गीता गैरोला की कविताएँ
गीता गैरोला |
भोर का पंछी
भोर का पंछी आँखों को मलता
धीरे से खोलता है पलकें
पंखों से सहलाता है
ओंस से भीगी पृथ्वी को /जिसके अन्दर जनम रही है उसकी रचना
निर्दोष कोमलता से सहलाता है डैने
नजरें टिकाता है उस बिंदु पर /जहाँ से सूरज के सुनहरे घोड़े
छलांग लगाने को तेयार हैं
भोर का पंछी पूरे ब्रह्मांड में फैलाएगा अपने पंखों के नरम रेशे
सतरंगी धूप की तितलियों के साथ डोलेगा फूल-फूल
पलगायेगा बृंदगांन मंदिरों के शिखरों पर
मस्जिदों की गुम्बदों पर
शगुन के गीत गायेगा
गोधूलि का पहला तारा उगने तक
साँझ की पालकी में बैठ कर लौटेगा नीड़ की ओर
हरी-भरी नस्लों को उगाने
००
अब मेरा वक़्त जिन्दा है
आसमानी रंगतें ठिठोली करती हैं
घनेरी रात में चमकता है जादुई चाँद
तनहाई रहस्यमई अँधेरे कोने में
जुगनू चमकाती हैं
होंठ शैतानी करते इतराते हैं
मेरे हिस्से के गुलमोहर तपती जमीन में
चटक चादर बिछाते हैं
मेरा मौन बीथोवन की सिम्फनी सा थिरकता है
पूरी क़ायनात बुरांस बन जाती है
सगरमाथा मुझे थपकियाँ देता है
हाँ ये मेरा जिन्दा वक़्त है
००
चिठ्ठियां
सारी चिठ्ठियां गलत पते पर आती रही
दुःख बहते रहे वक़्त वक़्त पर
चिठ्ठियां बिना बांचे रुलाती रही
चिठ्ठियां ख़त्म हो जाती हैं
पते भी बदल ही जाते हैं
शब्द तैरते रहते हैं
एक सदी से दूसरी सदी तक
पते कितने ही गलत हों
और हजारों चिठ्ठियां बिन बांचे खत्म जाएँ
शब्द पुल बन जाते हैं
वक़्त दुःख,और
सदियों के बीच
००
हवाएँ देखती है
झांकती हैं
मुस्कराती हैं
,बैचेन हैं
दरबदर ,बेआवाज हैं
वो आग के खिलाफ है
००
पहाड़ और मैं
जब तक रहूंगी मै
पहाड़ तो रहेंगे ही
जैसे पहाड़ में रहते हैं,
पेड़,पौधे, पशु ,पक्षी
मिट्टी,पत्थर,आद, पानी और आग
मुझमे रहता है खून,राख, पानी,हड्डियां
नफरत और प्रेम
हम दोनों एक हैं
एक दूसरे के विरुद्ध
मै पहाड़ को जलाती हूँ,
काटती हूँ,खोदती हूँ
पहाड़ मुझे जलाता है
पहाड़ फिर फिर उग आता है
और मै भी बार बार जन्म लेती हूँ
जब तक काटने,जलाने की रीत रहेगी
पहाड़ और मै
एक दूसरे के सामने खड़े रहेंगे
ना पहाड़ खत्म होंगे ना ही मै
हम दोनों जिन्दा रहने का युद्ध
एक साथ लड़ेंगे।
००
जहां धरती आसमान से मिलती है
सागर के अकूत पानी की,
उत्ताल तरंगो के पार।
जहाँ धरती आसमान से मिलती है।
नारंगी लालिमा से रंगा सूरज।
शिशुओ सी अठखेलियां करता है।
धरती दर्दीली पीड़ा से मुस्कुराती है।
हंसते रगों में तैरता गोला।
धरती को जब कौंली भरता है
ठीक इसी वक़्त
मैं वज़ू करती हूँ,
सागर के दोनों रंग।
मेरी नमाज़ को प्रेम और द्वन्द के।
नरम वितान में पिरो कर।
थपकियाँ देते हैं।
००
जिन्दगी बनफशा सी
इस वक़्त जब उम्र फिसलती जा रही है
प्रेम ले रहा है आकार चुपचाप
मृत्युपाखी के नरम परों के साथ
लीसे की तरह पिघल रहा है प्रेम
वक़्त के धागे रोशनी की चादर बु न रहे हैं
चाँद की किरने सरकते वक़्त में प्रेम राग लिख रही हैं
गुनगुनाती हवाएं पूरी इबादत से
वक़्त के गडरिये को रोके हैं
सूरज अपनी सुनहरी स्याही से
समूची कायनात में भोर लिख रहा है
यही सही वक़्त है जब प्रेम
सारी पीडाओं को फटक रहा है
जिन्दगी बनफशा सी महक रही है
००
धुव्र भाई
जवाब देंहटाएंआप बिजूका से या अन्य ब्लॉग से रचनाएं कापी करके पेस्ट करते रहते हो। यह बात ठीक नहीं। आपको लेखकों से सीधे रचनाएं जुटानी चाहिए। पाठकों के लिए नयी रचनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए। एक ही लेखक की एक रचना अनेक ब्लाग पर लगाने का कोई औचित्य नहीं।
आदरणीय सत्यनारायण जी प्रणाम
हटाएंहम आपको विनम्रता पूर्वक अवगत कराते हैं कि हम किसी भी रचना को सीधे अपने ब्लॉग पर नहीं लाते बल्कि उसके लिंक को पाठकों तक पहुँचाते हैं ताकि उक्त लेखक अथवा कवि की रचना तक पाठक स्वयं पहुँच सके और उस लेखक का ब्लॉग प्रसिद्धि पा सके। ब्लॉगों की भीड़ में पाठक अच्छे लेखक के ब्लॉग तक पहुँच सके और उनकी अनमोल रचनाओं का रस्वादन कर सके यही हमारा प्रयास है न कि लेखक के कॉपीराइट का उल्लंघन करना। इसके लिए हम उक्त लेखक की रचना का लिंक देने से पूर्व यह सूचना उस ब्लॉग के स्वामी को भी प्रेषित करते हैं। आपके सुझाव का हम तहेदिल से शुक्रगुजार हैं। सादर
गीता जी की "पहाड़ और में" , "चिट्ठियां" , कविताएँ अच्छी लगीं ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचनाएं
जवाब देंहटाएंधुव्र भाई
जवाब देंहटाएंयह तो बहुत बढ़िया है। आपका हार्दिक शुक्रिया भाई। मेरी भी बिजूका पर यही कोशिश रहती है कि कुछ अच्छे रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित कर सकूं। पाठकों को अच्छी रचनाएं पढ़ा सकूं। पुनः शुक्रिया भाई। अच्छा काम करें हो।