image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अगस्त, 2018

कहानी: 


एक मरती हुई आवाज़ 

रमेश शर्मा



रमेश शर्मा 




जाते दिसंबर का महीना था.हफ्ते भर पहले पछुआ हवाओं से हुई बारिश के चलते कड़ाके की ठंड पड़ रही थी.जगमगाते शहर को देखकर लगता था कि क्रिसमस की तैयारियां जोरों पर हैं.शहर के अधिकांश घर रंगीन झालरों की रोशनी में अभी से डूबे हुए थे. वह कम्पनी की बस से उतरा और फिर पैदल चलने लगा.चलते-चलते उसे कभी-कभी लगता कि यह शहर उसके लिए अब कितना अजनबी होने लगा है. पिछले कई महीनों से शहर की एक ही सड़क से जाकर उसी सड़क से लौटते हुए उसे लगने लगा था कि अपने ही शहर की सड़कें भी अब उसे किसी दिन पहचानने से इनकार कर देंगी.उसे अपने सहपाठी मार्टिन केरकेट्टा की बात याद हो आयी - ‘पहले लोग छूटते हैं, फिर धीरे-धीरे शहर भी हाथ से फिसलने लगता है’.सचमुच, वह महीनों से किसी मित्र या परिजन से नहीं मिला था. धीरे-धीरे उनके फोन भी आने बंद हो गए थे.

उसका घर जॉयविला कॉलोनी के सबसे आखिरी छोर पर था, जो गरीबों के लिए ई. डब्लू. एस. के तहत नगर-निगम द्वारा कालोनी के भीतर बनवाया गया था. यह घर भी बड़ी मशक्कत के बाद उसके नाम आवंटित हो सका था.इस घर को पाने के पीछे की घटना की याद आते ही वह आज भी सिहर उठता है.

आज से तीन साल पहले जब वह इस घर के लिए सुबह ग्यारह बजे नगर-निगम के ऑफिस पहुंचा था,तो सबसे पहले तिवारी नामक क्लर्क से उसकी मुलाक़ात हुई थी.कागजात की पूरी फ़ाइल पहले ही ऑफिस में जमा थी.ऑफिस खुलते ही तिवारीने मुंह में चार-पांच पान दबा लिए थे. उसका मुंह लाल हो गया था औरपान का रस ओठों से बाहर आने को आतुर था, कहीं-कहीं चेहरे के निचले हिस्से और ठोंढी पर उसकी धार बहने लगी थी. तिवारी ने बगल में रखे पीक दान में पच्च से थूका और फिर उसकी ओर मुखातिब होते हुए कहा, "हाँ तो बरखुरदार, तुमको ई. डब्लू. एस. का फ्लैट चाहिए. तुमको पता है शुरू में इसके बीस हजार एकमुश्त जमा करने होंगे और बाक़ी के तीस हजार तीस किश्तों में.”







तिवारी ने कभी भी उसे आप कहकर संबोधित नहीं किया था. शायद यह उस पर दबाव बनाने का उसका एक तरीका था, जिसे वह भांप गया था.उसने विनम्रता से जवाब दिया,"जी, मुझे पता है सर."
"ऐसा करो, सामने सड़क पर मुन्ना पांडे की पान की दुकान है. वहां से दो पान ले आओ. कहना तिवारी जी ने भेजा है."
“जी सर” कहते हुए उसने सोचा कि तिवारी पान का पैसा देगा. इसलिए वहीं खड़ा रहा .
"अरे तुम जा नहीं रहे......?" तिवारी ने अपने चेहरे पर डांटने का नकली भाव लाते हुए फिर से पीक दान में पच्च से थूक दिया.
वह समझ गया कि पान के पैसे तो तिवारी देने से रहा.वह मुन्ना पांडे की पान की  दुकान की ओर बढ़ गया.मुन्ना पांडे की पान की दुकान पर एक भदेस-सा फिल्मी गाना बज रहा था. वहां खड़े कुछ लड़के सिगरेट का कश खींचते हुए उस गाने का मजा ले रहे थे. कुछ लड़के, जिन्होंने अजीब-सा हुलिया बना रखा था और जिनके बाल विराट कोहली जैसे कटे हुए थे और जिनके जीवन में अभी तक कोई अनुष्का जैसी लड़की अवतरित नहीं हुई थी, सड़क पर जा रही लड़कियों को छेड़ती नजरों से देख रहे थे. उनकी तरफ देखकर मुन्ना पनवारी बीच-बीच में अपनी खीसें निपोर दे रहा था.
उसने मुन्ना पनवारी से कहा,"भाई नगर-निगम वाले क्लर्क तिवारी जी के दो पान लगा देना."
"उनका मेसेज मुझ तक पहुंच गया है, अभी लगाया भाई” कहकर मुन्ना पनवारी पान के पत्ते सजाने के बाद चूना-कत्था लगाते-लगाते कहने लगा,"आपका काम तो बहुत सस्ते में हो रहा है भाई, बस दस हजार में.”
"दस हजार?क्या मतलब है ?"
"अरे मतलब यह कि एक पान याने पांच हजार, और दो पान यानी कि दस हजार. यही तिवारी जी का कोडवर्ड है.यही समझोगे तो तुम्हारी नैय्या पार लगेगी.मेरे यहाँ दस जमा करके दो पान ले जाओगे तभी तुम्हारा काम आगे बढ़ेगा.”
वह परेशान हो उठा था. दस हजार की रिश्वत उसके लिए बड़ी रकम थी.ऊपर से घर की कीमत पचास हजार, सो अलग.पर यह घर भी उसके लिए कितना जरूरी था.वैसे भी किराए का वह दो हजार दे ही रहा था. तिवारी से फोन पर गिड़गिड़ा-मिमिया लेने के बाद ले-दे कर आठ हजार में बात बनी और वह दो पान लेकर उस दिन गया था. उस वक्त ‘न खाऊंगा, न खाने दूँगा’ का नारा उसके सीने को चीरकर भीतर गहराई तक कहीं उतर गया था.
बस से उतरकर रोज की तरह उसे अभी डेढ़-दो किलोमीटर और आगे जाना था. रास्ते भर चलते-चलते वह सोचता रहा कि काश कोई सान्ताक्लाज उसके जीवन में ‘अच्छे दिन’ लाकर भर देता.न जाने कितने वर्षों से वह अपने जीवन में किसी सान्ताक्लाज के आने की प्रतीक्षा में था, और कभी-कभी तो उसका विश्वास उठ-सा जाता था कि सान्ताक्लाज उसके जीवन में आयेगा भी.
घर लौटते-लौटते उसको रोज ही देर जाती थी,पर आज वह कुछ ज्यादा ही देर से लौटा था. रात के दस बज चुके थे. ठंड बहुत बढ़ गई थी. मोहल्ले के आवारा कुत्ते, जो किसी अन्य मौसम में भौंकते हुए आस-पास दिख जाते थे, ठंड में यहाँ-वहां ओंट पाकर कहीं दुबक गए थे.देर से लौटने को लेकर उसकी पत्नी ने आज उससे कोई सवाल नहीं किया. कई बार किसी का सवाल नहीं करना भी मन को परेशान कर देता है. वह चाहता था कि उसकी पत्नी इस देर से आने का कारण पूछे तो वह उसकी वजह बता सके. उसे धीरे-धीरे आभास होने लगा था कि उसकी पत्नी के लिए ऐसे सवाल भी अब अपना अर्थ खोते जा रहे हैं.
‘जब सवाल अपने अर्थ खोने लगते हैं तो जीवन भी अपना अर्थ खोने लगता है.’ - बचपन में मास्टर जी ने कक्षा में एक बार उससे कहा था जब वह सवाल पूछने से पीछे हट रहा था. तब से सवालों को लेकर वह संजीदा हुआ था. पर अब वह समय आ गया था कि सवाल सचमुच अपने अर्थ खोते जा रहे थे.सवाल पूछना अब सरकार की नजर में भी अपराध माना जाने लगा था.
वह अचानक बड़बड़ाने लगा –‘जी. एम. बहुत हरामी है स्साला.....!’
उसका बड़बड़ाना जारी रहा – ‘कहता है कि इस हफ्ते काम ज्यादा है. कोई छुट्टी-वुट्टीनहीं मिलेगी. मैंने बहुत कहा कि बच्ची की तबीयत कुछ दिनों से बिलकुल ठीक नहीं है, उसको डॉक्टर को दिखाना है, कल भर की छुट्टी दे दो. तो बोला घर में जोरू नहीं है क्या ? वो भी कुछ करेगी या बस बैठे-बैठे खायेगी घर में.डॉक्टर के पास नहीं ले जा सकती बच्ची को थोड़ी देर के लिए.तुम लोग कामचोर हो गए हो.बहुत बहाने मारने लगे हो आजकल.मैं उसको कैसे समझाता कि पत्नी भी घर-बाहर कितना खटती है.’
उसका बड़बड़ाना थोड़ा तेज हो गया–‘मन कर रहा था स्साले के गाल पर जड़ दूँ दो तमाचा. फिर यह सोचकर रुक गया कि नौकरी भी हाथ से जाती रहेगी.है भी तो ऐसा ही ..... ज्यादा कुछ बोलो तो दांव-पेंच लगवाकर नौकरी से छटनी करवा देगा.’
पत्नी उसकी बातें सुन रही थी और एकटक उसे देखे जा रही थी. थोड़ा ज्यादा ही उदास दिख रहा था वह ..... एक थकी-हारी सी उदासी.वह सोच रही थी–‘वह पहले ऐसा बिलकुल नहीं था. कितना हँसमुख था वह.चर्च में जब पहली बार मिला था वह,कितना अच्छा केरोल सांग गा रहा था. पहली ही नजर में ही तो उसकी तरफ वह आकर्षित हो गई थी.’
जीवन इतना कसैला हो जाता है वह सोची भी नहीं थी कभी.उसे ढाढ़स बंधाते हुए बोली,"अब छोड़ो भी यह सब. ये तो रोज की बात है.आदमी को सुनकर थोड़ा सहना भी सीखना चाहिए.चलो,खाना खा लो.सुबह काम पर भी तो जल्दी जाना है."
"अब तो लगता है किसी दिन सुबह उठूँगा और काम पर जाने की वह सुबह भी मुझसे छीन ली गई होगी."
"शुभ-शुभ बोलो भी."नौकरी छिन जाने की मात्र कल्पना से ही वह सिहर उठी
सामने वाशबेसिन था. नीचे की ओर जाती उसकी सफेद पाइप बहुत मटमैली हो गई थी.जगह-जगह जमे काई के धब्बे घर की माली हालत को उजागर करने लगे थे. यह सिर्फ पाइप का धूसरपना नहीं था, बल्कि उनके मौजूदा जीवन का भी धूसरपना था जो अब जगह-जगह उभरने लगा था.वह बेसिन पर झुककर अपने चेहरे पर पानी के छींटे छिड़कने लगा. फिर सामने टंगे गंदे-से तौलिए से जल्दी-जल्दीमुंह पोछकरजमीन पर बिछी चटाई पर जाकर बैठ गया.







"आज दाल खत्म हो गई थी. सोची थी स्कूल से पढ़ाकर लौटते वक्त सामने की दुकान से लेते आऊंगी, पर आज वह बंद मिली. दोबारा शहर की ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई." पत्नी ने ठंडी हो चुकी रोटियाँ और आलू-प्याज की सब्जी परोसते हुए संकोच के साथ कहा.
पत्नी की बातों को अनसुना कर वह रोटियाँ चबाने लगा.वह रोटियों को इस तरह चबाए जा रहा था मानो वर्षों से भूखा हो.देखते ही देखते उसने सारी रोटियाँ और सब्जी खा ली. और उसकी पत्नी उसको एकटक देखती रही.
उसके चेहरे पर पसरी थकान और उदासी उसे थोड़ी छंटती हुई नजर आई.पत्नी ने न चाहते हुए भी पूछ लिया,"बड़े दिन की छुट्टियों में क्या इस बार हम घर नहीं जा सकेंगे ?”
"क्या कहा … छुट्टियां !अब भूल ही जाओ छुट्टियाँ."
एक उदास-सा जवाब सुनकर चुप हो गई वह. बड़े दिन का सेलेब्रेशन उनके लिए धीरे-धीरे अब सपना-सा होने लगा था.
थका हुआ वह कुछ ही देर बाद बिस्तर पर चला गया. गहरी नींद में उसको सोते देखकर पत्नी को थोड़ी राहत महसूस हुई. उनकी दिनचर्या में अब ये रोज-रोज की घटनाएँ थीं.ऎसी दिनचर्या को लेकर वह कई बार अपने को असुरक्षित भी महसूस कर चुकी थी. उसकी आँखों में नींद नहीं थी.उसे वर्षों पहले सेलेब्रेट की हुई एक क्रिसमस की याद हो आई–
छत्तीसगढ़ के जशपुर शहर से दूर लगभग निर्जन-से घोलेंग की शांत वादियों में बने उस गिरिजाघर में तब कितना सुकून था. लगभग सौ के आसपास की गेदरिंग.और वहां बजने वाले केरोल और मोजार्ट के धुन. उस दिन वह कितना अच्छा मोजार्ट बजा रहा था.वह चाहती थी कि इस बार भी किसी गिरिजाघर में जाकर वह मोजार्ट की धुन बजाये और वह उसे सुनती रहे. पता नहीं उसकी यह इच्छा अब कभी पूरी होगी या नहीं !..... तभी दूर गिरिजाघर में लगी विशाल दीवाल घड़ी के दोलन करते हुए कांटे ढन-ढन करते अचानक बज उठे ..... वह सोचने लगी-सुबह के चार बजने का संकेत दे रहे इन काँटों की यह ढन-ढन करती ध्वनि रोज सुबह-सुबह ऐसे ही जन्मती होगी, और उसी वक्त मर भी जाती होगी. तो क्या ध्वनि का भी कोई जीवन-काल होता है ! हमारी आवाजों से जन्मी ध्वनियाँ न जाने कितनी बार जन्मी होंगी, और न जाने कितनी बार मरी होंगी. आवाजों का मरना भी तो इंसान के मर जाने की तरह ही है .....नींद की आगोश में रहते हुए इस आवाज को अक्सर वह नहीं सुन पाती थी. आज उसकी आखों से नींद गायब थी तभी तो सारी रात जागते हुए उसे सुन पा रही थी वह.

सच,रात की नीरवता और इस ढन-ढन करती आवाज में भी एक संगीत था.लेकिन यह संगीत सुकून देने के बजाय डरा रहा था उसे. वह अब दुनियां में बजने वाले हर ऐसे किसी संगीत से थोड़ा-थोड़ा डरने लगी थी. पता नहीं दुनिया का कौन संगीत कब बेसुरा हो जाए.नोटबंदी भी एक संगीत की तरह ही था,जिसे मंच पर बजाने वाले बजाए जा रहे थे इस बात से बेख़बर कि इसके कारण इर्दगिर्द की स्थितियां बहुत तेजी से बिगड़ती चली जा रहीं थीं, कम्पनी ले-दे कर किसी तरह चल पा रही थी.कितने ही लोग किसी न किसी बहाने निकाले जा चुके थे.

वह पति से मिस्टर सिंह के साथ जो हुआ था,पहले ही सुन चुकी थी.चोरी का आरोप लगाकर नौकरी से निकाला गया था मिस्टर सिंह को.कम्पनी का क्वार्टर खाली करवाने के लिए उनके घर का पूरा सामान सेक्युरिटी के जरिये लदवा दिया गया था ट्रक पर. सिंह गिड़गिड़ाते रहे, विनती करते रहे–‘मैंने कोई चोरी नहीं की.निर्दोष हूँ मैं. जरा रहम खाईये साहब. इस हालत में मैं अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँगा ? यहाँ इस शहर में इतनी जल्दी किराए का मकान मुझे कौन देगा? इतना तो सोचिये साहब !’लेकिन जी. एम. पर कोई असर नहीं हुआ था इस गिड़गिड़ाने का.ये कार्पोरेट कल्चर भी आदमी को कितना क्रूर बना देता है, जी.एम. उसका ही जीता-जागता उदाहरण था.अंत में बात यहाँ तक आ गई थी कि जी. एम. के आदेश पर वहां मौजूद सेक्युरिटी गार्ड, मिस्टर सिंह के साथ झूमा-झटकी पर उतर आए थे और उन्हें धकियाकर बाहर कर दिये. ट्रक पर लदे सामान के साथ सिंह का परिवार कहाँ गया, उन्हें तत्काल कोई घर मिला या नहीं, इसके बारे में किसी को कोई खबर नहीं.

इस घटना के बारे में जबसे वह सुनी थी,तबसे उसके मन में एक आशंका घर कर गई थी. इसी वजह से उसने मात्र तीन हजार रुपये माहवारी वेतन पर पास का स्कूल ज्वाइन कर लिया था. उसे लगा था कि आड़े वक्त में इतने रुपये भी कहाँ नसीब होंगे.

सुबह हुई और वह जागती रही ..... वह अब तक जाग रही है. जीवन की कई सुबहें इसी तरह निकल चुकी हैं.
पति का भी काम पर जाना जारी है.लेकिन अब वह कुछ बोलता नहीं है – शायद इस डर से कि उसके सवाल करते ही उसको कम्पनी से निकाल बाहर किया जाएगा, मिस्टर सिंह की तरह कुछ न कुछ इल्जाम लगाकर. इस क्रूर व्यवस्था ने उसे किसी मोम के पुतले में बदल दिया है. हाँ में हाँ मिलाना उसकी आदत बन रही है. हर सुबह वह उसी तरह जाता है और उसी तरह घर लौट आता है.शहर की अन्य गलियाँ और रास्ते अब उसे सचमुच नहीं पहचानते. उसके जीवन का दायरा बस एक ही सड़क पर सिमट कर रह गया है. देश के लाखों लोगों की तरह मानो उसकी आवाज भी जन्मती है और तुरंत मर जाती है.विदा हो चुका है संगीत उसके जीवन से.उसकी जिंदगी में मोजार्ट की धुन किसी गुजरे जमाने की बात होकर रह गयी है।
००

रमेश शर्मा की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/00.html?m=1


2 टिप्‍पणियां: