image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अगस्त, 2018

परखः बारह

पैरों में घूम रही थी धरती!


गणेश गनी


इन दिनों फ़लों को जल्दी पकाने के रसायन बाज़ार में उपलब्ध हैं। परन्तु फलों की प्राकृतिक मिठास तो उन्हें पकने का जो तय समय है, उसी में आ पाएगी। जिन लोगों को कविता की जल्दी भी है और यह चाहत भी है कि कविता बेहतर ही निकल आए तो यह असम्भव जैसा है। कविता में मिठास भी कविता को फल जैसे पकने का भरपूर समय देने के बाद ही आ पाएगी। जब पेड़ों पर फूल फल बन जाते हैं, तो बागवान उनके पकने के इंतज़ार करता है और उसका मन हमेशा बाग में फलों के साथ रहता है। ऋतु त्यागी इस बात पर भरोसा करती हैं-

मैं रविवार को लिखूँगीं एक कविता
और सप्ताह के सात दिन उसमें रहूँगीं

मेरी कविता में होगा एक कछुआ
जिसकी पीठ पर बैठकर
मैं पढ़ूंगी

अपनी उड़ती हँसी को
मैं फँसा लूँगी मंगलवार की सुबह

मेरी कविता टूटती रूह में लगा देगी एक गांठ

और
यह सब  तब घटेगा
जब मैं पी रही हूंगी एक कप चाय
अपने घर की बाल्कनी में
मेरे कानों में बज रहा होगा सूफ़ी संगीत
और वह दिन सप्ताह का आख़िरी दिन होगा।

ऋतु त्यागी की यह कविता बहुत कुछ कहती है कविता के बारे। कवयित्री जानती है कि कविता को फल जैसा मीठा होने के लिए पूरा समय चाहिए। आज के दौर में और पहले भी हिंदी साहित्य में ऐसा बहुत देखने को मिलता है कि कवि औरों की पांच कविताएं पढ़कर छठी कविता अपनी बना डालता है। इसलिये कविताओं में दोहराव आम बात है। ऋतु त्यागी की यह कविता पढ़कर सोचें कि अक्षर दबे पांव चुपके से खिसकने क्यों लगे हैं-

मैं क्लास में सबसे पीछे की
सीट पर बैठकर
ब्लैकबोर्ड पर गढ़ता हूँ अपना भविष्य
बस्ते से सरकाता हूँ क़िताब
कि अचानक
मेरे बगल में लगी खिड़की से
झाँकता है इतिहास
और मेरी क़िताब के अक्षर
अपने दोहराये जाने के डर से
दरवाज़े से दबे पाँव निकल जाते हैं।

किताबें बहुत हैं, प्रवचन बहुतेरे हैं और नैतिकता के नारों से दीवारें भरी पड़ी हैं। फिर भी झूठ और फ़रेब साया बनकर पीछा करता रहता। एक कवयित्री कहती है-

जब हम
क़िताबों में
पढ़ रहें होंगे
सच के क़िस्से
तब झूठ
हमारी बगल में
खड़ा होकर
हमारे कंधों को
दबा रहा होगा।

ऋतु त्यागी ने ठीक कहा है कि लड़ना सच में बिल्कुल बुरा नहीं होता, यादि इसमें बैर भाव नहीं है, दुःख नहीं है, पश्चाताप नहीं है और केवल प्रेम है-

लड़ना सच में बिल्कुल बुरा नहीं होता
अगर उसमें गाँठों के पुल नहीं होते
संधियों की विवशता के लंबे प्रलाप नहीं होते।
बस होतें हैं तो कुछ नर्म से लम्हें
जैसे तमतमाते सूरज के गालों पर
बादल के किसी सफ़ेद टुकड़े का चूमना
किसी खटपटाती दोपहर में गर्म हथेलियों का
हवा की तरह ढुलककर कंधे को सहला जाना।
छूटने और छोड़ने की छटपटाहट के बीच
मिलने की उत्कंठा का शेष बचना
एक दूसरे का हाथ थाम कर
बूढ़े होने तक के सपनों का साथ-साथ देखना
यदि स्थगित नहीं होता
तो मान लेना चाहिए
कि लड़ना बुरा नहीं होता।

यह कड़वा सच है कि आज भी लड़के और लड़की की परवरिश में अंतर रहता है। चाहे हम कितने भी आधुनिक क्यों न बन जाएं, फिर भी सामाजिक मूल्यों और वातावरण के आगे बेबस हैं-

मां जैसी होती है बेटी
नहीं होती तो हो जाती
उम्र के चालीसवें पायदान पर

बचपन में पिता की गोद में
किलकारियों के वेद पढ़ती
एक दिन  माँ के साथ
फुसफुसाने लगती है दर्द की ऋचाएँ
मकड़ी के जाले में अटका लेती है नज़र
और अटककर अटकी रह जाती है वहीं

वह भी मां की पुरानी देह के
लौटने का करती है इंतजार
क्योंकि वहां उसका बचपन
अपने फ्रॉक के घेरे में
समेट रहा होता है
इच्छाओं के शंख

पर देह वक़्त की सड़क पर
कहीं दूर निकल जाती है।

बहुत लंबा समय बीत गया है, किसी ने कोई सपना नहीं सुनाया। शायद सपने अब आते ही नहीं होंगे। सपनें क्या नींद भी कौन सी आती होगी। एक दिन जब उसे गहरी नींद आई होगी तो उस रात एक सपना देखा, उस सपने को ऋतु ने शब्दों में उकेरा-

बच्चे खोज रहे थे
लापता नदियों के रास्ते
गुम हो गये पहाड़ों के पते
उनकी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में घूम रही थी धरती।



अक्सर जब नींद नहीं आती होगी तो वो सड़कों पर घूमता रहता रात रात भर। समय की तो अपनी गति है, वो समय से आगे निकलना चाहता होगा। कवयित्री ऋतु त्यागी इस बात पर सतर्क रहती है कि ऐसे वक्त हम अपने मस्तिष्क में किसी को जहरीले बीज न बोने दें-

निश्चित ही ऐसा होना चाहिए
कि जब आप अँधेरी सड़क पर निकले
तो रात की बरसती स्याही को
आप हौले से चूम ले
न कि भय के उतावलेपन से
सड़क की लंबाई को
क़दमों की चौड़ाई से काटकर पार हो जायें ।
निश्चित ही ऐसा होना चाहिए कि आपके जीवन को संचालित करने के लिए
उठें ना सैकड़ों उँगलियाँ
और आपके मस्तिष्क की शिला पर
वर्जनाओं द्वारा कभी न लिखा जाये कोई लेख ।
निश्चित ही ऐसा होना चाहिए
कि आप अपनी उच्छृंखलता की भभकती आँच पर डाल दे थोड़ी मिट्टी
क्योंकि कितने ही व्यक्तित्व को जलाने का औचित्य इसके पास हमेशा मौजूद होता है।
निश्चित ही ऐसा होना चाहिए
कि कभी ना सौंपी जाये
ऐसे संवेदनहीन लोगों के हाथ में कमान
जो अपने हर अनुचित कृत्य को
सिद्ध करने के लिए लुभावने मुखौटों के साथ
हमारे मस्तिष्क में रोप दें कुछ जहरीले बीज।

एक रात  घूमते घूमते ही आंखों में कट गई। सुबह हो रही है या शाम ढल रही है, उसे कुछ याद ही नहीं रहा। एक सफेद धारियों वाली काली चिड़िया ने उसके कान में कहा, देखो भोर हो गई है, अब घर जाओ। दूर कहीं पृथ्वी के एक बिंदु पर एक कवयित्री एक अद्भुत दृश्य देखती है-

अपने दो पाँवों पर खड़े होकर
उसने हवा में हाथ उठा दिये
हवा ने कछुए की तरह
उसे अपनी पीठ पर लाद लिया।
००

परखः ग्यारह नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/90-90-httpsbizooka2009.html?m=1




एदुआर्दो गालेआनो के क़िस्से: तीसरी कड़ी नीचे लिंक पर सनिए


https://youtu.be/6G5Kk16yq0k

1 टिप्पणी: