परखः चार
एक कवि होंठों से कोड़े मारता है !
गणेश गनी
बहुत दुःख तो नहीं होता मगर एक निराशा सी उत्पन्न जरूर होती है कि हिंदी कविता में अचम्भित करने वाले कवि इतने कम क्यों हैं। जिन स्थापित ख्यातिलब्ध कवियों को पढ़ा तो बेचैनी और भी बढ़ गई।
कविता मैं जिस शिल्प, शैली और भाषा की बात होती है, वो मिलना बेहद मुश्किल है। भाषा को साधने वाले कवि लगभग न के बराबर हैं। हिंदी साहित्य के अंतर्राष्ट्रीय कवि अनिल जनविजय की कविताओं ने बेहद निराश किया। मित्र के लिए कवि लिखता है-
दुख भरी तेरी कथा
तेरे जीवन की व्यथा
सुनने को तैयार हूँ
मैं भी बेकरार हूँ
बरसों से तुझ से मिला नहीं
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
एक पत्ता भी खिला नहीं।
इस कविता में नया क्या है, न शिल्प, न बिम्ब, न भाषा। बस तुकबन्दी करके कविता को जबरदस्ती बना दिया गया। शब्दों को इधर उधर करने से पत्ते नहीं खिलते। कमाल की बात यह है कि इस साधारण सी कविता में कवि ने कोई बिम्ब और मुहावरे गढ़ने की कोशिश नहीं की। ऐसा लिखने वालों को पाठक कभी स्वीकार नहीं करता, चम्मचे बेशक वाहवाही करें। आपसे ही पूछता हूँ महाराज कवि कब बदले गी हिंदी कविता की यह परिपाटी-
अच्छे कवियों को सब हिदी वाले नकारते
और बुरे कवियों के सौ-सौ गुण बघारते
ऐसा क्यों है, ये बताएँ ज़रा, भाई अनिल जी
अच्छे कवि क्यों नहीं कहलाते हैं सलिल जी
क्यों ले-दे कर छपने वाले कवि बने हैं
क्यों हरी घास को चरने वाले कवि बने हैं
परमानन्द और नवल सरीखे हिन्दी के लोचे
क्यों देश-विदेश में हिन्दी रचना की छवि बने हैं
क्यों शुक्ला, जोशी, लंठ सरीखे नागर, राठी
हिन्दी कविता पर बैठे हैं चढ़ा कर काठी
पूछ रहे अपने ई-पत्र में सुशील कुमार जी
कब बदलेगी हिन्दी कविता की यह परिपाटी।
एक जगह बड़े कवि का नाम लेकर आपने अपना नाम तो चमकदार बनाना चाहा, मगर बिना मेहनत के और बिना अच्छी कविता लिखे आप कैसे चमकोगे। इस प्रकार की की व्याख्या को बहुत लोग कविता कहेंगे। पर कविता कहाँ खड़ी है! घटनाओं को जस का तस कागज़ पर उतार देना यदि कविता है तो फिर रोज़ खबरची कविता ही रच रहे हैं। लाल कम्बल, लाल झण्डा और लाल सलाम बोलने मात्र से क्रांति नहीं आती-
दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम
हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली
बाबा नागार्जुन के साथ
बहुत थोड़े से लोग हैं रेल के डिब्बे में
अपने-अपने में सिकुड़े
खाँसते-खखारते
टूटी खिड़कियों की दरारों से
भीतर चले आते हैं
ठंडी हवा के झोंके
चीरते चले जाते हैं हड्डियों को
सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफ़िर
अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं
बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को
प्यार से थपथपाते हैं
जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में
और किलकते हैं--
" भई, मुनि जिनविजय!
मेरी किसी कविता से
कम नहीं है यह कम्बल
सर्दियों की ठंडी रातों में।
अनिल जनविजय की यह कविता पढ़ने से लगता है कि यह कवि ज़रा भी गम्भीर नहीं है कविता के प्रति। बस जो कुछ दिमाग मे आया लिख मारा। कविता ही तो लिखनी है । कौन पढ़ता है, बस कविताकोष में पड़ी रहेगी इतिहास बनकर-
दिन बीते
रीते-रीते
इन सूनी राहों पे
मिला न कोई राही
बना न कोई साथी
वन सूखे चाहों के
कवि प्रेमी है, रोमांटिक है, बस केवल कविता के प्रति वफादार नहीं है। कवि फेसबुक पर व्यवस्था के विरोध में खड़ा रहने का दावा करता है। यह आसान है। ठीक वैसे जैसे कविता का शौक पाले रखना-
दिन था गर्मी का, बदली छाई थी
थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई
लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी
थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई
मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका
करती है वह क्या काम
याद मुझे बस, संदल का भभका
और उस के चेहरे की मुस्कान।
अनिल जनविजय का प्रेमिका के बिना बुरा हाल है। पत्र नहीं मिला तो छटपटाहट बढ़ गई। मॉस्को से भोपाल बहुत दूर है-
कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल
क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
लगे, दूर है बहुत मास्को से भोपाल
बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण।
एक और प्रेम कविता देखें। इस कविता को पढ़ते हुए कभी भी पाठक को प्रेम की खूबसूरत अनुभूति का एहसास नहीं हो पाएगा। कारण साफ है, केवल कलम घसीटने से प्रेम की अनुभूति नहीं होगी। प्रेम और प्रेम पर लिखने के लिए एक डूब की आवश्यकता होती है, यह आप नहीं समझोगे मुनि जनविजय-
दिन वसन्त के आए फिर से आई वसन्त की रात
इतने बरस बाद भी, चित्रा! तू है मेरे साथ
पढ़ते थे तब साथ-साथ हम, लड़ते थे बिन बात
घूमा करते वन-प्रांतरों में डाल हाथ में हाथ
बदली तैर रही है नभ में झलक रहा है चांद
चित्रा! तेरी याद में मन है मेरा उदास
देखूंगा, देखूंगा, मैं तुझे फिर एक बार
मरते हुए कवि को, चित्रा! अब भी है यह आस।
बहुत से कवियों को चुम्बन देने और लेने वाले दृश्यों की व्याख्या करने में मज़ा आता है। वे बताना चाहते हैं कि देखो भाई कवि भी यह काम करते हैं, उन्हें क्यों तुम गधे समझते हैं-
कभी वह घंटियों की तरह घनघनाती आती थी
बच्चों की तरह मुझे दुलराती थी
मेरे बालों में उँगलियाँ फिराती थी
मेरे माथे पर, नाक पर, गालों पर, होठों पर
अपने ऊष्म, गर्म चुम्बन चिपकाती थी
मेरी मूँछों को, पलकों को, भौहों को, कानों को
नन्ही, गोरी, पतली उँगलियों से सहलाती थी
बारिश की रिमझिम-सा स्नेह बरसाती थी
वह आती थी
अब नहीं आती
उसकी याद आती है
अगली कविता में कवि को गुस्सा आया, उसने अपनी प्रेमिका को होंठों से कोड़ा मारा। मुझे एक टपोरी फिल्मी गीत याद आया, अखियों से गोली मारे....। यदि कवि राजा के दरबार में होता तो राजा को सुविधा होती। जब भी किसी को कोड़े मरवाने होते तो राजा निश्चित तौर पर इसी कवि की सेवाएं लेता-
उचकी वह पंजों पर थोड़ा-सा
फिर मेरी ओर होंठ बढ़ाए
चूमा उसे मैंने यों, ज्यों मारा कोड़ा-सा।
हिंदू से मुस्लिम डरे, इस बात की चिंता है कवि को और होनी भी चाहिए। परंतु मुस्लिम से पूरी दुनिया डरी है, इस बात का वो ज़िक्र नहीं करना चाहता ताकि उसे कोई फासीवादी न कह दे। वो तो साम्यवादी ही रहना चाहता है। राम जी भला नहीं करेंगे-
ऐसा
क्यों हुआ है आज
हिन्दू से मुस्लिम डरें
कैसा
ज़माना आ गया
राम जी भला करें
००
परखः तीन को नीचे लिंक पर पढ़िए
हे जादूगर कवि ! प्रेम कोई पीठ की खुजली
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/httpbizooka2009.html?m=1
अनिल जनविजय जी द्कीवारा अनूदित कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
हालीना पोस्तिवयातोव्स्का की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/01/blog-post_28.html?m=1
रूसी कवि अनतोली परंपरा की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/blog-post_30.html?m=1
एक कवि होंठों से कोड़े मारता है !
गणेश गनी
बहुत दुःख तो नहीं होता मगर एक निराशा सी उत्पन्न जरूर होती है कि हिंदी कविता में अचम्भित करने वाले कवि इतने कम क्यों हैं। जिन स्थापित ख्यातिलब्ध कवियों को पढ़ा तो बेचैनी और भी बढ़ गई।
गणेश गनी |
कविता मैं जिस शिल्प, शैली और भाषा की बात होती है, वो मिलना बेहद मुश्किल है। भाषा को साधने वाले कवि लगभग न के बराबर हैं। हिंदी साहित्य के अंतर्राष्ट्रीय कवि अनिल जनविजय की कविताओं ने बेहद निराश किया। मित्र के लिए कवि लिखता है-
दुख भरी तेरी कथा
तेरे जीवन की व्यथा
सुनने को तैयार हूँ
मैं भी बेकरार हूँ
बरसों से तुझ से मिला नहीं
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
एक पत्ता भी खिला नहीं।
इस कविता में नया क्या है, न शिल्प, न बिम्ब, न भाषा। बस तुकबन्दी करके कविता को जबरदस्ती बना दिया गया। शब्दों को इधर उधर करने से पत्ते नहीं खिलते। कमाल की बात यह है कि इस साधारण सी कविता में कवि ने कोई बिम्ब और मुहावरे गढ़ने की कोशिश नहीं की। ऐसा लिखने वालों को पाठक कभी स्वीकार नहीं करता, चम्मचे बेशक वाहवाही करें। आपसे ही पूछता हूँ महाराज कवि कब बदले गी हिंदी कविता की यह परिपाटी-
अच्छे कवियों को सब हिदी वाले नकारते
और बुरे कवियों के सौ-सौ गुण बघारते
ऐसा क्यों है, ये बताएँ ज़रा, भाई अनिल जी
अच्छे कवि क्यों नहीं कहलाते हैं सलिल जी
क्यों ले-दे कर छपने वाले कवि बने हैं
क्यों हरी घास को चरने वाले कवि बने हैं
परमानन्द और नवल सरीखे हिन्दी के लोचे
क्यों देश-विदेश में हिन्दी रचना की छवि बने हैं
क्यों शुक्ला, जोशी, लंठ सरीखे नागर, राठी
हिन्दी कविता पर बैठे हैं चढ़ा कर काठी
पूछ रहे अपने ई-पत्र में सुशील कुमार जी
कब बदलेगी हिन्दी कविता की यह परिपाटी।
एक जगह बड़े कवि का नाम लेकर आपने अपना नाम तो चमकदार बनाना चाहा, मगर बिना मेहनत के और बिना अच्छी कविता लिखे आप कैसे चमकोगे। इस प्रकार की की व्याख्या को बहुत लोग कविता कहेंगे। पर कविता कहाँ खड़ी है! घटनाओं को जस का तस कागज़ पर उतार देना यदि कविता है तो फिर रोज़ खबरची कविता ही रच रहे हैं। लाल कम्बल, लाल झण्डा और लाल सलाम बोलने मात्र से क्रांति नहीं आती-
दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम
हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली
बाबा नागार्जुन के साथ
बहुत थोड़े से लोग हैं रेल के डिब्बे में
अपने-अपने में सिकुड़े
खाँसते-खखारते
टूटी खिड़कियों की दरारों से
भीतर चले आते हैं
ठंडी हवा के झोंके
चीरते चले जाते हैं हड्डियों को
सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफ़िर
अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं
बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को
प्यार से थपथपाते हैं
जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में
और किलकते हैं--
" भई, मुनि जिनविजय!
मेरी किसी कविता से
कम नहीं है यह कम्बल
सर्दियों की ठंडी रातों में।
अनिल जनविजय की यह कविता पढ़ने से लगता है कि यह कवि ज़रा भी गम्भीर नहीं है कविता के प्रति। बस जो कुछ दिमाग मे आया लिख मारा। कविता ही तो लिखनी है । कौन पढ़ता है, बस कविताकोष में पड़ी रहेगी इतिहास बनकर-
दिन बीते
रीते-रीते
इन सूनी राहों पे
मिला न कोई राही
बना न कोई साथी
वन सूखे चाहों के
कवि प्रेमी है, रोमांटिक है, बस केवल कविता के प्रति वफादार नहीं है। कवि फेसबुक पर व्यवस्था के विरोध में खड़ा रहने का दावा करता है। यह आसान है। ठीक वैसे जैसे कविता का शौक पाले रखना-
दिन था गर्मी का, बदली छाई थी
थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई
लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी
थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई
मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका
करती है वह क्या काम
याद मुझे बस, संदल का भभका
और उस के चेहरे की मुस्कान।
अनिल जनविजय का प्रेमिका के बिना बुरा हाल है। पत्र नहीं मिला तो छटपटाहट बढ़ गई। मॉस्को से भोपाल बहुत दूर है-
कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल
क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
लगे, दूर है बहुत मास्को से भोपाल
बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण।
एक और प्रेम कविता देखें। इस कविता को पढ़ते हुए कभी भी पाठक को प्रेम की खूबसूरत अनुभूति का एहसास नहीं हो पाएगा। कारण साफ है, केवल कलम घसीटने से प्रेम की अनुभूति नहीं होगी। प्रेम और प्रेम पर लिखने के लिए एक डूब की आवश्यकता होती है, यह आप नहीं समझोगे मुनि जनविजय-
दिन वसन्त के आए फिर से आई वसन्त की रात
इतने बरस बाद भी, चित्रा! तू है मेरे साथ
पढ़ते थे तब साथ-साथ हम, लड़ते थे बिन बात
घूमा करते वन-प्रांतरों में डाल हाथ में हाथ
बदली तैर रही है नभ में झलक रहा है चांद
चित्रा! तेरी याद में मन है मेरा उदास
देखूंगा, देखूंगा, मैं तुझे फिर एक बार
मरते हुए कवि को, चित्रा! अब भी है यह आस।
बहुत से कवियों को चुम्बन देने और लेने वाले दृश्यों की व्याख्या करने में मज़ा आता है। वे बताना चाहते हैं कि देखो भाई कवि भी यह काम करते हैं, उन्हें क्यों तुम गधे समझते हैं-
कभी वह घंटियों की तरह घनघनाती आती थी
बच्चों की तरह मुझे दुलराती थी
मेरे बालों में उँगलियाँ फिराती थी
मेरे माथे पर, नाक पर, गालों पर, होठों पर
अपने ऊष्म, गर्म चुम्बन चिपकाती थी
मेरी मूँछों को, पलकों को, भौहों को, कानों को
नन्ही, गोरी, पतली उँगलियों से सहलाती थी
बारिश की रिमझिम-सा स्नेह बरसाती थी
वह आती थी
अब नहीं आती
उसकी याद आती है
अनिल जनविजय |
अगली कविता में कवि को गुस्सा आया, उसने अपनी प्रेमिका को होंठों से कोड़ा मारा। मुझे एक टपोरी फिल्मी गीत याद आया, अखियों से गोली मारे....। यदि कवि राजा के दरबार में होता तो राजा को सुविधा होती। जब भी किसी को कोड़े मरवाने होते तो राजा निश्चित तौर पर इसी कवि की सेवाएं लेता-
उचकी वह पंजों पर थोड़ा-सा
फिर मेरी ओर होंठ बढ़ाए
चूमा उसे मैंने यों, ज्यों मारा कोड़ा-सा।
हिंदू से मुस्लिम डरे, इस बात की चिंता है कवि को और होनी भी चाहिए। परंतु मुस्लिम से पूरी दुनिया डरी है, इस बात का वो ज़िक्र नहीं करना चाहता ताकि उसे कोई फासीवादी न कह दे। वो तो साम्यवादी ही रहना चाहता है। राम जी भला नहीं करेंगे-
ऐसा
क्यों हुआ है आज
हिन्दू से मुस्लिम डरें
कैसा
ज़माना आ गया
राम जी भला करें
००
परखः तीन को नीचे लिंक पर पढ़िए
हे जादूगर कवि ! प्रेम कोई पीठ की खुजली
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/httpbizooka2009.html?m=1
अनिल जनविजय जी द्कीवारा अनूदित कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
हालीना पोस्तिवयातोव्स्का की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/01/blog-post_28.html?m=1
रूसी कवि अनतोली परंपरा की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/blog-post_30.html?m=1
सटीक लिखते है आप गणेश गनी जी ,मुझे आपकी लिखी 'परख' श्रृंखला खूब भा रही है ।
जवाब देंहटाएंआभार
परख 4 के अंतर्गत ली गई अनिल जनविजय की इन कविताओं में सचमुच कविता के ऐसे कोई तत्व सघन रूप में मौजूद नहीं हैं कि लगे कि कोई कविता हमसे पढ़ी जा रही है । परख की इन टिप्पणियों पर भले कोई प्रतिक्रिया न आए पर पढ़ इसे बहुत लोग रहे हैं । कारण आज के कवि /रचनाकार चालाक हैं , सेफ जोन में रहकर परिस्थितियों को भांपते रहना उन्हें अधिक पसंद है ।
जवाब देंहटाएंदिनों के बाद हिंदी कविता और कवियों पर बेबाक टिप्पणी गणेश गनी की।अच्छा है कि उदाहरण सहित उन्होंने अनिल जनविजय की कविताओं पर अपनी बात कही।उदाहरण स्वरूप कविताओं को पढ़ने से भी गणेश गनी की बात पुष्ट होती है।
जवाब देंहटाएंदिनों के बाद हिंदी कविता और कवियों पर बेबाक टिप्पणी गणेश गनी की।अच्छा है कि उदाहरण सहित उन्होंने अनिल जनविजय की कविताओं पर अपनी बात कही।उदाहरण स्वरूप कविताओं को पढ़ने से भी गणेश गनी की बात पुष्ट होती है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्रों
जवाब देंहटाएंकिसी कवि की सम्पूर्ण साहित्य सम्पदा में से चलताऊ ढंग से पच्चीस तीस पंक्तियाँ चुन कर फ़ैसला सुना देना तर्कसंगत और उचित नहीं है...मुझे लगता है यह मूल्यांकन करने का सही तरीका नहीं है।इसपर एकबार फिर से सोचना चाहिए गनी जी को।
जवाब देंहटाएं-- यादवेन्द्र
Pathaniya, Vicharniya
जवाब देंहटाएंVah!
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