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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 जून, 2018

शर्मीला की कविताएँ




बदलाव 
...................
आस्मां कुछ कह रहा है,
धरती घुटने सिकोड़कर सुन रही है...
खामोश...निस्तब्ध।
रह-रह कर बादल बुदबुदाते हैं,
बिजली होठों में मुस्कुराती है,
यकायक रुदन करती कोरें...
बूँदें टपकाती हैं ।
धरा भीग रही है चुपचाप
रात का कम्बल ओढ़े,
हवा थपकी दे रही है
शायद वह सो जाए.....
लुढ़क जाए वक़्त की खाट पर,
प्रातः दिवाकर तिलक करेगा,
नई-निखरी-धूली पृथ्वी का.…
एक नई ज़िन्दगी का.…
तब तक शायद.....
 बहुत कुछ बदल जाए।




यहीं रहता है।
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वह स्याह रंग वाला
यहीं रहता था-
...सबके बीच।
आँखों में सूनी हँसी लिए,
पोपला  मुँह खोले,
धरती की खाट पर
आसमान की चादर ताने,
वह यहीं रहता था।
वह यहीं रहता है।




डांडी 
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तपता तावड़ा
पग में किकर  की सूल
तिस्स  से रुदन करता गला
पीड़ नहीं दे रहा
हवा में लटके -
चंद शब्दों के बाण
बार-बार रड़क रहे हैं
अनदेखे घावों के पद्चाप
शायद.....
धागों में डांडी न बना दे !




सबूत दो 
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गरीब आदमी
हमेशा दो-दो हाथ करता रहा
भूख से
झुंझलाकर लड़ता रहा
बीवी-बच्चों से
उसने हर बार बलि दी
अपनी आधी लँगोटी की
ताकि उसके जैसे...
सूरज देख सकें
पर उसे छला गया
देश के नाम पर
आजादी के नाम पर
उसके हिस्से आई
वही आधी रोटी
आधी लँगोटी
वह भी बार-बार माँगी गई
सपने दिखाकर
जिसमें सिक्के का सिर्फ एक पहलू था 
दूसरा मरोड़ दिया गया
ताकि कोई
पूछे न...
तुम्हारी रोटी-लँगोटी
चौगुनी कैसे है ?
सबूत दो !
तुम देशभक्त हो !!
तुम्हारे पूरखे गद्दार थे !!



सत्यनारायण पटेल



गोबर 
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निकल रहे हैं
गिने-चुने चूहे
उल्लू...सौदागर बने बैठे हैं
फसल मंडी में
ठिठुर रही है
भूखा खेत...
मुँह खोले बैठा है
सैंकड़ों-लाखों आँखें
चूल्हे की लपट से घिरी हैं
सर्द हवा के झोंके
मजदूर की टाँग से सटे हैं
सारा अलाव
ब्रांड सेंक रहे हैं
मिट्टी की हर चीज
अधर में टूट रही है
सरहद पर..जेब कट गई
लोकतंत्र की गाय
गरीब के कोठड़े पर
गोबर पोत रही है !




लंगड़ी श्रद्धा
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आँखें खोली
तो भीख मिली
"चलो ! लक्ष्मी है !
भागी के घर आती है !"
यह लंगड़ी श्रद्धा
दूसरी के आते ही
लड़खड़ाकर
औंधे मुँह गिर पड़ी
और सारे नकाब
आँसुओं में पिघल गये !



                       
एक गोली
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पैंतरा बदला
और पासा बैठा
नीलगाय से रोज
ताकि
धर्म...
आड़े न आए
और बंदूक की गोली
सनसनाती हुई
इन जंगली
डर कर भागते
फसलों में एक-आध...मुँह मारने वाले
जानवरों की नसों को
चीर कर निकलें
अगर बात न्याय की है
तो फिर...
दो पैरों वाला जानवर
जो हर जगह टाँग अड़ाता है
कानून की आड़ में
अपनी गोटियाँ फिट करता है
एक गोली
उसके लिए भी
होनी चाहिए
क्योंकि
जान...जान है
हत्या.. हत्या है !




हम तुम्हारे साथ हैं ! 
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मुद्दों के सरकंडे
अक्सर बात करते हैं
किसानों की
खेती की
जिन्होंने आज तक
यह भी नहीं चखा
तावड़े , पसीने और मिट्टी का
संगम कैसा होता है ?
जो यह भी जानते
2 एकड़ में नरमे का बीज
कितना..
और कैसे लगता है ?
दानों को मंडी तक... घसीटते-घसीटते
कितना जोर आता है ?
वो भी साले दोगले
एसी में बैठकर
मच्छरों की तरह बीन बजाते हैं-
"हम तुम्हारे साथ हैं !"




भीड़
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कितना झूठलाये
इस सत्य को
सिर्फ एक डग भरते ही
तुम्हारे पसीने छूटने लगते हैं
तुम अपने चारों तरफ
धर्म की..
संस्कारों की...
दीवारें चिनना..
शुरू करते हो
और भीतर बैठ कर
एक भीड़ तैयार करते हो
जिनके विचारों की नसें
उगने से पहले ही
मसल दी जाती हैं !



गूँगा गवाह 
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छोटी-सी कोठरी में
हथेली जितने
आईने में देख कर
तुम आँख की कोर में
बारीकी से
सुरमा टिकाती थी
फिर छोटी-सी बिंदी टांग कर
एक हाथ लम्बा घूँघट
खींच लेती थी...
जो सब !
सिसकियों...हिचकियों का
गूँगा गवाह है !







     पुर्जे 
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कुछ सिमटता रहा
अहसास में...
साँसें उगती रहीं
भोर-साँझ सी..
ख्याल..
ख्याल छिप गए
दरख्तों की आड़ में
फिर निकले...
मीलों भागते कदम
पगडंडी पर
हवा के झोंके हो गए कदम..
ठहर कर
थोड़ा खंगाला
फटी-पुरानी जेब से
कुछ किस्से
चोर-वजीर की पर्चियाँ
चोरी के लड्डू
चंद सूखे पत्ते
कुछ झूठ
कुछ-कुछ हकीकत
एक आदमी के
पुर्जे निकले !!
                       




लड़की हो !
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लड़कियाँ ??
स्लेट होती हैं !
जिन पर कुछ भी...
जब-तब लिखा जाए
जब-तब मिटा दिया जाए
हथौड़े से ठोंक-ठोंक कर
पक्का कर दिया जाए
तुम समझदार हो !
जोर से मत हँसो
ऐसे चलो...वैसे चलो
जुबान मत लड़ाओं !
नजरें नीची करो !
सहन करना सीखो..
हर बात में सर्टिफिकेट...
लड़की हो !




फटी झोली 
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अपने हाथों से !!!
जमीन को तराश कर
उधार का बीज बोया
अंकुर फूटे..
पौधे लहलहाये...
रातों को जाग-जाग कर
उन्हें सींचा...
आँखों में चमक बढ़ी
फल पकेगा..
बिकेगा...
नकद आएगा..
कर्ज उतरेगा...
पर हाय ! रे किस्मत
फटी झोली
तो और...फटती है !



कुकुरमुत्ता कट गया ! 
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कुछ बिकाऊ चेहरे
एक सनक लेकर निकले
देखते-देखते...
पूरा गाँव बस गया
अब देखो तो
जमीन पर...
जख्म ही जख्म हैं !
आधा झूठ...आधा सच
हवा में घुल गया
हाथ जल गए .....
कोई तीसरा रोटियाँ सैंक गया
लो ! एक बार फिर
कुकुरमुत्ता कट गया !

 



    

 तय रास्ता 
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खामोश धुँआ उठता रहा
सूरज के... दरख्तों से पार होने तक
गालों से भिड़ती सर्द हवा
सोच को बैचेन करती रही
सब चले गए !
रात के गुम होने से पहले
खेत कोहरे में नाचता रहा
और पेड़....
सिमटते रहे अंधेरे में
सब सो गए ओढ़कर
जिसे जो मिला...
एक आवारा आदमी
भटकता रहा
भीड़ होने तक...
और जेब में टटोलता रहा
अपनी भूली-बिसरी सूरत
जिसका कोई तय रास्ता नहीं !




 कम बेईमान 
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पूरा रास्ता पीसकर
सूरमे जैसा बना दिया गया है...
मिट्टी पर मिट्टी नहीं ठहरती!
धुँध की गुफा से....
चमकती टोपियाँ निकलती हैं
हाथ जोड़े हुए...
और थमा जाती हैं
अपने-अपने पर्चे !
हुक्के की हर घूँट के साथ
खबर फैलती है...
किसके कितने लगे हैं?
कौन बैठ गया ?
कौन टक्कर में है ?
और खीरे बुझते-बुझते
धुँआ यही आकर उतरता है...
कौन ? किससे ?
कम बेईमान है !
खीरे-अंगारे




 भूख
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भट्ठी में आस उबल रही है
कड़ाही में...
दिन-रात जल रहे हैं !
आंखें जाग उठती हैं..
दो रोटी के जुगाड़ में
उँगलियाँ नाचती हैं...
दस..बीस..पचास के पुर्जों पर
सर्दी ...सर्दी नहीं रहती
मौसम बन जाती है !
भूख...आदमी को फौलाद बना देती है !




  हत्या
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सीली पगडंडी में
जख्मी है धूल...
सन्नाटा फड़ फड़ाकर गुजरता है
ठंडे सूरज की चुन्नी में
छेद हैं कई...
आकाश...अधकचरा दिखता है
रात दिन को खाती है...
पेड़ जड़ की हत्या करता है !
जंगल में कोई... चूँ भी नहीं करता है !



 धुआँ-धुआँ सा है !
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धुआँ-सा उठा है
कहीं दूर जंगल से ...
शायद पंछी जले होंगे !
दरख़्त झाँक रहे हैं.....
रात की आँखों में
और कुदरत....
बेबस खड़ी है घुटनों के बल
सन्नाटा पुकारता है...
दखल मत दो-
''कुल्हाड़ियों से आत्माएँ कट रही हैं !"
और...कारवां गुजर गया !
हाथ में.....सूखा दरिया है
आँखों में....धुआँ-धुआँ सा है !






                     
आजाद आदमी
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सिर में पसरी .....
तेल की सड़क
पहनावा....
.....लोकतंत्र !!
संसद-सा दिखता
यह आजाद आदमी...
दिन उगे शुरू होता है
सूरज के चढ़ते-चढ़ते..
कई बार दागा जाता है
रात आते-आते ...
खत्म !!
तड़के फिर झण्डे की तरह
लहराया जाता है ..
इसके हक की मांग करते-करते
गला सूखने लगता है
और...यह आजाद आदमी
शराब में घोलकर....पी लिया जाता है !
             
  ( तड़के -अगल)   

             
सब ले जाओ !!
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बैठूँ हरी छांव में...
सारा-सारा दिन
मिट्टी का अहसास
खून में घुल जाये
एक आकाश भरा हो ....
सतरंगी पंखों का ...
शोख नहर का मुखड़ा हो
जिसमें जा समाऊँ ...
बादलों में शक्लें बनाऊं
फूँक मार कर उड़ाऊं
एक गहरी नींद में जागूँ...
बस ....ये मुझे दे दो
बाकी सब ले जाओ !!




क.. ख...ग 
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धूल मेट चाट गई
तख्ती पर
कीमत लटकी है
क..ख...ग
बाज़ारू हैं।
       
       
मेट - मुल्तानी मिट्टी



गिद्ध 
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बाजार के बीचों बीच
बच्चा जिद्द करता है
झिझकती माँ
कमीज घिसका कर
दूध पिलाते हुए
पँख समेट लेती है
छाती पर...
गिद्ध नजरें उग आती हैं।
दुनिया पुर्जो की होने वाली है
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भीड़ भरी आँखों में थकन के पहरे हैं
लील चले शहर गाँवों को
हर नदी पर जँजीरें हैं
खेत उलटने लगे सड़कों पर
कंधों पर कर्जे के बोरे हैं
चिड़िया गूँगी हो गई
चप्पे-चप्पे पर शिकँजे हैं
कौन कहाँ किसका
सब मतलब की यारी है
रिश्ते हो गए ठूँठ जैसे
ओहदो की बीमारी है
हँस कर निकल लिए
दुनिया पुर्जो की होने वाली है।
००
चित्र: गूगल से साभार



शर्मीला 
शोधार्थी 
पंजाब विश्वविद्यालय, 
चंडीगढ़-160014
जन्म स्थान : गाँव जाखोदखेड़ा, हिसार (हरियाणा) 


2 टिप्‍पणियां:

  1. शर्मिला जी की इन कविताओं पर क्या टिप्पणी लिखूँ, समझ नहीं आ रहा! किसानों के ह्रदय में झाँकती हुई रचनायें👌👌

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  2. शर्मिला की कविताओं को पढ़ते हुए एकबारगी अवाक हो जाना हुआ । चालाक लेखकीय मध्य वर्ग की चालबाजियों से मुक्त होकर उस सांचे में ढली-पगी रचनाधर्मिता की रूढ़ियों को तोड़ते हुए शर्मिला की कविताएं सचमुच जैसे कुछ संवाद करना चाहती हैं । उन्हें अपनी बात कहने के लिए किसी गुरुकुल के सहारे की जरुरत भी नहीं है । कलावादी लफ्फाजी से दूर जनसरोकार उनकी कविताओं का असल उत्स है यह आज की जरूरत भी है । शर्मिला खूब लिखे और आगे बढ़ती रहे , उसे बहुत बहुत बधाई ।

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