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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 जून, 2018

रोहित सिंह की कविताएँ



रोहित सिंह 


एक

दिखाई दे रहा है,
खुला हुआ मुह,
मानो चिल्ला रहा हो,
पर ,कहीं आवाज़ नही आ रही,
करीब जाने की सोचता हूँ,
हिम्मत करके,गया भी,
देखा,एक पेंटिंग थी वो,
जिसमे कोई नारा लगा रहा था,

सी पेंटिंग में,पीछे की तरफ,
एक खेत, एक कारखाना,
और,
एक कॉलेज,
बने हुए थे,
पर,सबपे हीं ताला लगा हुआ था,
और ,
बाहर सिपाही खड़े थे,
मैं बड़ी ही ध्यान से वो पेंटिंग देखे जा रहा था,
मानो बिना किसी आवाज़ के ही ,
वो पेंटिंग वाला चेहरा मुझे बुला रहा हो,
पर, तभी उसी जगह,
वहां कुछ सिपाही आये ,
और,
वो खोज रहे थे,
उस पेंटिंग को,
उसके पेंटर को ,
और ,
उन्हें दिक्कत भी थी ,
मेरे उस पेंटिंग को देखने से।।
००



दो

मेरे एक दोस्त ने कहा,
अगर,
भगत सिंह होते ,
तो ,
बहुत दुखी होते,
आज के युवाओं को,,
एक उन्मादी भीड़ में शामिल होते देख।
सत्ता के राग में राग मिलाते देख।
इंसान की ज़िंदगी को धर्म से तौलते हुए देख।
इन्ही युवाओं को चुप कराते देख,
उस दुनिया के बारे में बातचीत ,
जहां रोज़ ही खून खराबा होता है।
श्रम को हीन भावना से देखता देख।
अमीर गरीब को महज शब्दों में रखकर मेहनतकश का मज़ाक उड़ाता देख।
मंदिर और मस्जिद तक फंसे हुए
इस युवा पीढ़ी को देख।
इस बातचीत के बाद,
मैं घर गया,
उसी दिन किसी दूसरे दोस्त ने,
उनका लेख भेजा,
में नास्तिक क्यों हूँ,
भगत सिंह का छात्रों को संदेश,
भगत सिंह का नौजवानों को संदेश,
एवम,
उनका पिता के लिए पत्र।

पढ़ने के बाद,
इन लेखों को,
ऐसा यकीन हुआ,
की,
नही वो निराश नही होते,
बल्कि एक कदम उठाते ,
बदलने को ये समाज,
चिंतन करते,
कैसे यूवाओं को साथ लाना है,
एक बराबरी का समाज निर्माण करने को।
भगत सिंह आशावादी थे,
निराशावादी नहीं,
एक अच्छे समाज की रचना,
इसी आशा ने ,
जुनून भरा था उनके अंदर,
और ,
इसी आशा को ज़िंदा करते वो,
जो आज ज़िंदा है,
आदिवासी आंदोलन में,
और,
यकीनन,
युवा उनके साथ आते।।
 ००








तीन 

आखिर,
क्यों चुप्पी है,
उनके,
इस,
कायराना करतूत के बाद,
जहां,
मारा गया 40 को,

मार दिया गया उन्हें,
जहर देकर,
जबकि उनकी लड़ाई,
रोटी के लिए थी,
उनकी लड़ाई थी ,
उस छत के लिए ,
जिसे उजाड़ने में लगी हैं,
ये हुकूमत,

उनकी लड़ाई थी ,
नदी के पानी के लिए,
जो बहती है,
बिना राज्य,
और,
देश की सीमाओं,
का खयाल किये ,
जिसे बेचना चाहती है,

ये हुकूमत,
उनकी लड़ाई थी,
उस जमीन के लिए,
जिसपे वो रह रहे थे,
कितने ही सालों से,
जिसका सौदा,
कर रही है,
ये हुकूमत,

ये वही हुकूमत है,
जो दलाल है,
उन पूंजीपतियों की,
जिन्होंने नही देखा,
मुनाफे के नशे में,
इंसान को,
जिंदगी को,
नही लिखूंगा और ,
इस दलाल हुकूमत,
और,
इसके जोड़ीदारों के लिए,
क्योंकि,
ये हारेंगे,
जिन्हें इन्होंने मारा है,
उनके हीं साथियों के हाथों,

ऐसा इतिहास में हुआ है,
जब हारा है,
ज़ार रूस में,
जब हारा है बतिस्ता,
क्यूबा में,
जब हारा है,
अमेरिका,
वियतनाम में,
जब हारा है,
फ्रांस,
अल्जीरिया में,

तुम भी हारोगे ,
गढ़चिरौली में,
बस्तर में,
बिहार में,
झारखंड में,
पूरे भारत में,
और,
एक दिन तुम्हारा ,
नामो निशान ,
मिटा देंगे,
उन 40 साथियों के साथी,
और,
उसके बाद,
वही बनाएंगे,
एक ऐसा वतन,
जहां नही होगा,
ऐसा खून खराबा,
नही होगी जेल,

पर,
अफ़सोस
तुम नही रहोगे ,
उसे देखने के लिए।।
००



चार 

सोचता तो बहुत हूँ,
पर क्या मैं कभी कुछ बोल पाऊँगा।
दिलों-दिमाग के परदे को,
क्या मैं कभी खोल पाऊँगा।
दिल की तरफ तो आया,
दिमाग की तरफदारी कब कर पाऊँगा।
मानो कहता हो मेरा जीवन,
मैं तुझे कुछ यूँ ही सताऊँगा।

मैंने सोचा अपनो से अपनी इस मुसीबत के बारे में बताऊँ
पर फिर सोचता हूँ किससे और कब तक बताऊँगा।
और मैंने कहा अपने जीवन से,
तुझे जो करना है कर
मैं समय से हाथ मिलाऊँगा।
और जिस दिन वो बोलेगा
मैं तुझसे भी लड़ जाऊँगा।

सुनते ही उसने तंज कसा
अब तो लगता है तू तारे तोड़ लायेगा
मैंने कहा तोडूँगा तो नहीं पर एक दिन
एक तारा ज़रूर बन जाऊँगा।
लोग मुझको याद करें
ऐसा ज़रूर कर जाऊँगा।

ऐ जीवन
तूने चाहा तोडूँ मुझको, ज़ख्मी कर के छोड़ू मुझको
पर इन ज़ख्मों पर मरहम भी मैं तुझसे ही लगवाऊँगा।
ऐ जीवन
तेरा वज़ूद मुझसे है मैं ये साबित कर दिखाऊँगा
छोड़ना पड़ेगा तुझे ये गुड्ड
जब मैं आवाज़ बनकर इस दुनिया के
लबों पर गुनगुनाता हुआ
अमर हो जाऊंगा।।
००



पांच

मेरा एक दोस्त है,
जिसका नाम विकास है,
पर थोडा घबराया हुआ हूँ,
वो मेरा ही दोस्त है ना??
क्योंकि,उसे भेजता कोई और है,
किसी और के हवाले कर के।

मुझे अपने दोस्त पर ,
इसलिए भी शक होता है,
क्योंकि,
उसकी दोस्ती के बारे में ,
बताता भी कोई और है,
जो की मुझे ना तो सुनाई देती है,
और नाहीं दिखाई।

और ,
ये भी समझ नहीं आता,
अगर,
वो मेरा इतना ही अच्छा दोस्त है,
तो वो इतने दिनों से कहाँ था?
और,
उसे मेरी भाषा समझ क्यों नहीं आती?

खैर,
उसने मुझसे कहा था..,,
माफ़ कीजियेगा,,,
किसी और से कहने को कहा था, 
 वो मदद करेगा मेरी।

उसने ये भी कहा था,
जैसा उसका नाम है,
वैसा ही उसका काम है,
पर , अब तक तो मेरे किसी काम,
आया ही नहीं।

हाँ, उसने अपने नाम के अनुरूप,
काम तो किया है,
पर , सिर्फ अपने भेजने वालों का,
और अपने बारे में बताने वालों का।
उल्टा, मेरा काम तो काम,
घर - परिवार भी छीन लिया,
अब भी मैं इसपे भरोसा कैसे करूँ??

ना रे भाई।।
इसकी ज़ालि दोस्ती से तो ,
इससे दुश्मनी ही अच्छी है।
००







छ:

समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
उस किसान के मन में क्या चलता है,
जब वो बारिश के इंतज़ार में,
बादलों के तरफ देखता है,
पर, बादलों के पीछे से,
झांकता हुआ सूरज दिखता है।।

समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
उस किसान के मन में क्या चलता है,
जब वो लहलहाते फ़सल का सपना संजोये,
अपना खेत जोतता है, बीज बोता है,
पर, उसका सारा अनाज ,
कोई महावात ले जाता है।

समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
उस किसान के मन में क्या चलता है,
जब वो सारा दिन अपने खेत में बिताता है,
उस फ़सल की उम्मीद में ,
जो उसके मेहनत की कमाई है,
पर, जब अगले दिन उसे पता चलता है,
खेत का सौदा बड़े बाबू ने कर दिया है।

समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
उस किसान के मन में क्या चलता है,
जो अपने खेत के सौदे की खबर सुनने के बाद,
पहली बार अपने परिवार से मिलता है।

पर, इसके बाद भी,
उसी किसान के हांथों में,
हंसली देखकर ,
धीरे-धीरे सबकुछ समझ में आने लगा है।।
००


सात 

बोले हमका भाई-भाई,
मारे हमका बूट,

खाकी , खादी , सूट।
बोले सबका भला करेंगे,
कहत-कहत ई लूट,
खाकी , खादी , सूट।

अम्मा कहके, बाबू कहके,
काका कहके, काकी कहके,
कहत-कहत इहे कुल्हि,
चुसत खुनवा खूब,
खाकी खादी सूट।

मांगा अधिकार, मिला प्यार,
लटका के उल्टा खूब,
कर्म बोल , कुकर्म करें हैं,
खाकी, खादी , सूट।

तुम्ही सुनो, तुम्ही समझो,
और, तुम्ही को करना है,
नही आएगा कोई दूत,
कौन ई खाकी, काहे का खादी,
फाड़ डालो सूट।।

 ००








आठ 

ये आधी रात की बारिश,
ये आधी रात की चाय,
मेज़ पे जलता लैंप,
सामने खुली किताब,
और, पुराने गाने,
काफ़ी है..

दरवाज़े की कुण्डी खोलते ही,
ठण्डी हवाएँ, फुहारों के साथ,
आलिंगन करती हैं,
उनके आँखों पर पड़ते हीं,
झपकियों का टूटना,
काफ़ी हैं...

रात के घने अँधेरे में,
बिना किसी रौशनी के श्रोत के,
बिना नींद के सो रहे ,
इंसान के खाल में,
चलते फिरते मशीन के पुर्ज़ों को,
ये एहसास दिलाने के लिए,
की,
हृदय ,मस्तिस्क और इंजन में फ़र्क है,
तो, उठो और खोलो दरवाज़े,
आने दो,
 ठंडी हवाएँ वो भी फुहारों के साथ,
और ,
करने दो उन्हें अपना आलिंगन।।
 ००



नौ 

मुझे तेरी हंसी नहीं,
मुझे तू पसंद है,
तू भी एक इंसान है,
मैं भी एक इंसान हूँ,
हंसी का क्या ,
वो तो आती जाती रहेगी,
कभी तुझे रोना भी होगा,
कभी मुझे भी रोना होगा,
और,
ठीक इसका उल्टा भी होगा,
अब, तू हीं बता,
सिर्फ ,
तेरी हंसी से इश्क़ कर,
एक मतलबी आशिक़ क्यों बनूँ।
 ००




रोहित सिंह, 

छात्र, दिल्ली विश्विद्यालय से  masters in buddhist studies   के स्टूडेंट के साथ- साथ

एक सामाजिक राजनीतिक कार्यकरता जो मूल रूप से बिहार राज्य का रहने वाला हूं।

1 टिप्पणी:

  1. युवा कवि रोहित की कविताओं के सम्बन्ध में यह बात कही जा सकती है कि उनके पास एक वैचारिक सघनता और स्प्ष्ट राजनैतिक दृष्टिकोण है । ये शुरुवाती दौर की कविताएं हैं , सम्भवतः तनिक जल्दबाजी की वजह से इनकी सुघड़ता बाधित हुई है पर आगे चलकर वे इसे भी साध लेंगे यह आशा उनसे की जानी चाहिए ।

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