नीलम पाण्डेय ,"नील" की कविताएँ
मैं कविता क्यों लिखती हूँ
मैं भी नही जानती बस लिखना घट जाता है कभी भी,कहीं भी,बार बार और कभी अनायास । कविता का घटना पहाड़ो से पहाड़ों की मेरी जीवन यात्रा के पड़ावों में सूक्ष्म से सूक्ष्म समय के अनुभव हैं । जो ना जाने कब धीरे धीरे पक कर भावों की खेती को कविता में परोस देता है जिसे लिखने के बाद मैं अकसर एक अजीब सी तृप्ति के उन्माद में भीग जाती हूँ । मैं कविता इसलिए भी लिखती हूँ ताकि समय की आँच में पके अनगिनत अनुभव दबी दबी आहट से जब बाहर आने को आतुर हो उठते हैं तब मैं मेरा होना महसूस करने लगूँ । एक रचनाकार याद रखता है जीवन की सतह पर गाहे बगाहे विकसित हो आऐ अनुभवों की अनगिनत पहाड़ियों को और वह जानता है, इनमें चुनौतियों के अंबार है जिन्हें वह सिर्फ एक सीमा तक ही तोड़ सकता है किन्तु जब वह उन्हें नही तोड़ पाता है तब वह उनपर चलना शुरू कर देता है और उसी में अपनी कल्पनाओं का घर बना लेता है अकसर उसे भी नही पता चलता है कि कब वह चुनौतियों का हिस्सा बन खुद एक चुनौती बन जाता है । धीरे धीरे वह अपने आसपास चलती फिरती अनगिनत किताबों यानि प्रकृति,प्राणी और स्वयं के जीवन से बुदबुदाते मन को चुराने लगता है तब सृजन होती है एक कविता जो मुझे बेहद अच्छी लगती है । मैं आदमियों के उगते जंगल से थोड़ा सा समय चुराकर शब्द बुनती हूँ और हवा में छोड़ देती हूँ क्या पता कुछ मेरे जैसा सोचते हों,क्या पता कुछ बुने हुऐ शब्दों की किसी को जरूरत हो, और क्या पता, क्या हो ......बस अच्छा लगता है।
कविताएँ ........
एक
धरा के लिए आकाश
बृहद है, बहुत बृहद
जबकि आकाश का
बजूद धरा में निहित है
इसलिए 'अभ्र' असीमित है।
आकाश ने भ्रम दे कर
उसके पाँव बांध लिए हैं,
तबसे धरा एक ही धुरी में घूम रही है
इसी घूमने को वह अकसर ......
उसका दुस्साहस कह जाता है।
बेखबर,धरा हरी होती है
अतिशय प्रेम में वह
नीले, बैगनी फूलों से सजती है
तब आकाश भी अपना
फिरोजी होना छुपा नही पाता है।
अकसर, मौन संवाद किसी
एक को बौना कर देते हैं, और
दूसरे को असीम तारापथ की
यात्रा अवसरों से भिगो देते हैं
तब यूँ कहो कि दो विचारधाराऐं
अपने अपने अंदाज में डूब जाती हैं ।
दो
बुलबुला
पानी के कई अनगिनत से बताशे
रोज मेरे खेलों में बनते बिगड़ते हैं
आज फिर खुब चमकता सा एक बुलबुला
अनायास हवा में गुम होता गया ।
ऐसे ही बेबाक मेरा हसँना और
मेरी चमकती आखों में क्षणिक
झिलमिलाते असँख्य जुगनु
कई दफा रात में बने
और दिन में उनका पता न लगा।
रोटी में चांद खोजने की कोशिशें
नमक की ढेली में हर बार नये स्वाद लेता
जिंदा रखता गया मुझमें मेरा सपना
चाहे मैं कई बार कुर्ते की
बाँहे अनायास भिगा गया ।
मैं नही जानता खुशियों के बँटवारे
सबके लिये अलग अलग कैसे हैं
किन्तु मेरी खुशियों के
मायने कुछ तो जुदा है
उन्हे आसान और मुझे
पल पल जलजला मिलता गया
गाहेबगाहे आती रही
जो चुनौतियों की सदाऐं
परवाह नही कौन मुझसे
मेरी राहे जुदा करता गया
मैं हसँने के बहाने तलाशता
सा बेफिक्र,भले ही आज भी वही हूँ
एक बनता बिगड़ता सा बुलबला ।।
तीन
आशिफा सुनो !
सड़कों पर जो हूजुम है
वह मृत्यु से भयभीत है
अपराध से नही
कुछ दिन मृत्यु हावी
रहती है
उनके मानस पटल पर ।
उसे अपराधी से भी शिकायत
नही उसे तो जो मृत्यु दी सिर्फ
उस कृत्य पर शिकायत है
वरन सोच तो यही है
ऐसी गलती
हो जाती है कभी कभी ।
पर आशिफा !
यहाँ एक अच्छे
न्याय के लिऐ
मरना जरूरी है,
मरने के बाद
अपराध की बरबरता
साबित होना भी जरूरी है ।
क्योंकि हमारी समझ
बड़ी कमजोर है
इस खबर के बाद भी
जारी है कलुषित मानसिकता का खेल
हँसी मजाक में माँ बहन करते,
गाली देते, द्वीअर्थी बातें करते
सड़कों के किनारे
नाले तैयार करते
या व्यसन में डूबे
पुरुष हमें सामान्य ही नजर आते हैं ।
जबकि आपातकालीन समय खुले में
लघुशंका करती स्त्री विचित्र
नजर आती है ।
सुनो ! पर कई दफा
जिंदा स्त्री
कमजोर पैरवी से
साबित नही कर पाती
अपराध की बरबरता
लोग साथ भी कैसे देते
कुछ मोमबत्तियाँ तो मृत्यु के लिऐ
ही खरीदी जाती हैं ।
और स्त्री भी एक दिन कबूल
कर लेती है सब "झूठ"था
और बच्चियां खामोश होने
लगती हैं धीरे धीरे
और फिर कभी भी
कहा जा सकता है
कि चरित्रहीन औरतें
ऐसी ही होती हैं ।
चार
सूरज का पीछा
मुझे अच्छा लगता है
सूरज से पहले उठना
उसका पीछा करना
सूर्य उदय की ओजस
में भीगना,सुखना और
सांझ तक उसके साथ चलना
फिर धीरे से बुदबुदाना कि
तुम सांझ होते ही चले गये ना
देखो, मैं अभी भी चल रही हूँ
फिर उसकी जाती हुई रक्तिमता को
अपलक निहारना
मुझे अच्छा लगता है ।
वह जब अंतिम सफर पर
कुछ पल ठहर जाता है ना
तब अपनी नन्ही सी
जीत का जश्न मनाना
मुझे अच्छा लगता है
कभी वह आकाश की
गोद में छुप कर किसी
और की रोशनी बन
सहसा इतराने लगता है ।
तब अँधेरे में उसका न होना
भी मुझे अच्छा लगता है
मैं क्षितिज तक रोज उसे विदा
कर लौट आती हूँ,अपने अन्धेरे में
फिर रात भर रोशनी से अजनबी
बनकर,सुबह उसके साथ फिर से
हमसफर होना मुझे अच्छा लगता है ।
अकसर उसे कहती हूँ जब तुम
धीरे धीरे अलसाये से उठते हो ना
मैं तुम्हें छुने की कोशिश करती हूँ ।
पता है,जब तुम आकाश की
ऊँचाई तय करते हो
तब मैं पहाड़ों को
चढ़ना शुरू करती हूँ
शाम को हम दोनों साथ साथ
उतरते हैं विश्राम की ओर
अपने अपने क्षितिज में
और हम उसी किनारे पर
रोज मिलते हैं क्यों कि
सूरज और मेरा क्षितिज एक है ।
बस ! वह पहले डूब जाता है
और मैं हमेशा उसके बाद
और कभी कभी उसके सुबह
वापस आने तक भी नही डूबती मैं
फिर उसे उलाहना देती हूँ कि
तुम्हारे ये छलावे रोज के हैं
मेरी उम्र तुम्हारे आने जाने को
गिनती रही सदियों से
देखना इस बार मेरी बारी
होगी पहले डूबने की
और तुम उसी किनारे पर
मुझे बिदा करोगे
फिर कई युगों तक तुम
खोजना मेरा उगना
उसी क्षितिज पर ।
पाँच
तुम 'उषा' खोज रहे हो
और मैं 'आशा' को
हम लोग
स्मृतियों के हिसाब
बेहिसाब रखते हैं ।
चीढ़ के घने जंगलों में
पल पल महकती
जंगली फ्यूंली की
पिताम्बरी को तुम भी देखना
चाहते हो एक बार ।
और मैं भी, खोजती हूँ
देवदार वनों के ढलानों में
उतरता उसके गाँव का रास्ता
यह जानते हुए कि अब वह
वहाँ कभी नही मिलेगी ।
दाड़िम के लाल फुलों
से सजा गुड़िया का महल भी
तोता तोता पास या फेल
कहते हुए काली धारी वाले लाल
कीट को उड़ते देखना भी ।
अकसर दूर तक विचरण कर
लौट आती हैं उसकी स्मृतियाँ
रह रहकर मेरे पास
ना जाने क्यों ? शायद
कुछ तो खास होगा उसमें ।
'उषा'और 'आशा' के
वो कौन से अनकहे क्षण हैं
या फिर हममें ही उनकी कोई
असीम आत्मीयता
जो बार बार हम
अपनी स्मृतियों को सजाते हैं ।
क्यों हमारे शब्द और मिलती
जुलती परिस्थितियाँ एक ही
भावपटल में दिखती हैं
तुम भी वही कहते हो
जो मैं सोचती हूँ ।
और मेरी इस 'आशा' की चाह में,
मैं कई दफा चुरा लेती हूँ
वो सब अनुभूतियाँ
सच ! चुरा लेती हूँ, तुमसे तुम्हारी
स्मृतियाँ भी ।
छः
जैसी उस वक्त थी
सूरज की परावैगनी किरणें
अहहह .......वही कड़ी सी धूप
वैसी ही तपिश
जैसी उस वक्त थी, और
फिर शीत की लंबी रातें
बेसुमार बरसात न थमने वाली
कई कई दिनों तक
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
सायं सायं करती हवा
अचानक कौंधती बिजली
अन्दर अनहद खामोशी
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
शगुन अपशगुन के बीच
डोलता मन और
रात से सुबह तक की
लंबी जद्दोजहद वैसी ही
जैसी उस वक्त थी ।
दिन कैसे एक महत्वाकांक्षी
मानव को क्षीण क्षीण
रात की आगोश में ले रहे है
एक अनबुझी यात्रा
बिलकुल वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
यदा कदा ही मानव जीवित रहते है
युगों में वरन बूँद बूँद आत्मा का रिसाव
सांसो की ढीली पड़ती प्रत्यंचा
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
जो मंजर आज है फिर मिलेंगे
वो लोग हम जिन जिन से मिले,
आगे के मोड़ो पर फिर मिलेंगे
किन्तु अजनबी सी नई राह होगी
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
परन्तु उस वक्त का वह
कौन सा वो वक्त था
जो यदा कदा मानस पर दस्तक दे
दोहरा रहा चेतना को अनायास
बिलकुल वैसे ही जैसी उस वक्त थी
युगों युगों को छुता मानव
फिर भी अनभिज्ञ है
खुद से और विस्मृति के सागर में
छल रहा खुद को आज की स्मृति में
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
सात
सुबह जैसी शाम
कुछ नही बस .....यूँ ही
खाली अक्षांश में
सोयी हुयी नियति मात्र
कभी रेतीले रेगिस्तान में
चमकते पानी का सा भ्रम ।
जब सुबह और शाम के फर्क
धुंधलाने लगते है तब रंगे हुऐ
गगन में अलसाया सा सूरज भी
अपनी तपिश में जलता
अकसर अकेला रह जाता है ।
धरा की रोशनी होकर भी वह
आने वाली शाम को उनींदी
आखों में समेट
चाँद के अनचाहे स्पर्श के
सपने देखता है ।
ढलती शाम में चांद जैसा
बनने की कोशिश
किन्तु सूरज फिर भी नही छोड़
पाता अपनी रक्तिमता
कितने अलग चांद और सूरज ।
एक ही आकाश में दो अजनबी
जब खुद आकाश गंगा के रास्ते में चलते हैं
तब चटक सुबह और इंद्रधनुषी शाम में
पुरी कायनाथ को गुलाबी हो आयी
आखों से समेटने लगते हैं ।
सदियों से ये लुकाछिपी
किसी से छुपी नही है
पर जब नही देख पाती
अधूरे मिलन को तब परियां
शाम को धरती पर उतरती हैं ।
वो बंद होते फुलों में रात होने तक छुप
जाती है तब उसी क्षण शाम बेहद
रंगीन होती है ,कुछ पल सुरज और चांद
इकठ्ठे आसमान में दिखते है
आह ! तब थोड़ी सी सुबह जैसी शाम होती है ।
आठ
घौंसलों सा भविष्य
कहूँ, पर सोचूँ न कतई भी
कोई ऐसी सी बात बता ना मन
कोई फरेब, कोई ऐसा गुर भी बता ना
लिखूं न मन की सतह !
वे जो पढ़ते हैं मेरे अनाम
असफल वाक्यांश और
कुछ बेस्वाद शब्द भी
यूँ ही.... या कुछ भी नही है !
कोई लेखनी बता कि मैं लिखूं
बिन कहा सा कोई सारांश
जहाँ भीगता हो आदमी,आदमी
या कोरे कागज सा पढ़ा जा रहा हो उम्रभर !
मैं मरी हुई जीवित लाशों का सच
न सही किन्तु कहूँ उसको
जो लिख नही रहा पर बुन रहा है
अपनी आवाजाही को समय
की दहलीज पर बिन कहे !
सच तो यह हैं ना ।
उसवक्त,मैं वर्तमान न लिखूँ
लिखती रहूँ ,पेड़ों में खाली रह गये
बया के घौंसलों सा भविष्य !
क्यों कि मेरी संवेदनाओं के जल में
अनगिनत बार मरी हुई मछलियाँ
जीवित होती रहती हैं और कभी
मरते हुए जीने का उपक्रम भी करती हैं ।
कुछ लोग एक सदी तक
हरी घास में छिपे मच्छरों की तरह
पीछा कर काटते हैं आदमी को
उसकी सोयी हुयी महत्वाकांक्षाओं को भी !
आज वे समय की दहलीज पर धूमिल हो गये हैं
क्योंकि घास का सूखना तो तय है
उन्हें छिपने के आसरे तलाशने थे
आखिर हरापन कब तक साथ देगा
प्रकृति न्यायोचित फैसले करती है
कभी तुम, कभी मैं ।
नौ
यदि बचा रहा आदमी
तुम जिसे प्रेम कहते हो
वह एक अवकाश है
और कुछ नही
कुल उम्र की परिधि में
एक विशेष सा ख्याल है ।
मृग मरीचिका सा ताउम्र
उथले मन की इधर उधर की
उलझन में पूर्ण सा करता
बस अपूर्ण अहसास
अंत में खाली हाथ
आदमी बदहवास है ।
कभी शरीर,कभी रूह कह
शब्दों की परिभाषा गढ़ता
खुद को छलता
कुछ नही सब बकवास है ।
जैसे जब तुम मिल रहे हो
कौन से पूर्ण हो
पूर्ण होना होता ही कहाँ है,
क्योंकि कभी जब नही मिल रहे हो
तब अपूर्णता को माप लेते हो
माप लेते हो स्वयं का होना
और कभी न होना
माप लेते हो समय की
अठखेलियों को
माप लेते हो, बहुरँगी खेलों
की हार जीत को
तब थक कर
बृहद आकाश के शून्य
को ताकते हो
जिस दिन पत्तियों में अटकी हुयी
पानी की बूँद को स्पर्श करते हो
जिस दिन नन्हे पौधों के पाँव के
नीचे दबते ही उठाने को झुकते हो
जिस दिन राह चलती चीटीयों से बचते
बचाते निकलते हो
और जब तुम्हारी सारी शिकायतें
शून्य पर ठहर जाती हैं
और तुम प्रकृति के हर उतार चढ़ाव
और ठहराव पर मौन
होने लगते हो
तब सही मायने में प्रेम की
परिपाटी समझने लगते हो
और प्रेम की संकीर्णता से परे
किसी एक या कुछ हृदयों
से निकल बृहद प्रेम की धारा में
बहने लगते हो तब
यदि बचा रहा आदमी में आदमी
तो शेष अनुभूति में
धरा और आकाश की
गहराईयों से प्रेम करने लगता है
जीवन के अवसान तक ।
दस
बडा हो गया बचपन !
जादू की पोटली
अलादीन के चिराग
रंगीन सी बातों
रंगों ,सपनों में गुम
चंपक नंदन की बातें
कागज की नाव
लकडी मिट्टी के खिलौने
अब वैसे नही हो तुम
कहीं खो गये हो बचपन
तब कहां मालूम था
तितलियों के पीछे भागने
में पेट नही भरा करते
अलग अलग रंगों से
भरे रंगीन कैनवाश
जीवन में इतनी आसानी
से उतरा नही करते
जब चित्र बनाये घरों व
फुलों से लदे आंगन के
तब कहां मालूम था
घर बनाते एक दशक
चुटकियों में निकल कर
कई सवाल, संकेत
पीछे छोड़ जाते है
बड़ा होकर भी बचपन
अजब हैरान करता है
अकेले में बैठो तो चुपके से
कभी कभी मन ही मन
वो आज भी शैतानियां
बेमिसाल करता है,यूंही बस
देखते ही देखते बडा हो गया
एक छोटा सा बचपन !
००
नीलम पांडेय "नील"
जन्म तिथि : 17 फरवरी
जन्म स्थान : रानीखेत जिला अल्मोड़ा
वर्तमान निवास : देहरादून
ईमेल आई• डी• naveeneelam@rediffmail.com
शिक्षा : एम . ए. अंग्रेजी साहित्य तथा मास्टर इन सोसियल वर्क ।
कार्य : ग्राम्य विकास संस्थान
कृतियाॅ : सांझा संकलन (काव्य रचनाएँ ),अखंड भारत पत्रिका, कादम्बनी,हिम आकाश दैनिक सवेरा टाइम्स, सर्व भाषा ट्रस्ट बुलेटिन तथा अन्य पत्रिकाओं लिटरेचर पांइट, हस्ताक्षर मासिक वेब आनलाइन पत्रिकाओं (काव्य रचनाएँ एवं लेख ) आदि में रचनाएँ प्रकाशित ।
नीलम पाण्डेय |
मैं कविता क्यों लिखती हूँ
मैं भी नही जानती बस लिखना घट जाता है कभी भी,कहीं भी,बार बार और कभी अनायास । कविता का घटना पहाड़ो से पहाड़ों की मेरी जीवन यात्रा के पड़ावों में सूक्ष्म से सूक्ष्म समय के अनुभव हैं । जो ना जाने कब धीरे धीरे पक कर भावों की खेती को कविता में परोस देता है जिसे लिखने के बाद मैं अकसर एक अजीब सी तृप्ति के उन्माद में भीग जाती हूँ । मैं कविता इसलिए भी लिखती हूँ ताकि समय की आँच में पके अनगिनत अनुभव दबी दबी आहट से जब बाहर आने को आतुर हो उठते हैं तब मैं मेरा होना महसूस करने लगूँ । एक रचनाकार याद रखता है जीवन की सतह पर गाहे बगाहे विकसित हो आऐ अनुभवों की अनगिनत पहाड़ियों को और वह जानता है, इनमें चुनौतियों के अंबार है जिन्हें वह सिर्फ एक सीमा तक ही तोड़ सकता है किन्तु जब वह उन्हें नही तोड़ पाता है तब वह उनपर चलना शुरू कर देता है और उसी में अपनी कल्पनाओं का घर बना लेता है अकसर उसे भी नही पता चलता है कि कब वह चुनौतियों का हिस्सा बन खुद एक चुनौती बन जाता है । धीरे धीरे वह अपने आसपास चलती फिरती अनगिनत किताबों यानि प्रकृति,प्राणी और स्वयं के जीवन से बुदबुदाते मन को चुराने लगता है तब सृजन होती है एक कविता जो मुझे बेहद अच्छी लगती है । मैं आदमियों के उगते जंगल से थोड़ा सा समय चुराकर शब्द बुनती हूँ और हवा में छोड़ देती हूँ क्या पता कुछ मेरे जैसा सोचते हों,क्या पता कुछ बुने हुऐ शब्दों की किसी को जरूरत हो, और क्या पता, क्या हो ......बस अच्छा लगता है।
कविताएँ ........
एक
धरा के लिए आकाश
बृहद है, बहुत बृहद
जबकि आकाश का
बजूद धरा में निहित है
इसलिए 'अभ्र' असीमित है।
आकाश ने भ्रम दे कर
उसके पाँव बांध लिए हैं,
तबसे धरा एक ही धुरी में घूम रही है
इसी घूमने को वह अकसर ......
उसका दुस्साहस कह जाता है।
बेखबर,धरा हरी होती है
अतिशय प्रेम में वह
नीले, बैगनी फूलों से सजती है
तब आकाश भी अपना
फिरोजी होना छुपा नही पाता है।
अकसर, मौन संवाद किसी
एक को बौना कर देते हैं, और
दूसरे को असीम तारापथ की
यात्रा अवसरों से भिगो देते हैं
तब यूँ कहो कि दो विचारधाराऐं
अपने अपने अंदाज में डूब जाती हैं ।
दो
बुलबुला
पानी के कई अनगिनत से बताशे
रोज मेरे खेलों में बनते बिगड़ते हैं
आज फिर खुब चमकता सा एक बुलबुला
अनायास हवा में गुम होता गया ।
ऐसे ही बेबाक मेरा हसँना और
मेरी चमकती आखों में क्षणिक
झिलमिलाते असँख्य जुगनु
कई दफा रात में बने
और दिन में उनका पता न लगा।
रोटी में चांद खोजने की कोशिशें
नमक की ढेली में हर बार नये स्वाद लेता
जिंदा रखता गया मुझमें मेरा सपना
चाहे मैं कई बार कुर्ते की
बाँहे अनायास भिगा गया ।
मैं नही जानता खुशियों के बँटवारे
सबके लिये अलग अलग कैसे हैं
किन्तु मेरी खुशियों के
मायने कुछ तो जुदा है
उन्हे आसान और मुझे
पल पल जलजला मिलता गया
गाहेबगाहे आती रही
जो चुनौतियों की सदाऐं
परवाह नही कौन मुझसे
मेरी राहे जुदा करता गया
मैं हसँने के बहाने तलाशता
सा बेफिक्र,भले ही आज भी वही हूँ
एक बनता बिगड़ता सा बुलबला ।।
तीन
आशिफा सुनो !
सड़कों पर जो हूजुम है
वह मृत्यु से भयभीत है
अपराध से नही
कुछ दिन मृत्यु हावी
रहती है
उनके मानस पटल पर ।
उसे अपराधी से भी शिकायत
नही उसे तो जो मृत्यु दी सिर्फ
उस कृत्य पर शिकायत है
वरन सोच तो यही है
ऐसी गलती
हो जाती है कभी कभी ।
पर आशिफा !
यहाँ एक अच्छे
न्याय के लिऐ
मरना जरूरी है,
मरने के बाद
अपराध की बरबरता
साबित होना भी जरूरी है ।
क्योंकि हमारी समझ
बड़ी कमजोर है
इस खबर के बाद भी
जारी है कलुषित मानसिकता का खेल
हँसी मजाक में माँ बहन करते,
गाली देते, द्वीअर्थी बातें करते
सड़कों के किनारे
नाले तैयार करते
या व्यसन में डूबे
पुरुष हमें सामान्य ही नजर आते हैं ।
जबकि आपातकालीन समय खुले में
लघुशंका करती स्त्री विचित्र
नजर आती है ।
सुनो ! पर कई दफा
जिंदा स्त्री
कमजोर पैरवी से
साबित नही कर पाती
अपराध की बरबरता
लोग साथ भी कैसे देते
कुछ मोमबत्तियाँ तो मृत्यु के लिऐ
ही खरीदी जाती हैं ।
और स्त्री भी एक दिन कबूल
कर लेती है सब "झूठ"था
और बच्चियां खामोश होने
लगती हैं धीरे धीरे
और फिर कभी भी
कहा जा सकता है
कि चरित्रहीन औरतें
ऐसी ही होती हैं ।
चार
सूरज का पीछा
मुझे अच्छा लगता है
सूरज से पहले उठना
उसका पीछा करना
सूर्य उदय की ओजस
में भीगना,सुखना और
सांझ तक उसके साथ चलना
फिर धीरे से बुदबुदाना कि
तुम सांझ होते ही चले गये ना
देखो, मैं अभी भी चल रही हूँ
फिर उसकी जाती हुई रक्तिमता को
अपलक निहारना
मुझे अच्छा लगता है ।
वह जब अंतिम सफर पर
कुछ पल ठहर जाता है ना
तब अपनी नन्ही सी
जीत का जश्न मनाना
मुझे अच्छा लगता है
कभी वह आकाश की
गोद में छुप कर किसी
और की रोशनी बन
सहसा इतराने लगता है ।
तब अँधेरे में उसका न होना
भी मुझे अच्छा लगता है
मैं क्षितिज तक रोज उसे विदा
कर लौट आती हूँ,अपने अन्धेरे में
फिर रात भर रोशनी से अजनबी
बनकर,सुबह उसके साथ फिर से
हमसफर होना मुझे अच्छा लगता है ।
अकसर उसे कहती हूँ जब तुम
धीरे धीरे अलसाये से उठते हो ना
मैं तुम्हें छुने की कोशिश करती हूँ ।
पता है,जब तुम आकाश की
ऊँचाई तय करते हो
तब मैं पहाड़ों को
चढ़ना शुरू करती हूँ
शाम को हम दोनों साथ साथ
उतरते हैं विश्राम की ओर
अपने अपने क्षितिज में
और हम उसी किनारे पर
रोज मिलते हैं क्यों कि
सूरज और मेरा क्षितिज एक है ।
बस ! वह पहले डूब जाता है
और मैं हमेशा उसके बाद
और कभी कभी उसके सुबह
वापस आने तक भी नही डूबती मैं
फिर उसे उलाहना देती हूँ कि
तुम्हारे ये छलावे रोज के हैं
मेरी उम्र तुम्हारे आने जाने को
गिनती रही सदियों से
देखना इस बार मेरी बारी
होगी पहले डूबने की
और तुम उसी किनारे पर
मुझे बिदा करोगे
फिर कई युगों तक तुम
खोजना मेरा उगना
उसी क्षितिज पर ।
पाँच
तुम 'उषा' खोज रहे हो
और मैं 'आशा' को
हम लोग
स्मृतियों के हिसाब
बेहिसाब रखते हैं ।
चीढ़ के घने जंगलों में
पल पल महकती
जंगली फ्यूंली की
पिताम्बरी को तुम भी देखना
चाहते हो एक बार ।
और मैं भी, खोजती हूँ
देवदार वनों के ढलानों में
उतरता उसके गाँव का रास्ता
यह जानते हुए कि अब वह
वहाँ कभी नही मिलेगी ।
दाड़िम के लाल फुलों
से सजा गुड़िया का महल भी
तोता तोता पास या फेल
कहते हुए काली धारी वाले लाल
कीट को उड़ते देखना भी ।
अकसर दूर तक विचरण कर
लौट आती हैं उसकी स्मृतियाँ
रह रहकर मेरे पास
ना जाने क्यों ? शायद
कुछ तो खास होगा उसमें ।
'उषा'और 'आशा' के
वो कौन से अनकहे क्षण हैं
या फिर हममें ही उनकी कोई
असीम आत्मीयता
जो बार बार हम
अपनी स्मृतियों को सजाते हैं ।
क्यों हमारे शब्द और मिलती
जुलती परिस्थितियाँ एक ही
भावपटल में दिखती हैं
तुम भी वही कहते हो
जो मैं सोचती हूँ ।
और मेरी इस 'आशा' की चाह में,
मैं कई दफा चुरा लेती हूँ
वो सब अनुभूतियाँ
सच ! चुरा लेती हूँ, तुमसे तुम्हारी
स्मृतियाँ भी ।
छः
जैसी उस वक्त थी
सूरज की परावैगनी किरणें
अहहह .......वही कड़ी सी धूप
वैसी ही तपिश
जैसी उस वक्त थी, और
फिर शीत की लंबी रातें
बेसुमार बरसात न थमने वाली
कई कई दिनों तक
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
सायं सायं करती हवा
अचानक कौंधती बिजली
अन्दर अनहद खामोशी
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
शगुन अपशगुन के बीच
डोलता मन और
रात से सुबह तक की
लंबी जद्दोजहद वैसी ही
जैसी उस वक्त थी ।
दिन कैसे एक महत्वाकांक्षी
मानव को क्षीण क्षीण
रात की आगोश में ले रहे है
एक अनबुझी यात्रा
बिलकुल वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
यदा कदा ही मानव जीवित रहते है
युगों में वरन बूँद बूँद आत्मा का रिसाव
सांसो की ढीली पड़ती प्रत्यंचा
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
जो मंजर आज है फिर मिलेंगे
वो लोग हम जिन जिन से मिले,
आगे के मोड़ो पर फिर मिलेंगे
किन्तु अजनबी सी नई राह होगी
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
परन्तु उस वक्त का वह
कौन सा वो वक्त था
जो यदा कदा मानस पर दस्तक दे
दोहरा रहा चेतना को अनायास
बिलकुल वैसे ही जैसी उस वक्त थी
युगों युगों को छुता मानव
फिर भी अनभिज्ञ है
खुद से और विस्मृति के सागर में
छल रहा खुद को आज की स्मृति में
वैसी ही जैसी उस वक्त थी ।
सात
सुबह जैसी शाम
कुछ नही बस .....यूँ ही
खाली अक्षांश में
सोयी हुयी नियति मात्र
कभी रेतीले रेगिस्तान में
चमकते पानी का सा भ्रम ।
जब सुबह और शाम के फर्क
धुंधलाने लगते है तब रंगे हुऐ
गगन में अलसाया सा सूरज भी
अपनी तपिश में जलता
अकसर अकेला रह जाता है ।
धरा की रोशनी होकर भी वह
आने वाली शाम को उनींदी
आखों में समेट
चाँद के अनचाहे स्पर्श के
सपने देखता है ।
ढलती शाम में चांद जैसा
बनने की कोशिश
किन्तु सूरज फिर भी नही छोड़
पाता अपनी रक्तिमता
कितने अलग चांद और सूरज ।
एक ही आकाश में दो अजनबी
जब खुद आकाश गंगा के रास्ते में चलते हैं
तब चटक सुबह और इंद्रधनुषी शाम में
पुरी कायनाथ को गुलाबी हो आयी
आखों से समेटने लगते हैं ।
सदियों से ये लुकाछिपी
किसी से छुपी नही है
पर जब नही देख पाती
अधूरे मिलन को तब परियां
शाम को धरती पर उतरती हैं ।
वो बंद होते फुलों में रात होने तक छुप
जाती है तब उसी क्षण शाम बेहद
रंगीन होती है ,कुछ पल सुरज और चांद
इकठ्ठे आसमान में दिखते है
आह ! तब थोड़ी सी सुबह जैसी शाम होती है ।
आठ
घौंसलों सा भविष्य
कहूँ, पर सोचूँ न कतई भी
कोई ऐसी सी बात बता ना मन
कोई फरेब, कोई ऐसा गुर भी बता ना
लिखूं न मन की सतह !
वे जो पढ़ते हैं मेरे अनाम
असफल वाक्यांश और
कुछ बेस्वाद शब्द भी
यूँ ही.... या कुछ भी नही है !
कोई लेखनी बता कि मैं लिखूं
बिन कहा सा कोई सारांश
जहाँ भीगता हो आदमी,आदमी
या कोरे कागज सा पढ़ा जा रहा हो उम्रभर !
मैं मरी हुई जीवित लाशों का सच
न सही किन्तु कहूँ उसको
जो लिख नही रहा पर बुन रहा है
अपनी आवाजाही को समय
की दहलीज पर बिन कहे !
सच तो यह हैं ना ।
उसवक्त,मैं वर्तमान न लिखूँ
लिखती रहूँ ,पेड़ों में खाली रह गये
बया के घौंसलों सा भविष्य !
क्यों कि मेरी संवेदनाओं के जल में
अनगिनत बार मरी हुई मछलियाँ
जीवित होती रहती हैं और कभी
मरते हुए जीने का उपक्रम भी करती हैं ।
कुछ लोग एक सदी तक
हरी घास में छिपे मच्छरों की तरह
पीछा कर काटते हैं आदमी को
उसकी सोयी हुयी महत्वाकांक्षाओं को भी !
आज वे समय की दहलीज पर धूमिल हो गये हैं
क्योंकि घास का सूखना तो तय है
उन्हें छिपने के आसरे तलाशने थे
आखिर हरापन कब तक साथ देगा
प्रकृति न्यायोचित फैसले करती है
कभी तुम, कभी मैं ।
नौ
यदि बचा रहा आदमी
तुम जिसे प्रेम कहते हो
वह एक अवकाश है
और कुछ नही
कुल उम्र की परिधि में
एक विशेष सा ख्याल है ।
मृग मरीचिका सा ताउम्र
उथले मन की इधर उधर की
उलझन में पूर्ण सा करता
बस अपूर्ण अहसास
अंत में खाली हाथ
आदमी बदहवास है ।
कभी शरीर,कभी रूह कह
शब्दों की परिभाषा गढ़ता
खुद को छलता
कुछ नही सब बकवास है ।
जैसे जब तुम मिल रहे हो
कौन से पूर्ण हो
पूर्ण होना होता ही कहाँ है,
क्योंकि कभी जब नही मिल रहे हो
तब अपूर्णता को माप लेते हो
माप लेते हो स्वयं का होना
और कभी न होना
माप लेते हो समय की
अठखेलियों को
माप लेते हो, बहुरँगी खेलों
की हार जीत को
तब थक कर
बृहद आकाश के शून्य
को ताकते हो
जिस दिन पत्तियों में अटकी हुयी
पानी की बूँद को स्पर्श करते हो
जिस दिन नन्हे पौधों के पाँव के
नीचे दबते ही उठाने को झुकते हो
जिस दिन राह चलती चीटीयों से बचते
बचाते निकलते हो
और जब तुम्हारी सारी शिकायतें
शून्य पर ठहर जाती हैं
और तुम प्रकृति के हर उतार चढ़ाव
और ठहराव पर मौन
होने लगते हो
तब सही मायने में प्रेम की
परिपाटी समझने लगते हो
और प्रेम की संकीर्णता से परे
किसी एक या कुछ हृदयों
से निकल बृहद प्रेम की धारा में
बहने लगते हो तब
यदि बचा रहा आदमी में आदमी
तो शेष अनुभूति में
धरा और आकाश की
गहराईयों से प्रेम करने लगता है
जीवन के अवसान तक ।
दस
बडा हो गया बचपन !
जादू की पोटली
अलादीन के चिराग
रंगीन सी बातों
रंगों ,सपनों में गुम
चंपक नंदन की बातें
कागज की नाव
लकडी मिट्टी के खिलौने
अब वैसे नही हो तुम
कहीं खो गये हो बचपन
तब कहां मालूम था
तितलियों के पीछे भागने
में पेट नही भरा करते
अलग अलग रंगों से
भरे रंगीन कैनवाश
जीवन में इतनी आसानी
से उतरा नही करते
जब चित्र बनाये घरों व
फुलों से लदे आंगन के
तब कहां मालूम था
घर बनाते एक दशक
चुटकियों में निकल कर
कई सवाल, संकेत
पीछे छोड़ जाते है
बड़ा होकर भी बचपन
अजब हैरान करता है
अकेले में बैठो तो चुपके से
कभी कभी मन ही मन
वो आज भी शैतानियां
बेमिसाल करता है,यूंही बस
देखते ही देखते बडा हो गया
एक छोटा सा बचपन !
००
नीलम पांडेय "नील"
जन्म तिथि : 17 फरवरी
जन्म स्थान : रानीखेत जिला अल्मोड़ा
वर्तमान निवास : देहरादून
ईमेल आई• डी• naveeneelam@rediffmail.com
शिक्षा : एम . ए. अंग्रेजी साहित्य तथा मास्टर इन सोसियल वर्क ।
कार्य : ग्राम्य विकास संस्थान
कृतियाॅ : सांझा संकलन (काव्य रचनाएँ ),अखंड भारत पत्रिका, कादम्बनी,हिम आकाश दैनिक सवेरा टाइम्स, सर्व भाषा ट्रस्ट बुलेटिन तथा अन्य पत्रिकाओं लिटरेचर पांइट, हस्ताक्षर मासिक वेब आनलाइन पत्रिकाओं (काव्य रचनाएँ एवं लेख ) आदि में रचनाएँ प्रकाशित ।
अच्छी और सच्ची कविताएं। प्रकृति, प्रेम और इंसानी रूहानियत का संतुलन गजब का है। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंप्रकृति, प्रेम और साहित्य का अपूर्व संगम ।
जवाब देंहटाएंआप सिर्फ बधाई के पात्र नहीं, और भी बहुत कुछ !
शब्द नहीं हमारे पास आपकी तारीफ के लिए।
Bahut sundar
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