पड़ताल: शर्मीला की कविताएं
भट्टी में आस उबल रही है
अनिल कुमार पाण्डेय
जिस कविता में अपने समय की आवाज न सुनाई दे, कुछ भी हो कम से कम कविता तो नहीं हो सकती| सामाजिक निकष पर कसते हुए कवि की उन हरकतों को बगैर किसी मोह के ख़ारिज कर देना चाहिए जिसके केन्द्र में जन-जीवन की यथार्थ विसंगतियां न हो कर स्वयं को आगे बढ़ाने की भूख दिखाई दे| हो सकता है कि रचनाकार स्वयं को जनधर्मी, जनवादी, जग-चिन्तक घोषित करने की कोशिश करे लेकिन समय के सक्रिय और जागरूक पाठकों द्वारा साहस के साथ ऐसी रचनाओं को कविता मानने से इनकार कर दिया जाना चाहिए|
समय की जरूरत पर चलने की प्रक्रिया में कविता एक तरह से सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ है| शक्ति-संचय का साधन है| प्रेरणा के रूप में यह जन द्वारा अपनाई जाए इसलिए जनधर्मी प्रवृत्ति के पोषक मनुष्य के लिए साध्य है| सार्थक और श्रमशील मानव जीवन के उत्सवधर्मी समय का संगीत है| अपनी तमाम विशिष्टिताओं के साथ-साथ शक्ति-संगठन की भूमिका में सामाजिक शक्ति-संतुलन की सेतु है| कविता ने हर समय समाज को जोड़ने का कार्य किया है बावजूद इसके कि लोगों ने उसे विभिन्न प्रकार के गुटों, वादों-विवादों में बांटे रखा|
वर्तमान रचनाधर्मिता के दायरे में रहते हुए यह कहा जा सकता है कि समकालीन समय जिन विसंगतियों से गुजर रहा है, वह कवि नहीं हो सकता जो इनसे आँखें चुराकर भागने की कोशिश में हो| शर्मीला युवा रचनाकार हैं| अपने समय की जटिल विसंगतियों में जी रही हैं| जहाँ आपद-विपद में आम जन का विलाप बड़े लोगों के लिए मनोविनोद का साधन है, जहाँ गरीब किसानों, मजदूरों का समय-असमय मरण-शैय्या पर बिछ जाना पूंजीपतियों के लिए इकट्ठे हुए खर-पतवार के ढेर का घर-द्वार से सफाई हो जाना है, वहां शर्मीला की ये कविताएँ बताती हैं कि अभी बहुत कुछ उम्मीदें कविता में बाकी हैं जमीन से जुड़े हुए लोगों को उर्वर बनाने के लिए| आत्मघाती पैबंदियों में जकडे जन-जीवन को उठाने के लिए न तो शब्द अभी चुके हैं और न तो उत्साह अभी ठंडे हुए हैं|
ये विडंबना है हमारे समय की कि सत्ताएँ बदलते और लगभग परिवर्तित होते समय में क्रूर से क्रूरतम होती गयी हैं| आम इंसान बद-से-बदतर होता गया है| दिन के उजाले से रात के अँधेरे तक “तय रास्ता” पर चलने की नीयत से बेरास्ता होता रहा| भटकन और विक्षोभ से भरे जीवन-सफर में हताश और निराश व्यक्ति के सामने “रात के गुम होने से पहले/ खेत कोहरे में नाचता रहा/ और पेड़..../ सिमटते रहे अंधेरे में/ सब सो गए ओढ़कर/ जिसे जो मिला.../ एक आवारा आदमी/ भटकता रहा/ भीड़ होने तक.../ और जेब में टटोलता रहा/ अपनी भूली-बिसरी सूरत/ जिसका कोई तय रास्ता नहीं!” यह बगैर किसी तय रास्ता के घूमने वाला कोई और नहीं हमारे देश का ही आम आदमी है जो सुबह घर से निकलता है तो शाम आते-आते कहाँ रुकेगा, न तो चलते समय पता होता है और न तो चल जाने के बाद| जब तक उसे पता चलता है, समय उस पर हंस रहा होता है|
समय की हंसी को आम आदमी पर व्यंग्य करते देखना हो तो भारतीय समाज में अन्नदाता के रूप में विख्यात किसानों के जीवन को देखना चाहिए| ऐसा जीवन, जिसके पास आशाएं तो हैं लेकिन उन्हें पूर्ण करने के लिए साधनों का अभाव है| अभिलाषाएं नित-नवीन रूप में उसे कचोटती तो हैं कुछ नया कर जाने के लिए, लेकिन संसाधनों की अनुपलब्धता पंगु कर जाती हैं| पंगुता की स्थिति में जनसाधारण के सामने से “निकल रहे हैं/ गिने-चुने चूहे/ उल्लू...सौदागर बने बैठे हैं/ फसल मंडी में/ ठिठुर रही है/ भूखा खेत.../ मुँह खोले बैठा है/ सैंकड़ों-लाखों आँखें/ चूल्हे की लपट से घिरी हैं/ सर्द हवा के झोंके/ मजदूर की टाँग से सटे हैं/ सारा अलाव/ ब्रांड सेंक रहे हैं/ मिट्टी की हर चीज/ अधर में टूट रही है/ सरहद पर..जेब कट गई/ लोकतंत्र की गाय/ गरीब के कोठड़े पर/ गोबर पोत रही है!” यह दृश्य देश के लगभग आबादी की है जो संसाधनविहीन हैं, निराश्रय हैं, दलित-पददलित, भूखे-नंगे, प्यासे हैं|
ऐसे भूखे-नंगे-प्यासे लोग जीवन-संघर्ष की यथा-व्यथा में चलते हुए बहुत कुछ एकत्रित करने की कोशिश करते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह कि “फटी झोली” में कुछ भी नहीं आता सिवाय रिक्तता के| रिक्तता भी ऐसी कि हाथ माथे रख कर पश्चाताप करने लायक भी नहीं बचता वह-ऐसा कैसे होता है, फटी झोली कविता को पढ़कर समझा जा सकता है—“अपने हाथों से !!!/ जमीन को तराश कर/ उधार का बीज बोया/ अंकुर फूटे../ पौधे लहलहाये.../ रातों को जाग-जाग कर/ उन्हें सींचा.../ आँखों में चमक बढ़ी/ फल पकेगा../ बिकेगा.../ नकद आएगा../ कर्ज उतरेगा.../ पर हाय ! रे किस्मत/ फटी झोली/ तो और...फटती है” कंगाली में आटा गीला होता है, गरीबी में छप्पड़ छीज कर इस्तर-बिस्तर सब भिगोता है| और मौसम के मार से बौखलाए ये गरीब, किन्तु सबको अन्न देने वाले किसान, सबकुछ देखता-सहता-तड़पता है|
तड़पने की प्रक्रिया उस समय और भी असहनीय हो जाती है जब भूख का दंश रोने भी नहीं देता और रोटी का अभाव पेट पर प्रहार करता है| भूख का चित्रण समकालीन हिंदी कविता में बहुत किया गया है लेकिन शर्मीला जिस तरीके से भूख का बयान मौसम को केंद्र में रखकर करती है वह नायाब है| नायब इसलिए भी क्योंकि अन्य कवियों के यहाँ भूख यदि व्यक्ति को लाचार बनाती है तो शर्मीला के यहाँ वही भूख उस “आदमी को फौलाद बना देती है|” “भूख” कविता की ये बानगी देखिये “भट्ठी में आस उबल रही है/ कड़ाही में.../ दिन-रात जल रहे हैं!/ आंखें जाग उठती हैं../ दो रोटी के जुगाड़ में/ उँगलियाँ नाचती हैं.../ दस..बीस..पचास के पुर्जों पर/ सर्दी ...सर्दी नहीं रहती/ मौसम बन जाती है/ भूख...आदमी को फौलाद बना देती है!”
भूख से पीड़ित और लगभग प्रताड़ित फलाद बना आम आदमी चापलूसी में नहीं है, दलाली और मक्कारी में नहीं है, इसके लिए उसके पास समय भी नहीं है, व्यस्त है वह दो जून के रोटी का बन्दोबस्त करने के लिए| आम आदमी को फुर्सत नहीं है कि वह इतना भर बता सके देश के हुक्मरानों को कि वह इसी देश का है| हालांकि वह है इसी देश का लेकिन देश ने कभी ऐसा महसूस करने का अवसर नहीं दिया उसे कि खुश हो सके एक बार अपनी पहचान को देखकर| बेपहचान जीने वाले ये आम आदमी कारखानों-फैक्टरियों में हैं, खेतों में है, सडकों पर है, जाहिर सी बात है जो इन सब जगहों पर है उसके लिए पहचान का सबूत जुटा के रखना लगभग मुश्किल है|
शर्मीला की ‘सबूत दो’ कविता इस अर्थ में आँखें खोलती है कि आखिर जिनका जन्म ही अभावों की दयनीयता में हुआ है वे किस बात का और कैसा सबूत आवाम को दें| जिसके पसीने से महल-तर-बतर हैं, जिसके श्रम से महलों के छत तन कर खड़े हैं, जो दिन रात भूखे-पूसे देश के सौंदर्य को निखारने में मर-खप रहे हैं आखिर कौन-सा सबूत दें? यथा—“गरीब आदमी/ हमेशा दो-दो हाथ करता रहा/ भूख से/ झुंझलाकर लड़ता रहा/ बीवी-बच्चों से/ उसने हर बार बलि दी/ अपनी आधी लँगोटी की/ ताकि उसके जैसे.../ सूरज देख सकें/ पर उसे छला गया/ देश के नाम पर/ आजादी के नाम पर/ उसके हिस्से आई/ वही आधी रोटी/ आधी लँगोटी/ वह भी बार-बार माँगी गई/ सपने दिखाकर/ जिसमें सिक्के का सिर्फ एक पहलू था/ दूसरा मरोड़ दिया गया/ ताकि कोई/ पूछे न.../ तुम्हारी रोटी-लँगोटी/ चौगुनी कैसे है?/ सबूत दो!/ तुम देशभक्त हो !!/ तुम्हारे पूरखे गद्दार थे!!” यदि पूर्वज गद्दार थे तो यह भी कहा जा सकता है कि ये धरती, ये आसमान भी गद्दार हैं क्योंकि इन सबकी निर्मिति में उनका अमिट योग्यदान है|
भारतीय परिवेश में किसानों की दुर्दशा से शायद ही कोई होगा जो अपरिचित होगा| बावजूद इसके कौन कहे उनके समस्याओं के निराकरण खोजने के लिए लोग उन्हें और अधिक उलझाते जा रहे हैं| उनको केंद्र में रखकर खुद तो अपनी रोटी चला रहे हैं, उन्हें भटकने के लिए विवश भी कर रहे हैं| “मुद्दों के सरकंडे/ अक्सर बात करते हैं/ किसानों की/ खेती की/ जिन्होंने आज तक/ यह भी नहीं चखा/ तावड़े , पसीने और मिट्टी का/ संगम कैसा होता है ?/ जो यह भी जानते/ 2 एकड़ में नरमे का बीज/ कितना../ और कैसे लगता है ?/ दानों को मंडी तक... घसीटते-घसीटते/ कितना जोर आता है ?/ वो भी साले दोगले/ एसी में बैठकर/ मच्छरों की तरह बीन बजाते हैं-/ "हम तुम्हारे साथ हैं !"
ग्रामीण परिवेश से ताल्लुकात रखने वाली यह कवयित्री महानगरीय चापलूसी और चाटुकारिता का सामना आए दिन करती रहती है| कवयित्री के रूप में वह अपनी जिम्मेदारियों से वाकिफ हैं इसलिए भागती नहीं डटकर उनका सामना करती हैं| यह प्रायः माना जाता है कि शहरों/ महानगरों में स्त्रियों/लड़कियों का जीवन स्वतंत्र और बिंदास है| ‘गिद्ध’ और ‘लड़की हो!’ ऐसी दो कविताएँ हैं जो महानगरीय परिवेश में स्त्री के प्रति लोगों की यथास्थिति को स्पष्ट करती हैं| भूखे-प्यासे बच्चे को स्तनपान कराती ‘गिद्ध’ निगाहें स्त्रियों के माँ रूप में भी वासना की तुष्टि करते पाए जाती हैं, इस सच्चाई को बड़ी तीक्ष्णता से व्यक्त करती है वह “बाजार के बीचों बीच/ बच्चा जिद्द करता है/ झिझकती माँ/ कमीज घिसका कर/ दूध पिलाते हुए/ पँख समेट लेती है/ छाती पर.../ गिद्ध नजरें उग आती हैं|” ये वही निगाहें हैं जो समाज में आदर्शता का ढोंग रचते दिखाई देती हैं| नैतिकता का कोलाज रचकर लोगों को जागरूकता का पाठ पढ़ाती नजर आती हैं| ये वही लोग हैं जो एक तरफ तो लड़कियों को यह कहते हुए मर्यादित जीवन जीने की सीख देते फिरते हैं कि-“तुम समझदार हो!/ जोर से मत हँसो/ ऐसे चलो...वैसे चलो/ जुबान मत लड़ाओं!/ नजरें नीची करो!/ सहन करना सीखो..|” दूसरी तरफ दूध पिलाती माँ को देखकर भी वासना के लहर में लहराने लगते हैं| इनका लहराना इनकी नैतिकता की यथास्थिति को सलीके से बयान करती है|
पर्यावरण पारिस्थितिकी के प्रति शर्मीला का कवि चिंतित है| बेशुमार कटते पेड़ों और दिनों-दिन अनियमित होते मानसून की समस्याएँ उसके अपने समय की समस्याएँ हैं, जिससे वह चाहकर भी नहीं बच पाती है| इन दिनों का परिवेश कभी जलता रहा है तो कभी धुंआ-धुंआ सा रहा है| “हाथ में सूखा दरिया” और “आँखों में धुआँ-धुआँ सा” जो कुछ भी है वह कहीं न कहीं बृक्षों की अंधाधुंध कटाई का ही परिणाम है| “धुआँ-धुआँ सा है” कविता में शर्मीला पेड़ों की पर चलाई जा रही कुल्हाड़ी को “आत्माएं कट रही हैं” की स्थिति बताती है- यथा-
धुआँ-सा उठा है
कहीं दूर जंगल से ...
शायद पंछी जले होंगे !
दरख़्त झाँक रहे हैं.....
रात की आँखों में
और कुदरत....
बेबस खड़ी है घुटनों के बल
सन्नाटा पुकारता है...
दखल मत दो-
''कुल्हाड़ियों से आत्माएँ कट रही हैं !"
और...कारवां गुजर गया !
हाथ में.....सूखा दरिया है
आँखों में....धुआँ-धुआँ सा है !
आँखों की सुरक्षा और जीवन की रक्षा के लिए ये जरूरी है कि हम अपने परिवेश की सामाजिकता को बरक़रार रखें| यदि परिवेश की सामाजिकता सुरक्षित रहेगी तो जन-जीवन-जमीन-पर्यावरण सब कुछ सुन्दर और सौंदर्य से परिपूर्ण रहेंगे| परिपूर्णता वहां होती है जहाँ प्रकृति से लेकर जीव-जंतु तक के प्रति लिए आदर-भाव का प्राधान्य होता है| स्वतंत्रता के नाम पर इधर के दिनों में अबोले जानवरों और बृक्षों के प्रति मनुष्य ने निर्दयता दिखाई है| ये सच है कि देश में रहने खाने सोने टहलने की स्वतंत्रता है| कोई किसी की स्वतंत्रता पर अनधिकृत रूप से हस्तक्षेप नहीं कर सकता, यह हमारा कानून कहता है| जितनी जरूरत मनुष्य की सुरक्षा का है उतनी ही जरूरत पशु-सुरक्षा के लिए भी महसूस की जानी चाहिए| कवयित्री “एक गोली” में हत्या को हत्या मानती है “अगर बात न्याय की है/ तो फिर.../ दो पैरों वाला जानवर/ जो हर जगह टाँग अड़ाता है/ कानून की आड़ में/ अपनी गोटियाँ फिट करता है/ एक गोली/ उसके लिए भी/ होनी चाहिए/ क्योंकि/ जान...जान है/ हत्या.. हत्या है!” समान अपराध के लिए समान सजा का प्रावधान जिस समाज में हो जाता है वही समाज मानवीय समाज के रूप में परिभाषित हो सकता है| शर्मीला की कविताएँ हमें देश के सुनहले भविष्य के प्रति इसलिए आश्वस्त करती हैं, क्योंकि संघर्षों की बड़ी यात्रा में सुकून के पल खोजना भारतीय लोक जानता है|
इधर शर्मीला की कविताई में कुछ “बदलाव” आया है| अब उसने मानवीय भावों को चित्रात्मक शैली में अभिव्यक्त करने का सुन्दर तरीका विकसित कर लिया| शब्दों के माध्यम से ऐसे चित्र का सृजन करना कि परिदृश्य एकदम साफ़ हो जाए, शर्मीला के इधर की कविताओं की ख़ास विशेषता है| शब्दों को खरचने में कंजूसी है भावों की प्रवणता स्पष्ट झलकती है| देशज शब्दों की जगह-जगह प्रयोग काव्य के सौंदर्य को और निखार देता है| लोक-जीवन के चित्र मन को मोहते हैं मस्तिष्क को सक्रिय करते हैं| यह कहना कि छोटी छोटी कविताओं में बहुत कह जाने की क्षमता से परिपूर्ण शर्मीला में बहुत सम्भावनाएं हैं, बिलकुल गलत न होगा|
अंततः ये कह देना चाहता हूँ कि युवा कवयित्री शर्मीला की कविताओं को पढ़ने के बाद, किस तरह रचनाकार अपने समय के प्रश्न से टकराने का साहस रखता है, ये स्पष्ट दिखाई देता है| हालांकि उसे पता है कि कौन कहाँ किसका/ सब मतलब की यारी है/ रिश्ते हो गए ठूँठ जैसे/ ओहदो की बीमारी है” बावजूद इसके वह रिश्तों को स्म्वेदनाओं की डोर में पिरोने और जड़ हो चुके समाज में मर्यादित जीवन को दिशा देने में संलग्न है|
००
शर्मीला की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_14.html?m=0
अनिल कुमार पाण्डेय का और एक लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
वंदना गुप्ता की कविताएं
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/12/blog-post_8.html?m=1
भट्टी में आस उबल रही है
अनिल कुमार पाण्डेय
जिस कविता में अपने समय की आवाज न सुनाई दे, कुछ भी हो कम से कम कविता तो नहीं हो सकती| सामाजिक निकष पर कसते हुए कवि की उन हरकतों को बगैर किसी मोह के ख़ारिज कर देना चाहिए जिसके केन्द्र में जन-जीवन की यथार्थ विसंगतियां न हो कर स्वयं को आगे बढ़ाने की भूख दिखाई दे| हो सकता है कि रचनाकार स्वयं को जनधर्मी, जनवादी, जग-चिन्तक घोषित करने की कोशिश करे लेकिन समय के सक्रिय और जागरूक पाठकों द्वारा साहस के साथ ऐसी रचनाओं को कविता मानने से इनकार कर दिया जाना चाहिए|
अनिल कुमार पाण्डेय |
समय की जरूरत पर चलने की प्रक्रिया में कविता एक तरह से सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ है| शक्ति-संचय का साधन है| प्रेरणा के रूप में यह जन द्वारा अपनाई जाए इसलिए जनधर्मी प्रवृत्ति के पोषक मनुष्य के लिए साध्य है| सार्थक और श्रमशील मानव जीवन के उत्सवधर्मी समय का संगीत है| अपनी तमाम विशिष्टिताओं के साथ-साथ शक्ति-संगठन की भूमिका में सामाजिक शक्ति-संतुलन की सेतु है| कविता ने हर समय समाज को जोड़ने का कार्य किया है बावजूद इसके कि लोगों ने उसे विभिन्न प्रकार के गुटों, वादों-विवादों में बांटे रखा|
वर्तमान रचनाधर्मिता के दायरे में रहते हुए यह कहा जा सकता है कि समकालीन समय जिन विसंगतियों से गुजर रहा है, वह कवि नहीं हो सकता जो इनसे आँखें चुराकर भागने की कोशिश में हो| शर्मीला युवा रचनाकार हैं| अपने समय की जटिल विसंगतियों में जी रही हैं| जहाँ आपद-विपद में आम जन का विलाप बड़े लोगों के लिए मनोविनोद का साधन है, जहाँ गरीब किसानों, मजदूरों का समय-असमय मरण-शैय्या पर बिछ जाना पूंजीपतियों के लिए इकट्ठे हुए खर-पतवार के ढेर का घर-द्वार से सफाई हो जाना है, वहां शर्मीला की ये कविताएँ बताती हैं कि अभी बहुत कुछ उम्मीदें कविता में बाकी हैं जमीन से जुड़े हुए लोगों को उर्वर बनाने के लिए| आत्मघाती पैबंदियों में जकडे जन-जीवन को उठाने के लिए न तो शब्द अभी चुके हैं और न तो उत्साह अभी ठंडे हुए हैं|
ये विडंबना है हमारे समय की कि सत्ताएँ बदलते और लगभग परिवर्तित होते समय में क्रूर से क्रूरतम होती गयी हैं| आम इंसान बद-से-बदतर होता गया है| दिन के उजाले से रात के अँधेरे तक “तय रास्ता” पर चलने की नीयत से बेरास्ता होता रहा| भटकन और विक्षोभ से भरे जीवन-सफर में हताश और निराश व्यक्ति के सामने “रात के गुम होने से पहले/ खेत कोहरे में नाचता रहा/ और पेड़..../ सिमटते रहे अंधेरे में/ सब सो गए ओढ़कर/ जिसे जो मिला.../ एक आवारा आदमी/ भटकता रहा/ भीड़ होने तक.../ और जेब में टटोलता रहा/ अपनी भूली-बिसरी सूरत/ जिसका कोई तय रास्ता नहीं!” यह बगैर किसी तय रास्ता के घूमने वाला कोई और नहीं हमारे देश का ही आम आदमी है जो सुबह घर से निकलता है तो शाम आते-आते कहाँ रुकेगा, न तो चलते समय पता होता है और न तो चल जाने के बाद| जब तक उसे पता चलता है, समय उस पर हंस रहा होता है|
समय की हंसी को आम आदमी पर व्यंग्य करते देखना हो तो भारतीय समाज में अन्नदाता के रूप में विख्यात किसानों के जीवन को देखना चाहिए| ऐसा जीवन, जिसके पास आशाएं तो हैं लेकिन उन्हें पूर्ण करने के लिए साधनों का अभाव है| अभिलाषाएं नित-नवीन रूप में उसे कचोटती तो हैं कुछ नया कर जाने के लिए, लेकिन संसाधनों की अनुपलब्धता पंगु कर जाती हैं| पंगुता की स्थिति में जनसाधारण के सामने से “निकल रहे हैं/ गिने-चुने चूहे/ उल्लू...सौदागर बने बैठे हैं/ फसल मंडी में/ ठिठुर रही है/ भूखा खेत.../ मुँह खोले बैठा है/ सैंकड़ों-लाखों आँखें/ चूल्हे की लपट से घिरी हैं/ सर्द हवा के झोंके/ मजदूर की टाँग से सटे हैं/ सारा अलाव/ ब्रांड सेंक रहे हैं/ मिट्टी की हर चीज/ अधर में टूट रही है/ सरहद पर..जेब कट गई/ लोकतंत्र की गाय/ गरीब के कोठड़े पर/ गोबर पोत रही है!” यह दृश्य देश के लगभग आबादी की है जो संसाधनविहीन हैं, निराश्रय हैं, दलित-पददलित, भूखे-नंगे, प्यासे हैं|
ऐसे भूखे-नंगे-प्यासे लोग जीवन-संघर्ष की यथा-व्यथा में चलते हुए बहुत कुछ एकत्रित करने की कोशिश करते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह कि “फटी झोली” में कुछ भी नहीं आता सिवाय रिक्तता के| रिक्तता भी ऐसी कि हाथ माथे रख कर पश्चाताप करने लायक भी नहीं बचता वह-ऐसा कैसे होता है, फटी झोली कविता को पढ़कर समझा जा सकता है—“अपने हाथों से !!!/ जमीन को तराश कर/ उधार का बीज बोया/ अंकुर फूटे../ पौधे लहलहाये.../ रातों को जाग-जाग कर/ उन्हें सींचा.../ आँखों में चमक बढ़ी/ फल पकेगा../ बिकेगा.../ नकद आएगा../ कर्ज उतरेगा.../ पर हाय ! रे किस्मत/ फटी झोली/ तो और...फटती है” कंगाली में आटा गीला होता है, गरीबी में छप्पड़ छीज कर इस्तर-बिस्तर सब भिगोता है| और मौसम के मार से बौखलाए ये गरीब, किन्तु सबको अन्न देने वाले किसान, सबकुछ देखता-सहता-तड़पता है|
तड़पने की प्रक्रिया उस समय और भी असहनीय हो जाती है जब भूख का दंश रोने भी नहीं देता और रोटी का अभाव पेट पर प्रहार करता है| भूख का चित्रण समकालीन हिंदी कविता में बहुत किया गया है लेकिन शर्मीला जिस तरीके से भूख का बयान मौसम को केंद्र में रखकर करती है वह नायाब है| नायब इसलिए भी क्योंकि अन्य कवियों के यहाँ भूख यदि व्यक्ति को लाचार बनाती है तो शर्मीला के यहाँ वही भूख उस “आदमी को फौलाद बना देती है|” “भूख” कविता की ये बानगी देखिये “भट्ठी में आस उबल रही है/ कड़ाही में.../ दिन-रात जल रहे हैं!/ आंखें जाग उठती हैं../ दो रोटी के जुगाड़ में/ उँगलियाँ नाचती हैं.../ दस..बीस..पचास के पुर्जों पर/ सर्दी ...सर्दी नहीं रहती/ मौसम बन जाती है/ भूख...आदमी को फौलाद बना देती है!”
भूख से पीड़ित और लगभग प्रताड़ित फलाद बना आम आदमी चापलूसी में नहीं है, दलाली और मक्कारी में नहीं है, इसके लिए उसके पास समय भी नहीं है, व्यस्त है वह दो जून के रोटी का बन्दोबस्त करने के लिए| आम आदमी को फुर्सत नहीं है कि वह इतना भर बता सके देश के हुक्मरानों को कि वह इसी देश का है| हालांकि वह है इसी देश का लेकिन देश ने कभी ऐसा महसूस करने का अवसर नहीं दिया उसे कि खुश हो सके एक बार अपनी पहचान को देखकर| बेपहचान जीने वाले ये आम आदमी कारखानों-फैक्टरियों में हैं, खेतों में है, सडकों पर है, जाहिर सी बात है जो इन सब जगहों पर है उसके लिए पहचान का सबूत जुटा के रखना लगभग मुश्किल है|
शर्मीला की ‘सबूत दो’ कविता इस अर्थ में आँखें खोलती है कि आखिर जिनका जन्म ही अभावों की दयनीयता में हुआ है वे किस बात का और कैसा सबूत आवाम को दें| जिसके पसीने से महल-तर-बतर हैं, जिसके श्रम से महलों के छत तन कर खड़े हैं, जो दिन रात भूखे-पूसे देश के सौंदर्य को निखारने में मर-खप रहे हैं आखिर कौन-सा सबूत दें? यथा—“गरीब आदमी/ हमेशा दो-दो हाथ करता रहा/ भूख से/ झुंझलाकर लड़ता रहा/ बीवी-बच्चों से/ उसने हर बार बलि दी/ अपनी आधी लँगोटी की/ ताकि उसके जैसे.../ सूरज देख सकें/ पर उसे छला गया/ देश के नाम पर/ आजादी के नाम पर/ उसके हिस्से आई/ वही आधी रोटी/ आधी लँगोटी/ वह भी बार-बार माँगी गई/ सपने दिखाकर/ जिसमें सिक्के का सिर्फ एक पहलू था/ दूसरा मरोड़ दिया गया/ ताकि कोई/ पूछे न.../ तुम्हारी रोटी-लँगोटी/ चौगुनी कैसे है?/ सबूत दो!/ तुम देशभक्त हो !!/ तुम्हारे पूरखे गद्दार थे!!” यदि पूर्वज गद्दार थे तो यह भी कहा जा सकता है कि ये धरती, ये आसमान भी गद्दार हैं क्योंकि इन सबकी निर्मिति में उनका अमिट योग्यदान है|
भारतीय परिवेश में किसानों की दुर्दशा से शायद ही कोई होगा जो अपरिचित होगा| बावजूद इसके कौन कहे उनके समस्याओं के निराकरण खोजने के लिए लोग उन्हें और अधिक उलझाते जा रहे हैं| उनको केंद्र में रखकर खुद तो अपनी रोटी चला रहे हैं, उन्हें भटकने के लिए विवश भी कर रहे हैं| “मुद्दों के सरकंडे/ अक्सर बात करते हैं/ किसानों की/ खेती की/ जिन्होंने आज तक/ यह भी नहीं चखा/ तावड़े , पसीने और मिट्टी का/ संगम कैसा होता है ?/ जो यह भी जानते/ 2 एकड़ में नरमे का बीज/ कितना../ और कैसे लगता है ?/ दानों को मंडी तक... घसीटते-घसीटते/ कितना जोर आता है ?/ वो भी साले दोगले/ एसी में बैठकर/ मच्छरों की तरह बीन बजाते हैं-/ "हम तुम्हारे साथ हैं !"
शर्मीला |
ग्रामीण परिवेश से ताल्लुकात रखने वाली यह कवयित्री महानगरीय चापलूसी और चाटुकारिता का सामना आए दिन करती रहती है| कवयित्री के रूप में वह अपनी जिम्मेदारियों से वाकिफ हैं इसलिए भागती नहीं डटकर उनका सामना करती हैं| यह प्रायः माना जाता है कि शहरों/ महानगरों में स्त्रियों/लड़कियों का जीवन स्वतंत्र और बिंदास है| ‘गिद्ध’ और ‘लड़की हो!’ ऐसी दो कविताएँ हैं जो महानगरीय परिवेश में स्त्री के प्रति लोगों की यथास्थिति को स्पष्ट करती हैं| भूखे-प्यासे बच्चे को स्तनपान कराती ‘गिद्ध’ निगाहें स्त्रियों के माँ रूप में भी वासना की तुष्टि करते पाए जाती हैं, इस सच्चाई को बड़ी तीक्ष्णता से व्यक्त करती है वह “बाजार के बीचों बीच/ बच्चा जिद्द करता है/ झिझकती माँ/ कमीज घिसका कर/ दूध पिलाते हुए/ पँख समेट लेती है/ छाती पर.../ गिद्ध नजरें उग आती हैं|” ये वही निगाहें हैं जो समाज में आदर्शता का ढोंग रचते दिखाई देती हैं| नैतिकता का कोलाज रचकर लोगों को जागरूकता का पाठ पढ़ाती नजर आती हैं| ये वही लोग हैं जो एक तरफ तो लड़कियों को यह कहते हुए मर्यादित जीवन जीने की सीख देते फिरते हैं कि-“तुम समझदार हो!/ जोर से मत हँसो/ ऐसे चलो...वैसे चलो/ जुबान मत लड़ाओं!/ नजरें नीची करो!/ सहन करना सीखो..|” दूसरी तरफ दूध पिलाती माँ को देखकर भी वासना के लहर में लहराने लगते हैं| इनका लहराना इनकी नैतिकता की यथास्थिति को सलीके से बयान करती है|
पर्यावरण पारिस्थितिकी के प्रति शर्मीला का कवि चिंतित है| बेशुमार कटते पेड़ों और दिनों-दिन अनियमित होते मानसून की समस्याएँ उसके अपने समय की समस्याएँ हैं, जिससे वह चाहकर भी नहीं बच पाती है| इन दिनों का परिवेश कभी जलता रहा है तो कभी धुंआ-धुंआ सा रहा है| “हाथ में सूखा दरिया” और “आँखों में धुआँ-धुआँ सा” जो कुछ भी है वह कहीं न कहीं बृक्षों की अंधाधुंध कटाई का ही परिणाम है| “धुआँ-धुआँ सा है” कविता में शर्मीला पेड़ों की पर चलाई जा रही कुल्हाड़ी को “आत्माएं कट रही हैं” की स्थिति बताती है- यथा-
धुआँ-सा उठा है
कहीं दूर जंगल से ...
शायद पंछी जले होंगे !
दरख़्त झाँक रहे हैं.....
रात की आँखों में
और कुदरत....
बेबस खड़ी है घुटनों के बल
सन्नाटा पुकारता है...
दखल मत दो-
''कुल्हाड़ियों से आत्माएँ कट रही हैं !"
और...कारवां गुजर गया !
हाथ में.....सूखा दरिया है
आँखों में....धुआँ-धुआँ सा है !
आँखों की सुरक्षा और जीवन की रक्षा के लिए ये जरूरी है कि हम अपने परिवेश की सामाजिकता को बरक़रार रखें| यदि परिवेश की सामाजिकता सुरक्षित रहेगी तो जन-जीवन-जमीन-पर्यावरण सब कुछ सुन्दर और सौंदर्य से परिपूर्ण रहेंगे| परिपूर्णता वहां होती है जहाँ प्रकृति से लेकर जीव-जंतु तक के प्रति लिए आदर-भाव का प्राधान्य होता है| स्वतंत्रता के नाम पर इधर के दिनों में अबोले जानवरों और बृक्षों के प्रति मनुष्य ने निर्दयता दिखाई है| ये सच है कि देश में रहने खाने सोने टहलने की स्वतंत्रता है| कोई किसी की स्वतंत्रता पर अनधिकृत रूप से हस्तक्षेप नहीं कर सकता, यह हमारा कानून कहता है| जितनी जरूरत मनुष्य की सुरक्षा का है उतनी ही जरूरत पशु-सुरक्षा के लिए भी महसूस की जानी चाहिए| कवयित्री “एक गोली” में हत्या को हत्या मानती है “अगर बात न्याय की है/ तो फिर.../ दो पैरों वाला जानवर/ जो हर जगह टाँग अड़ाता है/ कानून की आड़ में/ अपनी गोटियाँ फिट करता है/ एक गोली/ उसके लिए भी/ होनी चाहिए/ क्योंकि/ जान...जान है/ हत्या.. हत्या है!” समान अपराध के लिए समान सजा का प्रावधान जिस समाज में हो जाता है वही समाज मानवीय समाज के रूप में परिभाषित हो सकता है| शर्मीला की कविताएँ हमें देश के सुनहले भविष्य के प्रति इसलिए आश्वस्त करती हैं, क्योंकि संघर्षों की बड़ी यात्रा में सुकून के पल खोजना भारतीय लोक जानता है|
इधर शर्मीला की कविताई में कुछ “बदलाव” आया है| अब उसने मानवीय भावों को चित्रात्मक शैली में अभिव्यक्त करने का सुन्दर तरीका विकसित कर लिया| शब्दों के माध्यम से ऐसे चित्र का सृजन करना कि परिदृश्य एकदम साफ़ हो जाए, शर्मीला के इधर की कविताओं की ख़ास विशेषता है| शब्दों को खरचने में कंजूसी है भावों की प्रवणता स्पष्ट झलकती है| देशज शब्दों की जगह-जगह प्रयोग काव्य के सौंदर्य को और निखार देता है| लोक-जीवन के चित्र मन को मोहते हैं मस्तिष्क को सक्रिय करते हैं| यह कहना कि छोटी छोटी कविताओं में बहुत कह जाने की क्षमता से परिपूर्ण शर्मीला में बहुत सम्भावनाएं हैं, बिलकुल गलत न होगा|
अंततः ये कह देना चाहता हूँ कि युवा कवयित्री शर्मीला की कविताओं को पढ़ने के बाद, किस तरह रचनाकार अपने समय के प्रश्न से टकराने का साहस रखता है, ये स्पष्ट दिखाई देता है| हालांकि उसे पता है कि कौन कहाँ किसका/ सब मतलब की यारी है/ रिश्ते हो गए ठूँठ जैसे/ ओहदो की बीमारी है” बावजूद इसके वह रिश्तों को स्म्वेदनाओं की डोर में पिरोने और जड़ हो चुके समाज में मर्यादित जीवन को दिशा देने में संलग्न है|
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शर्मीला की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_14.html?m=0
अनिल कुमार पाण्डेय का और एक लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
वंदना गुप्ता की कविताएं
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/12/blog-post_8.html?m=1
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