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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अगस्त, 2018

डायरी: 

उत्तर पूर्व 

रंजना मिश्र


गुवाहाटी से शिलॉंग की दूरी महज़ १९१ किलो मीटर है पर यह दूरी एक पूरी नई दुनिया का विस्तार आँखों के सामने रख देती है. एन एच ३७ शायद भारत के सबसे खूबसूरत राजमार्गों में से एक है, दोनो ओर उँचे पहाड़ों की शृंखला और अच्छी सड़क, सड़क चौड़ी है पहाड़ी रास्तों पर ऐसी चौड़ी सड़कें अधिकतर देखने को नहीं मिलतीं.


हम सुबह सुबह निकल चलते हैं. टॅक्सी ड्राइवर इस बार मानब नही बिहार के रामशरण सिंह जी हैं जो आतिथ्य सत्कार, गुंडई और दार्शनिक सोच का मिला जुला रूप हैं! बड़े प्यार से हमें टॅक्सी में बिठाते हैं, खूब ज़ोरदार तरीके से टॅक्सी चलाते हैं, इतना कि आपको डरा दें, ज़रा आहिस्ता चलाइए कहने पर गुंडागर्दी बतियाते है और डाँटने पर दार्शनिक दृष्टि अपना लेते हैं! राजनीति में गहरी रूचि है और मौजूदा सरकार उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं, जिसका एक कारण है अब तक उनके खाते में १५ लाख रुपये नहीं आए — ‘ इंसान आदमी कहीं ऐसे झूठ बोलता है, कहिए भला!’ इस एक वाक्य से पूरी सरकार की गर्दन नाप देते हैं! मुझसे नाराज़ हैं और हमारी बातचीत बंद है, पर टैक्सी की गति नियंत्रित है!

मेघालय की घाटियों से गुज़रना — जैसे बहुत सारे खूबसूरत पिक्चर पोस्टकार्ड्स को लगातार पलटते जाना ! आँखें नहीं थकती और दृश्यों के सिलसिले गुज़रते जाते हैं, हर दृश्य जादुई दुनिया की ओर एक कदम और! बादलों से ढकी पहाड़ों की चोटियाँ, ढ़लानों पर केले, बाँस, अनन्नास और साल के घने जंगल, नीचे दूर घाटियों में गहरे नीले चमकते पानी से भरी छोटी झीलें. प्रकृति यहाँ चिर यौवना है. बादल सड़कों पर उतर आए हैं और मैं रुक जाना चाहती हूँ, वहीं, बस वहीं, उन बादलों के बीच, उन्हें छूना चाहती हूँ, उस क्षण को पूरी गहराई से महसूस करना चाहती हूँ, वह क्षण जो बीत जाने वाला है, फिर कभी न आने के लिए, भूल जाती हूँ मुझे उँचाई से डर लगता है….. मेरे हाथ छोटे हैं, मेरी सीमाएं मुझे कहीं और ले जा रही हैं और ये बादल अपने रास्ते निकल चले हैं, ये किसी का इंतज़ार नहीं करते, बस बरस कर भिगो देते हैं !

गहन पीड़ा और खुशी के अतिरेक में सिर्फ़ मौन व्यक्त होता है , इन्हें शब्द, स्वर, आकार या रूप दे पाना संभव नहीं, प्रकृति यहाँ मौन कर देती है. पूरी यात्रा मुझे ये अहसास दिलाती रही कि पेड़, जंगल, पहाड़, नदियाँ, चट्टान, रेत, कंकड़, पूरी प्रकृति अपने स्वाभाविक रूप में किसी विशाल वृहत ऊर्जा स्त्रोत के अधिक करीब है बनिस्बत इंसान के. इंसान अपने करीब करीब सभी रूपों में छुद्र, कलुषित, बौना और स्वार्थी ही नज़र आता है प्रकृति की तुलना में और खुद को प्रकृति या ईश्वर की सबसे खूबसूरत रचना होने का दावा करता है. ये दावा भी उसकी उसी अहंकार भरी छुद्रता का हिस्सा है जिसका वह जनक और शिकार दोनो है.
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शिलॉंग शहर में प्रवेश के पहले बसों, टैक्सियों और ट्रको की लंबी कतारें हैं, सड़क संकरी हो गई है, सड़क पर बड़े बड़े गढ्ढे हैं और मुश्किल से दो गाड़ियाँ एक साथ गुज़र सकती हैं, किनारे गाँव और छोटे घर हैं, किसी बंद फॅक्टरी की इमारत है, सड़क के किनारे ग़रीबी दिखती है. रेंगती हुई यह कतार करीब साढ़े तीन किलो मीटर लंबी है. ठंड अब भी कुछ खास महसूस नहीं हो रही. टी शर्ट और जीन्स से काम चल रहा है, लोग अलबत्ता जैकेट पहने नज़र आ रहे हैं. सुबह के करीब दस बजे हैं और हम संकरी गलियों जैसी सड़कों से शहर में प्रवेश करते हैं.

रास्ते में हमें ख़ासी भाषा की कई साइन बोर्ड्स, तख्तियाँ दिखाई दी पर उनकी लिपि रोमन है, हमारे सहयात्री बताते हैं ख़ासी की अपनी कोई लिपि नहीं है वे रोमन लिपि का ही उपयोग करते हैं. क्या अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ख़ासी भी संस्कृत से निकली भाषा है? मुझे अबतक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है.

मुझे लगता है अब हम मुख्य सड़क पर आएँगे, तो इन तंग सड़कों से छुट्टी मिलेगी, पर जल्द ही मुझे समझ आता है, यह मुख्य सड़क ही है जिससे हम चल रहे हैं, पहाड़ों में सड़कें सड़कें होती हैं मुख्य और गौण नहीं! जो रास्ते मंज़िल तक पहुँचा दें उन्हें सलाम! सड़कों के अगल बगल फूलों से भरे सुंदर घर हैं, घरों की दीवारें ऊँची हैं, और फूल उन दीवारों के भीतर से झाँकते जैसे राहगीरों का स्वागत कर रहे हैं. पता नहीं कितने टेढ़े मेढ़े घुमावदार रास्ते हैं इस शहर में पर सारे के सारे खूबसूरत! आज २४ दिसंबर है, कलक्रिसमस है, पूरा शिलॉंग उत्सव की तैयारियों में व्यस्त है. सजी धजी महिलाएँ बड़ी संख्या में दिखती हैं. सारी की सारी ने गहरी लाल लिपस्टिक लगा रखी है, लंबे ओवरकोट और हाइ हील की सैंडिलें! कुछ अपने पारंपरिक पोशाकों में भी हैं और कुछ ने लंबे ऊनी स्कर्ट भी पहन रखे हैं. पुरुषों की संख्या कम दिखती है अभी. और जो दिखते है वे सामान्य रोज़मर्रा के कपड़ों में दिख रहे हैं.
गेस्ट हाउस जंगली लताओं और फूलों से ढकी एक पुरानी कॉटेज है, जिसे गेस्ट हाउस में बदल दिया गया है. मैं जैसे ही टैक्सी से उतरती हूँ, ठंडी हवा सुई की तरह चुभने लगती है और मैं अपनीबहादुरी को दरकिनार करते हुए स्वेटर, जैकेट, मोज़े, सब चढ़ा लेती हूँ. रूम इतना ठंडा है की पॉकेट से हाथ निकालने को भी मन नहीं होता. कमरे में रूम हीटर जले हुए हैं पर कोई फाय दा नहीं, पहली बार मुझे समझ आता है ठंड आपकी सोचने, समझने, महसूस करने की ताक़त सुन्न कर सकती है! कोई मुझे वोद्का की पूरी बोतल पकड़ाओ! भगवान उसका भला करेंगे!
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थोड़ी देर बाद चाय मिल जाती है, टी बैग्स वाली, ये कोई मौसम है ऐसी चाय पीने का ! मुझे अदरक इलायची वाली खूब मीठी कड़क पुणेरी चाय की तलब हो रही है, खैर, मन मारकर चाय किसी तरह अपने हलक से नीचे उतारकर हम बाहर निकल पड़ते हैं. लंच की व्यवस्था बाहर है और इस कॉटेज के सभी लोग परले दर्ज़े के आलसी हैं,पर इतनी ठंड में और क्रिसमस के पहले दिन शिलॉंग में आलसी होना उनका जायज़ हक़ है. अभी करीब बारह बजे हैं और सड़कों पर सन्नाटा सा पसरा है, अधिकतर लोग चर्चों में हैं बाकी घरों में, हमारे जैसे सैलानी न के बराबर हैं. कॉटेज से निकलते ही सड़क दाहिनी तरह मुड़ती है और उस सड़क पर आते ही घाटी और उसमें बने खूबसूरत छोटे छोटे घर आँखों के सामने आ जाते हैं. टहलते टहलते हम एक छोटे से रेस्तराँ में चले जाते हैं, एक प्यारी से लड़की करीब १८ बरस की उसकी कर्ता धर्ता है और चेहरे पे गंभीर मुस्कुराहट लिए हमारा स्वागत करती है, उसकी मददगार उसकी दस बरस की छोटी बहन है और एक किचन संभालने वाला वाला कुक है. उस छोटी से जगह में पर्दे, सजावट के वास, कलाकृतियाँ, लैम्प शेड्स सभी कुछ चीनी हैं. वह एक छोटा से मिनियेचर रेस्टोरेंट है. हमने नूडल्स और सूप का ऑर्डर किया है और थोड़ी देर में वह छोटी से प्यारी लड़की सूप सर्व करती है और वह शायद सबसे अच्छी चायंनीज़ है तो हमने खाई ! मेनलैंड चायना की ऐसी की तैसी!
बहुत वर्षों पहले जब मैं पहली बार घर से दूर अकेली रहा करती थी तो पापा मेरे उस छोटे से बसेरे को डॉल हाउस पुकारा करते . वह दूसरी मंज़िल पर बना एक छोटा सा फर्निश्ड कमरा था एक छोटी किचन के साथ ! खिड़की से लगकर एक ऊँचा बरगद, जहाँ दिन भर चिड़ियों का मेला लगा रहता, उसके पीछे किसी होस्टल की खाली ज़मीन थी. शाम को वापस आकर मैं उस कमरे में क़ैद हो जाती . सुबह चिड़ियों की गुंजन से भरा वह कमरा मुझे रातों को अपने अकेलेपन से डराया करता. इसी डर को भागने के लिए पापा ने शायद इस कमरे को डॉल हाउस का नाम दिया था.
शिलॉंग ऐसे ही बहुत सारे डॉल हाउसेज़ से बना एक खूबसूरत पहाड़ी शहर है और ये सारे डॉल हाउस पहाड़ों के अलग अलग हिस्सों और उँचाइयों पर बने हुए हैं. शाम होते ही जब इन घरों की बत्तियाँ जल जाती है तो पूरा पहाड़ और घाटी जगमगा उठती है, दूर बिखरे हुए जुगनू चमक रहे हों जैसे!
शाम को हम पुलिस बाज़ार की तरफ निकलते हैं, कोई टैक्सी वहाँ तक जाने को तैयार नहीं, हम पैदल ही निकल चलते हैं, रास्ते बुरी तरह भीड़ भरे हैं. इतनी टैक्सियाँ हैं कि चलने की जगह नहीं बची! क्रिसमस की शॉपिंग अब आख़िरी चरण पर है. लोगों की गाड़ियों पर रंग बिरंगे गुब्बारे बँधे दिख रहे हैं, औरतें सड़कों के किनारे फलों की ढेरियाँ लिए बेच रही हैं. बाँस के बने सामान, बहुतायत से हैं. हम बाँस से बनी बीयर मग और कुछ कलाकृतियाँ खरीदते हैं, किसी किताब की दुकान में घुसते हैं, मेरे साथी को एक किताब चाहिए —‘ बिकमिंग बॉर्डरलैंड’, पर वह हमें नहीं मिलती. बाहर निकलते ही बीच चौराहे पर रामशरण सिंह दिखाई पड़ते हैं, गप्पें मार रहे हैं अपने साथी ड्राइवरों से, हाथ हिलाकर अभिवादन करते हैं, सुबह की कड़वाहट अब धुल चुकी है. वापसी के लिए भी टैक्सी नहीं मिलती और हम फिर से पैदल चल रहे हैं. एक टैक्सी हाथ देने पर रुकती है, मेरे पुरुष साथी किराया तय कर रहे हैं, पर वह मेरी तरफ देख रहा है. भाषा की समस्या है. टूटी फूटी हिन्दी में कहता है — मैडम बोलेगा (किराए के लिए हाँ) तो ही चलेगा ! मेरे साथी हंसते हैं —‘ वेलकम टू अ न्यू वर्ल्ड ऑर्डर!’ अपनी ज़िंदगी में अनगिनत निर्णय मैने खुद लिए हैं पर ये ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ मुझे भा रहा है! अब वे उससे चावल से बनी शराब भी चाहते हैं! पर अब चूँकि तत्कालिक प्रभाव से ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ लागू है, उन्हें चावल की शराब नहीं मिलेगी ! ‘बहुत बदबू आता है, तुमको नहीं अच्छा लगेगा’ टैक्सी वाला कहता है!’ उसे इस ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ की आदत है !!
शिलॉंग राक कॅपिटल ऑफ द ईस्ट भी कहलाता है, पर क्रिसमस की वजह से सारे पब्स और कैफेज़ बंद हो चुके हैं, शाम हम उस पुराने बंगले में ही गुज़ारते हैं, अजीत से बातें करते हैं. अजीत तेज़पुर का है और बचपन से यहाँ काम कर रहा है. उसने प्रेम विवाह किया है और पत्नी की तस्वीर उसके पर्स में है. थोड़ी सी रम उसे अपनी प्रेम कहानी और पत्नी की याद दिला देती है. उसकी आँखों में झीनी सी तरलता है, हम विषय बदल देते हैं. बाहर जगमगाहट से भरी घाटी पुकार रही है. शाम के सिर्फ़ सात बजे हैं और दुकानें बंद हो चली हैं. पुणे में अभी दिन का उजाला होगा!
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अँग्रेज़ों ने शिलॉंग को स्कॉटलैंड ऑफ द ईस्ट का नाम यूँ ही नहीं दिया था. बीता हुआ समय जैसे ठहर सा गया है यहाँ. फूलों से भरे विक्टोरियन बंगले, गोथिक वास्तुशिल्प, सुंदर लॉन और सीढ़ियों वाले कैथेड्रल, हरा मखमली पोलो ग्राउंड, उसके आस पास कुंडली मारकर बैठी दूर से नीली नज़र आती संकरी घुमावदार ऊँची नीची सड़कें, सड़कों के बगल धुन्ध भरी गहरी खाइयाँ और किनारों पर आँखें मीचे खड़े ऊँचे पेड़, झरनों की कल कल और जंगल में हवा की सरगोशी, सुंदर अलसाई प्रकृति जैसे अभिसार के बाद अपने चेहरे से बिखरी लटे हटा रही है! दोपहर के करीब साढ़े तीन बजे हैं और शाम का धुन्धलका फैलने लगा है, हमें भूख लग आई है, पोलो ग्राउंड के सामने एक कॉफी शॉप है, जहाँ से सैंडविच और कॉफी लेती हूँ, खूबसूरत नीली आँखें, तीखे नाक नक्श, हल्के भूरे बाल, अनुष्का एक सुंदर युवती हैं जो इस कॉफी हाउस की देखभाल करती हैं. मैं उनसे बातें करती हूँ. वे नेपाल की हैं, अचंभे में पड़ जाती हूँ मैं! साफ़ हिन्दी बोलती है, पिछले कुछ ही सालों से शिलॉंग में हैं. सभ्यताएँ कब कैसे कहाँ एक दूसरे में तिरोहित और समन्वित होती हैं, इसका वे खूबसूरत उदाहरण हैं, हम जो जाति, खानदान, परिवार के नाम पर पूंछ उठाए नथुने फुलाए बैलों की तरह बर्ताव करते हैं ये सोचने की ज़ुर्रत भी नहीं करते की अब दुनिया में कोई जाति अपनी शुद्धता का दावा नहीं कर सकती. शुद्धता के बल पर सभ्यताएँ नहीं चला करतीं सभ्यताओं का विकास ही हर तरह के आपसी मेल मिलाप से हुआ है! मगर इस लड़की ने कॉफी और सैंडविच के पैसे कुछ ज़्यादा ही ले लिए, लगता है उसने बातचीत के पैसे भी जोड़ लिए! एक और उदाहरण, सभ्यताओं के मेल मिलाप का - लोग चतुर भी ज़्यादा हो जाते हैं, मैं भुनभुनाती हूँ.

 पोलो ग्राउंड के किनारे गुब्बारे बेचता एक परिवार बैठा है, दो छोटे बच्चे हैं, उनके पैरों में चप्पल नही करीब ही उनकी माँ बैठी है, अपनी भाषा से बिहार के लगते हैं, थोड़ी बातें करने की कोशिश करती हूँ, पर यह उनके काम का समय है. क्रिसमस उनके लिए बस कुछ ज़्यादा पैसे कमाने का अवसर है.



पता नहीं कितनी फिल्मों को शूटिंग हुई होगी इस पोलो ग्राउंड में, कितने पिक्चर पोस्टकार्ड्स बिके होने इस खूबसूरत जगह के पर उनमें तो ये बिना चप्पल वाले बच्चे कहीं नज़र नहीं आते!
अमीर हर शहर के अलग अलग दिख सकते हैं पर ग़रीब हर शहर एक जैसे ही दिखते हैं.

हम शिलॉंग पीक के रास्ते पर हैं, यह भारतीय वायु सेना का इलाक़ा है, अनुमति के बिना यहाँ प्रवेश वर्जित है , तो हम वापस कतार में हैं. दो बिल्कुल छोटे बच्चे अन्नानास बेच रहे हैं, मैं उन्हें मना करती हूँ तो उनमें से बड़ा बच्चा कहता है —  मुझसे मत ख़रीदो मेरी बहन छोटी है इससे खरीद लो, बगल में खड़ी छोटी बच्ची आशा भरी दृष्टि से मुझे देख रही है, मैं चुपचाप अन्नानास खरीद लेती हूँ. बच्ची मुस्कुराती हुई दूसरी टैक्सियों की ओर बढ़ जाती है. मैं नहीं जानती क्यों उसने ऐसा कहा. क्या वह एक कुशल विक्रेता की दृष्टि विकसित कर चुका था जिसे मालूम था कि लोग उसकी छोटी बहन की सूरत देखकर पिघल जाएँगे या फिर वह कोई ऐसा भाई था जिसे अपनी बहन की आँखों में खुशी देखनी थी, जो भी था वह अपनी उम्र के उस दोराहे पर खड़ा था जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं….।

मेरी यादों में, एक छोटा सा भाई अपनी और छोटी सी बहन को खुश देखना चाहता था, यह अंकित हो गया
इतने मीठे अन्नानास मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार खाए..
शिलॉंग पीक समुद्र तल से करीव 1965 मीटर ऊँचा है, हरे जंगलों के बीच. उन पहाड़ी रास्तों के सभी ड्राइवर एक दूसरे को पहचानते हैं और ड्राइव करते करते एक दूसरे का अभिवादन करते चलते हैं, यह ज़रूरी भी है! पता नहीं कौन सी टॅक्सी कब कहाँ बंद पड़ जाए, करीब करीब सारी टैक्सियाँ ख़स्ता हाल दिखती हैं.

शिलॉंग पीक के तुरंत पहले हमें रोक दिया जाता है, सेना का अभ्यास जारी है और गोलीबारी की आवाज़ें सुनाई दे रहीं हैं. करीब १५ मिनट की गोलीबारी सुनने के बाद हम शिलॉंग पीक पर हैं.

चीन से सुरक्षा के मद्देनज़र ईस्टर्न एयर कमांड का मुख्यालय सन १९५८ में कोलकाता से शिलॉंग कर दिया गया. उत्तर पूर्व की ९९% सीमाएँ म्यांमार, बांग्लादेश, चीन और तिब्बत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से जुड़ी हुई हैं, ऐसी स्थिति में सरकारों के लिए सुरक्षा ही मुख्य रही, राज्यों के विकास का मुद्दा हमेशा से दूसरी जगह पर क़ाबिज़ रहा. १९५० में शुरू हुई नागा विद्रोह की समस्या अब तक सुलझ नहीं पाई है और दुनिया की सबसे पुरानी समस्या बन चुकी है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो इन समस्याओं का मूल कबीलों, जनजातियों के उदगम, भाषाई और सांस्कृतिक विविधता से भी उतना ही जुड़ा हुआ है जितना सरकारों के ढीले ढाले रवैये और मुख्य भूमि से कटे होने की वजह से . वैसे देखें तो सीमाओं के झगड़े पूरे एशिया की राजनीति का हिस्सा हैं. आठ राज्य जो अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म और जातीयता में एक दूसरे से भिन्न हैं उन्हें ‘उत्तर पूर्व’ का तमगा लगा देना उनकी समस्याओं और विकास को एक ही मुद्दा मान लेना साथ न्यायसंगत नहीं. इन कबीलों, जनजातियों मे से कुछ का उद्गम मंगोल है और कुछ का तिब्बत्‌/ बर्मीज, जो कि क्रमशः मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया की जातियाँ है, इनमें उतनी ही विविधता है जितना एक बंगाली और पंजाबी में हो सकती है.

आस पास दुकाने हैं, चाय की, खाने पीने की, कलाकृतियों की, कपड़ों की. सारी की सारी कलाकृतियाँ मेड इन चाइना लगती हैं, कपड़े भी ! खाने पीने की दुकानों में पकोडे, कॉर्न चाट , समोसे, भुने हुए मटर, मूँगफलियाँ , सिर्फ़ ज़बान और पेट हिन्दुस्तानी है ! हम किसी चाय की दुकान में घुसते हैं —
‘बोलो मैडम क्या लेगा’
मैं कहती हूँ —'अच्छी सी चाय पिला दीजिए’ और सामने पड़ी बेच पर बैठ जाती हूँ.
‘आपका नाम क्या है?
“ मेरा नाम? मेरा नाम जीना है मैडम, जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ !”
वे बड़े खूबसूरत अंदाज़ में कहती हैं - और खिलखिला उठती हैं! उनकी हँसी में सहजता है. आस पास खड़े लोग भी हँसने लगते हैं, चाय का स्वाद बढ़ जाता है और हम उनकी हँसी रिकॉर्ड कर लेते हैं. अब तो मैं पकोडे भी खाने वाली हूँ. वे मुझे दुकान के अंदर ले जाती हैं, दुकान के भीतर उनकी माँ और भाभी मदद के लिए हैं. मैं पूछती हूँ आपके पति कहाँ? वे बताती हैं वे कहीं और काम करते हैं, एक बेटी है जो फर्स्ट ईयर में पढ़ रही है, अँग्रेज़ी साहित्य! एक प्यारी सी लड़की उनके फोन की स्क्रीन में मुस्कुरा रही हैं. वे जानती हैं, बाहर से आने वाले लोग उनके मातृसत्तात्मक समाज का ढाँचा बड़े कौतूहल से देखते हैं इसलिए सफाई देती हैं — हमारे यहाँ सारा काम मर्द और औरत मिल जुलकर करते हैं, पर औरतें पैसे का हिसाब किताब रखती हैं और घर उनका होता है. शादी के बाद मर्द अपनी पत्नी के घर आता है. कितनी सरलता से उन्होने सत्ता को परिभाषित कर दिया ! पहले दिन हमने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी देखा था.

जीना से विदा लेकर हम दूसरी दुकानों का रुख़ करते हैं, एक बहुत ही प्यारी सी लड़की चुपचाप अपनी कलाकृतियों वाली दुकान पर खड़ी है, वासु की लीं, यही नाम है उनका. वे जयंतिया जनजाति की हैं, ऐसा कहती है. जीना जितनी ही मुखर हैं, ये उतनी ही शर्मीली हैं, पर मीठी हैं. कुछ खरीदने का ज़ोर भी नहीं डाल रहीं. दुकान के अंदर बिजली नहीं, ठंड की वजह से अपनी उस छोटी सी दुकान में एक अंगीठी सुलगा रहीं है उन्होने. मैं उनसे चीज़ों के दाम पूछती हूँ, वे एक स्टोल निकालकर देती हैं मुझे, कहती हैं तुम ले लो ये, स्टोल बढ़िया है. अचानक पूछती हैं आप कहाँ से आए हो? मैं कहती हूँ अंदाज़ा लगाओं, वे कहती हैं — आप दिल्ली से नहीं आए हो इतना कह सकती हूँ. वे कारण बताती हैं, धीरे से —’ उनकी नज़र अच्छी नहीं होती..’ मैं हक्की बक्की रह जाती हूँ. उन्होने भी दिल्ली में उत्तर पूर्व के छात्रों से होने वाली बदतमीज़ी की तमाम कहानियाँ सुन रखी हैं. सुन रहे हो दिल्ली वालों! उन्हें दिलासा देने की कोशिश करती हूँ — ‘ऐसा नहीं, हर जगह अच्छे बुरे लोग होते हैं’. उनकी दुकान से मैं तमाम कलाकृतियाँ, मित्रों को देने के लिए उपहार खरीद लेती हूँ. उनकी एक प्यारी सी तस्वीर लेती हूँ, वे बिना ना नुकुर के तस्वीर के लिए तैयार हो जाती हैं. कितनी भिन्नता है जीना और वासु की लीं में ! एक दूसरे के बगल हैं उनकी दुकानें... जीना मुखर है, चंचल हैं आत्मविश्वासी हैं. वे ख़ासी हैं और वहीं वासु की लीं जो मंगोल ज़्यादा लगती हैं तिब्बत बरमीज़ कम. वे अंतर्मुखी और शर्मीली हैं. क्या लोगों की ही तरह जातियों /जनजातियों के भी स्वभाव नहीं होते?

डाउन सिंड्रोंम वाले बच्चो को हम अब भी मोंगोलॉइड ही पुकारते हैं, क्यों भला? यही सरकारों की और अपनी श्रेष्ठता के घमंड में सिर ऊँचा किए मुख्य भूमि की मानसिकता है.
इतिहास में ग़लतियाँ नहीं होतीं, प्रकृति की तरह भी इतिहास में कारण और परिणाम होते हैं. कारण और परिणाम के बीच के सफ़र में की गई राजनीतिक भूलें इसे और पेचीदा बना देती हैं. कश्मीर और उत्तर पूर्व की वर्तमान स्थितियाँ इसकी गवाह हैं.

हम शिलॉंग पीक की ओर बढ़ जाते हैं.शिलॉंग पीक की ऊँचाई से घाटी के घर जैसे छोटे छोटे रंगीन माचिस के डिब्बे एक दूसरे की बगल बैठे कोई साजिश रच रहे हों और बादल उनकी रखवाली करते, कभी कभी बिल्कुल करीब जाकर कान लगाए उनकी फुसफुसाहट सुनते. घाटी को गोद में बिखरा एक शहर, इस एक शहर में न जाने कितने घर और उन घरों में जाने कितने लोग, अपने भीतर पूरी की पूरी दुनिया समेटे ….बूँद से समुद्र और फिर समुद्र से बूँद !
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शिलॉंग पीक से वापस आते हुए ईस्टर्न एयर कमांड का संग्रहालय है रास्ते में. बांग्लादेश की लड़ाई में उपयोग किए गए कई विमान वहाँ सुरक्षित है. शेख मुज़िबुरर्रहमान को बचाने के लिए जिस विमान का उपयोग किया गया वह भी वहाँ है. इतिहास यहाँ मशीनों, कल पुर्जों, नामों और वर्दियों की शक्ल में दर्ज़ है. संग्रहालय के बाहर सीधी लंबी सड़क है, पेड़ों ने उस सड़क को अपनी बाहों में समेट रखा है, ये सड़क अनंत की ओर क्यों नहीं जाती !

किसी खुली जगह पर बहुत सारे धुले कपड़े सूख रहे हैं, पिछली रात बारिश हुई थी और पिछली शाम भी ये कपड़े ऐसे ही सूख रहे थे. कोई स्कूल है छोटा सा, उसकी बगल. एक छोटे से पुल से गुज़रते हुए हम शहर में वापस प्रवेश कर रहे हैं. वहाँ खड़ी है वह. एक उदास औरत… कपड़े गंदे हैं और पैरों में चप्पल है टूटी हुई सी, ऐसा लगता है वह हमेशा यहीं खड़ी रहती है…वह पुल उसकी उपस्थिति के साथ दर्ज़ हो गया मेरे भीतर… उस शहर में जहाँ औरतें सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, एक अकेली उदास औरत सूनी आँखों से पता नहीं किधर देखती चुपचाप खड़ी है.

उदासी का अपना ही चरित्र होता है, अपनी ही राह होती है. कब कहाँ चुपके से राह बना ले कोई नहीं जानता..मैं उस पुल पर रुकना चाहती हूँ पर ट्रॅफिक का शोर है पीछे, हम आगे बढ़ जाते हैं.
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रात के समय अचानक नींद खुल जाती है और मुझे समझ नहीं आता मैं कहाँ हूँ.. किसी ऊँची जगह पर हूँ ऐसी अनुभूति क्यों हो रही है? म्यांमार,चीन, तिब्बत और बांग्लादेश की सीमा से बस थोड़ी ही दूर जीवन अगर समाप्त हो जाए तो क्या? मैं उन जगहों पर कभी नहीं गई और ये अब थोड़ी ही दूर हैं. उन अनजान देशों में भी क्या कोई जाग रहा है मेरी तरह, बिना किसी कारण? अपनी यात्रा का औचित्य ढूँढ रहा है? अनजानी जगहों में जुड़ाव और कोमलता ढूँढ रहा है? अंजाने लोगों के बीच संवेदना के कोमल तंतुओं को टटोल रहा है? कोई तो होगा ….कई होंगे ! मुझे कामाख्या मंदिर के बाहर बैठे वे तीनों याद आते हैं और याद आता है उनका गीत, पता नहीं क्यों ! ये कौन सा जादू है जो बीच रात मेरे सर चढ़कर बोल रहा है ! यहाँ से तिब्बत की दूरी मात्र ५००-६०० किलो मीटर के बीच है, कोई पुकारता है मुझे — तिब्बत आओ, भीतर से कोई कहता है तिब्बत जाओ और मैं यहाँ शिलॉंग में फूलों से भरे एक बंगले के किसी कमरे में पड़ी सब कुछ सिर्फ़ महसूस कर रही हूँ…. अज्ञात का आकर्षण, नए रास्तों को तरफ उठते पाँव, नई यात्राएँ और नया जीवन!

कल सुबह मैं छोड़ दूँगी यह कमरा, फूलों से भरा यह बंगला, जो दो रातों की शरणस्थली था, जहाँ मैं शाम को लौट पूरे दिन का लेखा जोखा अपनी डायरी के पन्नों के हवाले कर निश्चिंत हो जाती हूँ. इस कमरे की दीवारें सजीव हैं, कहीं कोई धब्बा, दीवार पर बने कुर्सियों के निशान, कोने में रखा रूम हीटर, दरवाज़े के सामने रखी डोर मैट, ये सब मेरी स्मृतियों में सुरक्षित रहेंगे, यह चित्र मेरे मानस में सजीव रहेगा.
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हर शहर का अपना एक चरित्र होता ठीक उसमें रहने वाले लोगों की तरह. शहर भी लोगों को उतना ही बनाता है जितना लोग उस शहर को. मानब, झिलमिल, काकोली, धनंजय, रामशरण, अनुष्का,जीना, वासु की लीं जैसे लोग उन शहरों के संगीत को रोज़ लिपिबद्ध करते हैं, उसे चरित्र में ढालते हैं. जीवन का संगीत निरंतन नए सुरों में उभरता है, गुम होता है, फिर से उभरता है, एक सिंफनी हैं जो लगातार बजती है, कोई उसे दर्ज़ नहीं करता ठीक इन लोगों की तरह! उसी तरह ये लोग भी किसी किताब में दर्ज़ नहीं होंगे, मेरी स्मृति कोई किताब नहीं शायद इसलिए दर्ज़ हो गए और हमेशा उसमें बने रहेंगे. एक नए शहर और प्रदेश में इन लोगों ने मुझे अहसास कराया कि शहर सिर्फ़ इमारतें, सड़कें, पुल और मॉल नहीं होते, न ये लंबी खूबसूरत ओवर ब्रिजेस और मेट्रो होते हैं. शहर ज़िंदा होते हैं. उनकी धमनियों में इंसानी सपने दौड़ते हैं, सुख दुख दौड़ता है, आशाएं, निराशाएं, हर्ष विषाद, वासना, कमज़ोरियाँ, अकेलापन, साहचर्य, घर गृहस्थी, नौकरियाँ, धंधे, बनना, संवरना उजड़ना और फिर से बसने की जद्दोजहद दौड़ती है.
क्रिसमस की चमक दमक और उल्लास के बीच पुल पर खड़ी वह अकेली उदास औरत जिसके कपड़े फटे हुए थे, या फिर दूसरे दिन शिलॉंग छोड़ते समय पिछली गलियों में उतनी ठंड में फूटपाथ पर कचरे के बगल सोया वह इंसान, शिलॉंग शहर के खुशनुमा संगीत के बैकग्राऊंड में एक उदास धुन की तरह उभरते हैं. ये सब भी इंटें हैं जिसपर शहरों की बुलंद इमारतें खड़ी हुआ करती हैं, बस एक कमी रह जाती है — शहर ने इन्हें चूस कर हाशिए में फेक दिया है अब इनके पास सपनों की पूंजी नहीं , ये सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद से परे जा चुके हैं, पर उस शहर का कैनवास और मेरी स्मृतियाँ इनके बिना अधूरी हैं.
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इंदिरा गाँधी इंटरनेशनल हवाई अड्डा छुट्टियों की गहमा गहमी से गूँज रहा है. लोग आ जा रहे हैं. परिवार के साथ, कुछ अकेले भी, बड़ी संख्या नौजवानों की है. सब अपने में मस्त हैं और मेरी थकावट सिर चढ़कर बोल रही है. फ्लाइट में पाँच घंटे का अंतराल है, सेक्यूरिटी चेक कर लिया है सो बाहर भी नहीं जा सकते.


पीछे वाली टेबल पर एक सिंधी परिवार बैठा है जिसमें तीन बच्चे हैं और उनका पिता अँग्रेज़ी बोलने की बीमारी से ग्रस्त लगता है या फिर आस पास की भीड़ का दबाव उसे ऐसा करने पर मज़बूर कर रहा है. बहरहाल, बच्चे परेशान हैं और जैसे ही शिकायत की भाषा में कुछ कहना शुरू करते हैं, पिता अँग्रेज़ी में उन्हें कायदा सिखाने लगता है और माँ उनके मूँह में कुछ ठूंस देती है और बच्चे खामोश हो जाते हैं. बच्चे १०-१२ की उम्र के हैं. और मेरे देखते देखते नमकीन के तीन पैकेट चट कर चुके हैं. उनमें से एक बच्ची का नाम मलायका है. मेरी बगल में बैठे सहयात्री कहते हैं — ‘ बच्चों को इतना नमकीन खिलाएगा तो नाम चाहे जो भी रख लो, बच्ची बाद में तो रोमा मनसुखानी ही निकलेगी ! मलायका नाम रखने से थोड़ी न कुछ होता है ‘. हम थोड़ी देर एक दूसरे को देखते हैं फिर मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाती. थकावट थोड़ी कम हो जाती है. हम भारतीय आतिथ्य और प्रेम प्रदर्शन पर वाद विवाद करते हैं और वह परिवार अँग्रेज़ी बोलता, नमकीन ख़ाता उठकर अपनी फ़्लाइट के लिए चला जाता है.

औरतें काफ़ी संख्या में हैं. हर उम्र की औरतें. हर तरह की पृष्ठभूमि से. कुछ बड़े आत्मविश्वास से भरी, अकेली यात्रा करती हुई, कुछ परिवारों के साथ,छोटे बच्चे और बुज़ुर्गों के साथ. एक बात साफ़ नज़र आती है, मध्यम वर्गीय भारतीय औरतें बदल रही हैं, भीतर से या नहीं ये तो समय बताएगा पर वे बाहरी तौर पर काफ़ी बदल रही हैं, कुछ बदलाव बड़े अच्छे हैं, ज़्यादा आत्मविश्वास दिखता हैं उनमें. उनका पहनावा बदल गया है, पर फिर भी यह सॉफ नज़र आता है कि औसत भारतीय स्त्री का संक्रमण काल अभी चल ही रहा है, अधिकतर घरेलू औरतों के पहनावे और मेक अप में टीवी और फिल्मों का सॉफ असर दिखता है. ज़रूरत से ज़्यादा आभूषण भी दिखते हैं उनके शरीरों पर. नकली पना और बनावट हमारे सामाजिक ढाँचे का अहम हिस्सा है और औरतें उससे ज़्यादा प्रभावित होती हैं हमेशा से. वातावरण और पितृसत्ता उन्हें सहज होने नहीं देतीं. सुंदरता की अजीबोगरीब परिभाषाएं बना रखी हैं हमने. सुंदरता का सबसे पहला संबंध स्वास्थ्य से है इसे हम याद नहीं रखना चाहते. आभासी दुनिया की वे स्वस्थ और मुखर औरतें मुझे याद आती हैं . क्या ये औरतें भी उतनी ही मुखर, संवेदनशील और अपने अधिकारों के प्रति भी उतनी ही जागरूक हैं ? क्या ये औरतें उतनी ही बदल गई हैं जितना सोशल मीडिया और इश्तहारों में दिखाई देती हैं?
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अचानक डोसे की प्लेट लिए बगल से गुज़रता कोई रुक जाता है और पूछता है — ‘केन आइ सिट हियर’, देखती हूँ तो गुवाहाटी से दिल्ली तक की यात्रा के किसी सहयात्री को पाती हूँ. मुझसे पूछकर कर्नल साईकिया मेरी बगल बैठ जाते हैं, और डोसे पर हमला बोल देते हैं. मुझे असमिया समझ कर मेरी बगल बैठे हैं और असमिया में कुछ कहते हैं. मेरे कहने पर कि मैं असमिया नहीं, तुरंत विश्वास नहीं करते और इस तरह बात चीत शुरू होती है.

कर्नल साईकिया दो साल पहले सेवानिवृत्त हुए हैं, राजनीति में रूचि रखते हैं. किसी राजनीतिक पार्टी से चुनाव लड़ने का इरादा भी है. गुवाहाटी और हैदराबाद के बीच हर महीने सफ़र करते हैं. बच्चे चूँकि हैदराबाद में हैं इसलिए पत्नी अक्सर वहीं रहती हैं. कर्नल साहब की गुवाहाटी दो ही चीज़ें ले जाती हैं — एक, उनका नया घर, दूसरी उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा. जब तक वे डोसे के साथ न्याय कर रहे हैं मेरा ध्यान उनकी बैग की तरफ जाता है जिससे कुछ हरी पत्तियाँ बाहर झाँक रही हैं. पूछने पर बताते हैं ये कोई विशेष हरी साग है जो हैदराबाद में नहीं मिलती इसलिए कर्नल थोड़ा आसाम सुदूर दक्षिण में बैठी अपनी पत्नी के लिए जा रहे हैं! सोचती हूँ, मैं भी तो थोड़ा आसाम अपने दिल में लिए जा रही हूँ, कहीं रोप दूँगी उस आसाम को जिसकी हरियाली ने, जंगलों, पहाड़ों, संगीत और लोगों ने मुझे समृद्ध किया. मैं जानती हूँ  यह मेरी आख़िरी उत्तर पूर्व यात्रा नहीं है, बचपन में सुना था आसाम में काला जादू है, सही था, जादू तो है, पूरे उत्तर पूर्व में जादू है जो हमेशा मेरे सर चढ़कर बोलेगा.

प्लेन की बत्तियाँ अब धीमी कर दी गईं हैं, सहयात्री सो रहे हैं, मेरी आँखों में नींद नहीं. बाहर अंधेरे को देखती चुपचाप बैठी हूँ, कितने ही बिंब उभरते मिटते हैं, सारी मुस्कुराहटें, आवाज़ें, स्पर्श जो पीछे छोड़ आई, मेरे भीतर जिंदा हो गई हैं. दिल और बैग दोनो भारी हैं. थोड़ी देर बाद मैं किसी और शहर की सड़कों पर होऊँगी, ये सड़कें मेरी जानी पहचानी हैं, ये शहर मेरा जाना पहचाना है, उसके दिन और उसकी शामें मेरी परिचित हैं, कुछ नया नहीं पर अब उस शहर को मैं शायद नए सिरे से तलाशुंगी, मुझे पता है, वहाँ भी कई मानब हैं, जीना हैं, रामशरण और धनंजय हैं…

सबसे सुंदर कहानियाँ उन रास्तों पर घटती हैं, जिनपर हम पहले कभी चले ही नहीं, मंज़िलें तो उन यात्राओं का पड़ाव भर होती हैं.. जहाँ रुककर हम उन कहानियों को लगातार नए नए रूपों में घटता हुआ देखते हैं…अपने भीतर.. और इस तरह कोई यात्रा कभी पूरी ख़त्म नहीं होती…
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यात्रा डायरी की पहली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए।
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_95.html?m=1



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