मीडिया और समाजः दो
संचार माध्यमों का मूल चरित्र मानसिक नियंत्रण
संजीव जैन
सत्ता और व्यक्ति का संबंध सदियों से नियंत्रक और नियंत्रित का रहा है। सत्ता अनेक तरह से समाज पर नियंत्रण करने के तरीके ईजाद करती है और समाज के माध्यम से व्यक्तियों की चेतना पर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करती रही है। राजधर्म, वर्चस्वी संस्कृति, राजभाषा और आर्दश मूल्यों की स्थापना के द्वारा व्यक्ति की चेतना को सहमति और अनुकूलन के रास्ते पर चलाये जाने की कोशिश की जाती रही है। ऐतिहासिक विकास के आधुनिक युग से पूर्व यही संचार के माध्यम थे, अतः इन माध्यमों पर नियंत्रण करके इनके द्वारा जन चेतना को सत्ता के वर्चस्वी रूप के प्रति एक सहमति और अनुकूलन पैदा किया जाता रहा है।
आधुनिक युग में संचार के तकनीकी माध्यमों के विकास ने जो कि वास्तव में उन्हीं औजारों को कंटेंट बनाकर प्रयोग किया है, जिनका उपयोग सदियों से होता रहा है। आधुनिक युग के तकनीकी विकास ने वर्चस्व के इन औजारों के अनेक रूप विकसित कर दिये हैं, और इनकी पहुंच विश्वव्यापी और समकालीन हो गई है। ये तेज गति से पूरी दुनिया के मानस को प्रभावित करते हैं। इन संचार माध्यमों ने स्थान और काल की दूरियों को खत्म कर दिया है। इसके अलावा इनके प्रयोग का तरीका ही इनका नियंत्रण की तकनीक बन जाता है।
‘खाली दिमाग शैतान का घर’
इस मुहावरे में संभवतः पहली बार ‘शैतान’ शब्द का सकारात्मक प्रयोग किया गया है। दिमाग को शैतान न बनने देने के लिये आधुनिक वर्चस्वी ताकतों ने मानव मस्तिष्क के ‘मुक्त’ या ‘खाली समय’ (लेजर टाइम) को पूरी तरह से अनावश्यक चीजों से भरने का जो बीड़ा युद्ध स्तर पर चला रखा है उसके पीछे मानव मस्तिष्क को सत्ता के लिये शैतान न बनने देने की साजिश है। ष्खाली दिमाग’ को खाली न रहने देने का अभियान जन संचार माध्यमों का मानव मस्तिष्क पर नियंत्रण करने का सबसे खतरनाक अभियान है। मनोरंजन के तमाम तकनीकी रूप दो महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। एक तो व्यापक जनचेतना के उस खाली समय को जिसमें वह अपनी भौतिक उत्पीड़नकारी परिस्थितियों से मुक्त होने के लिये सोच समझ सकता है और अपने वर्ग के साथ एक रणनीति बना सकते थे, उसे विच्छिन्न कर दिया, उसे खाली नहीं रहने दिया, सोचने समझने के वक्त को पूँजी द्वारा उत्पन्न माल जिसे मनोरंजन के नाम से परोसा जाता है, से भर दिया। इससे एक सामूहिक चिंतन के प्रयास के समय को विच्छिन्न कर दिया गया। अब सामूहिक चिंतन नाम की कोई चीज मानव समाज के पास नहीं है। दूसरी बात मनोरंजन के द्वारा पूँजी अपने ‘विभिन्न उत्पादों’ को अनिवार्य रूप से खरीदने के प्रति एक सहमतिमूलक वातावरण बनाती है, उकसाती है, मालों के प्रति एक उन्माद पैदा करती है, चेतना को ललचाती है, संपूर्ण मानव समूह की चेतना में एक ‘लालच’ का भाव पैदा करती है, जो खरीदने में सक्षम नहीं है, उनके अंदर अभाव और हीनता का भाव पैदा करती है। इस तरह लालच और हीनता दोनों ही मानसिक नियंत्रण के औजार बन जाते हैं। मनोरंजन की अफीम से ग्रस्त मस्तिष्क कुछ और सोचने समझने की जहमत उठाने के प्रयासों से परे हटता जाता है, उसके जीवन का लक्ष्य जीवन को एक समग्रता में जीना न होकर सिर्फ मनोरंजनपूर्ण तरीके से जीना हो जाता है। यह मानसिक विवर्णता है मानव जाति को मुक्ति के प्रयासों से भटकाये रखने के प्रति। इस तरह ‘दिमाग को खाली’ न रहने देने के प्रयत्न उसकी शैतानी उर्वरता को समाप्त करके उसे अपने लाभ के लिये अनुकूलित किया जाने लगा।
हमारी चेतना को जिस तरह नियंत्रित करने का काम जनसंचार माध्यमों को करने की स्वतंत्रता दी गई है, और वे कर रहे हैं, यह हमारे लोकतंत्र को तोड़ मरोड़ कर कुलीन वर्ग को अपने हितों के अनुकूल बना लेने की छूट का नतीजा है। यह छूट हमारे लोकतंत्र निर्माताओं के कुलीन वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के कारण इसकी स्थापना के समय से ही मिला हुआ है। आज पूरा लोकतंत्र ‘उन लोगों के अधिकार क्षेत्र में है, जिन लोगों का देश पर मालिकाना हक है, और जो शासन करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। यही वर्ग है जो देश के तमाम संसाधनों पर अपना वर्चस्व कायम करने के प्रयासों में लोकतंत्र का उपयोग कर रहा है, और जनचेतना जो इसके खिलाफ सोच सकती है, आंदोलन कर सकती है, उसके दिमाग को और सामूहिक चेतना को अनुकूलित करने के लिये ‘जन संचार माध्यमों’ पर मालिकाना हक कायम करके उनका उपयोग अपने हितों में जनता को मोड़ने के लिये किये जाने की पूरी छूट प्रदान करता है। जैसा कि नोम चॉम्स्की ने लिखा है कि - ‘‘हमारे लोकतंत्र की अवधारणा कहीं संकीर्ण किस्म की है: नागरिक एक उपभोक्ता है, एक पर्यवेक्षक है, लेकिन भागीदार नहीं है। नागरिकों के पास उन नीतियों के अनुमोदन का अधिकार है, जिनकी उत्पत्ति कहीं और हुई रहती है, लेकिन यदि इन सीमाओं का अतिक्रमण होता है, तो हमारे यहाँ लोकतंत्र नहीं, ‘लोकतंत्र का संकट’ आ जाता है, जिसे किसी तरह हल किया जाना होता है।’’1 1. जनमाध्यमों का मायालोक, नोम चॉम्स्की, ग्रंथशिल्पी, पृ. 26
हम और हमारी चेतना या जिसे बौद्धिक कीमियागिरी कहा जाये तो अधिक उचित होगा, पूरी तरह से इन संचार माध्यमों और उनके आकाओं की दास बनती जा रही है। हमें इस बात पर सहमत कर लिया गया है कि ‘‘जिन लोगों का संसाधनों पर नियंत्रण होगा, वे ही यह तय कर पाने की स्थिति में होंगे कि ‘सामाजिक दृष्टि से रचनात्मक’ क्या है?’’ वही पृ. 29 यह बहुत महत्वपूर्ण है हमारी मानसिक दासता के प्रतीक को समझने के लिये। आज की पूरी तकनीकी युवा पीढ़ी इस एक बात के प्रति पूरी तरह से सहमत है। वे स्वयं को स्वतंत्र और मानवीय पक्ष में सोचने की स्थिति से अलग किये हुए हैं, उनके पास सोचने का अवकाश नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा सोचे गये को यथावत अंजाम देने का प्रशिक्षण होता है, जिसे उन्हें आई. आई. एम. और आई. आई. टी. जैस बड़े मानसिक अनुकूलन के संस्थानों के माध्यम से प्रदान किया जाता है।
‘‘चूँकि आम जनता कुख्यात रूप से निकट दृष्टि की शिकार है, और आम तौर पर यह खतरे को तब तक नहीं देख सकती है, जब तक यह ठीक उसके गले पर सवार न हो जाये, लिहाजा हमारे राजनेता इसके लिये बाध्य हैं कि उन्हें धोखा देकर उन्हें उनके (राजनेताओं के) दीर्घकालिक हितों की जानकारी तक ले जाएं।’’ वही पृ. 31
बुर्जुआ लोकतांत्रिक जनसंचार माध्यमों के द्धारा जनता की स्वतंत्र इच्छा और सोचने की जिज्ञासा को पूरी तरह से ‘स्वतंत्रता’ से मुक्त कर दिया गया है, और उसे एक बंधक की स्थिति में स्वाभाविक बनाकर रखा गया है। जैसा कि ‘‘लेविस नेमियर द्वारा व्यक्त किया गया, जो लिखते हैं, ‘‘जनता के चिंतन और गतिविधियों में स्वतंत्र इच्छा कहीं से शामिल नहीं होती है, जैसे ग्रहों के घूमने में, पक्षियों के आव्रजन में और लेमिंगों के झुंड के झुंड द्वारा समुद्र में कूदकर जान दे देने में उनकी इच्छा की कोई भूमिका नहीं होती।’’ अगर कोई तबाही संभावित है, तो सिर्फ तब, जब जनता को सार्थक रूप में निर्णय लेने की प्रक्रिया के अखाड़े में उतरने की इजाजत मिल जाती है।’’ वही पृ. 31 इस विश्लेषण को जनता के मानसिक अनुकूलन के संदर्भ में समझना चाहिये। जनसंचार माध्यम जनता की स्वतंत्र इच्छा की हत्या करके पूँजी द्वारा पैदा की गई ‘इच्छा’ जो एक माल की तरह उत्पादित की जाती है, जनता के अंदर रोपित करने का काम इतने सहज तरीके से करते हैं कि जनता समझ ही नहीं पाती की कब उसकी स्वतत्र इच्छा की हत्या कर दी गई और कब एक ‘माल की तरह उत्पादित इच्छा’ को उसके अंदर स्थापित कर दिया गया है।
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मीडिया और समाजः एक को नीचे लिंक पर पढ़िए
जनसंचार माध्यमः विभ्रम और यथार्थ
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/1-1.html?m=1
संचार माध्यमों का मूल चरित्र मानसिक नियंत्रण
संजीव जैन
सत्ता और व्यक्ति का संबंध सदियों से नियंत्रक और नियंत्रित का रहा है। सत्ता अनेक तरह से समाज पर नियंत्रण करने के तरीके ईजाद करती है और समाज के माध्यम से व्यक्तियों की चेतना पर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करती रही है। राजधर्म, वर्चस्वी संस्कृति, राजभाषा और आर्दश मूल्यों की स्थापना के द्वारा व्यक्ति की चेतना को सहमति और अनुकूलन के रास्ते पर चलाये जाने की कोशिश की जाती रही है। ऐतिहासिक विकास के आधुनिक युग से पूर्व यही संचार के माध्यम थे, अतः इन माध्यमों पर नियंत्रण करके इनके द्वारा जन चेतना को सत्ता के वर्चस्वी रूप के प्रति एक सहमति और अनुकूलन पैदा किया जाता रहा है।
आधुनिक युग में संचार के तकनीकी माध्यमों के विकास ने जो कि वास्तव में उन्हीं औजारों को कंटेंट बनाकर प्रयोग किया है, जिनका उपयोग सदियों से होता रहा है। आधुनिक युग के तकनीकी विकास ने वर्चस्व के इन औजारों के अनेक रूप विकसित कर दिये हैं, और इनकी पहुंच विश्वव्यापी और समकालीन हो गई है। ये तेज गति से पूरी दुनिया के मानस को प्रभावित करते हैं। इन संचार माध्यमों ने स्थान और काल की दूरियों को खत्म कर दिया है। इसके अलावा इनके प्रयोग का तरीका ही इनका नियंत्रण की तकनीक बन जाता है।
‘खाली दिमाग शैतान का घर’
इस मुहावरे में संभवतः पहली बार ‘शैतान’ शब्द का सकारात्मक प्रयोग किया गया है। दिमाग को शैतान न बनने देने के लिये आधुनिक वर्चस्वी ताकतों ने मानव मस्तिष्क के ‘मुक्त’ या ‘खाली समय’ (लेजर टाइम) को पूरी तरह से अनावश्यक चीजों से भरने का जो बीड़ा युद्ध स्तर पर चला रखा है उसके पीछे मानव मस्तिष्क को सत्ता के लिये शैतान न बनने देने की साजिश है। ष्खाली दिमाग’ को खाली न रहने देने का अभियान जन संचार माध्यमों का मानव मस्तिष्क पर नियंत्रण करने का सबसे खतरनाक अभियान है। मनोरंजन के तमाम तकनीकी रूप दो महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। एक तो व्यापक जनचेतना के उस खाली समय को जिसमें वह अपनी भौतिक उत्पीड़नकारी परिस्थितियों से मुक्त होने के लिये सोच समझ सकता है और अपने वर्ग के साथ एक रणनीति बना सकते थे, उसे विच्छिन्न कर दिया, उसे खाली नहीं रहने दिया, सोचने समझने के वक्त को पूँजी द्वारा उत्पन्न माल जिसे मनोरंजन के नाम से परोसा जाता है, से भर दिया। इससे एक सामूहिक चिंतन के प्रयास के समय को विच्छिन्न कर दिया गया। अब सामूहिक चिंतन नाम की कोई चीज मानव समाज के पास नहीं है। दूसरी बात मनोरंजन के द्वारा पूँजी अपने ‘विभिन्न उत्पादों’ को अनिवार्य रूप से खरीदने के प्रति एक सहमतिमूलक वातावरण बनाती है, उकसाती है, मालों के प्रति एक उन्माद पैदा करती है, चेतना को ललचाती है, संपूर्ण मानव समूह की चेतना में एक ‘लालच’ का भाव पैदा करती है, जो खरीदने में सक्षम नहीं है, उनके अंदर अभाव और हीनता का भाव पैदा करती है। इस तरह लालच और हीनता दोनों ही मानसिक नियंत्रण के औजार बन जाते हैं। मनोरंजन की अफीम से ग्रस्त मस्तिष्क कुछ और सोचने समझने की जहमत उठाने के प्रयासों से परे हटता जाता है, उसके जीवन का लक्ष्य जीवन को एक समग्रता में जीना न होकर सिर्फ मनोरंजनपूर्ण तरीके से जीना हो जाता है। यह मानसिक विवर्णता है मानव जाति को मुक्ति के प्रयासों से भटकाये रखने के प्रति। इस तरह ‘दिमाग को खाली’ न रहने देने के प्रयत्न उसकी शैतानी उर्वरता को समाप्त करके उसे अपने लाभ के लिये अनुकूलित किया जाने लगा।
हमारी चेतना को जिस तरह नियंत्रित करने का काम जनसंचार माध्यमों को करने की स्वतंत्रता दी गई है, और वे कर रहे हैं, यह हमारे लोकतंत्र को तोड़ मरोड़ कर कुलीन वर्ग को अपने हितों के अनुकूल बना लेने की छूट का नतीजा है। यह छूट हमारे लोकतंत्र निर्माताओं के कुलीन वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के कारण इसकी स्थापना के समय से ही मिला हुआ है। आज पूरा लोकतंत्र ‘उन लोगों के अधिकार क्षेत्र में है, जिन लोगों का देश पर मालिकाना हक है, और जो शासन करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। यही वर्ग है जो देश के तमाम संसाधनों पर अपना वर्चस्व कायम करने के प्रयासों में लोकतंत्र का उपयोग कर रहा है, और जनचेतना जो इसके खिलाफ सोच सकती है, आंदोलन कर सकती है, उसके दिमाग को और सामूहिक चेतना को अनुकूलित करने के लिये ‘जन संचार माध्यमों’ पर मालिकाना हक कायम करके उनका उपयोग अपने हितों में जनता को मोड़ने के लिये किये जाने की पूरी छूट प्रदान करता है। जैसा कि नोम चॉम्स्की ने लिखा है कि - ‘‘हमारे लोकतंत्र की अवधारणा कहीं संकीर्ण किस्म की है: नागरिक एक उपभोक्ता है, एक पर्यवेक्षक है, लेकिन भागीदार नहीं है। नागरिकों के पास उन नीतियों के अनुमोदन का अधिकार है, जिनकी उत्पत्ति कहीं और हुई रहती है, लेकिन यदि इन सीमाओं का अतिक्रमण होता है, तो हमारे यहाँ लोकतंत्र नहीं, ‘लोकतंत्र का संकट’ आ जाता है, जिसे किसी तरह हल किया जाना होता है।’’1 1. जनमाध्यमों का मायालोक, नोम चॉम्स्की, ग्रंथशिल्पी, पृ. 26
हम और हमारी चेतना या जिसे बौद्धिक कीमियागिरी कहा जाये तो अधिक उचित होगा, पूरी तरह से इन संचार माध्यमों और उनके आकाओं की दास बनती जा रही है। हमें इस बात पर सहमत कर लिया गया है कि ‘‘जिन लोगों का संसाधनों पर नियंत्रण होगा, वे ही यह तय कर पाने की स्थिति में होंगे कि ‘सामाजिक दृष्टि से रचनात्मक’ क्या है?’’ वही पृ. 29 यह बहुत महत्वपूर्ण है हमारी मानसिक दासता के प्रतीक को समझने के लिये। आज की पूरी तकनीकी युवा पीढ़ी इस एक बात के प्रति पूरी तरह से सहमत है। वे स्वयं को स्वतंत्र और मानवीय पक्ष में सोचने की स्थिति से अलग किये हुए हैं, उनके पास सोचने का अवकाश नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा सोचे गये को यथावत अंजाम देने का प्रशिक्षण होता है, जिसे उन्हें आई. आई. एम. और आई. आई. टी. जैस बड़े मानसिक अनुकूलन के संस्थानों के माध्यम से प्रदान किया जाता है।
‘‘चूँकि आम जनता कुख्यात रूप से निकट दृष्टि की शिकार है, और आम तौर पर यह खतरे को तब तक नहीं देख सकती है, जब तक यह ठीक उसके गले पर सवार न हो जाये, लिहाजा हमारे राजनेता इसके लिये बाध्य हैं कि उन्हें धोखा देकर उन्हें उनके (राजनेताओं के) दीर्घकालिक हितों की जानकारी तक ले जाएं।’’ वही पृ. 31
बुर्जुआ लोकतांत्रिक जनसंचार माध्यमों के द्धारा जनता की स्वतंत्र इच्छा और सोचने की जिज्ञासा को पूरी तरह से ‘स्वतंत्रता’ से मुक्त कर दिया गया है, और उसे एक बंधक की स्थिति में स्वाभाविक बनाकर रखा गया है। जैसा कि ‘‘लेविस नेमियर द्वारा व्यक्त किया गया, जो लिखते हैं, ‘‘जनता के चिंतन और गतिविधियों में स्वतंत्र इच्छा कहीं से शामिल नहीं होती है, जैसे ग्रहों के घूमने में, पक्षियों के आव्रजन में और लेमिंगों के झुंड के झुंड द्वारा समुद्र में कूदकर जान दे देने में उनकी इच्छा की कोई भूमिका नहीं होती।’’ अगर कोई तबाही संभावित है, तो सिर्फ तब, जब जनता को सार्थक रूप में निर्णय लेने की प्रक्रिया के अखाड़े में उतरने की इजाजत मिल जाती है।’’ वही पृ. 31 इस विश्लेषण को जनता के मानसिक अनुकूलन के संदर्भ में समझना चाहिये। जनसंचार माध्यम जनता की स्वतंत्र इच्छा की हत्या करके पूँजी द्वारा पैदा की गई ‘इच्छा’ जो एक माल की तरह उत्पादित की जाती है, जनता के अंदर रोपित करने का काम इतने सहज तरीके से करते हैं कि जनता समझ ही नहीं पाती की कब उसकी स्वतत्र इच्छा की हत्या कर दी गई और कब एक ‘माल की तरह उत्पादित इच्छा’ को उसके अंदर स्थापित कर दिया गया है।
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जनसंचार माध्यमः विभ्रम और यथार्थ
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