के बरके उस वक्त भी फड़फड़ाते हैं जब सन्दूक बन्द होता है ताले की कैद में। कवि का नाता शिमला से है और शिमला का नाता छाते से-

हर बारिश में छाता बात करता है
आसमां से
और सूखे में ज़मीन का दरवाज़ा
खटखटाता हुआ चलता।

बच्चा जब भी
छाता अपने कंधे पर रख घुमाता
तो सोचता
वह पूरी पृथ्वी को घुमा रहा है
और वह जब भी चाहे
इसका घूमना फिरना
रोक भी सकता है।

कवि ने छाते के बहाने जो कविता लिखी है, उसे अधूरा छोड़ना सम्भव नहीं है, दो टुकड़े और देखें। बहुत रंग हैं इस छाते, बारिश और बच्चे के खेल में-

आसमां
छाते के छोटे छोटे सुराखों से अक्सर
बच्चे की रंगीन दुनिया में झांकता
और उसमें गोता लगा लौट आता।

फुहारें
बच्चे के छाते के भीतर
बसी दुनिया में छिप जाती
और बादलों को आवाज़ दे बुलाती-
छाते के भीतर आ जाओ
जगह काफ़ी है
बाहर भीग जाओगे।

जो पत्ते झरने से दूर पेड़ों पर सूख रहे हैं, वे हवा से भिड़े हैं। पत्ते यहीं झड़ना और बसना चाहते हैं और यहां से दूर कहीं नहीं जाना चाहते। उन्हें मालूम है जो सुर और तान उनके भीतर बसे हैं, उन्हें तो बस झरने के पानी की चंद बूंदों के टपकने का इंतज़ार है। कवि की इच्छा कुछ और ही है-

चलो पतो चलो
कि यह तुम्हारे जाने का मौसम है
उछलते कूदते शोर मनाते चलो
कि जैसे
बच्चे मनाते हैं शोर
स्कूल से छुट्टी होने पर।

उदास उदास मत चलो
कि जंगल को तुम्हारी उदासी
अच्छी नहीं लगती।

बस चलते चलते
सुनाओ तो वह गीत
जो तुम अपनी जवानी में
हवा के साथ मिलकर
झूमते हुए गाते थे।

गाओ, गाओ कि तनातनी के इस माहौल में
धरती इक प्यार भरी लोरी सुनने के लिए
बरसों से तरस रही है।

और फिर चलो पतो चलो
कि यह तुम्हारे
जाने का मौसम है।

राजीव पन्त


पत्तों से बातें करना कवि जानता है। कुल राजीव यह भी जानते हैं कि भले ही बड़ों के लिये यह शोर होगा, परंतु बच्चे शोर को भी उत्सव जैसा मनाते हैं। कवि पहाड़, पानी, प्यास, पत्थर आदि के साथ दास्तानें सांझा करता है-

आँगन में
नदी के किनारे वाली रेत से लाए पत्थर थे
जो अंधेरे में भी चमकते हैं
नदी का थोड़ा सा पानी
उनके भीतर
अब भी मौजूद था
जहां एक नाव चलती
घबराई मछलियां बाहर जाने का रास्ता
तलाशती रहती।

आधी रात जब भी
नदी की आवाज़
आँगन तक आती
पत्थरों के भीतर बैठे
पानी को लगता
जैसे घर लौटने के लिए
मां पुकार रही है।

बच्चे इन पत्थरों पर
किश्तियाँ बनाने लगते
किश्तियाँ तो चल नहीं पातीं
पर भीतर बैठे पानी को
उम्मीद बन्ध जाती
कि बाहर जाने के रास्ते का काम
शुरू हो गया है।

कुल राजीव पन्त की कविता जनपक्षधरता का समर्थन करती है। शिल्प और शैली सधी हुई है और बिम्बों में नयापन है, ताजगी है-

न जाने कब उड़ गई
वो सयानी लाल पंखों वाली चिड़िया
अपना झोला उठाकर
जो सुबह सुई में धागा डाल गई थी।

अब चिड़िया शाम को लौटेगी
नारों से सनी
पोस्टरों से भरा झोला कंधे पर लटकाए
थकी थकी सी
फिर डलवाऊंगा उससे सुई में धागा
सुबह रफू का काम आगे बढ़ेगा।

चिड़िया पोस्टर बांटने निकल जाएगी
उसके पास भी
रफू का बड़ा काम है
जो दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है।


परखः बारह नीचे लिंक पर पढ़िए

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