परखः पांच
मगर वो चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा !
गणेश गनी
जब तक एक रचनाकार बेचैन नहीं होता, उसकी नींद आंखों से उड़कर कहीं दूर नहीं चली जाती, तब तक कभी भी लोकधर्मी और जनपक्षधरता वाली रचनात्मकता सामने नहीं आएगी। एक लेखक को व्यवस्था के काम कभी भी संतुष्ट नहीं करते क्योंकि उसने एक आदर्श व्यवस्था का सपना संजोया होता है। हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल का सम्बंध हिंदी काव्य परंपरा से ही है और इसे हिंदी कविता से जोड़कर देखा जाना भी चाहिए। आज की गजलों में जीवन का यथार्थ है, कोई कल्पना नहीं है, कोई काल्पनिक चित्रण नहीं है। आज के समय में ग़ज़ल हिंदी कविता की भांति ही मुद्दों को उठाती हुई मिलती है। आज जो हिंदी ग़ज़ल लिखी जा रही है वो पूरी तरह से आम पाठक के लिए लिखी रची जा रही है। हिंदी ग़ज़ल अपने समय की चुनौतियों को बखूबी पहचानती है और अपनी जनधर्मिता के कारण उसकी जन स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है। आदित्य कमल की कलम का अंदाजेबयां अलग है-
आज की रात जगो , रात के बारे में लिखो
कठिन समय, बुरे हालात के बारे में लिखो
दुःखों के गीत रचो , मन की वेदनाएं कहो
अपने होंठों पे दबी सदियों की व्यथाएं कहो
वक़्त की कौल सुनो, समय की पुकार सुनो
अपने संघर्षों के आओ नए हथियार चुनो
यह बात सही है कि जब जुल्मों सितम हद से ज़्यादा बढ़ जाएं तो हथियार उठाने ही पड़ते हैं, विरोध करना ही पड़ता है, आंखें दिखानी ही पड़ती हैं। कवि ने हर युग मे यह किया है-
बहरों का शासन गर अपनी छाती तक चढ़ आता है
हंगामा करना पड़ता है , शोर मचाने पड़ते हैं ।
घर में दुबके रहना भी जब नहीं सुरक्षित रह जाए
घर - बाहर के मुद्दे सब , सड़कों पे लाने पड़ते हैं।
आदित्य कमल की रचनाओं में डटकर विरोध का बारूद भरा है, एक बेबाक और निडर आवाज़ कवि की रचनाओं में मुखर होती है तो लगता है कि अभी हाशिये के लोग उम्मीद लगा सकते हैं। कवि कहता है-
दर्द जब आदमी का हद से गुजर जाएगा
ये नहीं सोच वो बंदूकों से डर जाएगा ।
तेरी तंज़ीम का हर एक पुख़्ता शीराज़ा
आह उट्ठेगी , पारः पारः बिखर जाएगा ।
उसकी चुप्पी तो बिना बोले जितना बोल गई
देखना दूर तलक उसका असर जाएगा ।
उसे पता है बोलने की सजा क्या होगी
मगर वो चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा।
आदित्य कमल की रचनाओं में ताज़गी है, भाषा में कशिश है और शब्दों में जादू है। कवि की ये दो पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं-
धुंध , अँधेरा , कोहरा बिछा के रख देना
रौशनी का , तमाशा बना के रख देना !
ग़ज़ल की भाषा, मुहावरा और शिल्प ग़ज़लकार को एक अलग स्थान देता है साहित्य में। यह एक साधना के समान है। ग़ज़ल का नाम आते ही लगता है कि कोई प्रेम का मामला होगा।
अब ये मान्यता समाप्त हो चुकी है कि ग़ज़ल का जन्म प्रेम तथा विरह की कोख से होता है। अब हिन्दी की ग़ज़लें मानवीय संवेदनाओं के शिल्प में रची जा रही हैं और सामाजिक तानेबाने की उलझनों को अभिव्यक्ति देने में सफल हुई हैं। आदित्य कमल न केवल बच्चों के लिए चिंतित है बल्कि हृदय के वीरान पड़े टापू में हरियाली उगाना चाहता है -
पत्थरों को तोड़ती नदियों की धारा देखिए
ज़िद्दी लहरें मानतीं हैं , कब किनारा देखिए ।
धूप के बाग़ लगाए जाएँ
फूल , किरणों के उगाए जाएँ ।
दिल के वीरां पड़े जज़ीरे में
कुछ हरे ख़्वाब बसाए जाएँ ।
घर भी दिखते हैं-यातना के शिविर
अब कहाँ बच्चे छुपाए जाएँ ?
००
परखः चार नीचे लिंक पर पढ़िए
एक कवि होंठों से कोड़े मारता है !
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_17.html?m=1
आदित्य कमल की रचनाएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/1-2-3-4-1.html?m=1
मगर वो चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा !
गणेश गनी
जब तक एक रचनाकार बेचैन नहीं होता, उसकी नींद आंखों से उड़कर कहीं दूर नहीं चली जाती, तब तक कभी भी लोकधर्मी और जनपक्षधरता वाली रचनात्मकता सामने नहीं आएगी। एक लेखक को व्यवस्था के काम कभी भी संतुष्ट नहीं करते क्योंकि उसने एक आदर्श व्यवस्था का सपना संजोया होता है। हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल का सम्बंध हिंदी काव्य परंपरा से ही है और इसे हिंदी कविता से जोड़कर देखा जाना भी चाहिए। आज की गजलों में जीवन का यथार्थ है, कोई कल्पना नहीं है, कोई काल्पनिक चित्रण नहीं है। आज के समय में ग़ज़ल हिंदी कविता की भांति ही मुद्दों को उठाती हुई मिलती है। आज जो हिंदी ग़ज़ल लिखी जा रही है वो पूरी तरह से आम पाठक के लिए लिखी रची जा रही है। हिंदी ग़ज़ल अपने समय की चुनौतियों को बखूबी पहचानती है और अपनी जनधर्मिता के कारण उसकी जन स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है। आदित्य कमल की कलम का अंदाजेबयां अलग है-
आज की रात जगो , रात के बारे में लिखो
कठिन समय, बुरे हालात के बारे में लिखो
दुःखों के गीत रचो , मन की वेदनाएं कहो
अपने होंठों पे दबी सदियों की व्यथाएं कहो
वक़्त की कौल सुनो, समय की पुकार सुनो
अपने संघर्षों के आओ नए हथियार चुनो
यह बात सही है कि जब जुल्मों सितम हद से ज़्यादा बढ़ जाएं तो हथियार उठाने ही पड़ते हैं, विरोध करना ही पड़ता है, आंखें दिखानी ही पड़ती हैं। कवि ने हर युग मे यह किया है-
बहरों का शासन गर अपनी छाती तक चढ़ आता है
हंगामा करना पड़ता है , शोर मचाने पड़ते हैं ।
घर में दुबके रहना भी जब नहीं सुरक्षित रह जाए
घर - बाहर के मुद्दे सब , सड़कों पे लाने पड़ते हैं।
आदित्य कमल की रचनाओं में डटकर विरोध का बारूद भरा है, एक बेबाक और निडर आवाज़ कवि की रचनाओं में मुखर होती है तो लगता है कि अभी हाशिये के लोग उम्मीद लगा सकते हैं। कवि कहता है-
दर्द जब आदमी का हद से गुजर जाएगा
ये नहीं सोच वो बंदूकों से डर जाएगा ।
तेरी तंज़ीम का हर एक पुख़्ता शीराज़ा
आह उट्ठेगी , पारः पारः बिखर जाएगा ।
उसकी चुप्पी तो बिना बोले जितना बोल गई
देखना दूर तलक उसका असर जाएगा ।
उसे पता है बोलने की सजा क्या होगी
मगर वो चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा।
आदित्य कमल की रचनाओं में ताज़गी है, भाषा में कशिश है और शब्दों में जादू है। कवि की ये दो पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं-
धुंध , अँधेरा , कोहरा बिछा के रख देना
रौशनी का , तमाशा बना के रख देना !
ग़ज़ल की भाषा, मुहावरा और शिल्प ग़ज़लकार को एक अलग स्थान देता है साहित्य में। यह एक साधना के समान है। ग़ज़ल का नाम आते ही लगता है कि कोई प्रेम का मामला होगा।
आदित्य कमल |
अब ये मान्यता समाप्त हो चुकी है कि ग़ज़ल का जन्म प्रेम तथा विरह की कोख से होता है। अब हिन्दी की ग़ज़लें मानवीय संवेदनाओं के शिल्प में रची जा रही हैं और सामाजिक तानेबाने की उलझनों को अभिव्यक्ति देने में सफल हुई हैं। आदित्य कमल न केवल बच्चों के लिए चिंतित है बल्कि हृदय के वीरान पड़े टापू में हरियाली उगाना चाहता है -
पत्थरों को तोड़ती नदियों की धारा देखिए
ज़िद्दी लहरें मानतीं हैं , कब किनारा देखिए ।
धूप के बाग़ लगाए जाएँ
फूल , किरणों के उगाए जाएँ ।
दिल के वीरां पड़े जज़ीरे में
कुछ हरे ख़्वाब बसाए जाएँ ।
घर भी दिखते हैं-यातना के शिविर
अब कहाँ बच्चे छुपाए जाएँ ?
००
परखः चार नीचे लिंक पर पढ़िए
एक कवि होंठों से कोड़े मारता है !
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_17.html?m=1
आदित्य कमल की रचनाएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/1-2-3-4-1.html?m=1
जवाब देंहटाएंबहरों का शासन गर अपनी छाती तक चढ़ आता है
हंगामा करना पड़ता है , शोर मचाने पड़ते हैं ।
घर में दुबके रहना भी जब नहीं सुरक्षित रह जाए
घर - बाहर के मुद्दे सब , सड़कों पे लाने पड़ते हैं।
इन गजलों में सचमुच एक साफ़गोई से भरी हुई आवाज है ।
कविता ग़ज़ल कलात्मक होने की मोहताज नही यह आदित्य कमल प्रमाणित करते हैं । बधाई दोनों को ।
हिंदी में ग़ज़ल और बात जनपक्षधरता की हो तो दुष्यंत याद आते है ।आज की परख में ग़ज़ल की बात पढ़ कर अच्छा लगा ।चंद शेर ही आदित्य कमल जी की लिखी ग़ज़लों की आग की तपिश दे रहे है ।शुभकामनाएं बिजूका ,गणेश गनी जी ,आदित्य कमल जी ।
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