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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अगस्त, 2018

मैं क्यों लिखता हूं 

ओमप्रकाश भाटिया

कई बार घटनाएं, पात्र ,संवेदनाएं व स्थान परदे पर चल रहे सिनेमा के दृश्यों की तरह इतने तेजी से बदलते हैं कि हम हतप्रभ से उसे देखते महसूसते और भुगतते रह जाते हैं। ऐसे में कुछ ऐसे भी हैं जो स्थाई रूप से हमारे दिल - ओ-दिमाग पर अंकित हो जाते हैं। फिर हटाने की कोशिश करें तो भी नहीं हटते।

ओम प्रकाश भाटिया


ऐसे में मुझे  बेचैनी शुरू हो जाती है। रचना आकार लेने लगती  है। तब भी उससे दूर भागता हूं। वह बार बार सामने आ खड़ी होती है। आकार लेती रचना के शब्द वाक्यों की पंक्ति दर पंक्ति बन जहन के चारों ओर चक्कर लगाने लगते हैं। तब कलम हाथ में लेने को मजबूर हो जाता हूं और रचना बहते स्त्रोत की तरह फूटती है और कागज पर नदी की तरह आकार लेने लगती  है।

जब तक मन मजबूर नहीं कर देता लिखना नहीं हो पाता  है। लिखने के लिए लिखना है,नहीं लिख पाता हूं।
जब रचना बनने की प्रक्रिया में होती है तो सोचता हूं इसको लिखना क्यों जरूरी है। यह पाठक को क्या देगी। क्यों पढ़े इसे कोई? क्यों इस पर अपना कीमती समय जाया करे कोई? मात्र मेरे विचार है या मैं ऐसा सोचता हूं। मेरी यह सोच दूसरे के लिए कितनी उपयोगी है या कैसे उपयोगी हो सकती है? यही सारे सवाल लिखने से पहले उस समय सामने आते हैं जब रचना आकार लेना शुरू करती है, मैं उससे दूर दूर भागता हूं तो रचना अपने रूप बदल बदल कर मेरे सामने आने लगती है। जब लगता है कि अब यह मेरी ही न रह कर औरों की भी बन सकती है। तब वह मुझ पर  हावी होने लगती है। फिर मैं उससे दूर नहीं भाग पाता हूं और वह मेरी कलाई पकड़ कर कागज पर बैठ जाती है। तब वह खुद को साकार कर, ठहर जाती है और सांस लेने लगती है।

मैं धुर रेगिस्तान में रहता हूं। यहां का कठोर जीवन, यहां के लोगों के अंतस में  हरियाली को बचाने, मुश्किलों में से आसानियां पैदा करने और अभावों में से खुशियां निकाल लेने का हुनर जानता है। ऐसे में कई कहानियां जन्म लेती हैं। कई संवेदनाएं कविताएं बन जाती हैं। तब लगता है इसे तो लिखना ही चाहिए। यहां के भूगोल, इतिहास और संस्कृति की यह अद्भुत कहानियां मैं भी नहीं लिखूंगा तो कौन लिखेगा। बस लिखने लग जाता हूं। यही जहन में रहता है, भाषा और शिल्प की परवाह मंजे हुए लोग करते हैं।

शुरुआत में ही इसकी चिंता की तो लेखक हीन भावना से ग्रस्त हो जाएगा। कभी लिख ही नहीं पाएगा। बस कथ्य सही होना चाहिए। भाषा ऐसी हो कि रचना अपने को पढ़ा ले जाए। शिल्प ऐसा हो कि पाठक बंधा रहे। पहले लेखक पाठक का हाथ पकड़ कर रचना के गलियारे में ले जाए फिर पाठक लेखक का हाथ पकड़ ले और तब तक न छोड़े जब तक रचना पूरी न हो जाए। क्या लिखा है ,कैसा लिखा है,कौन सी विधा में लिखा है, यह पाठक और आलोचक तय करते हैं।

बचपन में किताबों में आती खुशबू अच्छी लगती थी। कहीं से ही मिली किताबें पत्र पत्रिकाएं पढ़ता रहता था। स्कूल में हिन्दी टीचर मोहनलाल जी वर्मा भित्ति पत्रिका चलाते थे। उस में मेरी रचनाएं हमेशा शामिल रहती थी। यह 1974 की बात है जब मैं हायर सेकेंडरी में पढ़ता था। ये सपनों में जीने, धुआं धुआं होने और गुलशन नंदा,कर्नल रंजीत को पढ़ने के दिन थे। तभी जैसलमेर के टेलीफोन एक्सचेंज में स्वयं प्रकाश जी आये। वे तब भी स्थापित लेखक थे और मोहन श्रोत्रिय जी के साथ 'क्यों' निकालते थे। कुर्ता और पेंट पहने झौला लटकाए तेज चलते थे। सभी उन्हें हसरत से देखा करते थे। वर्मा सर ने जब उनसे मिलवाया तो मैं चकित सा उन्हें देखता रहा। किसी बड़े लेखक से पहली बार मिला था। मेरे सहित आठ दस लड़कों का ग्रुप बन गया। स्वयं प्रकाश जी ने हम सब की सोच बदल दी। मार्क्सवाद,वर्ल्ड क्लासिक लघु पत्रिका आंदोलन से परिचित करवाया। पहली कहानी रमेश उपाध्याय जी की पत्रिका 'युग परिबोध" में छपी। उसके बाद 'क्यों' में भी छपी। उन्हीं दिनों स्वयं प्रकाश जी से होने वाली बहसों ने धुंध साफ कर दी। कालान्तर में उनका स्थानांतरण हो गया मगर यहां के कुछ लोगों को समकालीन साहित्य से हमेशा के लिए जोड़ गये। तभी मुझे क्यों लिखना चाहिए के साथ यह भी समझ में आया कि क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं लिखना चाहिए।
थार रेगिस्तान में न केवल मुश्किलों के धोरे हैं बंटवारे के दंश भी है। सीमा पर रहने वाले हजारों परिवार बंट गये। अकालों और अभावों में एक दूसरे की मदद करने वालों में जातीय ध्रुवीकरण ने खाइयां पैदा कर दी । इंदिरा गांधी नहर ने पर्यावरण भूगोल और आर्थिक संरचना को बदला ही साथ बढ़ते स्वार्थ ने इंसानियत को कटघरे में ला दिया है। यह सारे बदलाव यहां का आदमी महसूस करने के साथ साथ भुगत भी रहा है। ये मुझे चेन नहीं लेने देते हैं। मेरे सामने मखमली रेत ,चांदनी रात,सुबह सुबह की ठंडी,ताजी और मायावी नशीली हवाएं हैं जो मुझे थोड़ा सुकून तो देती हैं परन्तु राहत समाधान नहीं देती है। तभी तो बेचैनी होती है और लिखने को मजबूर हो जाता हूं। जिन पर लिख रहा हूं उन्हें न तो मालूम है न सरोकार है। मगर कभी तो कोई पढ़ेगा। शायद मेरा समय जरा सा भी मेरे लेखन में सुरक्षित हो जाएगा तो लिखना सार्थक हो जाएगा।
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ओम प्रकाश भाटिया की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए।
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_3.html?m=1



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