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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 जून, 2018

कहानी: रंजना मिश्र 




रंजना मिश्र  


ऐसे ही

रंजना मिश्र


‘बाबा ssss ए  बाबाsssss ’
वह पीछे दौड़ती चली आ रही थी, गर्म ज़मीन पर नन्हे पावों से
बब्बन मियाँ आवाज़ सुनकर ठहर गए
नन्ही साँवली सी आकृति भागती चली आ रही थी उनकी ओर, चिल्लाते और रुकने का इशारा करते.. कोई नौ दस बरस की उम्र, उलझे बाल सूखे होठ और पतली बाहें, एक फटी पुरानी फ्राक, उससे बड़ी नाप की!
“बाबा आप दुकान में ई भूल आए" - हाँफते हाँफते  वह उनके सामने खड़ी हो गई और अपना हाथ बढ़ाया !
बब्बन मियाँ को जैसे अचानक कुछ याद आया, जेबें टटोली तो खाली! आज ही तो पेन्शन के पैसे आए थे.
बब्बन मियाँ ने उसकी तरफ देखा
और देखते रहे
लड़की के चेहरे की कोमलता को खबर भी न थी कि उसके सूखे हाथों में बुढ़ापा उतर आया था, जिनसे वे पैसे उनकी ओर बढ़ा रही थी,  पर हँसी की चमक बरकरार थी.
वह चुपचाप खड़ी हाथ बढ़ाए बब्बन मियाँ को देखती रही
ढीली मोहरी का पाजामा, ढीला कुर्ता और सर पर टोपी, हल्के से झुके कंधे और एक दूसरे को काटती गहरी झुर्रियों से भरे चहरे पर विस्मय भरी आँखें !
मियाँ ने चुपचाप पैसे ले लिए और उसमें से २0 रुपये का एक नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया
उसने दाएँ बाएँ सर हिलाया और चुपचाप उनकी तरफ देखती रही.
वे उसकी ओर देखकर मुस्कुराए और सर हिलाते हुए वापस नोटों के बंडल में कुछ तलाशने लगे
वापस काँपते  हाथों से ५० रुपये का नोट निकालकर बढ़ाया
“और चाहिए"
“ना"
“क्यों? “
ऐसे ही"
वह मुस्कुराई और दौड़ती हुई वापस चली गई
बब्बन मियाँ खड़े थोड़ी देर उसे देखते रहे फिर लंबी साँस भरकर अपने रास्ते हो लिए.

**

चिलचिलाती जेठ की दुपहरी में दर रोज़ ज़ोहार की नमाज़ के बाद मस्ज़िद की सीढ़ियाँ उतरकर वे उस छोटी सी दुकान पर जा बैठते , यह उनका रोज़ का नियम था. पिछली गर्मियों में ही यह सिलसिला शुरू हुआ था.  ज़्यादा लोग नहीं आते उस छोटी सी दुकान पर और लड़की अक्सर अकेली होती, कभी सिर झुकाए अपने नाखूनों की मैल निकालती कभी कुछ गुनगुनाती इधर उधर देखती बैठी रहती.
सामान भी तो नहीं होता कुछ ख़ास उस दुकान पर, दुकान क्या छोटी सी झोपड़ी समझ लीजिए. एक कोने में रखी चाय पत्ती की बोतल, लाल ढक्कन वाली, बगल में थोड़ी, चीनी दूध और सूखे दूध का डब्बा, गंदे से जार में रखे पता नहीं कब के बिस्कुट, और लंबी क़तारों में लटके गुटखा के छोटे पैकेट! दाहिनी तरफ वाली पतली सी रैक पर सिगरेट की डिब्बीयाँ भी होतीं एक के ऊपर एक, सजाई हुईं! और इन सबके बीच बैठी अक्सर चुपचाप बैठी लड़की! हाँ, कोने में रखी मटकी भी होती और उसपर रखा एक लोटा!
जैसे ही वे अपनी जैसी उस पुरानी चरमराती लकड़ी की बेंच पर बैठते और आवाज़ लगाते – ‘बच्ची  वह झटपट  कोने में रखे मिट्टी के घड़े से पानी निकाल कर उसकी ओर बढ़ा देती जिसे बब्बन मियाँ गट गट करते पी जाते ! इतनी देर लड़की बूढ़े की दाढ़ी के नीचे उसके गले की हड्डी को देखती जो पानी पीने के साथ ऊपर नीचे हिलती रहती, जैसे ही पानी पीना ख़त्म कर मियाँ लोटा उसकी ओर बढ़ाते, वह हाथ बढ़ाती हल्के से मुस्कुरा देती. वे कंधे से गमछा निकालकर दाढ़ी पोछते और थोड़ी देर बैठते, लड़की फिर अपनी दुनिया में गुम हो जाती.
कभी मुँह खोलकर सोई भी नज़र आती.. दो चार मक्खियाँ उसके लार से सनी ठोडी के इर्द गिर्द टहल रही होतीं ! ऐसे दिनों में वे  थोड़ी देर लकड़ी की पुरानी बेंच पर बैठ उसके जागने का इंतज़ार करते ! वह जल्दी ही जाग जाती और झटपट अपना मूँह पोछ बिना कुछ पूछे मटके में से पानी निकालकर राशिद मियाँ की तरफ बढ़ा देती. वे उसकी तरफ मुस्कुरा कर देखते और पानी पीकर फिर से लकड़ी की बेच पर बैठ जाते. जब साँस थमती तो उठकर अपनी राह लेते !
लड़की ने बब्बन मियाँ की उपस्थिति को सहजता से स्वीकार कर लिया था…और बब्बन मियाँ ने भी अपनी दुनिया में एक नन्हा ठिकाना ढूँढ लिया था..पाँच सात मिनटों का ये साथ कभी खुद के लिए शब्द नहीं तलाशता ! वह खालिस साथ होता, एक इंसान का दूसरे इंसान से, बिना किसी लगावट बनावट के ! फिर दोनो एक दूसरे को अगले दिन की दोपहर तक के लिए भूल जाते, उनकी दुनिया अपनी अपनी पटरी पर चलती रेल की तरह हो जाती !







कोई 65 बरस की उमर है बब्बन मियाँ की, घर परिवार भरा पूरा पर सब अपनी अपनी ज़िंदगी जी रहे! मस्ज़िद में थोड़ा सुकून मिलता है सो पाँच वक़्त की नमाज़ बिला नागा पढ़ते हैं. अभी पिछले बरस  ही गाँव आए हैं सबसे छोटे असग़र के पास.  रिटायर होने के बाद बड़े बेटे के पास दो बरस रहे. शुरू के दिन तो अच्छे बीते पर शहर की ज़िंदगी और महँगाई  की मार! हालाँकि मियाँ के पेन्शन के पैसे आते थे पर वे उस नई गृहस्थी में ऐसे गायब हो  जाते जैसे ऊँट के मुँह में जीरा. और फ़हीम भी ऐसा कोई दोनो हाथों से कमाता न था कि पैसे की बरसात हो घर में. महीने की अठारह बीस तारीख होते होते मियाँ की चाय में चीनी कम होने लगती और बहू अक्सर उनके धुले कपड़े अलगनी से उठाकर तह करना भूल जाती.
दो बरस किसी तरह निकाले पर एक सुबह बेटे ने साफ़ कह ही दिया -" अब्बा अब गाँव वाले घर की भी देखभाल को कोई चाहिए, असग़र का तो आप जानते ही हैं, अपना घर तो चला नहीं पाता घर की क्या देख भाल करेगा, आप रहेंगे तो दो पैसे का सहारा भी रहेगा उसे. मियाँ ने दूसरे ही दिन अपना सामान उठाया और मगध एक्सप्रेस पकड़ ली.
कुछ दिन गाँव आकर रहे, महीना दिन बीतते न बीतते मंझला चला आया अपनी दुल्हन के साथ. रज़िया ने बड़े मनुहार से कहा -"अब्बू बच्चे बड़े हो रहे हैं, आप रहेंगे साथ तो क़ुरान ही पढ़ा दिया करेंगे, बच्चे दीन अदब सीख जाएँगे! इन्हें कहाँ फ़ुर्सत रहती है, बच्चों के तरफ ध्यान देने की, सुबह के गए रात गए लौटते हैं, अब मैं क्या क्या देखूं घर गृहस्थी या बच्चों की पढ़ाई ! रशीद मियाँ ने मन ही मन शरीफन बी को दुआएँ दीं, उसी ने रज़िया के लिए पैगाम भेजने की बात निकाली थी , आज जीती होती तो रज़िया जैसी बहू का सुख पातीं .  बब्बन मियाँ अगले दिन उनके साथ निकल पड़े.
पर छः महीने बीतते न बीतते वहाँ से भी मन उचटने लगा ! बुढ़ापे में जड़े कहाँ पकड़ती हैं ! रज़िया उनका ख़याल तो रखती पर बच्चों को रोज़ पढ़ाना - वो उनके बस की बात न थी. अरे भाई अब इस उम्र में भी नौकरी ही करें क्या! नियम कायदे ज़िंदगी भर निभाए अब इस उम्र में न होगा मियाँ !  कभी पान की दुकान पर घंटे आध घंटे रुक जाते और गप सड़ाके में मशगूल हो जाते तो रज़िया बार बार बुलवा भेजती और वे कहते  -  "जाकर कह दो थोड़ी देर लगेगी !
रज़िया भुनभुनाती तो मियाँ दहाड़ते, - " कोई अहसान नहीं करे रहे हो, बाप हूँ तुम्हारा"! झिक झिक खिटखिट बढ़ी और मियाँ एक दिन उठकर दनदनाते हुए गाँव पहुँच गए, छुटके असग़र के पास और तब से यहीं हैं ! कभी कभी मन मसोसता भी है मन्झ्ले के पास ठीक ही थे, अरे भाई हर उम्र में इंसान को किसी न किसी काम आना चाहिए. मैं भी आराम की रोटियाँ तोड़ने लगा पर अब क्या किया जाए, बात बिगड़ गई सो बिगड़ गई. अब रज़िया खैर ख़ैरियत पूछ तो लेती है पर बुलाने का नाम न लेती ! इसी उहापोह में दिन गुज़र रहे हैं और रोज़ मियाँ कोई नई जुगत सोचते हैं कि मन्झ्ले से सुलह कर ली जाए.  अब घर में कोई कितना बैठे सो रोज़ मियाँ पाँचों वक़्त की नमाज़ ही पढ़ लिया करते हैं, वाहिद मियाँ से थोड़ी गप शप हो जाती है पर कितनी गप शप करे कोई ! दिल दुखता है तो मस्ज़िद जा बैठते हैं और बीवी मरहूमा को याद करते हैं.
लड़की बिना कोई ध्यान दिए अपने काम में लगी रहती है, बस नज़र उठाकर देख भर लेती है, ग्राहक पहचानती है! जानती है, थोड़ा पानी पीकर बूढ़ा उठकर चलता बनेगा, कभी कुछ खरीदता ही नहीं! कभी कभी लड़की की माँ भी दिख जाती है दुकान पर दूसरी छोटी बच्ची के साथ. सूखी सी, बिवाई भरे पैरों वाली, पीली मुरझाई. छोटी लड़की कभी बैठने की जगह में नही होती इधर उधर टहल रही होती और माँ बूढ़े का गुस्सा उसपर दो एक हाथ जमाकर निकालती - " अरे बईठ इधर, घामे में कहाँ घूम रही है!"  कोई किसी की उपस्थिति पसंद नहीं करता ! ऐसे दिनों में मियाँ जल्दी ही उठकर अपनी राह लेते और औरत की भिनभिनाती आवाज़ उसका पीछा करती - "बेकारे में बईठ के टाइम खराब करता है! कुच्छो ले लें बच्चा बुतरू के लिए ई नहीं"
कौन ऐसा ग्राहक पसंद करेगा जो कभी कुछ न खरीदे बस पानी पीकर चलता बने!
गाँव गँवई की छोटी सी उस दुकान पर ग्राहक ऐसे भी कम  ही आते और भरी दोपहर में तो समझो दो चार गाएँ और बकरियाँ या फिर लूँगी बनियान पहने दो चार छोकरे ही दिख पड़ते, पैसे किसी के पास न होते न गायों के पास न छोकरों के पास ! अलबत्ता किसी दिन कोई जवान अपने बाप की पॉकेट ढीली कर आता तो बात और होती. फिर तो धुएँ के छल्ले बनते , दुकान के पीछे वाले पेड़ के नीचे महफ़िल सजती और नौजवान क़हक़हे फूटते, ऐसे दिनों में लड़की की माँ खुश हो जाती.  उसके घर के चूल्हे का धुआँ इसी धुएँ की कमाई से चलता था. मर्द तो उसका समझो निठल्ला ही था, कभी मजूरी करता कभी बेकार बैठा रहता, कच्ची पक्की पी कर उसकी धुनाई करता सो अलग ! अब  ये बच्चियाँ हैं जिसमें से बड़ी इस दुकान पर बैठती है और छोटी उसका आँचल पकड़े पकड़े मज़दूरी करने चली आती.  अब ऐसे दो चार और गाहक और आ जाएँ तो दुकान का तो कबाड़ा ही समझो! नंगी नहाएगी क्या निचोड़ेगी क्या!
हर रोज़ की तरह उस दिन भी वही हुआ था फ़र्क सिर्फ़ इतना कि पता नहीं कैसे मियाँ की जेब से पैसे निकल कर बेंच पर ही गिर गए थे!

अगले दिन लड़की न दिखी. दुकान भी बंद थी. आज मियाँ ने पानी न पिया रास्ते में, चुपचाप अंगोछे से पसीना पोछते घर चले आए. कहीं कुछ छूट गया ऐसा लगा, वैसे भी मियाँ बुढ़ापा अजीब बीमारी है, दिमाग़ में पुरानी यादें के बगुले उठा करते हैं और आँखें बिन बादल बरसात हो जाती हैं.. बच्चों की अम्मा को गुज़रे तो ज़माना हुआ, वह होती तो क्या ऐसे भूतों का डेरा लगता उनका कमरा! पाँच बच्चे उसी कमरे में जन्मे थे, कैसे हरे भरे गुलज़ार दिन थे. पाँच में से तीन शहर की ओर निकल लए, एक बेटी थी उसके हाथ पीले हुए वह भी पराई हुई अपने बाल बच्चों में खुश है इतना ही काफ़ी है, बस छुटका है जो यहाँ गाँव में है पर उसकी बीवी तो जैसे कटखनी बौराई कुतिया! जब देखो आवाज़ चढ़ाए चिल्लाती रहती है. बच्चों को बात बेबात कूट देती है और बूढ़े को दो जून की रोटी खिलाकर तो मानो अहसान ही करती है, इमदाद और राबिया कभी कमरे में चलें आएँ तो चिल्लाने लगती है, क्या पता कौन सी पट्टी पढ़ा देंगे राशिद मियाँ – “अरे वहाँ क्या घुसे बैठे हो तुम लोग, जब देखो ही ही ही ही दाँत निपोर रहे हो काम धाम है की नहीं, बाहर आओ". अब भी अंदर पता नहीं किस बात पर छोटे इमदाद को धमूक रही है! ये तो चपरासी की सरकारी नौकरी की पेंशन न होती तो समझो ज़िल्लत ही ज़िल्लत होती ज़िंदगी में. अभी भी दो पैसे का सहारा है बाप तो बच्चे गाहे बगाहे बोल बतिया लेते हैं. दुनिया देखी है बब्बन मियाँ ने, नरम गरम अच्छे बुरे दिन निकाले हैं, दुनियाके तौर तरीकों से वाकिफ़ हैं तभी  चुप रहते हैं. अल्लाह पाक जैसे दिन दिखाए देखेंगे मियाँ!
पर ये लड़की कहाँ गई? अगले दिन उन्हें  खटका हुआ? सोचा था आज कुछ और पैसे देंगे उसे, उसी की दुकान से ख़रीदकर खट्टी गोलिया ले देंगे, लड़की की मीठी मुस्कुराहट उनकी आँखों के आगे ज़िंदा होकर उनके होंठों पर खेलने लगी.  पर दुकान तो बंद ही दिखी. टीन के दरवाज़े के सामने रखे बड़े से पत्थर के बगल भूरा कुत्ता सोया था मज़े से. अच्छा कोई बात नहीं, मस्ज़िद का रास्ता तो यही है आज नहीं तो कल कल नहीं तो परसों, जल्दी क्या है !
तीन दिन निकल गए. उस छोटी सी झोपड़ी के सामने की ज़मीन सूखे पत्तों से भर गई और बब्बन मियाँ रोज़ प्यासे ही घर जाते रहे. अनमना सा देखकर वाहिद मियाँ ने पूछा भी – ‘क्या बात है मियाँ घर पर सब ठीक तो है?’ वे सिर हिलाकर चुप ही रहे. दूसरे दिन भी जब दुकान बंद दिखी तो वाहिद मियाँ से पूछे बिना रहा न गया  – ‘मियाँ ये दुकान आजकल बंद क्यों रहती है?’ वाहिद मियाँ क्या जानें दुकान बंद रहने का राज़, उनकी अपनी दुखती रगे हैं, एक दुकान के बंद होने न होने से कौन सा फ़र्क पड जाएगा भला! "अरे मारो गोली दुकान को मियाँ, बंद है दुकान तो साथ पानी की बोतल रखा करो, दस मिनट बैठ कर समय ही तो बर्बाद करते हो !"






तीन सप्ताह गुज़र गए,  मियाँ ने उम्मीद छोड़ दी, कि दुकान खुलेगी और वे उसी बेंच पर बैठकर पानी पिया करेंगे. कई मंसूबे भी बाँधे थे इस बीच. दसवीं पास तो थे ही बच्ची को रोज़ थोड़ा पढ़ा दिया करेंगे, उसकी माँ भी नाराज़ नहीं होगी और बच्ची की कुछ तरक्की भी हो जाएगी. कहाँ स्कूल जा पाएगी इतनी ग़रीबी में भला ! अरे ! एक गुड़िया न ले दें उसे? आँख बंद करने खोलने वाली गुलाबी सी गुड़िया! यहाँ फ़हीम की दुकान पर तो मिल ही जाएगी, कितने की आएगी भला? कल पूछ लेंगे दाम. तीन सलवार कुर्ते जो राबिया को छोटे पड़ गए थे, वे भी बहू की मिन्नत करके निकलवा लिए गए, लड़की के काम आएँगे और क्या! इतनी तैयारी तो हो गई पर लड़की को तो जैसे ज़मीन खा गए या आसमान निगल गया.
उस रोज़ गर्मी कुछ ज़्यादा ही थी, धूल भरे बगुलों से गाँव की पगडंडियाँ धुंधली पड़ रही थीं. शुक्रवार की नमाज़ के बाद जब मियाँ सीढ़ियाँ उतरकर घर की तरफ जाने लगे तो आदतन नज़रें दुकान की तरफ घूम गयीं, देखा लड़की की माँ दुकान की सामने पत्थर पर बैठी है और बाल बिखराए छोटी लड़की वहीं बेमसरफ घूम रही है. बड़ी लड़की अब भी न दिखी. कोई बात नहीं आज दुकान खुल गई है कल वह भी दिखेगी आख़िर दुकान संभालती तो वही है!
दूसरे दिन बब्बन मियाँ ने अपने झोले में आँख बंद करने खोलने वाली गुलाबी गुड़िया, तीन सलवार कमीज़ के जोड़े, पैकेट वाले पार्ले जी बिस्कुट और नीली नीली जिल्द वाली एक कॉपी रखी और मस्ज़िद जाने को तैयार हो गए. कैसी खुश होगी यह सब देखकर लड़की सोचकर नमाज़ में भी जी न लगा उनका.  जल्दी जल्दी दुआएँ पढ़ीं, अल्लाह का शुकराना अदा किया और फटाफट मस्ज़िद की सीढ़ियाँ उतरने लगे. ‘अरे मियाँ कहाँ भागे जा रहे हो” वाहिद मिया ने पीछे से हांक लगाई, वे पीछे मुड़कर कर हंस दिए. ‘तुम तो बूढ़ा गए वाहिद मियाँ” चलो ज़रा पैर बढ़ाए, जल्दी जाना है ! हाँफ़ते काँपते वाहिद मियाँ पीछे रह गए.. और बस दस कदम की दूरी पर दुकान ये रही ! आज भी माँ ही बैठी थी दुकान पर, छोटी लड़की वहीं बगल में औंधी पड़ी थी, आँचल से हवा कर रही थी माँ. ' मियाँ निकल चलो, ये औरत तो सीधे मुँह बात भी न करेगी' , बब्बन मियाँ ने मन ही मन सोचा पर फिर रहा न गया, सोचा चलो इसकी भी नाराज़गी ख़तम हो जाएगी जब झोले का सामान उसके सामने रखूँगा’ गला खखारकर आवाज़ दी – ' अरे वो बच्ची दिखाई नहीं दे रही आजकल, सब ख़ैरियत तो  है? माँ ने चुपचाप सर उठाकर देखा और चुप रही. थोड़ी हिम्मत करके बब्बन मियाँ ने फिर से कहा – वो उस दिन के बाद दिखी ही नहीं, उसके लिए कुछ चीज़ें लाया था सोचा देता चलूँगा. अबकी बार माँ ने बब्बन मियाँ की आँखों में देखा और फिर आँचल मुँह मे रखकर दूसरी तरफ देखने लगी.  मियाँ हिम्मत करके दुकान के ठीक सामने चले आए, कहने लगे – कई दिनों से बच्ची दिख नहीं रही थी तो सोचा आज पूछ लूँ. कहीं गई है क्या? दुकान तो वही संभालती है ना?” अचानक माँ फूट फूटकर रो उठी – 'बाबा हमरा तो हाथ काट गया, उ अब कहाँ, सदर अस्पताल मे ले के गए थे, वहाँ से बड़ा डाक्टर के पास ले जाने को बोला, पईसवे नहीं था त का करते, इंतज़ाम करते करते हमार बिटिया तो चली गई. बुक्का फाड़कर रो उठी माँ. "ताप आता था रोज रात को हम का समझे, ऐसे जान ले के जाएगा हमरी बच्ची का. दो चार लोग से माँग चांग के भी इलाज़ करते अगर जानते तो",
रशीद मियाँ चुप ! बोल न फूटे मुँह से, या अल्लाह कैसा इंसाफ़ है खुदा का! लड़खड़ा कर लकड़ी की चरमराती बेंच पर बैठ गए !  थैला हाथों से छूट गया. थोड़ी देर चुपचाप आसमान को ताकते रहे और आँखों से कुछ बूँदें निकालकर दाढ़ी में ठहर गई, गले से घुटी आवाज़ निकली पर रो नहीं पाए. माँ अब भी धीरे  धीरे सुबक रही थी, छोटी बेटी उठकर बैठ चुकी थी और माँ से चिपक कर बैठी डब डबाई आँखों से बब्बन मियाँ की तरफ देख रही थी.
अचानक मियाँ को जैसे कुछ याद आया, अपना झोला छोटी बच्ची के सामने उलट दिया, कुछ न बोले. माँ कभी सामने पड़े सामान को देखती कभी बूढ़े को. न बब्बन मिया के  कदम  उठते थे और न माँ के आँसू. कोई धागा उन्हें मजबूती से जोड़ रहा था.
अचनाक जैसे कुछ याद आया, ठहर गए और बोले – “अगर तुम्हें कोई ऐतराज़ न हो तो इसे रोज़ थोड़ा पढ़ा दिया करूँ? नमाज़ से वापस लौटते वक़्त तो रुकता ही हूँ यहाँ ! ये चीज़ें बिटिया के लिए लाया था, इसके काम आ जाएँगी’
माँ की आँखें बरसती रहीं.
ई सब काहे ले आए बाबा? उ माँगी थी का? "
ना में सर हिलाया रशीद मियाँ ने
सूनी आँखों से माँ की तरफ देखते रहे –
ऐसे ही’
रशीद मियाँ ने धीरे से कहा, और सर झुककर थके कदमों से अपने रास्ते चल पड़े
००

रंजना मिश्र की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

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