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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 जून, 2018

निर्बंध: एक


कौन तार से बीनी चदरिया


यादवेन्द्र


मित्रों, 
आज से बिजूका पर श्री यादवेन्द्र जी का पाक्षिक स्तम्भ: निर्बंध,   
शुरु कर रहे हैं।  निर्बंध के तहत यादवेन्द्र जी देश और दुनिया के किसी भी कलारूप और कलाकार के  संघर्षों से अवगत कराएंगे। 

आज हम इसकी पहली कड़ी प्रकाशित कर रहे हैं। निर्बंध महीने की एक और पन्द्रह तारीख को प्रकाशित होगा। 

आशा करते हैं कि बिजूका के पाठक मित्रों के लिए निर्बंध 
जानकारी परख, ज्ञानवर्धक  और रुचिकर होगा । 

बिजूका पर आगे और भी कुछ कॉलम शुरु करने की योजना है। यदि बिजूका के स्नेहिल मित्र, पाठक और रचनाकार साथी इस संदर्भ में अपने महत्त्वपूर्ण सुझाव देना चाहें तो उनका हार्दिक स्वागत है। सुझाव नीचे कमेंट की जगह या फिर बिजूका की ईमेल आईडी - bizooka2009@gmail.com , पर दिये जा सकते हैं ।     

सत्यनारायण पटेल



निर्बंध: एक



कौन तार से बीनी चदरिया


यादवेन्द्र


बाबा आदम के जमाने से इंसानी जीवन कभी भी किसी निर्धारित दायरे में बंध कर नहीं चला न ही सीधी क्षैतिज रेखा में आगे बढ़ा.... पारम्परिक अर्थों में कहें तो तय सीमाओं के अतिक्रमण पर अक्सर बड़े बुजुर्गों की  तिरछी नज़र ही रही है और यथासंभव इसको हतोत्साहित किया जाता रहा है।पर इस से कौन इन्कार कर सकता है कि विकास और बदलाव का पहिया हमेशा सीमाओं के अतिक्रमण के बीहड़ प्रांतर से होकर ही आगे बढ़ा है।जिजीविषा और बदलाव की उत्कंठा के बीच कई बार प्रतिरोध के ऐसे अदेखे अबोले आख्यान सामने आते हैं कि ध्यान हटता नहीं - मानव जीवन का असल सौंदर्य शास्त्र इन्हीं से निर्मित होता है।यह पाक्षिक कॉलम विभिन्न कला माध्यमों के बीच झिलमिलाते झाँकते ऐसे मोतियों को लड़ी में पिरोने की कोशिश है।

यादवेन्द्र


यादवेन्द्र 

बातें अप्रत्याशित तौर पर कहाँ से कहाँ जाकर जुड़ जाती हैं -  एक दिन सुबह सुबह मैं अपनी बेटियों  के साथ घर के पिछवाड़े बैठा चाय पी रहा था कि एक पीले होते पपीते पर चिड़िया चोंच मारती दिख गयी।मेरी फूलकुमारी ने आवाज़ देकर चिड़िया को उड़ा दिया पर  मैंने टोका कि इस  फल पर तो कुदरती उनका ही हक है,अब रोकना  मत उनको...हमने उनसे उनका खाना इस तरह छीन लिया तो बेचारे परिंदे  कहाँ जायेंगे - और दिल पर हाथ रख के कहो ,बगैर इनके तुम्हें यह घर भी घर जैसा लगेगा ? मैंने उसे बताया कि नेट खोल कर देखोगी तो सैकड़ों ऐसी साइट्स दिखेंगी जो तरह तरह के उपाय बताती हैं जिनसे चिड़ियों को फलों के बाग़ से दूर रखा जा सके।कई तरह के कोर्स भी होते हैं इनके। इन उपायों में बड़ी चद्दरों सरीखी जालियाँ और चिड़ियों को परेशान  करने वाली आवाज़ निकालने वाले स्पीकर सबसे ज्यादा लोकप्रिय उपाय हैं पर कुछ दिनों पहले पढ़े एक लेख के बारे में मैंने बेटी को बताया जिसमें पुराने चमकदार कंप्यूटर डिस्क को फलदार वृक्षों पर लगाया गया तो पक्षी उसकी परावर्तक सतह को देख कर दूर रहे।


हिमाचल यात्रा में  सेब के बड़े बड़े बागानों को हरे रंग की जालीदार चद्दरों से ढंके हुए खूब देखे भी हैं। मेरे बाग में खूब मेहनत करने वाले माली को सबसे ज्यादा गुस्सा अपने फलों को चिड़ियों के खाने या बर्बाद करने पर आता है - हाड़तोड़  मेहनत   करने वाले के लिए यह स्वाभाविक भी है। आम हो या अनार हो या पपीता ,जैसे ही वे पकने शुरू होते हैं वह उनपर कपड़े लपेट कर बाँध देता है जिससे वे चिड़ियों की पहुँच से बाहर हो जायें। उसने नाशपाती के ऊँचे पेड़ पर एक डिब्बा बाँध रखा है जिसे नीचे से रस्सी खींच कर बजाता भी रहता है  जिससे पक्षी दूर रहें।  पर जब नाशपाती के फलों पर  उसकी यह तरकीब भी काम नहीं आयी तो उसने हमें बताये बगैर एक ऐसा कारनामा  किया जिसके लिए 25 वर्षों में पहली बार उसे तगड़ी डांट सुननी पड़ी - उसने ब्रेड में जहर मिला कर इधर उधर रख दिए जिसे खा कर दो तीन चिड़ियाँ मर गयीं। उसके बाद चिड़ियों ने हमारा घर महीनों तक त्याग दिया था ,मोर भी नहीं फटके उधर।हम उनके बगैर अनाथ और अछूत हो गए थे पर उन परिंदों को अपनी सदाशयता का भरोसा दिलाते भी तो कैसे।  धीरे धीरे हमें उन सीधे सरल प्राणियों ने माफ़ी दे दी और फिर से हमसे घुलमिल गए पर शमशेर माली का अपराध अक्षम्य था और अंत अंत तक उसने निगाहें उठा कर बात नहीं की।



तभी ऋचा ने बी वी कारंत के उस नाटक की याद दिलायी जो अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों के साथ कमानी थियेटर में किया था और हम अखबार में सूचना देख कर बगैर किसी पूर्व योजना के साथ साथ उसे देखने पहुँच गए थे - रबीन्द्र नाथ ठाकुर की मशहूर कहानी "तोता काहिनी" पर आधारित उस नाटक का शीर्षक कारंत ने सम्भवतः 'पिंजरशाला' रखा था।वह  नाटक  एक तोते  के राजा के बाग़ में लगे पके फल बगैर इजाज़त लिए  खा लेने के कारण अनुशासनहीनता के आरोप में उसे दण्डित करने का आख्यान था। वह पक्षी बड़ा मूर्ख था। गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था। फुदकता और उड़ता था मगर यह नहीं जानता था कि कायदा-कानून किसे कहते हैं। राजा ने कहा, ‘ऐसा पक्षी किस काम का? जंगल के फल खाकर जो शाही फलों के बाग में नुकसान पहुंचाये।’ मंत्री को बुलाकर आदेश दिया, ‘इस पक्षी को शिक्षा दो।’ यह पक्षी छोटा सा घोंसला बनाता है वह इतना छोटा है कि उसमें विद्या जैसी भारी-भरकम चीज रखने की जगह ही कहां है? इसलिये सबसे पहली जरूरत यह है - इस पक्षी के लिये एक शानदार पिंजड़े का निर्माण किया जाये।राजा के आदेशानुसार तोते के लिए एक भव्य पिंजरा बनवाया गया ,वह भी सोने का। यह भव्य पिंजरा राजा की सदाशयता और तरक्की पसंदी का प्रतीक बन गया और लोगबाग उसको देखने के लिए उमड़ने लगे। पंडितों को बुला कर मोटी मोटी पोथियों के भाष्य और टीका तैयार कराये गए जिसके पन्ने फाड़ फाड़ कर तोते को हजम कराने के अभियान शुरू किये गए - ऐसे में उस बेचारे के खानपान के कुदरती साधनों की तरफ़ भला किस का ध्यान जाना था।एकदिन राजा ने खुद चल कर सारा इंतजाम देखने की इच्छा जाहिर की ,वह हुआ भी पर पक्षी को सिखाने का तामझाम इतना बड़ा था कि राजा और उसके लाव लश्कर को पक्षी कहीं नजर ही नहीं आ रहा था। 
पिंजड़े में न दाना था न पानी। थी केवल विद्या की भरमार। ढेर सारी पोथियों के ढेर सारे पन्ने फाड़-फाड़ कर कलम की नोंक  से पक्षी के मुंह में बेरहमी पूर्वक ठूंसा  जा रहा था। उसका गाना तो कब का बंद हो चुका था। चीखने-चिल्लाने की भी कोई गुंजाइश नहीं थी। एकदिन पहरेदारों ने कोतवाल को खबर दी कि तोता अपने निर्बल चोंच से पिंजरे को तोड़ने की कोशिश कर रहा था और बार बार अपने पंख भी फड़फड़ा रहा था। फिर क्या था आनन् फानन में  सुरक्षा का हवाला देकर लोहे की जंजीर तैयार की गयी। फिर देखते-देखते पक्षी के पंख भी काट दिये गयेराजा के विद्वान दरबारियों ने एकमत से यह  रिपोर्ट दी  : राज्य के  पक्षियों की बात न पूछो। अक्ल तो उनमें पहले से ही नहीं थी। परंतु अब तो कृतज्ञता भी नहीं रही।’ इन सारी  आवभगत से राजा के लोग मालामाल जरूर हुए पर तोते का जीवन नहीं बचाया जा सका।इसके बाद  दरबारियों ने घोषणा की कि पक्षी की शिक्षा संपूर्ण हुई। अपनी अनुशासनहीनता छोड़ कर अब न वो फुदकता है, न उड़ता है! राजा ने पक्षी को खुद हाथ में लेकर देखा ,यहाँ वहाँ कोंचने पर भी  न उसके मुंह से हां-हूं हुई, न हल्की सी सिसकी ही निकली और न उसके पंख विहीन देह में कोई हरकत हुई। केवल उसके पेट में पोथियों के सूखे पन्ने खरखराहट सी करने लगे।राजा को भी विशवास हो गया कि मूढ़ मगज पक्षी को शिक्षित करने का उसका परम् लोक कल्याणकारी सारी सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। 


कारंत साहब


इधर राज दरबार में तोते ने आखिरी साँस ली ,उधर  बाहर नये वसंत की दक्खिनी बयार में सारी कलियों, सारे फूलों ने एक गहरी आह भरी।
सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चों को नाट्यशास्त्र में इतना सघन अंतरंग शामिल कर लेना कि वास्तव और अभिनय की विभाजक रेखा पूरी तरह मिट जाये,कारंत के शिल्प और व्यक्तित्व  का जादुई कमाल था।प्रस्तुति के अवसर पर कारंत स्वयं उपस्थित थे और बीच बीच में कलाकार बच्चों से संवाद भी कर रहे थे। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे किस सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं किसी से छुपा नहीं है - मैं अपने किसी निकट के परिवार को नहीं जानता जिसके बच्चे आज की तारीख में कॉन्वेंट और प्राइवेट स्कूलों को छोड़ कर सरकारी स्कूल  में पढ़ते हैं और दिल्ली के इस आयोजन में शामिल बच्चों के दूर दूर से आये परिजनों के कपडे लत्तों को देखकर उनकी माली हालात समझना मुश्किल नहीं था। उस दिन मेरे मन में वर्गीय चरित्र के कारण गहरे रूप में जड़ जमाये संस्कृति संबंधी यह   विचार  कि अच्छे खातेपीते परिवारों में ही संस्कृति की समझ और पोषण सम्भव है ,गरीबों और समाज की निचली सीढ़ी के लोगों की कोई सांस्कृतिक समझ नहीं होती ,सचमुच काँच के किसी कीमती पात्र सा खंडित हो रहा था।नाटक में मुख्य पात्र तोते की भूमिका दर्जा छह की जिस छात्रा ने निभायी थी उसका मन को बेध देने वाला क्रंदन आज भी जब याद आता है मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है - बगैर पात्र और कथ्य की सांस्कृतिक समझदारी के कोई कारावास की वैसी दारुण पीड़ा को व्यक्त कर ही नहीं सकता ... किरदार के जीवन को आत्मसात करने के लिए गहरी संवेदना और करुणा की दरकार होती है जो उस दस ग्यारह साल की बच्ची में कूट कूट कर भरी थी जिसको निर्देशक ने समझा और उभारा। मैंने कारंत से इस बावत देर तक बात की और अपने अप्रत्याशित  आत्मबोध के बारे में बेवाक होकर बताया। उन्होंने मेरी बात को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा कि देश के विभिन्न ग्रामीण अंचलों में घूमते नाटक करते हुए उन्होंने समझा कि संस्कृति को बचाने का माद्दा सिर्फ़ उन भोले भाले अल्पशिक्षित ग्रामीणों में है ,जड़विहीन शहरी मध्यवर्ग में बिलकुल नहीं। मैंने कारंत से बात कर जल्दी ही रुड़की में स्कूली बच्चों के साथ एक थियेटर वर्कशॉप आयोजित करने की सहमति प्राप्त की...अफ़सोस,कारंत से बातचीत आगे बढ़ती उस से पहले ही वे हमें छोड़ कर चल दिए।

भला हो पीले पपीते और चिड़िया का कि हमने सुबह सुबह भारतीय नाट्यशास्त्र के अनूठे सितारे बी वी कारंत को न सिर्फ़ याद किया बल्कि प्रणाम भी किया।
००


(कहानी के चुनिंदा उद्धरण http://www.rachanakar.org/2015/05/kahani-tota-by-rabindranath-thakur.html  से साभार)
यादवेन्द्र जी एक और पोस्ट नीचे लिंक पर पढ़िए

उनके हाथ में इतना ही है


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/blog-post_81.html?m=1



संक्षिप्त परिचय:

यादवेन्द्र 

जन्म 1957 बिहार के आरा में
बिहार के विभिन्न शहरों गाँवों से स्कूली और भागलपुर से  इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ महीनों के लिए छत्तीसगढ़ के कोरबा में नौकरी। 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक के तौर पर काम करने के बाद  अंततः निदेशक के तौर पर वहाँ से  जून 2017 में कार्यमुक्त हुए - वैज्ञानिक कर्म के मुख्य विषय : हिमालयी भूस्खलन और भूकम्प का अध्ययन और भवनों पर इसका प्रभाव कम करना , पर्यावरण संरक्षण की दिशा में इंस्ट्रूमेंटेशन का लक्षित हस्तक्षेप और सांस्कृतिक विरासतों का वैज्ञानिक उपादानों के उपयोग से संरक्षण। इन वैज्ञानिक कामों पर लोकप्रिय व्याख्यान ख़ास तौर पर विद्यार्थियों के बीच देना अत्यंत प्रिय अध्यवसाय। एकाधिक बार प्रोफेशनल काम से विदेश यात्रा।वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में प्रचुर लेखन। अवकाश प्राप्ति के बाद अब दशकों से अधूरे पड़े सृजनात्मक साहित्यिक कामों को पूरा करने का संकल्प। रविवार,दिनमान,जनसत्ता, नवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला ,प्रभात खबर,आविष्कार ,साँचा ,कादम्बिनी , लोकमत समाचार,समकालीन जनमत  इत्यादि में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन। विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदय, पहल ,हंस ,कथादेश,वागर्थ,शुक्रवार,अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और अनुनाद ,कबाड़खाना, लिखो यहाँ वहाँ ,ख़्वाब का दर,सेतु साहित्य,समालोचन,सदानीरा,बिजूका  जैसे साहित्यिक ब्लॉगों में प्रकाशित। मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित "कथादेश" का अतिथि संपादन। साहित्य के अलावा सैर सपाटा ,सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी का शौक।हाल में भारतीय ज्ञानपीठ से विभिन्न देशों की लेखिकाओं की कहानियों का संकलन 'तंग गलियों से भी दिखता है आकाश' (2018) प्रकाशित। वर्तमान में पटना में निवास।

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294 


यादवेन्द्र का एक और लेख नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/blog-post_81.html?m=1



7 टिप्‍पणियां:

  1. स्वागत है इस स्तम्भ का । यादवेंद्र जी ने अच्छी शुरूवात की है ।

    आदमी के भोलेपन में ही संस्कृति और मनुष्यता बची रहती है । यह बात छू गई । निम्न कथन उल्लेखनीय है --

    "उन्होंने मेरी बात को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा कि देश के विभिन्न ग्रामीण अंचलों में घूमते नाटक करते हुए उन्होंने समझा कि संस्कृति को बचाने का माद्दा सिर्फ़ उन भोले भाले अल्पशिक्षित ग्रामीणों में है ,जड़विहीन शहरी मध्यवर्ग में बिलकुल नहीं।"

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  2. सहज, जीवंत और बेहद ज़रूरी बात करता हुआ लेख! बधाई यादवेन्द्र जी को! आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।

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  3. हार्दिक शुक्रिया अर्पणा जी। हौसला अफजाई के लिए।

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  4. मधु पाण्डेय01 जून, 2018 18:48

    घर की बगिया से शुरू होकर नाटक साहित्य और संस्कृति को समेटता प्रभावपूर्ण आलेख। अप्रत्यक्ष तौर पर आम लोगों को प्रकृति से करीब होने का संदेश भी।

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  5. यादवेन्द्र जी का स्तंभ अच्छा और स्वागत योग्य है। सच में आज के बनावटी परिवेश में नकली पशु पक्षी , फूल पौधे आदि हम अपने घरों में सजाकर खुश भले ही हो लें लेकिन प्रकृति से निरंतर बढ़ती हमारी दूरी हमें संवेदनशून्य ही बनाती जा रही है और इसमें इजाफा किया है तथाकथित आधुनिकता और तकनीकी निर्भरता ने। प्रकृति से नैकट्य ही हमारी निश्छलता को बचाकर रख सकता है।‌ कारंत जैसे बड़े साहित्यकार निश्चित तौर पर इस बात को समझते थे। प्रकृति के बहाने उनकी चर्चा रोचक और प्रेरक लगी।‌

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