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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अगस्त, 2018

मैं क्यों लिखता हूं


शोर के बीच एक आवाज़ ढूँढता हूँ 


विवेक मिश्र

    


फिर-फिर रीतता हूँ, फिर-फिर भर आता हूँ। रीतने के लिए लिखता हूँ, या रिक्त हूँ इसलिए कहानियाँ बे रोक-टोक बही आती हैं, कह नहीं सकता। पर एक बार जब ये कहानियाँ मेरे भीतर प्रवेश करती हैं तो लगता है कि यह सब मेरे अपने ही जीवन की कहानियाँ हैं। शायद मन के गहरे कुंए के भीतर ही कहीं कुछ ऐसा है जिससे कोई घटना, कोई व्यक्ति, कोई परिस्थिति ऐसे पकड़ लेती है कि उससे छूट पाना मुश्किल हो जाता है। लगता है उससे कोई पुराना रिश्ता है। दिल-दिमाग़ उसके भीतर से कुछ ढूँढकर शायद अपने ही अधूरेपन को पूरा करने की कोशिश करने लगता है।

विवेक मिश्र


   ……और यह आज से नहीं है, ऐसा तब से है जब मैं नहीं जानता था कि मैं कभी कहानियाँ भी लिखूंगा। मैं बचपन में मीलों-मील फैले निचाट ऊसर मैदानों में, जहाँ इंसान और पेड़-पौधे तो क्या उनके साबुत कंकाल तक नहीं होते थे, अकेले छूट जाने के सपने देखता था। उस मैदान का भयावह सन्नाटा और उससे उपजा भय अभी भी मेरे भीतर बैठा है। उस सपने से बाहर निकलने के लिए मैं बहुत ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता था। बहुत देर बाद मेरी गुहार सुनकर जवाब में जो आवाज़ आती थी, उसमें तनिक भी दिव्यता नहीं थी। वह एक स्त्री की आवाज़ थी। बहुत साधारण-सी। कहती थी, 'तुम जल्दी ही इस स्वप्न से मुक्त हो जाओगे। जब तुम इस मैदान को पार कर लोगे, तो मैं तुम्हें सामने खड़ी मिलूंगी, फिर मैं तुम्हें इस भयावह स्वप्न में जहाँ तुम नितान्त अकेले होते हो, वापस नहीं जाने दूंगी।' फिर मैं बेतहाशा भागते हुए उस मैदान को पार करने की कोशिश करता था। न वह मैदान कभी ख़त्म हुआ, न मेरी उसे पार करने की कोशिश। हाँ, अब उस स्त्री की आवाज़ सुनाई नहीं देती। मैं अक्सर लोगों की भीड़ में उस आवाज़ को ढूँढता हूँ। हर आवाज़ को उसी आवाज़ से मिलाकर देखता हूँ। कई बार लगता है, 'हाँ, यह वही है' पर फिर भरम टूट जाता है।

   बचपन के उस सपने ने मेरे भीतर एक कभी न भरी जा सकने वाली रिक्तता पैदा कर दी। मुझे लगता है कि यह रिक्तता, यह अधूरापन किसी में कम, किसी में ज्यादा हम सभी में होता है।… और हम सारी ज़िन्दगी उसी को भरने की कोशिश में लगे रहते हैं। यह रिक्तता, यह खालीपन खासतौर से उस आदमी में जो इसे किसी पूर्व प्रस्तुत चीज से नहीं, बल्कि अपने ही रचे-सृजे, देखे-समझे, अनुभूत किए से भरना चाहता है, जो भौतिक धरातल पर खड़ा होकर, वर्तमान में अपनी आँख से इस दुनिया को जितना देख पाता है, उससे कहीं ज्यादा उसे देखना चाहता है- जो अभी तक अनदेखा है, अव्यक्त है, इस सफ़र को और भी मुश्किल बना देते हैं। जहाँ-जहाँ वह सशरीर उपस्थित हो सकता है, वहाँ जाता है, भटकता है, स्पर्श करता है, अनुभव करता है, सोखता है, पर कई बार अपनी आँख, अपना स्पर्श, अपना अनुभव- उस रिक्तता को भरने के लिए कम पड़ जाता है।। एक समय बाद ख़ुद की योग्यता तुच्छ जान पड़ती है। ख़ुद का साहस लघु दीखता है, तब दूसरों के मन के भीतर, उनके जीवन के भीतर झांकना होता है, उन्हें टटोलना, खंगालना होता है, पर जब उससे भी वह प्यास नहीं बुझती, वह रिक्तता नहीं मिटती, तब कल्पना में एक अलग जीवन गढ़ा जाने लगता है, पर कल्पना भी अथाह नहीं, अनन्त नहीं, वह भी एक सीमा के बाद चुकने, टूटने और खण्डित होने लगती है। ऐसी स्थिति ही एक रचनाकार के लिए सबसे कठिन और असह्य होती है। इससे निकलने का एक अजीबोगरीब रास्ता जो मुझे दिखाई देता है, वह है-एक आदमी कोई एक जीवन जीते हुए, उसे देखते हुए, एक और जीवन जीने लगता है। जैसे एक धुरि हो और दूसरा उसके चारों ओर घूमता पहिया। हालाँकि यह आसान नहीं, पर एक रचनाकार के लिए मुश्किल भी नहीं। क्योंकि भीतर की रिक्तता को भरने की कचोट इतनी असहय है, जो उसे जीवन में किसी करवट चैन नहीं लेने देती। इस रिक्तता को भरने की सतत कोशिश से ही कोई नया अनुसंधान संभव हो सकता है, पर वह कुछ बना ही दे आवश्यक नहीं, वह बना हुआ मिटा भी सकता है। अपने भीतर की इस रिक्तता को जानने-समझने-महसूस करने में, इस खाली जगह को भरने में मेरा जितना बना है, उससे ज्यादा मिटा है। कई बनी हुई धारणाएं टूटी हैं, कई मान्यताएं, स्थापनाएं ध्वस्त हुई हैं, कई रिश्तों का स्वरूप बदला है। मेरी इससे पहले की कहानियाँ अपने और अपने आस-पास बीतते समय के अनुभव के गिर्द, यथार्थ को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानियाँ हैं। पर यथार्थ के इस आग्रह ने कई स्थानों पर, सच के भीतर के सच के ऊपर एक पर्दा डाल दिया था। अब इससे आगे की कहानियों में मैंने उस पर्दे के पार देखने के लिए, सच के भीतर के सच को जानने और उजागर करने के लिए, आँखें बंदकर ली हैं और मेरा यक़ीन मानिए अब मैं बिलकुल साफ़-साफ़ देख पा रहा हूँ। जो बहुत दूर दिखाई देता था, पहुँच से बाहर था, अब मेरी जद में है, पर अभी भी उसके सत्य होने, या न होने का संशय बना हुआ है। और इस संशय से बाहर आने का कोई रास्ता नहीं दिखता, बस समझिए कि इसी संशय की कहानियाँ लिख रहा हूँ। या कहूँ कि बचपन के उस सपने में दूर तक फैले मैदान को पार करने की कोशिश कर कर रहा हूँ।
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परिचय

विवेक मिश्र

  
15 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश के झांसी शहर मेंजन्म. विज्ञान में स्नातकदन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेषशिक्षापत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर. तीनकहानी संग्रह- ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’-शिल्पायन, ‘पार उतरना धीरे से-सामायिक प्रकाशन एवं ‘ गंगा तुमबहती हो क्यूँ?’किताबघर प्रकाशन तथा उपन्यासडॉमनिक की वापसी’ किताबघर प्रकाशनदिल्ली सेप्रकाशित. 'Light through a labyrinth' शीर्षकसे कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप,कोलकाता से तथा पहले संग्रह की कहानियों का बंगलाअनुवाद डाना पब्लिकेशनकोलकाता से तथा बाद के दो संग्रहों की चुनी हुई कहानियों का बंग्ला अनुवाद  भाषालिपि, कोलकाता से प्रकाशित.
  
लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं कहानियाँ प्रकाशित. कुछ कहानियाँ संपादित संग्रहों स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल. साठ से अधिकवृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. चर्चितकहानी ‘थर्टी मिनट्स’ पर ‘30 मिनट्स’ के नाम सेफीचर फिल्म बनी जो दिसंबर 2016 में रिलीज़ हुई.कहानी- ‘कारा’ ‘सुर्ननोस-कथादेश पुरुस्कार-2015’ केलिए चुनी गई. कहानी संग्रह ‘पार उतरना धीरे से’ केलिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2015 कायशपाल पुरूस्कार’ मिलापहले उपन्यास ‘डॉमानिककी वापसी’ को किताबघर प्रकाशन के ‘आर्य स्मृतिसम्मान-2015’ के लिए चुना गयाहिमाचल प्रदेश कीसंस्था ‘शिखर’ द्वाराशिखर साहित्य सम्मान-2016’दिया गया तथा ‘हंस’ में प्रकाशित कहानी ‘औरगिलहरियाँ बैठ गईं..’ के लिए ‘रमाकांत स्मृति

कहानीपुरस्कार- 2016’ मिलाचर्चित कहानी ‘हनियां’ तथा
ड़ा’ पर भी फीचर फ़िल्म निर्माणाधीन हैं.
संपर्क- 123-सीपाकेट-सीमयूर विहार फेज़-2,दिल्ली-91
मो-9810853128  ईमेल-vivek_space@yahoo.com           


4 टिप्‍पणियां:

  1. विवेक मिश्र मेरे प्रिय कथाकार हैं इसका मजबूत कारण है,इनकी संवेदना की तीव्रता अनुभूत लगती है यही बात किसी को भी किसी रचना या यहां तक कि रचनाकार से जोड़ती है।जिस रिक्तता की बात विवेक जी ने की है वह हर व्यक्ति के भीतर मौजूद है तभी तो खाया अघाया भी बेचैन है। कथाकार उस रिक्ति को शब्द देकर उसे प्रत्यक्ष कर देता है और पाठक उसे अनुभूत मानकर जीता है।

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    1. जी प्रज्ञा जी जो भी करते हैं या करना चाहते हैं वह पहले हमारे भीतर घटता है। चाहे वह प्रेम हो, नफ़रत हो या कोई रचना। इसलिए उसके होने का कारण भी हमारे भीतर ही छुपा या दबा रहता है।

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  2. Sabhi Kahanikaron kee kahani hai Vivek ka kathya. Riktta ko bharne ki kozish hai - kahani.6

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