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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 जून, 2018

अनुवाद:
 मैथिली भाषा की कहानी:

गोनू झा क्लब


मूल व अनुवाद: उषाकिरण खान


सारे नये कलाकार लाली दीदी के बरामदे पर जुटे थे। टुनटुन भाई की प्रतीक्षा थी। टुनटुन भाई निजी ऑटो लेकर आते हैं और बच्चों का सारा जुटान लाली दीदी के साथ मिथिला भवन की ओर चल देता है। एक नया नाटक जो तैयार करना रहता है ।

उषाकिरण खान


‘‘लाली दीदी, आज तो टुनटुन भाई ने बड़ी देर कर दीं।’’- सोहन ने कहा
‘‘आते ही होंगे, जाम में फॅंस गये होंगे।’’ लाली ने कहा
‘‘उॅंह, एक घंटे की देरी हो गई।’’- रूमा ने कहा। लाली भी यही सोच रही थी। स्थानीय स्कूल की शिक्षिका लाली माने ललिता आचार्य मैथिली नाटक करवाने के लिए प्रसिद्ध है। लगभग बीस पचीस सालों से वो अपना खाकर समाज का मनोरंजन कर रही है। मनोरंजन मात्र नहीं एक प्रकार से प्रशिक्षण करती रहतीं। जब कभी किसी सामाजिक अवसर पर स्त्री पुरूष एक स्थान पर एकत्र होते तो एक चिन्ता समान रूप से परिलक्षित होती कि इस कॉस्मोपॉलिटन शहर में घर के बच्चे मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं । बच्चों पर स्वाभाविक रूप से कई प्रकार के दबाव हैं। शहर में बहुभाषा लोग हैं सो राष्ट्रभाषा में ही बातचीत होती है। वही शिक्षा का माध्यम है, किया क्या जाय? दादा-दादी, नाना-नानी, प्रायः गांव में रहते, उनसे कभी कभार छुट्टियों में मुलाकात होती। भाषा भूल रहे हैं । एक दिन लाली ने स्वयं ही साथियों से कहा -‘‘मुझे नाटक करने के लिए कुछ पात्र की जरूरत है, क्यों नहीं बच्चों को आने देती हैं आपलोग? आने दीजिये, एक समस्या का समाधान तो होगा’’
‘‘किस समस्या का समाधान होगा?’’ - रूमा की मॉं थीं
‘‘कैसा समाधान, समस्या बढ़ जायेगी। वैसे ही क्रिकेट फुटबॉल से फुरसत नहीं है, एक और बहाना किताबों से दूर रहने का मिल जायेगा।’’ यह रूचि की मॉं थीं।
‘‘आपकी रूचि पढ़ने में मन लगाती है, मेरे सोहन को देखिये कैसा खुराफाती है। नः, नाटक एक नशा है, सोहन के बाबू ही करें बस।’’ इसी प्रकार का विचार शम्भु आकाश और नवीन की अम्मा का भी था। किसी के बेटा बेटी को मेडिकल की तैयारी करनी थी किसी को आई0आई0टी0; माता-पिता ने अपनी ऑंखों का सपना अपने बच्चों की ऑंखों में रोप दिया था।
‘‘नाटक से भाषा का क्या मतलब?’’ - एक स्त्री ने पूछा
‘‘नाटक मातृभाषा में होगा, जबतक सेट पर रहेंगे तब तक मैथिली बोलने की बाध्यता रहेगी। एक महीना रिहर्सल चलेगा, तब कहीं प्रदर्शित होगा। बच्चे मातृभाषा बोलने को सुभ्यस्त हो जायेंगे कि नहीं? - लाली ने समझाया। यह प्रश्न तो सबके आगे था, हम अपनी पहचान न खो दें। सो बच्चों को लाली दीदी के हवाले कर दिया। लाली के कान यह सुनते सुनते थक गये थे कि आज के बच्चे भाषा भूल गये हैं। स्कूल में हिन्दी और अंग्रेजी बोलने की बाध्यता है। घर में अपने माता-पिता से भी मातृभाषा में बात नहीं कर पाते परिणाम कि वे बाहर अपने समाज में संकोच करने लग गये। इस नई पीढ़ी को कैसे संस्कारित किया जाय, यह सदा सोचती लाली दीदी। वैसी ही स्थिति में नाट्यमंडली स्थापित करने का विचार आया मन में। लाली दीदी के विचार से बच्चे से लेकर वयस्क स्त्री पुरूष सब प्रभावित हुए। यह एक भाषायी सामाजिक आन्दोलन का स्वरूप ले बैठा। छोटे बड़े सभी साथी दीर्घ अभ्यास करते, समय तो लगता ही । नाच गान से लेकर अभिनय, मंच सज्जा से लेकर वस्त्रविन्यास, मेकअप से लेकर प्रकाश परिकल्पना, आमंत्रण-पत्र छपाने बॉंटने से लेकर टिकट बिक्री और धन संग्रह बिना समुह क्या? सो मिथिलाम जातीय अस्मिता जगाने को मात्र नाटक मंडली सक्षम है । लाली के सामने अब उसके सोच का परिणाम है, अद्भुत उत्साहवर्धक ।






‘‘जी नहीं मैंने आपका मुखौटा नहीं तोड़ा, हनुमान ने तोड़ा’’ - मन्टू जोर से कह रहा था लाली का ध्यान भंग हुआ। लाली दो वर्ष पूर्व की बात सोच रही थी और अभी बच्चे ठेठ भाषा में लड़ रहे हैं।
‘‘हनुमान कौन बना है, तुम्ही न?’’ सोहन जो रावण बना था उसने कहा
‘‘अब यह खुद बनाये मुखौटा, मैं नहीं बनाउंगी।’’ रूचि ने कहा
‘‘हनुमान का मुखौटा तोड़ने की क्या बात थी?’’ - रूमा ने कहा
‘‘तब? रामजी का तोड़ते?’’ - सोहन था।
‘‘रामजी, रामजी नहीं दिखाई पड़ रहा है, कहॉं गया?’’ - लाली दीदी थी । हसें खत्म, रामजी की खोज शुरू। राम जी माने नवीन अभी तक नहीं पहुॅंचा। लक्ष्मण जी माने पप्पू और विभीषण माने प्रनेवज सब मिथिला भवन में जुटे थे। इन्हें सम्मानित किया जाना था। कुछ पुरस्कार मिलने वाले हैं और समोसा गुलाब जामुन के जलपान। आज ही टुनटुन भाई को भी देर करना था।
‘‘लाली दी, कल से बैठा बैठी?’’ - मनोज ने पूछा
‘‘बस थोड़े ही दिन। फिर नई शुरूआत होगी।’’ - लाली ने कहा
‘‘लाली दी, दूर है यह स्थान । आने जाने में देर हो जाती है।’’ - रूचि ने चिन्ता जताई।
‘‘सो क्या ?’’ - लाली ने पूछा
‘‘हम क्यों नहीं अपने मुहल्ले में आपके घर के बरामदे में ही नाटक का अभ्यास करें।’’ - लाली ने अपने सहन में बने ऐसबेस्टस से बने स्थान को भर ऑंख देखा। सचमुच, यहॉं नाटक का अभ्यास हो सकता है।
‘‘मैं आ गया’’ - प्रवीण कंधे पर झोला लटकाये आया।
‘‘बहुत देर हो गयी?’’ - लाली ने पूछा ।
‘‘मैं गोनू झा पर नाटक लिख रहा था, उसी में देरी हुई।’’
‘‘अरे वाह, यह तो नाटक करते करते लेखक हो गया।’’ - लाली हॅंसी
‘‘दी, इसने बढ़िया नाटक लिखा है।’’ - मनोज ने कहा।
‘‘हॉं रे पप्पू?’’-
‘‘यह तो पहले से लेखक है। नया यह है कि अपनी मातृभाषा में लिखा’’ - पप्पू ने रहस्योद्घाटन किया। सारे बच्चे पास सिमट आये। नाटक पढ़ कर सुनाने का आग्रह करने लगे।
‘‘आओ, मेरे पास बैठो और सुनाओ।’’- लाली दीदी ने कहा। प्रवीण नाटक पढ़ने लगा। नाटक में गोनू झा का वह प्रसंग था जिसमें राज दखार में गाय और बिल्ली-बॉंटी जा रही थी। गोनू झा का नाटक जो नाटक के भीतर चलता है उसका बढ़िया वर्णन प्रवीण ने किया। विशेष कार्य तो मंच पर होना है। लाली दीदी को नाटक कनविंसिंग लगा सो उन्होंने करने की सहमति दी।
‘‘हमलोग अपना एक क्लब बनायेंगे।’’- रूचि ने कहा,
‘‘लाली दी बोलिये न!’’ - सोहन था
‘‘मैं क्या बोलूॅं आप सब का अपना निर्णय है।’’
‘‘यहीं स्थापित होगा, आपके घर में।’’
‘‘कहो, जरूर कहो।’’ - सारे बच्चों ने तालियॉं बजाई।
‘‘हम यहीं नाटक तैयार करेंगे और मिथिला भवन में प्रदर्शित करेंगे।’’
‘‘हमलोग क्लब का नाम क्या रखेंगे?’’
‘‘लाली दी क्लब’’ - पप्पू ने झट कहा
‘‘धत् पगलें, ऐसा कहीं हो?’’ - लाली ने बरजा
‘‘प्रवीण क्लब’’ - एक ने कहा
‘‘मजाक उड़ाते हो?’’ - प्रवीण था
‘‘वाह, प्रवीण लेखक होते ही भाषा-प्रवीण हो गया।’’ - लाली हॅंसी।
‘‘दीदी आप ही नामकरण कीजिये न।’’- रूचि थी ।
‘‘तुमलोग गोनू झा के नाम पर क्लब में पहला नाटक खेलोगे सो
गोनू झा क्लब नाम रखो।’’
‘‘इयै.......ऽऽऽ’’ - सारे बच्चे हाथ उठाकर किलक उठे।
‘‘क्या बात है, किस तरह का शोर है?’’- अपना ऑटो खड़बड़ करते टुनटुन भाई आ पहुॅंचे।
‘‘क्या बात है, आपकी कृपा से आज इस मुहल्ले में भी एक नाट्य मंच स्थापित हुआ - ‘‘गोनू झा क्लब’’
‘‘ऐं?’’ - टुनटुन भाई भकुआए से देखते रहे।
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उषाकिरण खान की एक और रचना नीचे लिंक पर पढ़िए


मैं क्यों लिखती हूं
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