साक्षात्कार:
उस्ताद लेखक एक बार में पकड़ में नहीं आते हैं।
रचना- स्टीफन स्वाइग के साहित्य से आपका परिचय कब और कैसे हुआ?
क्रमश:
ओमा शर्मा के साक्षात्कार की दूसरी किस्त नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/82.html
परिचय
श्री ओमा शर्मा हिन्दी भाषा में लिखने वाले महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। आपने अनुवाद के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग की कहानियों और आत्मकथा से हिन्दी पाठकों का परिचय करवाया है। आपसे आपके रचना कर्म और अनुवाद कार्य पर सुश्री रचना त्यागी बात कर रही है। रचना त्यागी युवा कवयित्री और अनुवादक है। इधर वे कहानी में भी हाथ आजमा रही है। हम उनसे भविष्य में बेहतरीन रचनाओं की आशा करते हैं। यह साक्षात्कार त्रैमासिक पत्रिका- पल प्रतिपल 82 , से साभार है। आज हम इसकी पहली कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि बिजूका के पाठकों को यह पसंद आएगा।
रचना त्यागी |
भाग: एक
रचना- स्टीफन स्वाइग के साहित्य से आपका परिचय कब और कैसे हुआ?
ओमा
शर्मा - अरसा हो गया। शायद 1996-97 की बात होगी।
मैं अहमदाबाद में था। वहाँ एक बहुत अच्छी और पुरानी लाइब्रेरी है -- गुजरात
विद्यापीठ-- जहां मेरा अक्सर जाना होता था। मैं उसमें कोई किताब ढूंढ रहा था कि
मुझे एक किताब नज़र आयी- 'अनजान औरत का ख़त'। यह शीर्षक अपने आप में दिलचस्प लगा। मुझे कौतूहल हुआ कि क्या पूरी किताब
जितना कोई खत हो सकता है, और वह भी एक अनजान औरत का! उस
वक़्त मैं न लेखक को जानता था और न किसी ने मुझे उसका नाम सुझाया था। एक पाठकीय
जिज्ञासा के तहत मैं उस किताब को ले आया। उन दिनों मैं लिखना शुरु ही कर रहा था, एकाध कहानी छप चुकी थी। लेकिन कशमक़श ज़्यादा थी। जब मैंने उस किताब को पढ़ना
शुरु किया तो मैं उसमें डूबता ही चला गया। हालाँकि बाद में मैंने पाया कि यह
अनुवाद कितना स्तरहीन था लेकिन फिर भी, चूँकि उस कहानी
की विषयवस्तु इतनी सशक्त, मार्मिक और अद्भुत थी कि वह
पुस्तक मुझे पढ़ा ले गयी। मैं हैरान हो गया। उस किताब में बतौर बोनस दो और भी
कहानियाँ थीं। वे भी उतनी ही दिलचस्प और अनोखी। इससे मुझे उस लेखक को और पढ़ने की
ललक हुई। मैंने कैटलॉग और अन्य स्रोतों से लेखक के विषय में यथा-सम्भव जानकारियाँ
प्राप्त कीं, क्योंकि उस समय गूगल तो था नहीं। उस
पुस्तकालय में जितनी किताबें थीं, खंगाल लीं। उस शहर
में जितने पुस्तकालय थे, वे खंगाल लिए गए। यहाँ तक कि
स्टीफ़न स्वाइग की सिर्फ़ एक किताब हासिल करने के लिए मैंने कई पुस्तकालयों की
सदस्यता ली। उन्हें चुन-चुनकर फोटोकॉपी करवाया। कहना
होगा इस प्रकार यह आजीवन जुड़ाव की प्रक्रिया शुरु हुई।
रचना
- कब तक आप उनके प्रभाव में रहे या कब तक उन्होंने बाँधे रखा आपको?
ओमा
शर्मा - अभी तक बाँधे हुए है। अभी भी पढ़ता हूँ। कई चीज़ें दोबारा पढ़ने के बाद लगता
है कि पहली बार कैसे छूट गयी थीं। तीसरी बार पढ़ने के बाद लगता है कि यह दूसरी बार
में क्यों नहीं लक्ष्य की जबकि मैं तो इतने ध्यान और चाव से पढ़ रहा था! और यह बात
स्टीफ़न स्वाइग की ही नहीं, अधिकतर उस्ताद लेखकों की हैं
विश्व साहित्य के या अपने बड़े लेखक... चेखव, दोस्तोवस्की, गेटे, बाल्जाक, डिकन्स, प्रेमचन्द, टेगोर… एक
बार में पकड़ में नहीं आते। वे लगते आसान हैं क्योंकि उन्होंने भाषा के स्तर पर
स्वयं को इतना सहज कर लिया है कि आपके भीतर उतरते चले जाते हैं। लेकिन उसकी जो
बारीकियाँ हैं, सृजन में कला की निर्मिति है, निगाह का जो निवेश है, बुनियादी भावनाओं का
उत्खनन है... उन्हें आप सिर्फ पुनर्पाठों में ही देखते हैं...किसी जंगल के
सौन्दर्य की तरह...। बल्कि पहली बार तो केवल जिज्ञासा के लिए पढ़ते हैं। दूसरी बार
उसके रचना कौशल के लिए पढ़ते हैं, कि सब कैसे रचा गया
है। तब आप ठहर जाते हैं। उसमें जिज्ञासा वाला पक्ष तो कम हो चुका होता है। अब यह
रहता है कि कैसे लेखक ने अन्तरालों को बुना है, कैसे
उसने मानवीय मन के भीतर की परतों और स्थितियों को कथा के माध्यम से चित्रित किया है, भाषा कैसे सृजित की है, कैसे खुद को रचना से ओझल किए रखा है... ये बहुत बड़े सबक़ इन लोगों से मिलते
हैं।
रचना
- उनके व्यक्तित्व के किन पक्षों ने आपको प्रभावित किया?
ओमा
शर्मा - व्यक्तित्व का सबसे ज़्यादा पक्ष तो उनकी आत्मकथा में आता है। आत्मकथा, जीवनी और पत्र लेखन में मेरी स्वाभाविक रुचि रहती है। जब मैं स्वाइग की
आत्मकथा पढ़ रहा था तो जो मूल्य मेरे दिल के सबसे नज़दीक़ नज़र आया वह था: लेखकीय
स्वतंत्रता। यानी किसी विचारधारा के दुराग्रह से मुक्ति। यह न अराजक होना है और न
तटस्थ होना। लेखन में जो आपकी बौद्धिक जिम्मेवारी है, उसका
संतुलन ऐसा सधा रहे कि वह किसी को-- और स्वयं को-- भी एक कमज़ोर आँख की प्रतीति न
दे। यह थोड़ा चुनौतीपूर्ण और मुश्किल होता है क्योंकि यहाँ आप किसी को ख़ुश नहीं
करते, बल्कि अधिकतर को नाख़ुश करते हैं। निजी जीवन में
ज्यादा जोखिम उठाने पड़ते हैं, ज्यादा अरक्षित(वलनरेबल)
हो सकते हैं। लेकिन काल के बड़े फ़लक़ पर देखें तो जो पाठक है, ईमानदार पाठक, वह शायद उसमें स्वभावगत नज़दीक़ी
ढूँढेगा। बाद में मैंने दूसरे लेखकों, जैसे निर्मल
वर्मा को पढ़ा, तो वहाँ भी यही बात लगी... कि जिसे हम एक
प्रतिबद्ध क़िस्म का लेखक मानते हैं, जिसका भारत में बड़े
दिनों तक फैशन, चलन और प्रीमियम रहा है, तो आपको पता लगता है कि वह सब कितना इकहरा, एकतरफा
और अधूरा था। आप चीज़ों को पहले से ही एक ख़ास नज़रिये से देखने को अभिशप्त हैं तो
रचनात्मक विस्तार की कैसे सोचेंगे? तो यह जो वैचारिक
स्वतंत्रता है, व्यक्तित्व की यह सोच, भीतर का यह विश्वास, मुझे स्टीफ़न स्वाइग के
लेखन और व्यक्तित्व में सबसे ज़्यादा दिखा।
रचना
- आपके लेखन पर किन रूपों में इसका प्रभाव पड़ा है ?
ओमा
शर्मा - इस सवाल का जवाब देना मेरे
लिए मुनासिब न होगा। मेरे जो पाठक या आलोचक हैं, शायद वे इस पर बेहतर
टिप्पणी कर सकें।
रचना
- आपने लिखा है कि स्वाइग ‘छँटनी’ करा
देता है। इसे स्पष्ट कीजिये।
ओमा
शर्मा - हर लेखक को अपने लिखे के प्रति कमोबेश आत्ममुग्धता रहती है। अपने रचे-लिखे
को सान्द्र रूप में लाना इतना आसान नहीं होता। कोशिश यह रहनी चाहिये कि अगर कोई
कहानी पहले-दूसरे ड्राफ्ट में पचास पृष्ठ लेती है, तो
क्या मैं उसे बीस या पन्द्रह पृष्ठ में कह सकता हूँ! अधिकतर लोग, ख़ासतौर पर हमारे युवा लेखक, इससे थोड़ा परहेज़
करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसी तीन-चार कहानियाँ हो जाएँगी, तो संग्रह तैयार हो जायेगा। तो ‘छँटनी’ करने का एक अर्थ तो इस तरह से है। जब आप पूरे वाक्यों को, पैराग्राफ़ को, मतलब जो चीज़ केन्द्र में है, उस पर ध्यान रखते हुए रचना पर केन्द्रित रहना और उसके इधर -उधर की चीज़ों
को जितना हो सके, जब तक कि वे बहुत ज़रूरी न हों, छोड़ देना सीख जाते हैं… यह जो ‘छँटनी’ है, जिसे
भाषा के स्तर पर एडिटिंग कहते हैं, कई स्तरों पर कार्य
करती है। केवल आकार की बात नहीं है। लेखकीय कला-संलग्नता की बात है। पचास पृष्ठ की
एक कहानी बहुत अच्छी और सान्द्र कहानी हो सकती है। स्टीफ़न स्वाइग का वह दौर पूरे
जर्मन या यूरोप में नॉवेलाज़ का दौर था। कोई भी कहानी सत्तर-अस्सी पृष्ठ से कम नहीं
होती थी और किताब के रूप में स्वतंत्र छपती थी। लेकिन असल में वे सब उपन्यास होने चाहिए थे... तीन सौ, चार सौ
पृष्ठों के… जिनको नॉवेला किया गया। हमारे यहाँ अभी कई
युवा कहानीकार हैं। एक-दो से जब मेरी बात हुई, तो मैंने
बहुत इशारे से उनको कहा कि अभी यह कहानी छप गयी है आपकी। अच्छी कहानी है लेकिन अगर
इसको थोड़ा-सा सम्पादित किया जाये… मसलन जो चीज़ तीस
पृष्ठ की छप गयी है उसे बीस-बाइस पृष्ठ में किया जाये, तो
शायद -–शायद-- उसकी पाठकीय पकड़ बढ़ेगी। अब जैसे शिवमूर्ति या
योगेंद्र आहूजा की कहानियाँ हैं, ज़्यादातर वे लम्बी
कहानियाँ हैं। लेकिन आप उनमें पाठकीय गिरफ़्त की कमी नहीं देखेंगे। वे आपको लगातार
पढ़ा ले जाती हैं। प्रियंवद की कहानियाँ भी, ख़ासतौर पर
प्रियंवद की शुरुआती कहानियाँ। और यह मामला केवल कथानक का नहीं, स्वयं उसके चयन का भी है... भाषा का तो है ही। बल्कि आत्मकथा में तो
स्वाइग ने एक जगह ज़िक़्र किया है कि कई बार वह बहुत ख़ुश होता था कि कमरे में पूरा
दिन बैठ किसी वाक्य को पूरा का पूरा हटा दिया या कोई पैरा ही उड़ा दिया। तो इस तरह
की छँटनी। एक चुनौती... कि पाठकीय अनुभूति का विस्तार कैसे हो... जो कहा जा चुका
है उसके इतर और बेहतर कहने की चुनौती... और यदि ऐसा नहीं है तो फिर कहा ही क्यों
जाए? इसलिए कि वह आपके साथ पहली बार हुआ है! कविता में
आप पहली प्रेम कविता लिख लेंगे। लेकिन कहानी या कथा के स्तर पर थोड़ा रुकना बेहतर
है।
रचना
- एक उत्कृष्ट रचनाकार अपने लेखन के माध्यम से अमर हो जाता है। उसकी रचनाएँ कालजयी
होती हैं। इस कथन के आलोक में बताएँ कि वियना यात्रा के दौरान बीसवीं सदी
के विश्वविख्यात लेखक स्टीफ़न स्वाइग को उन्हीं की सर-ज़मीं पर ग़ुमनाम पाने का अहसास
कैसा था?
ओमा शर्मा
- जब हम
कहते हैं कि लेखक अमर हो जाता है, तो ‘साहित्य’ की एक सीमा हमेशा ही रखते हैं। जैसे
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों-अविष्कर्ताओं को, जो पूरी दुनिया
को बदलने की क्षमता रखते हैं, हम लोग नहीं जानते। लेकिन
उनकी सोच और अवदान से दुनिया बदल रही है। कोई यह कहे कि इतना बड़ा वैज्ञानिक है फिर
भी हम लोग केवल आइंस्टीन और न्यूटन की ही बात करते हैं? अभी पिछले दस-बीस साल में जो नोबल पुरस्कार दिए गए हैं, उनमें हम किसको जानते हैं? तो चीज़ें इतने बारीक़
स्तर पर काम करती हैं। और वे बड़े ही वैज्ञानिक होंगे, लेकिन
हम कहाँ जानते हैं? लगभग यही बात लेखकों के लिए होती
है। लेकिन जो ‘उसकी दुनिया’ के
लोग हैं, जो पढ़ने-लिखने से ताल्लुक़ रखते हैं, दुर्भाग्यवश उनमें भी उनकी पैठ कम हो रही है। यह त्रासद है। वहाँ मैंने एक
प्रोफेसर साहब से बात की तो उन्होंने कहा कि आज भी जर्मन समाज में काफ़्का, रिल्के, स्टीफ़न स्वाइग और टामस मान, ये चार लेखक ही सबसे ज़्यादा पढ़े जाते हैं। आप देखें कि ये सभी लेखक दूसरे
विश्वयुद्ध से पहले के हैं। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध। यानी क़रीब एक सदी बाद यही
लेखक हमें रोशनी दिखा रहे हैं। कुछ वैसा ही जैसे हमारे यहां प्रेमचन्द, शरत, टेगौर आज भी सर्वाधिक बिकते हैं। तो यह
उनके कालजयी होने का तो परिचय है, लेकिन यह भी है कि हर
जगह साहित्य का दायरा लगातार और तेजी से सिमट रहा है। अलबत्ता, फ्रांस और कुछ लातीनी मुल्कों में अब भी उसके खूब पाठक हैं।
रचना
- 'वो गुज़रा ज़माना' की अनुवाद प्रक्रिया के अनुभव
ने आपको किस धरातल पर समृद्ध किया ?
ओमा
शर्मा - मैं सोचता हूँ कि इसने मुझे यकीनन समृद्ध किया। लगातार दो-तीन बार पढ़कर
मुझे लगा कि इस तरह की आत्मकथा हिन्दी में आनी चाहिए। जब मैं अनुवाद कर रहा था तो
मैंने 'हंस' में ‘आत्मकथा लेखन:आत्म छलना के प्रयोग’ नाम से एक
लेख लिखा था कि कैसे हमारे यहाँ बड़े-बड़े लेखकों की आत्मकथाएँ फ़िज़ूलियत से भरी होती
हैं; मसलन ... मैं वहाँ गया, स्टेशन पर चाय पी, फिर दूसरी चाय पी, चाय में चीनी कम थी या चाय बहुत अच्छी थी... इस तरह की स्थूल बातें। या
फिर अपने बहुत निजी प्रसंग, जिनको आत्मकथा लिखते समय ही
आविष्कृत किया जाता है-- क्योंकि उनके झूठ चीख मचा रहे होते हैं-- उनमें घुसेड़ने लगते हैं। अपनी अनुपस्थित महानताओं की परोक्ष गवाही देने लगते
हैं। स्वाइग की आत्मकथा पढ़कर मुझे लगा कि कैसे एक लेखक-कलाकार अपने से
अलग-निरपेक्ष रहकर रच सकता है, अपने समकाल, अपने समकालीनों के बारे में बात करता है। और आचरण के स्तर पर भी- कि कैसे
लेखक, कलाकार को अपने लिखे के प्रति निर्लिप्त रहना
चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात थी- भाषा के स्तर पर। यह एक सार्वभौमिक बात है कि
अपनी भाषा की सम्भावनाएँ आप अनुवाद में गहरे उतरे बिना कभी नहीं जान सकते हैं। और
यह बात भी इस आत्मकथा में एक जगह आयी है क्योंकि
स्टीफ़न स्वाइग ने शुरु में खुद बहुत अनुवाद किये थे। जब किसी परदेशी ज़बान को आप
अपनी भाषा में बाँधते-साधते हैं तो वह रूपान्तरण की नई चुनौतियाँ पेश करती है।
उसका परिवेश अलग होता है, उसका मुहावरा अलग होता है।
अनुभव क्षेत्र तो होता ही है। तो यह जो पुल बनाने का काम अगर आप करना चाहें, तो बहुत सहज और मार्मिक हो सकता है। यही चुनौती है। इस प्रक्रिया से
गुजरना अन्ततः भाषा के स्तर पर आपको बहुत समृद्ध करता है। उससे गुजरकर आप अपनी
भाषा की गहराइयों और रंग-ओ-बू से यकीनन बेहतर वाकिफ हो पाते हैं। मेरे साथ ऐसा कई
बार हुआ कि पूरा दिन लगे रहने के बाद सिर्फ़ एक या आधे पेज-सा ही अनुवाद हुआ। बाद
में उसमें भी खूब काट-पीट हो जाती। यहाँ तक कि पुस्तक प्रकाशन के समय, प्रूफ के स्तर पर भी लगातार कुछ न कुछ रद्दो-बदल होती रही। देश(निर्मोही)
जी और उनकी पत्नी पूजा जी-- जो उस सबको सहन करती थीं-- ने अलबत्ता खूब साथ दिया।
उनमें गज़ब का धैर्य है। जब अगले संस्करण कि बारी आई तो मुझे लगा अभी इसमें कितना
कुछ बेहतर किया जा सकता है! तो वह किया गया। और अब भी मुझे इसमें कई जगह गुंजाइश
लगती है।
रचना
- आपको यह लगता है कि विदेशी आत्मकथाओं और जीवनियों में, और
भारतीय आत्मकथाओं और जीवनियों के स्तर में अन्तर रहा है? या हमारे यहाँ इतनी समृद्ध आत्मकथाएँ और जीवनियाँ नहीं रही हैं?
ओमा
शर्मा - देखिये ऐसा है कि सबका अपना-अपना मिज़ाज होता है। आत्मकथा चीज ही ऐसी होती
हैं। उनमें ‘आत्म’ और ‘कथा’, दोनों
जुड़े हैं। वह आपको छूट देता है कि आप क्या करते हैं। वह छूट तो आप ले लेते हैं
लेकिन यह भूल जाते हैं कि इसको जब पाठक, या बाद में समय, देखेगा तो उस पर किस तरह से प्रतिक्रिया देगा। एक लेखक अपनी नौकरी के
झंझटों–संकटों पर पचासों पेज रंग देता है, एक लेखिका अपनी सगाई की महागाथा में विलंबित तान खींचती है, कोई जनाब अपने नाती-पोतों की गिनती में उतर आते हैं। बड़े लेखकों की एक यही
पहचान होती है कि वे आत्मकथा का मतलब उस तरह से नहीं मानते कि अपनी महानता की गाथाएँ
लिखने बैठ जाएँ। हमारे यहाँ कई बार ऐसा हुआ। अलबत्ता रसरंजन सत्रों के लिए वे
भरपूर ‘चखना’ प्रदान करती
जाती हैं। आत्म-कथा का मतलब आपकी हर निजी अनर्गल बात से नहीं है। ‘आत्म’ का सन्दर्भ वहाँ एक प्रस्थान बिन्दु की
तरह हो, लक्ष्य बिन्दु नहीं।
रचना
- ऐसे कौन से व्यक्तित्व रहे, जिनकी जीवनी आप लिखना
चाहते थे या चाहते हैं ?
ओमा
शर्मा - मेरे मन में बहुत था -
निर्मल वर्मा जी की जीवनी लिखना। और इंशा अल्लाह कभी हुआ, तो मैं
उसे जरूर लिखना चाहूँगा। एक सम्पूर्ण लेखकीय व्यक्तित्व जो होता है वह मुझे निर्मल
जी में सबसे करीब नज़र आता है। उनसे मेरी एक-दो ही मुलाक़ातें हुईं। ‘वो गुजरा जमाना’ के सन्दर्भ में उनकी परिचित
कोमल लिखावट में मुझे प्रेषित एक अंतरदेशीय किसी धरोहर की तरह मेरे पास है। उनसे
मेरी अन्तरंगता नहीं थी लेकिन उनका लेखन एक बड़ी
साहित्यिक विरासत की तरह हिन्दी साहित्य में उपलब्ध है। उसे पढ़कर हम बार-बार
समृद्ध होते हैं। और यही बात उनके जीवन की तरफ लुभाती है। सादगीपूर्ण जीवन, जो रचनारत रहकर भी न अपनी विनम्रता छोडता है और न धार। निजी जीवन का एक भी
गिला-शिकवा लेखन में कहीं नहीं झलकता। लेखकीय निष्ठा का ऐसा पुंज जो न लांछनों से
उद्वेलित होता है, न विवादों में रस लेता है। मेरे मन
में बारहा आता है कि ऐसे स्वतंत्र और संत लेखक की रचनाओं और जीवन में पुल बनाने का
काम किया जाना चाहिये।
रचना
- स्वाइग और महात्मा गाँधी, एक ही युग में विश्व के
फ़लक़ पर चमकने वाले दो शांतिवादी सितारे थे। फिर क्या कारण रहा कि स्वाइग ने अपनी
रचनाओं में अपने समानधर्मा का उल्लेख नहीं किया, जिनकी
उपस्थिति को अनदेखा करना किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय लेखक के लिए लगभग असम्भव था ?
ओमा
शर्मा - वह बहुत उथल-पुथल का दौर था। महात्मा गाँधी का उभरना पहले विश्वयुद्ध के
बाद की बात है। लगभग यही समय स्टीफ़न स्वाइग के एक लेखक के तौर पर उभरने का है। फिर
दूसरा विश्वयुद्ध हुआ। उसके बीच का वक्फ़ा, मंदी का दौर
है। वह नाज़ीवाद के उभरने का भी दौर है। विश्व स्तर पर बहुत तहस-नहस मची हुई थी
क्योंकि पहले विश्वयुद्ध की भरपाई के स्वरुप जो चीज़ें बन-बिगड़ रही थीं, अभी तक की जो शांतिवादी व्यवस्था थी, वह सब
उलट-पुलट हो गयी थी। एक देश से दूसरे देश जाने में वीज़ा लगने लग गए थे। पहले लोग
कहीं से कहीं यूं ही ‘घूम’ आते थे। हवाई यात्राएं होने लगी थीं। संचार के माध्यमों की बात करें तो
टेलीफोन की शुरुआत भर हुई थी। आज से सौ बरस पहले,यानी सन 1917 के आसपास साल्ज़बर्ग में टेलीफ़ोन रखने वालों की तादाद क़रीब हज़ार-बारह सौ
थी। स्वाइग का अपना टेलीफोन नंबर था 598; तीन अंक
का। लेकिन मत भूलिये कि उस समय भी रोमा रोलां ने
सन 1922-23 में महात्मा गाँधी की जीवनी लिख दी थी!
रोमा रोलां सान 1914 में नोबल सम्मानित फ्रांसीसी
लेखक थे। सन 1920-21 तक महात्मा गाँधी की इतनी बड़ी
वैश्विक उपस्थिति नहीं हुई थी। हालांकि तब वे उभर रहे थे। रोमा रोलां के साथ स्टीफ़न स्वाइग की बहुत नज़दीक़ी मित्रता थी। वेरहारन के
बाद एक तरह से रोमा रोलां उसके दूसरे गुरु थे। तो ऐसा नहीं था कि उसको पता नहीं
था। स्टीफ़न का अपनी पत्नी के साथ जो पत्राचार है, उसमें
बाक़ायदा गाँधी का ज़िक़्र आया है। टॉलस्टॉय के विचारों की संपादित किताब की भूमिका
में तो साफ लिखा भी है कि कैसे उसके विचारों को सविनय अवज्ञा आंदोलन की शक्ल देकर
गांधी ने अलग देश-काल में टॉलस्टॉय का विस्तार रच डाला। लेकिन एक फर्क समझना होगा:
स्वाइग की जो शख़्सियत है, उसने अपने को इस तरह से ढाल
रखा था कि राजनैतिक चीजों से दूर (अनजान नहीं) रहता था। वह अपनी सारी ऊर्जा
उपन्यास, कहानी और लोगों की जीवनियाँ लिखने में लगाए
रखना चाहता था। आप देखें कि जो ‘दूसरी दुनिया’ उसने रची है, वह मामूली नहीं है...वह कभी
टॉलस्टॉय और स्टेंढल की रचनाओं में उनके ‘आत्म’ की शिनाख्त करता है, कभी नीत्शे और होल्डरलिन
के जरिए प्रतिभा के आत्मघाती स्वरूप पर कलम चलता है... कभी फ्रायड और रोलां जैसे
समकालीनों के अवदान को तराशता है तो कभी इतिहास के घूरे से मैरी एंटोइनेट और जोसफ
फ़ाउश जैसी गैर-कलागत शख़्सियतों को निकाल उन्हें समयबद्ध करता है; रिल्के की मृत्यु पर लंबा शोक-गीत लिखने में जुटता है, तो कभी अपने ‘बिवेयर ऑफ पिटी’ को संवारने में। वह व्यक्ति पूरे वक़्त बड़े-बड़े संग्रहालयों में, आर्काइव्ज में और जहां-तहां से उस समय के दस्तावेज़ों को बटोरने-कुरेदने और
उनसे कुछ नया निकालने में जुटा रहता था। यही उसकी चुनी हुई एकनिष्ठ प्राथमिकताएं
थीं। उधर गांधी भी उसी तरह अपने व्यापक मकसद में लीन थे। जहाँ तक शांतिवादी होने
का प्रश्न है तो स्टीफ़न और गाँधी दोनों थे। दोनों विराट शख्सियत थे। वे मुल्क से बाहर भी कितना कम निकलते थे। हाँ, रवीन्द्रनाथ
टेगोर साल्ज़बर्ग में स्टीफ़न के घर पर आए थे। हर आदमी हर-एक से नहीं मिल सकता। सबको
अपने-अपने काम करने होते हैं।
रचना
- भारत के विषय में स्वाइग की क्या धारणा थी? क्या
किन्हीं भारतीय रचनाकारों से उनके मैत्री सम्बंध रहे ?
ओमा
शर्मा - हाँ। जैसा मैंने बताया, रवीन्द्रनाथ टेगोर
स्वाइग के घर गए थे और कलकत्ता आकर शायद स्वाइग भी उनसे मिले थे। लेकिन मुझे दोनों
के बीच हुए पत्राचार जैसे किसी सम्बंध की जानकारी नहीं मिली, जैसे गोर्की या फ्रायड के साथ हुए उसके सुदीर्घ पत्राचार की मिलती है।
हमारे पास पत्रों के संग्रह की परम्परा ही नहीं है। प्रथम विश्व-युद्ध से पहले, अपने एक मित्र की सलाह पर स्वाइग भारत आया था और बम्बई-बनारस-कलकत्ता समेत
कई जगह घूमा-फिरा था। ‘वो गुजारा जमाना’ में इसका स्पर्श-रेखिक उल्लेख है। सामंती व्यवस्था और जातिवाद को लेकर जिस
तरह से उसने अपना नज़रिया ज़ाहिर किया है, कि कैसे एक
वर्ग दूसरे को हेय दृष्टि से देखता और बर्ताव करता है, यह
सब उसे बहुत बेचैन करता लगा क्योंकि वह बराबरी और मानवीय गरिमा का चितेरा था। जहाँ मानवीय गरिमा का हनन होता, जहाँ ग़ैर बराबरी दिखती, वहाँ वह विचलित हो जाता, भाग खड़ा होता। इसीलिए भारत के बारे में उसकी कोई बहुत अच्छी छवि नहीं थी।
मेरे लिए अतिरिक्त जिज्ञासा उसके और प्रेमचन्द के बारे में है... काश दोनों के बीच
मुलाक़ात-संवाद जैसा कुछ हुआ होता ! समकालीन तो थे ही।
रचना
- स्वाइग के अनुसार टॉलस्टॉय ईमानदार लेखक थे। लिखने के लिए कल्पना का सहारा
नहीं लेते थे। क्या लेखन में कल्पना या फ़ंतासी का प्रयोग बेईमानी है?
ओमा
शर्मा - नहीं, नहीं। ऐसा है, जब हम जीवनीपरक चीज़ें लिखते हैं तो उसमें कुछ अतिशयोक्तियां स्वभाव की तरह
आ जाती हैं। 'वॉर एंड पीस' कोई
वास्तव में घटे युद्ध का वर्णन नहीं है। अलबत्ता, टॉलस्टॉय
ने निश्चित रूप से युद्ध में भाग लिया था। लेकिन उसमें उन सारे युद्धों का आख्यान
नहीं है जो उसने ख़ुद देखे थे। जब स्वाइग ऐसा कहता है, तो
अपनी तरह से वह उसको श्रद्धांजलि दे रहा है। श्रद्धांजलि देने का यहाँ यह अर्थ है
कि जो उसकी चीज़ें हैं… जैसे उसकी आँखें इतनी बड़ी-बड़ी
हैं, उसकी देखने की शक्ति ऐसी है कि उसकी नजर से कुछ भी
नहीं छूटता। इतनी डिटेलिंग ! तो यह अर्थ है। जो आदमी लेखन की शुरुआत ही आत्मकथा से
कर रहा है और बाइस-पच्चीस की उम्र में आत्मकथाएँ लिख रहा है... कौन लेखक इस तरह से
करता है? एक तो यह कारण था। दूसरा यह कि उसकी जो बाक़ी
चीज़ें— कहानी-उपन्यास--हैं, उनके
सूत्र कहीं न कहीं उसके अपने जीवन से जुड़े देखे जा सकते थे। लेकिन देखिये वह 'इवान इलियच की मौत' जैसी कहानी लिखता है जो
आत्म नहीं, आत्मा की कोख से जनी कला है। वह सबके बस की
बात नहीं। मृत्यु के सन्दर्भों को आप कैसे
टटोलेंगे? कैसे उसे रचेंगे-लिखेंगे? यह तो कल्पना के आधार पर ही सम्भव है। लेकिन ऐसा भी न हो कि वह हास्यास्पद
हो जाये ! तो कल्पना का अर्थ उस तरह से वायवीय नहीं होता है। बड़े लोगों की चीज़ों
को इसीलिए बड़ा संभलकर देखने की ज़रूरत होती है। उसको आप ऐसे रिड्यूस करके नहीं देख
सकते। अब जैसे रोमा रोलां के बारे में लिखते समय स्टीफ़न स्वाइग कहता है कि ‘हर कलाकार अतिशयोक्तियों में अभिव्यक्त करता है’, तो क्या उसकी सही परख करने के लिए उसे डिस्काउंट करके देखना होगा? नहीं ! दरअसल वह केवल अपने मनोभाव को रेखांकित करना चाह रहा है, इसलिए बढ़ा-चढ़ा रहा है। वहाँ अतिशयोक्तियां महानता के विस्तार के लिए नहीं, अहसासों को पैना करने के लिए होती हैं। बहुत सारे स्वर होते हैं संगीत में… हम कभी-कभी श्रोताओं के मुताबिक किसी एक को ज़्यादा तवज्जो देते हैं, वह ख़ास तरह से श्रोता की संवेदना जागृत करता है। इस तरह से।
रचना
- टॉलस्टॉय ने जीवन में कभी कविता नहीं लिखी क्योंकि उनका मानना था कि कविता ज़मीनी
हक़ीक़तों से नहीं, हवाई पुंजों से वास्ता रखती है। लेकिन मुक्तिबोध या अन्य यथार्थवादी
कवियों की कविताओं के मद्देनज़र तो यह कथन ठीक नहीं बैठता। आपका क्या मानना है ?
ओमा
शर्मा - साहित्य में कोई भी कथन
पूरी तरह से सत्य वैसे भी नहीं होता। उसमें कहा उतना ही सच होता है जितना उसका
उल्टा। हाँ, उनके बुनियादी मंतव्यों की सच्चाई होती है। अब जैसे कविता को देखें तो
रिल्के/गेटे या अपने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना/देवीप्रसाद मिश्र की किसी कविता की
चार पंक्तियाँ भी आपको हिलाकर रख देती हैं। आपकी स्मृति में धंस जाती हैं। ऐसा
नहीं है कि यह विधा ही उस तरह की है। साहित्य का यही तो एक बड़ा लोकतंत्र है। कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, डायरी, संस्मरण... बल्कि आप कुछ और ईजाद कर
सकते हैं जो अभी नहीं हुआ हो। हाँ, हर विधा की अपनी
सीमा और संभावना होती है। हर जगह उस्ताद भी बैठे मिल जाएंगे और उथले-खुरपेचिए भी।
रचना
- 'अन्तरयात्राएं: वाया वियना' में आपने ज़िक्र
किया है कि सन 1907 में बालक हिटलर वियना की ललित
कला अकादमी में दाखिला लेने आया था और दो बार नाक़ामयाब रहा। इसके लिए वह पाँच साल
तक संघर्षरत रहा, यहाँ तक कि कई रातें उसने फुटपाथ पर
भूखे सोकर काटीं। आपको लगता है कि उसकी ज़िद या दृढ़ता का रुझान कला की ओर करके उसे
कट्टर इरादों वाले 'हिटलर' में
ढलने से रोका जा सकता था?
ओमा
शर्मा - देखिये, इतिहास
इस तरह की संभावित चूकों और भूलों का कबाड़-खाना है। यह भाग्यवादी बात नहीं है कि
अन्ततः जो जैसे होना होता है, वह वैसे ही होता है। हम
तो यही मानकर चलते हैं। इतिहास की जो धाराएँ हैं, हम
उसको एक संयोग मानकर नहीं चल सकते। शायद ज़्यादा बड़ी कह सकते हैं नैसर्गिक, शक्तियाँ उसमें काम करती हैं। वह शायद आर्टिस्ट बन जाता। आप यह बताइए कि
क्या बड़े-बड़े आर्टिस्ट बहुत नृशंस नहीं हुए हैं? पिकासो
कितना बड़ा मिसोजिनिस्ट था ! मान लीजिये उसको वियना में दाखिला मिल भी जाता, तो वह ऐसा नहीं होता? कहीं न कहीं हमारे जो
भीतर की जो चीज़ें हैं, वे अन्ततः उसी रूप में बाहर आती
हैं जिसके लिए वे बनी होती हैं। चेख़व ने इस पर एक बहुत ख़ूबसूरत कहानी लिखी है।
बल्कि प्रेमचन्द ने भी इस पर लिखा है… उम्र बीत जाने के
बाद यदि हमें गुजरे हुए में बदलाव करने की क्षमता हो, मौक़ा
हो कि ये चीज़ करें, न करें, तो
क्या मैं वे गलतियाँ न करता, क्या वे मौक़े नहीं चूकता, जो मैंने किए/चूके! धीरे-धीरे पता लगता है कि नहीं, वे ग़लतियाँ मुझे करनी ही थीं। मैंने उसकी पिटाई इसलिए की (जिसका मुझे बाद
में अफ़सोस हुआ) क्योंकि उसकी पिटाई होनी चाहिए थी। इतना ग़लत काम किया था उसने। या
किसी सम्बंध की वजह से आपका समय ज़ाया हुआ… अग़र आप यह
सोचते हैं कि उसको नहीं करना था, और बाद में सोचने लगते
हैं कि उसने मुझे दूसरे स्तर पर कितना समृद्ध किया था! तो यह ‘खेल’ तो चलता रहता है। इन्हीं उलझनों, झंझावातों, पश्चातापों, संयोगों, काशों-अवकाशों और उनके अनाहूत मिश्रण
से इतिहास का जंगल निर्मित होता है। मसलन... तुलसीदास को उनके ससुराल वालों ने
लानत-मलामत कर भगा न दिया होता तो क्या ‘रामचरित मानस’ न लिखा जाता ? वाटरलू की लड़ाई से एक रोज
पहले नेपोलियन ने ग्रोशी को प्रूसिया की कमान नहीं सोंपी होती... अफ्रीका में
गांधीजी को वह अंग्रेज़ रेल के उस डिब्बे से नहीं उतार फेंकता तो क्या वे ‘महात्मा’ बनने से रह जाते? ‘एन ओर्डिनरी लाइफ’ उपन्यास में चेक लेखक कॉरल चेपक ने इस विषय पर बड़ी मार्मिकता से लिखा
है... मैं उस गाँव-घर में न पैदा हुआ होता, फलाने
स्कूल-कॉलेज में न पढ़ा होता, उस लड़की से विवाह न किया
होता… तो क्या मैं वाकई वह होता जो मैं अन्ततः हुआ?
रचना
- आपके लेखन में कला के विभिन्न आयामों के प्रति आपकी रुचि झलकती है। कला की किस
विधा /रूप पर आप कभी लिखना चाहेंगे ?
ओमा
शर्मा – कहानी
के सिवाय मेरा दूसरा कुछ तय करके नहीं होता। पिछले दिनों मैंने चित्रकार मित्र जे
पी सिंघल (जयंती प्रसाद सिंघल) पर लिखा। अस्सी वर्ष की उम्र में अचानक उनकी मृत्यु
हो गयी। पिछले पचास वर्षों से यथार्थवादी पेंटिंग के वे धुरंधर पेंटर रहे। अरसा
पहले आपने घर-घर में वे कलेंडर देखे होंगे... राम-सीता स्वयंवर, जनक के यहाँ धनुष तोड़ते राम, नीचे पानी में
बिम्ब देखकर मीन की आँख भेदता अर्जुन... सब उन्हीं के बनाये हुए हैं। मेरी रुचि
कलाओं से ज़्यादा कलाकारों में रहती है। कलाओं में तो दिलचस्पी है ही, लेकिन उनके सृजकों और उनकी सृजन-प्रक्रिया में अधिक होती है। उनकी सादगी, फक्कड़ अंदाज, विशिष्ट जिंदगी, आत्मविश्वास, देनंदिनी, अन्तरविरोध... सभी स्वीकार्य और स्पृहणीय लगते हैं। और भी कई लोगों पर
मुझे लिखने की तमन्ना है।
रचना
- कुछ अन्य लेखकों के नाम बताएँ जिनके लेखन ने आपकी दृष्टि को नया आकाश
प्रदान किया, स्वाइग या दोस्तोवस्की के अलावा...
ओमा शर्मा - ये तो ख़ैर ऐसे मास्टर्स हैं जो हर किसी
को जकड़ लेते हैं। प्रभावित करते हैं। हिन्दी की बात करें, तो शुरु में मुझे राजेन्द्र यादव के लेखन
ने बहुत प्रभावित किया। उनकी कहानियों में एक दिलचस्प लेखकीय निगाह मुझे दिखी। अगर
कहना हो तो किसी से प्रभावित होने की शुरुआत मेरी वहाँ से हुई। मैंने जब उनका 'अनदेखे अनजाने पुल' पढ़ा, तो वाक़ई मन में गुदगुदी हुई कि इतना छूता हुआ और सहज कोई कैसे लिख सकता
है। बाद में जब मैंने प्रभु जोशी की कहानियों को पढ़ा तो उन्होंने अलग तरह से मुझे
प्रभावित किया... कि एक देसी मिज़ाज़ को कैसे अपनी भाषा में ठोस तरीक़े से रचा जाता
है। इसी क्रम में फिर संजीव, प्रियंवद और शिवमूर्ति की
कहानियाँ आईं। तो एक फैलाव या स्पैक्ट्रम है। निर्मल वर्मा को पढ़ा तो समृद्धि का
अलग आयाम आया। और भी न जाने कितने। फिर भी, अरुण कमल की
कविता के सहारे कहूँ तो हर किसी की तरह मैंने भी ‘सारा
लोहा उन लोगों’ से लिया होगा मगर ‘नया आकाश’?...शायद नहीं।
रचना
- कोई युवा रचनाकार, जिन्हें आप पढ़ना पसंद करते हैं ?
ओमा
शर्मा - मैं यथा-सम्भव सबको पढ़ता
हूँ। लेकिन सभी का सब कुछ विशेषकर इन दिनों नहीं पढ़ पाता। उनको मैं कई बार आज़माइश
के तौर पर भी पढ़ता हूँ कि ग्राफ कहाँ जा रहा है। अगर उदयप्रकाश-शिवमूर्ति-प्रियंवद
के बाद की पीढ़ी की बात करें तो उसमें मुझे योगेन्द्र
आहूजा को पढ़ना पसंद है, मनोज रूपड़ा का लेखन पसंद है।
रघुनंदन त्रिवेदी को मैं बार-बार पढ़ता हूँ। कहानी के प्रति जो चाव और ईमानदारी मुझे इन तीनों लेखकों में लगती है... बिना किसी अतिरेक के, बिना किसी वैचारिक आतंक के कहानी पर केन्द्रित होकर लिखना और अपनी कथा की
दुनिया में पैबस्त रहना या उसकी कोशिश करना, हर बार
भाषा के स्तर पर चीज़ों को माँजना... इन तीनों लेखकों
की कहानियाँ मुझे बहुत प्रिय लगती हैं।
रचना
- राजेन्द्र यादव एक विराट व्यक्तित्व थे। साहित्य की दुनिया में उनका एक अलग
मुक़ाम है। लेखन के अलावा उनकी कौन सी बातें हैं जिन्होंने आपको प्रभावित किया? और वे
भी, जिनसे आप असहमत हैं ?
ओमा
शर्मा - राजेन्द्र यादव की एक खूबी
यह थी कि हमारे बड़े लेखकों में वे सबसे अधिक एक्सेसिबल और डेमोक्रेटिक थे। गज़ब का
सेंस ऑफ ह्यूमर और जीवट था उनके भीतर। उनका जैसे दरबार खुला रहता था। आप कभी भी
आ-जा सकते हैं। वे केवल बराबरी के स्तर पर आपसे बात करते थे। मैंने उन्हें कई और
पीढ़ियों के साथ भी देखा… और उसी तरह ओपन। एक मानसिक खिड़की उनके यहाँ हमेशा खुली रहती थी। जब मेरी
उनसे मुलाक़ात हुई, तब तक उनका रचनात्मक लेखन बंद हो
चुका था। वैचारिक लेखन चल रहा था हालाँकि वैचारिक लेखन में उन्होंने रणनीति की
खातिर अपने को काफ़ी सीमित कर दिया था... जैसे दलित लेखन को इस तरह से देखा जाये, स्त्री लेखन को इस तरह से... मगर यहाँ भी उसके पास बाक़ायदा तर्क़ थे।
कनविकशंस थीं। मैं नहीं कह रहा कि उन्होंने सही किया या ग़लत, या वे कितने सही-गलत थे। लेकिन उनका स्वभाव समावेशी था। ययाति-वृत्ति की
मिसाल थे। उनकी जो भी परेशानियाँ या ग्रंथियां रही हों, उनसे संवाद का पहला आधार पठन और लेखन ही होता था। मैंने उन्हें लोगों का
हंसी मज़ाक उड़ाते तो खूब देखा मगर विष-वमन करते नहीं। एक लोकतान्त्रिक की तरह
उन्हें हर चीज स्वीकार्य थी, चाहे खड़े वे किसी दायरे
में हों।
रचना
- दायरे किस तरह के ?
ओमा
शर्मा - जैसे उन्होंने कहा कि
स्त्रियाँ अगर देहवादी बातें कर रही हैं तो क्या गलत है! उनकी देह!
रचना
- आपको ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने लेखन में स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को
पोषित किया? स्त्री देह के अलावा भी बहुत कुछ है न !
ओमा
शर्मा - जब वे स्त्री के साथ देह की बात करते हैं तो उनका कहना यह था कि क्या
स्त्री से संबंधित कोई भी चीज़ कभी उसकी देह से मुक्त करके देख सकते हैं? उनके अपने तर्क़ थे। वे कितने वाजिब थे, यह अलग बात है। लेकिन वे कहते थे कि कोई भी स्त्री आपके सामने आती है… कितनी भी बौद्धिक हो… उसको सामने देखते हुए
क्या हमारे बड़े-बड़े बौद्धिकों में यह नहीं आता कि वह एक देह है? यह केवल हमारे समाज का ही नहीं, ऐसा सार्वभौमिक
निरीक्षण है जिसकी गन्ध आपको कहानी–उपन्यासों में मिल जाएगी।
या स्त्री के नज़रिये से देखिये। जब वह किसी से मिलने जाती है, तो कितनी हैं जो अरुंधति रॉय की तरह खुले बाल या बिना किसी मेकअप वगैरा के
चली जाती हैं? क्या कहीं मीटिंग या जलसे में जाते समय
आप (अपवादों को जाने दें), लुक्स की तरफ वे यूं गौर
नहीं करती हैं कि अपना सर्वश्रष्ठ देना है? यह हो सकता
है, शायद हो, कि वह उनका
स्वभाव हो...प्रेज़ेंटेशन आदि के लिहाज़ से। लेकिन क्या स्त्रियों में ‘वैसी’ बातें नहीं होतीं हैं? मैत्रेयी पुष्पा ने एक जगह स्वीकारा है कि जब वह पहली बार यादव जी से
मिलने गयी थी तो पूरा क्रीम-पाउडर लीपकर गयी थी, रिझाने
की पोशीदा हसरत से। दिक्कत यही है कि निजी स्तर और बातों में उनकी स्वीकारोक्तियाँ
कुछ हैं, और मंच-सामूहिकता की कुछ अलग। राजेन्द्रजी
इससे वाकिफ थे और दोनों वृत्तियों को पोसते थे। बेशक स्त्री देह से अलग बहुत कुछ
है लेकिन वह उससे मुक्त विरले ही दिखती है। क्यों? उसकी
उड़ान का पंछी लौट-फिरकर या सहूलियत मुताबिक, देह के
जहाज पर आश्रय क्यों लेने लगता है। हाँ, नई पीढ़ी इससे
बहुत बरी है। उसकी महत्वाकांक्षाएँ अधिक हो सकती हैं लेकिन मानसिक दोमुंहापन और
ऊहापोह कम है।
रचना
- मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति ख़तरे में है। इस बात से कितना चिंतित हैं?
ओमा
शर्मा - जिस तरह की शक्तियों का इधर
एक वैश्विक उभार हुआ है, उससे ख़तरा तो लगता है। लेकिन मैं सोचता हूँ कि इस तरह के ख़तरों से निबटने
की तकनीकी हैसियत हमारे पास पहले से बेहतर मौजूद है। पहले भी सत्ता और अभिव्यक्ति
हमेशा आमने-सामने होते रहे हैं। किसी भी ज़माने में कोई भी सत्ता, अभिव्यक्ति को बहुत कम हद तक ही छूट देती है। ऐसी बहुत ही कम जगह होंगी
जहाँ स्वर्ग बना हुआ हो… जहाँ सबको आज़ादी हो, सरकार की लानत-मलामत करने के लिए लोगों को डर न हो और उनकी कोई जवाबदेही न
हो। ऐसी जगहें दुनिया में बहुत कम हैं। हालाँकि जब-जहां लोकतंत्र का विकास हुआ, इसी कारण हुआ कि कुछ लोगों ने सत्ता को किस अनुपात में प्रश्नांकित किया, असहमति के जोखिम उठाए और नौबत आने पर कुर्बानियाँ भी दीं। पिछले दिनों से
लगातार इस तरह की चीज़ें क्यों उभर रही हैं? और हमारे
देश में ही नहीं, दूसरे देशों में भी ऐसी शक्तियाँ उभर
रही हैं। यूरोप में कई देशों में ऐसा हुआ है। उत्तरी कोरिया की खबरें रोंगटे खड़े
कर देती हैं। रूस-चीन की जनता लोहे के परदों की लाइलाज घुटन झेल रही है, ऑस्ट्रिया में घोषित दक्षिणवादी जीता। अमेरिका में चुनाव हुए। यह बड़ा सदमा
था कि एक बेहतर प्रत्याशी हार गया। अभिव्यक्ति की लड़ाई को आप एक बहुत सुरक्षित रेस
मानकर नहीं चल सकते। मुक्तिबोध ने कहा भी है कि उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के
ख़तरे। सत्ताएँ अपनी तरह से अंकुश लगाने का काम करती जाती हैं लेकिन हमारे यहाँ
सत्ता के दक्षिणपंथी हो जाने से गड़बड़ियाँ संस्थानिक आधार लेने लगती हैं। फिर भी
मुझे लगता है कि जैसे सोशल मीडिया का उभार हुआ है और जिस तरह से संचार क्रान्ति ने
सूचनाओं की आवाजाही बढ़ा दी है, हम जिन परम्पराओं से
वैश्विक स्तर पर जुड़े हैं, इसकी अपनी प्रति-शक्ति
है। इस सबको खुले-आम रोंदना मुश्किल है। मगर यह भी है कि जिस तरह से पिछले दिनों
जो हादसे हुए हैं और जिस तरह से कातिल बिना सज़ा मिले घूम रहे हैं या उनके ख़िलाफ़
कोई कार्यवाही नहीं हुई हैं, तो एक दहलाने वाली बात तो
लगती है। चिंता तो लाज़मी है कि असहमति के स्वर सहम गए हैं।
रचना
- अभिव्यक्ति तो एक पक्ष हो गया। साहित्य और कला के अलावा धर्म को भी नियंत्रित
करने की कोशिशें की जा रही हैं।
ओमा
शर्मा – धर्म और सत्ता सदियों से
समाज को नियंत्रित करते आए हैं। इतिहास में सबसे अधिक खून-खराबे धर्म के नाम दर्ज
मिलेंगे। दोनों के लिए कला गैर-जरूरी आतिश-खाना है। मगर मजबूरी यही है कि बीते
पाँच हजार बरसों में वह इंसानी समाजों की उत्तरोत्तर उदात्त अनिवार्यता बन बैठी है।
सर्जक लाख नश्वर हो, वह नहीं। ऐसे में कला के जो सर्जक हैं, उनके
लिए एक बड़ी चुनौती है। जब संकट बढ़ता हो तो ऐसे समय में अभिव्यक्ति को कला का ही
सहारा होता है। कला अगर बहुत सपाट या सीधे-सीधे सत्ता का विरोध या मुठभेड़ करेगी, तो शायद सही या देर तक नहीं कर पायेगी। लेकिन अगर वह प्रतीकात्मक और
कलात्मक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएगी, तो शायद
बेहतर असर हो सकेगा। अपनी बुनियादी फितरत के कारण, सौभाग्य
से, सत्ता स्थूल चीजों में खुद को खफा देती है। और
कारकों के अलावा कला ईजाद ही गालिबन इसीलिए हुई होगी कि उसके जरिए प्रतिरोध या
प्रतिकार जैसा पैबस्त किया जा सकता है। इसलिए कला के लिए शोर नहीं, एकान्त जरूरी है। महत्त्वाकांक्षा की जगह निष्ठा। इसके लिए आप ऐसे कहानियाँ लिखते हैं जो अनकही में गूँजती हैं, ऊपरी तौर पर किसी को सम्बोधित नहीं होतीं, बाज जगह दो-मुंहे निष्कर्ष छोड़ती हैं। लेकिन हमें कला की सीमाओं को
जानना-समझना चाहिए। सत्ता के प्रति उसमें दर्ज प्रतिरोध-प्रतिकार, प्रतीकात्मक ही होता है। उसके वास्तविक प्रतिरोध की सीमाएं हैं। लेकिन इस
प्रतीकात्मकता की अपनी जगह है। सत्ता अंकुश लगाती है, आत्म-केन्द्रित
रहती जबकि कला लिबरेट करती है, दूसरों को संबोधित होती
है। सत्ता भीरु होती है, जबकि कला संयमी। ये फर्क अहम
हैं। कला जब भीरु होने लगे तो भोंथरी हो जाती है; सत्ता
जब संयम साध ले तो नृशंस हो जाती है।
रचना
- अभी आपने अभिव्यक्ति के ख़तरों की बात के दौरान सोशल मीडिया का ज़िक्र किया। साहित्य
की गुणवत्ता या प्रसार या हानि में सोशल मीडिया की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?
ओमा
शर्मा – ‘सोशल’ और ‘मीडिया’ दोनों
उपबंध साहित्य का कभी कोई हित करते नहीं लगते हैं; एक
साथ होकर तो वे मारक ही हो सकते हैं। खैर, यह तो
मीन-मेख की बात हुई। आप गौर करें कि अभिव्यक्ति को तुरत-फुरत कहने की छूट एक बात
है, लेकिन जिस तरह की घेरा-बंदी वहाँ कर ली जाती है, जिस तरह का शोर-शराबा वहाँ जुटाया जाता है, महानताएँ
वसूली जाती हैं, वह उसके मूल स्वभाव से अलग नहीं है।
साहित्य उसी सबसे थोड़ी दूरी और परहेज़ माँगता है। साहित्य में आपको एकांतिक और
चिन्तनशील रहना पड़ता है। कई बार कहने की हड़बड़ी से बचना पड़ता है। उसका ईंधन इलहाम
कम, पसीना ज्यादा है। चीज़ों को धीरे-धीरे और लगातार
सुधारना होता है, सम्पादित करना होता है। मैं समझता हूँ
कि जिस तरह की भीड़ वहाँ पर जमा हो गयी है, जहाँ
दैनन्दिनी का एक-एक पक्ष तत्काल उजागर करना फैशन हो, हर
मुद्दे पर राय-शुमारी, हर चीज़ को काले-सफ़ेद में ही बाँट
डालने की जिद... वह कम से कम साहित्य को उस रूप में बढ़ावा नहीं दे सकता जैसे एक नए
माध्यम को देना चाहिए। हो सकता है यहाँ दोष इस माध्यम के अलावा उसके सहारे वक्त
गुजारते ‘हमारे’ उपभोक्ताओं
का अधिक हो। जो भी हो, आटे में नमक की तरह, एक सीमा के अधिक सामाजिक संसर्ग कला-सृजन को बाधित करता है। हाँ, यह जरूर है कि दूर-दराज के लोगों को मंच देकर, आभासी
मित्रता में पिरोकर इसने कई संभावित व्याधियों को जरूर पतला कर दिया होगा। समाज के
लिहाज से यह अच्छी खबर है।
रचना
- आज का समय प्रतिरोधों का समय है, भले ही वह सड़क पर हो, क़लम से हो या सोशल मीडिया पर। प्रतिरोध के इन स्वरों को गंभीरता या चलन के
तराज़ू पर कैसे तौलेंगे?
ओमा
शर्मा - हर कला अपनी तरह से प्रतिरोध ही दर्ज करती है हालांकि उसके अस्तित्व का
उद्देश्य कहीं उदात्त होता है। साहित्य का एक प्रतिरोधक के रूप में काम अलग तरह का
है। वहाँ उतना शोर-शराबा नहीं है। जो हम सड़क पर उतरने की बातें करते हैं, यह एक ‘एक्टिविस्ट’ या ‘प्रवचक’ वाली भूमिका है। लेखक, कलाकारों की भूमिका मेरे जाने वह नहीं
है। हाँ, लेकिन अगर लेखक और कलाकारों की जान पर ही बन
आती है, तो उस तरह का प्रतिरोध भी दर्ज़ होना चाहिए।
लेकिन आप सत्ता से ज़्यादा शोर(प्रोपेगेंडा) थोड़े कर सकते हैं! लेकिन कुछ लोगों को
सड़क पर उतरना सार्थक लगता है। बाख़ुशी। मेरे मिज़ाज़ में इस तरह की चीज़ें नहीं हैं।
शोर करने के बजाय मैं सीधे-सीधे अपनी असहमति दर्ज़ करना, रचना, पर्याप्त प्रतिरोध मानता हूँ... अपने
लेखन के ज़रिये, अपने चरित्रों के ज़रिये।
रचना
- आपको लगता है कि लेखन से व्यवस्था या किसी भी स्तर पर वांछित परिवर्तन सम्भव है ?
ओमा
शर्मा - वास्तविक जीवन में परिवर्तन या बदलाव लाने वाली जो शक्तियाँ हैं, वे लेखन से इतर और कहीं ज़्यादा शक्तिशाली हैं। जो शक्तियाँ सामाजिक और
राजनैतिक स्तर पर काम कर रही हैं, या उनको प्रभावित
करने वाली शक्तियाँ हैं, वे लेखन से ज़्यादा महत्वपूर्ण
हैं। कला हमें उस रूप में सीधे एम्पावर नहीं करती कि हम समाज में इच्छित परिणाम ला
सकें। इसकी सामर्थ्य सीमित और परोक्ष है। लेकिन इसकी अपनी एक ख़ास जगह होती है।
ध्यान रहे कि जब वांछित बदलाव हो (भी) जाता है, तब भी
कला की ज़रूरत रह जाती है। एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिये जहाँ पर सब ठीक-ठाक हो...
यानी जहाँ सामाजिक वैमनस्य नहीं है, आर्थिक समानता भी
लगभग हासिल है, जन-स्तर ऊपर उठ गया है… तो क्या ऐसे समाज में कला की ज़रूरत नहीं रह जाती है? मैं समझता हूँ कि ऐसे समाज में भी कला की ज़रूरत है। क्योंकि कला इस सबको
दर्ज़ भी करती है और उनके संवेदन बिंदुओं पर उँगली भी रखती है।
क्रमश:
ओमा शर्मा
|
ओमा शर्मा के साक्षात्कार की दूसरी किस्त नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/82.html
परिचय
ओमा
शर्मा -
कहानी, अनुवाद, लेख, साक्षात्कार आदि विधा में सक्रिय
( जर्मन लेखक स्टीफन स्वाईग की आत्मकथा व कहानियों का अनुवाद)
संप्रति
- वरिष्ठ अधिकारी, आयकर विभाग, भारत सरकार
वर्तमान
निवास - वड़ोदरा
००
रचना
त्यागी -
कविता, लेख,
व्यंग्य, अनुवाद में सक्रिय
संप्रति
- अध्यापिका, दिल्ली सरकार
निवास
- दिल्ली
रचना त्यागी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/blog-post_81.html?m=1
रचना त्यागी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/blog-post_81.html?m=1
किसी लेखक का साक्षात्कार यूं तो साहित्य के पन्नों को केवल भरने जैसी युक्ति का आभास, अक्सर देता आया है , इसके बावजूद ओमा जी से बातचीत करते हुए रचना ने थोड़ी कोशिश करी है कि यह पाठकों के लिए कुछ उपयोगी हो सके ।
जवाब देंहटाएंबेबाक महत्वपूर्ण साक्षात्कार ऐक ईमानदार खिड़की की तरह जानकारियों के सुथरे आसमान की खुली दृष्टि लिए।बधाई।
जवाब देंहटाएंए. एम. अत्ता0र
जवाब देंहटाएंओमा शर्मा जी का साक्षात्कार अत्यंरत ज्ञानवर्धक है, साहित्या को निकट से देखने की दृष्टिव प्रदान करता है. साहित्या के विभिन्न् आयामों से होते हुए समसामयिक साहित्यक पर चर्चा की गई, जो सच में पाठकों को नये सिरे से जोड़ती है, जुड़े हुओं को साहित्या की गहराई तक ले जाती है. चर्चा केवल हिंदी साहित्य तक सीमित न रहकर विश्व पटल पर पहुँच जाती है, जो जिज्ञासुओं में नई रुचि पैदा करती है.
ए. एम. अत्ता0र
जवाब देंहटाएंओमा शर्मा जी का साक्षात्कार अत्यंरत ज्ञानवर्धक है, साहित्या को निकट से देखने की दृष्टिव प्रदान करता है. साहित्या के विभिन्न् आयामों से होते हुए समसामयिक साहित्यक पर चर्चा की गई, जो सच में पाठकों को नये सिरे से जोड़ती है, जुड़े हुओं को साहित्या की गहराई तक ले जाती है. चर्चा केवल हिंदी साहित्य तक सीमित न रहकर विश्व पटल पर पहुँच जाती है, जो जिज्ञासुओं में नई रुचि पैदा करती है.
बहत अच्छी बातचीत है।
जवाब देंहटाएंसत्या जी व प्रतिक्रिया देने वाले सभी मित्रों का शुक्रिया ..
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