साक्षात्कार:
कवि नईम से कहानीकार प्रकाश कान्त की बातचीत
( स्व. कवि नईम जी ने साक्षात्कार बहुत कम बल्कि एक तरह से नहीं बराबर दिये हैं। दरअसल वे अपनी रचना और रचनाकर्म पर अलग से बात करना ज़रूरी नहीं समझते थे। इससे बचते और ज़्यादातर साफ़ और सीधा इंकार कर देते थे। बुनियादी तौर पर वे भी ‘ बात बोलेगी,हम नहीं ’ में यकीन करते थे। उनका मानना था कि जो कुछ कहना हो, रचना खुद कहे, रचनाकार अलग से क्यों कहे! इसीलिए अपने काम को लेकर उनके कोई्र लम्बे-चौड़े बयान नहीं मिलते। ऐसे में उनका कोई लम्बा और व्यवस्थित साक्षात्कार लेना मुश्किल ही था। जानता था कि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। मना कर देंगे। बहरहाल, इसके लिए मुझे और गुड़िया ( डॉ0 समीरा नईम) को उन्हें लगभग घेरना पड़ा।बड़ी मुश्किल से तैयार हुए।लेकिन,एक बैठक में सीध आमने-सामने बैठकर यह साक्षात्कार सम्पन्न नहीं हुआ। बल्कि, 9 जनवरी,,2008 के गम्भीर रूप से बीमार पडने के पहले अलग- अलग मौकों पर हुई बातचीत में यह किया जा सका।कुछेक जवाब उन्होंने अपने ग़़ज़़ल संग्रह ‘ आदमक़द नहीं रहे लोग’ ( जो उनके गुजरने के बाद छपा ) की भूमिका के रूप में लिखकर दिये। वैसे, इसके पहले उन्होंने अपने किसी संग्रह की भूमिका वगैरह नहीं लिखी थी। ख़ैर, यह साक्षात्कार उनके कवि कर्म और रचनागत चिन्ताओं का खुलासा करता है। )
दूसरी किस्त
प्र. नवगीत अपने मुहावरे में कई जगह अकविता और समकालीन कविता के मुहावरे के नज़्दीक नज़र आने लगता था। क्या ऐसा अपने-आप हुआ था या फिर अपने दौर की कविता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव के चलते हुआ ?
उ- हर दौर की कविता अपने आसपास की साहित्यिक हलचलों से प्रभावित होती है और आपसी लेन-देन भी करती है। यह स्वाभाविक है। नवगीत अगर अपने मुहावरे में कहीं-कहीं समकालीन कविता, अकविता के नज़दीक आने लगता था तो इसीलिए! आखिर किसी एक ख़ास दौर की कविता जो आकार लेती है उसमें बहुत कुछ साँझा होता है। इसलिए कुछ ख़ास तरह के एक जेसेपन भी देखने को मिल जाते हैं। मेरे खयाल से नवगीत के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा।
प्र. यह सही है कि भाषा के स्तर पर हिन्दी की बहुत सारी बोलियों के ज्ञात-अज्ञात शब्द जो समकालीन कविता से बाहर रह गये थे उन्हे नवगीत ने ’ कविता के शब्द ’ की तरह संस्कारित किया। यह बड़ा काम था। विषेषकर हिन्दी की आंचलिक भाषा सम्पदा को देख्रते हुए! क्या यह सब गीत में आंचलिक आग्रहों के कारण हुआ या फिर अपने-आप ?
उ - बिल्कुल! कविता के अकविता वाले या शहरी मुहावरे के कारण हिन्दी की बहुत सारी बोलियों का ज्ञात-अज्ञात शब्द भण्डार कविता से बाहर रह गया था। कविता का जो नागर या महानगरीय तेवर था उसमें ऐसा ज्यादातर हुआ था। जब कि हिन्दी की शक्ति का मूल स्रोत उसकी समृद्ध बोलियाँ रही हैं। ऐसे में नवगीत ने अपने लोक आग्रहों के चलते बोलियों के शब्दों को कविता में बहाल किया। जिससे कविता की आन्तरिक शक्ति बढी़। आंचलिक भाषा सम्पदा का नवगीतों के माध्यम से कविता में यह पुनर्वास बहुत कुछ रचना के अपने दबावों के कारण अपने-आप हुआ।
प्र. आप छन्द कविता के आग्रही रहे हैं जबकि अशोक वाजपेयी सहित कई कवि एवं आलोचक छन्द कविता की मृत्यु की सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं। वे वर्त्तमान भाव-बोध एवं वैचारिक उद्वेलन को व्यक्त करने में छन्द कविता को अपर्याप्त तथा अक्षम मानते हैं। छन्द कविता के ऐतिहासिक अवदान को स्वीकार करते हुए वे इसका कोई भविष्य नहीं देखते। आप क्या कहना चाहेंगे ?
उ - यह बहस काफी पुरानी हो चुकी है। सिर्फ़ बहस ही नहीं बल्कि छन्द सम्बन्धी घोषणाएँ भी! अशोक वाजपेयी के अलावा भी कई लोगों ने छन्द को लेकर इस तरह का बहुत कुछ कहा है। इस सिलसिले में इतना ही कहना चाहूँगा कि बहुत कुछ कवि की अपनी क्षमता पर निर्भर होता है।अगर क्षमता नहीं है तो कवि बेछन्द में भी अपनी बात नहीं कह पायेगा। और अगर है तो मुश्किल से मुश्किल बात भी छन्द में कह लेगा। हमारे सारे पुराने कवियों की कविता इसका प्रमाण है। पहले का जितना कुछ महान् है वह छन्द कविता में ही कहा गया है। और फिर जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूँ,असल चीज़ है कविता! कतई ज़रूरी नहीं कि छन्द में होने या न होने से कविता महान् हो जाये। कविता का प्रश्न अलग है, छन्द-बेछन्द होने का अलग!कविता दोनों रूपों में महान् होती आयी है। कहना-भर इतना है कि एक के आग्रह के चलते दूसरी को रद्द न किया जाये! जैसा कि इधर छन्द कविता के साथ हो रहा है। उसे पिछड़ी कविता कह कर हाशिये पर डाल दिया गया है। नुक़सान इससे अन्ततः कविता का ही हुआ है। मैं शुरू से छन्द के प्रति आग्रही रहा हूँ।कह नहीं सकता कि उसमें मुझसे कविता कितनी सम्भव हो सकी है! हालाँकि मैंने बेछन्द कविता को कभी खारिज़ नहीं किया। हिन्दी के कई बेछन्द कवि मेरे आदर्श रहे हैं।
प्र . कई लोगों ने गीत लिखना बाद में बन्द कर दिया या विधा बदल ली आप अभी तक लिख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे?
उ- हाँ, यह हुआ है। कई लोगों ने गीत लिखना बन्द कर दिया है या अपनी विधा बदल ली है। यह सब क्यों और कैसे हुआ है इस बारे में ठीक-ठीक तो वे लोग ही बता सकते हैं।मैं ज़रूर अभी तक लगा हुआ हूँ। जैसा कि तुम बता रहे हो, मेरे गीतों में काफी बदलाव भी आया है। खुद मुझे भी लगता है कि ये साठ-सित्तर के दशक के नवगीत आन्दोलन के उभारवाले दौर के गीत नहीं हैं। इनमें भीतर से बहुत कुछ बदला है। बल्कि मुझे यह बात मान लेने में कोई आपत्ति नहीं कि ये अपने ऊपरी फार्म-भर में गीत हैं।या यों कह लें कि ऐसी कविताएँ हैं जो मोटे और ऊपरी तौर पर गीत के फार्म में हैं।
प्र . यहीं एक बात और! गेयता किसी वक़्त गीत की प्राथमिक और अनिवार्य शर्त्त हुआ करती थी। बाद में नहीं रही। इसके बावजूद गीत किस तरह से गीत रहा?
उ- मैंने अभी कहा न कि जब गीत सिर्फ़ ऊपरी फार्म तक गीत रह गया-महज ढाँचा तब गेयता खुद ब खुद छूट गयी। रही बात गेयता की तो गाये जा सकनेवाले गीतों को अगर सिर्फ़ पढ़ा जाये तो वे तुकान्त गद्य से ज़्यादा कुछ नही लगते। ऐसा लगता है जैसे खालिस गद्य को लय या रिदम में ढाल दिया गया है।
प्र. आपने किसी वक़्त बड़ी तादाद में सॉनेट भी लिखे। हिन्दी में त्रिलोचन के अलावा इक्का-दुक्का लोगों ने ही इस फार्म का इस्तेमाल किया। हिन्दी में यह फार्म चला नहीं। त्रिलोचन द्वारा काफी हद तक उसका देशीकरण कर लिये जाने के बावजू़द! आप क्या सोचते है ?
उ - त्रिलोचन को पढ़ने के बाद ही मैंने सॉनेट लिखे। तुम ठीक कह रहे हो, सॉनेट जैसा फार्म हिन्दी में चला नहीं। यों भी वह अंग्रेज़ी से आया फार्म था।फार्म के स्तर पर हिन्दी-अंग्रेज़ी कविता में लेन-देन कम ही हुआ है।हिन्दी में अकेले त्रिलोचन ने इतनी बड़ी तादाद में सॉनेट लिखे हैं। अपने सॉनेट में उन्होंने कुछेक प्रयोग भी किये और उसका देशीकरण किया। मैंने सॉनेट ज़रूर लिखे लेकिन कम लिखे और कभी-कभार ही लिखे।
प्र. शम्भुनाथ सिंह या कन्हैयालाल नन्दन ने गीत-नवगीत के संकलन के क्षेत्र में काफ़ी बड़ा काम किया है। गीत-नवगीत की स्वीकृति के नज़रिये से इसे आप कितना उपयोगी मानते हें ?
उ - बेशक़ वह काफी बड़ा काम है। इससे गीत-नवगीत के मामले में कोई समग्र राय बनाने में मदद मिली है।इसके अलावा कुछ गैर ज़रूरी धुन्ध भी छँटी है।
प्र . सॉनेट के अलावा आपने बड़ी तादाद में ग़ज़लें भी लिखीं।अब भी लिख रहे हैं।दुष्यन्त कुमार के कारण इस फार्म को हिन्दी में स्वीकृति ओर शोहरत दोनों मिलीं।हालाँकि कुछेक पत्रिकाओं ने गीत की ही तरह ग़ज़ल छापने से परहेज़ किया। आपने इस फार्म को क्या गीत के विस्तार की तरह चुना? या यह लगा कि कोई बात विशेष गीत नहीं ग़ज़ल में ही बेहतर ढंग से कही जा सकती है?
उ - ग़ज़लें हिन्दी में दुष्यन्त के पहले भी लिखी गयीं हैं। लेकिन, उसे बड़े पैमाने पर लोकप्रियता और स्वीकृति दुष्यन्त ने दिलवायी। सित्तर के दशक में धर्मयुग और सारिका में छपी ग़ज़लों ने दुष्यन्त को रातों-रात स्टार बना दिया। मेरी तरह कई लोगों ने हिन्दी में दुष्यन्त के प्रभाव से ही ग़जलें लिखीं। एक वक्त तो हालत यह हो गयी थी कि हर चौथा-पाँचवाँ आदमी ग़ज़ल लिखनेवाला मिलने लगा। मैं छन्द का आदमी था। सो, ग़ज़ल कहना मेरे लिए थोड़ा-सा आसान रहा। इस फार्म से अच्छी तरह से परिचित होने के लिए देवनागरी में मीर,ग़ालिब सहित जो कुछ भी उपलब्ध था वह सब पढ़ डाला। मीर की सादगी और ग़ालिब की गहनता ने काफी प्रभावित किया। अपनी बात को ज़्यादा असरदार ढंग से सम्प्रेषणीय बनाने के लिए ग़ज़ल मुझे सुविधाजनक लगी। मैं फारसी लिपि और उसके पिंगल से नावाकिफ़ था।सिर्फ़ लयात्मकता के वज़न पर ग़ज़ल कह पाया। श्रोता और पाठक की सराहना मिलने पर मेरा इस मामले में भरोसा बढ़ा। गीत की तुलना में ग़ज़ल कहने या लिखने में एक ख़ास तरह की सहूलियत भी थी। इसमें एक ही केन्द्रीय भाव या खयाल पर पूरी रचना लिखने की बाध्यता नहीं थी। हर शेर नया भाव, नया खयाल लिया हो सकता था।
प्र. दुष्यन्त की वे ग़ज़लें ज़्यादा चर्चित हुई थीं और सराही गयी थीं जिनकी भाषा आम फ़हम या फिर उर्दू के ज़्यादा क़रीब थी। हिन्दी की तत्सम शब्दों वाली ग़ज़लें उतनी आकर्षित नहीं कर पायीं। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे ? क्या रचना अपने फा़र्म की ही तरह अपनी भाषा को भी चुनती है ?
उ- हाँ, यह तो हुआ है। आमफहम भाषा में लिखी गयी ग़ज़लें ज़्यादा सराही गयी हैं। यहाँ तक कि दुष्यन्त की भी हिन्दी की तत्सम शब्दावलियों वाली ग़ज़लें उतनी चर्चित नहीं हो पायीं। रही बात रचना के अपने फार्म की तरह अपनी भाषा को भी चुनने की तो यह बहुत कुद रचनाकार के मिजाज पर मुनहसिर करता है। साथ ही रचना के आन्तरिक दबाव पर!
प्र. आपने पिछले सालों काष्ठशिल्प में भी काम किया। आपके इस काम की मुम्बई-दिल्ली जैसे नगरों में प्रदर्शनी भी लगी। शब्द जैसे नाज़ुक माध्यम को छोड़कर या उसमें सक्रिय रहते हुए अचानक काष्ठ जेसे भिन्न और सख़्त माध्यम में काम करने लगना क्या अचानक हुआ ? हालाँकि, इस माध्यम में काम करना अक्षरशः श्रमसाध्य था!
उ - बिल्कुल, श्रमसाध्य था। शुद्ध रूप से शारीरिक श्रम!पत्थर हो या लकड़ी वे अपने बाहरी रूपाकार से आपको शुरू में थोड़ी-बहुत सहूलियत दे देते हैं जिससे आप अपने इच्छित-कल्पित रूपाकार तक पहुँच सकें! जहाँ तक काष्ठ षिल्प जैसे माध्यम में मेरे काम करने का सवाल है इस मामले में साफ कर दूँ कि इसके लिए मैंने अपने मूल शब्द माध्यम को छोड़ या स्थगित नहीं कर दिया। हाँ,जिन दिनों काष्ठ का काम कर रहा था उन दिनों पुराने माध्यम में काम करना थोड़ा धीमा ज़रूर हो गया। इस माध्यम में जाने का थोड़ा-बहुत ख़याल ‘डाइट’ का प्राचार्य रहते वक्त बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने वगैरह बनवाने से भी आया। इसके अलावा, बरसों से सन्तोष जड़िया और अन्य षिल्पकारों का काम देखता आ रहा था। उनसे भी प्रेरणा मिली।
प्र. आपके साथ के बहुत सारे कवियों ने गद्य लिखा है। आज भी कई कवि गद्य में भी लिख रहे हैं। क्या आपको कभी ऐसी ज़रूरत या दबाव महसूस नहीं हुआ ?
उ- गद्य के नाम पर पत्र ज़रूर लिखे इसके अलावा कभी कोई और गद्य लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुइ्र्र। यहाँ तक कि गीत या छन्द कविता की तरफदारी में भी बतौर सफाई के कुछ नहीं लिखा। ऐसा कोई दबाव ही महसूस नहीं हुआ।
प्र. आपके पत्रों की काफी चर्चा रही है।हिन्दी में बहुत कम लोग रहे हैं जिन्होंने इतनी तादाद में और इतने सारे साहित्य और साहित्य के बाहर के लोगों को पत्र लिखे हैं और आज भी लिख रहे हैं । इन पत्रों का अपना बिल्कुल एक अलग और अनौपचारिक लेकिन आत्मीय अन्दाज़ रहा हे। पत्र लेखन को क्या आप किसी क्षतिपूर्त्ति या कविकर्म के पूरक की तरह लेते है ?
उ- पत्र लेखन के लिए एक तरह से काफी बदनाम जैसा रहा हूँ। मुझे पत्र लेखन हमेशा आत्मीय संवाद का भले ही कई बार वह इकतरफा हो, भरोसेमन्द ज़रिया लगा है। यों ख़त पहले से लिखता आ रहा था। बीच में जब ग़ालिब के ख़त पढ़ने को मिले तब ख़त लिखने का एक तरह का तमीज़ मिला। डायरी मैंने कभी लिखी नहीं।लेकिन पत्र लेखन मेरे लिए हमेशा सब तरह की सम्भावनाओं वाला रहा। अनौपचारिक और एकदम खुला माध्यम!ख़ासकर उस सूरत में जब आप इस मुगालते या लालच में न हों कि आपके ख़त किसी ऐतिहासिक महत्त्व के नहीं होने जा रहे और वे छपने-वपने के लिए नहीं हैं! कई लोगों को ख़त भी छपाई के मोह या सम्भावना के चलते डायरी की ही तरह नाप-तोल कर और सम्भल-सम्भलकर लिखते पाया है। मैं ख़त अपनी इकतरफा संवाद की ज़रूरत के तहत लिखता रहा। ख़त मेरे लिए मेल-जोल बनाये रखने और अपने को बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त करते रहने का जरिया रहे हैं। टेलीफेन,मोबाइल आतंकित करने वाले दौर में भी ख़त मेरे लिए भरोसेमन्द माध्यम बने हुए हैं। हालाँकि, इधर लोगों ने ख़त लिखना तेजी से बन्द या कम कर दिया है। अब रही बात पत्र लेखन को किसी तरह की क्षतिपूर्त्ति या अपने कविकर्म के पूरक समझने की जैसा कि तुम कह रहे हो तो वैसा मुझे कभी लगा नहीं! मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि सिर्फ़ कविता में रहते मेरी किसी तरह की भावनात्मक या वैचारिक क्षति हुई है और जिसकी पूर्त्ति पत्र(गद्य) लेखन के जरिये की जानी चाहिए!
प्र. एक अन्तिम प्रश्न! बाज़ारवाद और पश्चिमीकरण के इस अन्धड़ में जब चीज़ें तेजी से बदल रही और अपनी पहचानें खोती जा रही हों और उनका अस्तित्व ही गहरे संकट में घिर गया हो तब आप कला एवं कविता की क्या भूमिका देखते हैं ?
उ- बाजारवाद, भूमण्डलीकरण के चलते बहुत सारी चीज़ें संकटग्रस्त तो हुई हैं। उनकी पहचानें तो ठीक बल्कि अस्तित्व भी संकट में पड़ा है। जहाँ तक कला या साहित्य की भूमिका और सम्भावना की बात है तो पहली बात, ये चीज़ें इधर अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इसके बावजूद यह भी लगता है कि हमारी अस्मिता से जुड़ी बहुत सारी चीजें अगर बचायी जा सकेंगीं तो कला और साहित्य की कोशिशों के जरिये ही ऐसा सम्भव हो सकेगा। दरअसल, बुनियादी सवाल मनुष्य और मनुष्यता को बचाने का है। कला और साहित्य की इस मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका बनती है।
00000---
प्रकाश कान्त
देवास (म.प्र.)
prak.kant@gmail.com
कवि नईम के साक्षात्कार की पहली किस्त नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/0-0-9-2008.html?m=0
कवि नईम से कहानीकार प्रकाश कान्त की बातचीत
( स्व. कवि नईम जी ने साक्षात्कार बहुत कम बल्कि एक तरह से नहीं बराबर दिये हैं। दरअसल वे अपनी रचना और रचनाकर्म पर अलग से बात करना ज़रूरी नहीं समझते थे। इससे बचते और ज़्यादातर साफ़ और सीधा इंकार कर देते थे। बुनियादी तौर पर वे भी ‘ बात बोलेगी,हम नहीं ’ में यकीन करते थे। उनका मानना था कि जो कुछ कहना हो, रचना खुद कहे, रचनाकार अलग से क्यों कहे! इसीलिए अपने काम को लेकर उनके कोई्र लम्बे-चौड़े बयान नहीं मिलते। ऐसे में उनका कोई लम्बा और व्यवस्थित साक्षात्कार लेना मुश्किल ही था। जानता था कि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। मना कर देंगे। बहरहाल, इसके लिए मुझे और गुड़िया ( डॉ0 समीरा नईम) को उन्हें लगभग घेरना पड़ा।बड़ी मुश्किल से तैयार हुए।लेकिन,एक बैठक में सीध आमने-सामने बैठकर यह साक्षात्कार सम्पन्न नहीं हुआ। बल्कि, 9 जनवरी,,2008 के गम्भीर रूप से बीमार पडने के पहले अलग- अलग मौकों पर हुई बातचीत में यह किया जा सका।कुछेक जवाब उन्होंने अपने ग़़ज़़ल संग्रह ‘ आदमक़द नहीं रहे लोग’ ( जो उनके गुजरने के बाद छपा ) की भूमिका के रूप में लिखकर दिये। वैसे, इसके पहले उन्होंने अपने किसी संग्रह की भूमिका वगैरह नहीं लिखी थी। ख़ैर, यह साक्षात्कार उनके कवि कर्म और रचनागत चिन्ताओं का खुलासा करता है। )
प्रकाश कांत |
दूसरी किस्त
प्र. नवगीत अपने मुहावरे में कई जगह अकविता और समकालीन कविता के मुहावरे के नज़्दीक नज़र आने लगता था। क्या ऐसा अपने-आप हुआ था या फिर अपने दौर की कविता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव के चलते हुआ ?
उ- हर दौर की कविता अपने आसपास की साहित्यिक हलचलों से प्रभावित होती है और आपसी लेन-देन भी करती है। यह स्वाभाविक है। नवगीत अगर अपने मुहावरे में कहीं-कहीं समकालीन कविता, अकविता के नज़दीक आने लगता था तो इसीलिए! आखिर किसी एक ख़ास दौर की कविता जो आकार लेती है उसमें बहुत कुछ साँझा होता है। इसलिए कुछ ख़ास तरह के एक जेसेपन भी देखने को मिल जाते हैं। मेरे खयाल से नवगीत के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा।
प्र. यह सही है कि भाषा के स्तर पर हिन्दी की बहुत सारी बोलियों के ज्ञात-अज्ञात शब्द जो समकालीन कविता से बाहर रह गये थे उन्हे नवगीत ने ’ कविता के शब्द ’ की तरह संस्कारित किया। यह बड़ा काम था। विषेषकर हिन्दी की आंचलिक भाषा सम्पदा को देख्रते हुए! क्या यह सब गीत में आंचलिक आग्रहों के कारण हुआ या फिर अपने-आप ?
उ - बिल्कुल! कविता के अकविता वाले या शहरी मुहावरे के कारण हिन्दी की बहुत सारी बोलियों का ज्ञात-अज्ञात शब्द भण्डार कविता से बाहर रह गया था। कविता का जो नागर या महानगरीय तेवर था उसमें ऐसा ज्यादातर हुआ था। जब कि हिन्दी की शक्ति का मूल स्रोत उसकी समृद्ध बोलियाँ रही हैं। ऐसे में नवगीत ने अपने लोक आग्रहों के चलते बोलियों के शब्दों को कविता में बहाल किया। जिससे कविता की आन्तरिक शक्ति बढी़। आंचलिक भाषा सम्पदा का नवगीतों के माध्यम से कविता में यह पुनर्वास बहुत कुछ रचना के अपने दबावों के कारण अपने-आप हुआ।
प्र. आप छन्द कविता के आग्रही रहे हैं जबकि अशोक वाजपेयी सहित कई कवि एवं आलोचक छन्द कविता की मृत्यु की सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं। वे वर्त्तमान भाव-बोध एवं वैचारिक उद्वेलन को व्यक्त करने में छन्द कविता को अपर्याप्त तथा अक्षम मानते हैं। छन्द कविता के ऐतिहासिक अवदान को स्वीकार करते हुए वे इसका कोई भविष्य नहीं देखते। आप क्या कहना चाहेंगे ?
उ - यह बहस काफी पुरानी हो चुकी है। सिर्फ़ बहस ही नहीं बल्कि छन्द सम्बन्धी घोषणाएँ भी! अशोक वाजपेयी के अलावा भी कई लोगों ने छन्द को लेकर इस तरह का बहुत कुछ कहा है। इस सिलसिले में इतना ही कहना चाहूँगा कि बहुत कुछ कवि की अपनी क्षमता पर निर्भर होता है।अगर क्षमता नहीं है तो कवि बेछन्द में भी अपनी बात नहीं कह पायेगा। और अगर है तो मुश्किल से मुश्किल बात भी छन्द में कह लेगा। हमारे सारे पुराने कवियों की कविता इसका प्रमाण है। पहले का जितना कुछ महान् है वह छन्द कविता में ही कहा गया है। और फिर जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूँ,असल चीज़ है कविता! कतई ज़रूरी नहीं कि छन्द में होने या न होने से कविता महान् हो जाये। कविता का प्रश्न अलग है, छन्द-बेछन्द होने का अलग!कविता दोनों रूपों में महान् होती आयी है। कहना-भर इतना है कि एक के आग्रह के चलते दूसरी को रद्द न किया जाये! जैसा कि इधर छन्द कविता के साथ हो रहा है। उसे पिछड़ी कविता कह कर हाशिये पर डाल दिया गया है। नुक़सान इससे अन्ततः कविता का ही हुआ है। मैं शुरू से छन्द के प्रति आग्रही रहा हूँ।कह नहीं सकता कि उसमें मुझसे कविता कितनी सम्भव हो सकी है! हालाँकि मैंने बेछन्द कविता को कभी खारिज़ नहीं किया। हिन्दी के कई बेछन्द कवि मेरे आदर्श रहे हैं।
प्र . कई लोगों ने गीत लिखना बाद में बन्द कर दिया या विधा बदल ली आप अभी तक लिख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे?
उ- हाँ, यह हुआ है। कई लोगों ने गीत लिखना बन्द कर दिया है या अपनी विधा बदल ली है। यह सब क्यों और कैसे हुआ है इस बारे में ठीक-ठीक तो वे लोग ही बता सकते हैं।मैं ज़रूर अभी तक लगा हुआ हूँ। जैसा कि तुम बता रहे हो, मेरे गीतों में काफी बदलाव भी आया है। खुद मुझे भी लगता है कि ये साठ-सित्तर के दशक के नवगीत आन्दोलन के उभारवाले दौर के गीत नहीं हैं। इनमें भीतर से बहुत कुछ बदला है। बल्कि मुझे यह बात मान लेने में कोई आपत्ति नहीं कि ये अपने ऊपरी फार्म-भर में गीत हैं।या यों कह लें कि ऐसी कविताएँ हैं जो मोटे और ऊपरी तौर पर गीत के फार्म में हैं।
प्र . यहीं एक बात और! गेयता किसी वक़्त गीत की प्राथमिक और अनिवार्य शर्त्त हुआ करती थी। बाद में नहीं रही। इसके बावजूद गीत किस तरह से गीत रहा?
उ- मैंने अभी कहा न कि जब गीत सिर्फ़ ऊपरी फार्म तक गीत रह गया-महज ढाँचा तब गेयता खुद ब खुद छूट गयी। रही बात गेयता की तो गाये जा सकनेवाले गीतों को अगर सिर्फ़ पढ़ा जाये तो वे तुकान्त गद्य से ज़्यादा कुछ नही लगते। ऐसा लगता है जैसे खालिस गद्य को लय या रिदम में ढाल दिया गया है।
प्र. आपने किसी वक़्त बड़ी तादाद में सॉनेट भी लिखे। हिन्दी में त्रिलोचन के अलावा इक्का-दुक्का लोगों ने ही इस फार्म का इस्तेमाल किया। हिन्दी में यह फार्म चला नहीं। त्रिलोचन द्वारा काफी हद तक उसका देशीकरण कर लिये जाने के बावजू़द! आप क्या सोचते है ?
उ - त्रिलोचन को पढ़ने के बाद ही मैंने सॉनेट लिखे। तुम ठीक कह रहे हो, सॉनेट जैसा फार्म हिन्दी में चला नहीं। यों भी वह अंग्रेज़ी से आया फार्म था।फार्म के स्तर पर हिन्दी-अंग्रेज़ी कविता में लेन-देन कम ही हुआ है।हिन्दी में अकेले त्रिलोचन ने इतनी बड़ी तादाद में सॉनेट लिखे हैं। अपने सॉनेट में उन्होंने कुछेक प्रयोग भी किये और उसका देशीकरण किया। मैंने सॉनेट ज़रूर लिखे लेकिन कम लिखे और कभी-कभार ही लिखे।
प्र. शम्भुनाथ सिंह या कन्हैयालाल नन्दन ने गीत-नवगीत के संकलन के क्षेत्र में काफ़ी बड़ा काम किया है। गीत-नवगीत की स्वीकृति के नज़रिये से इसे आप कितना उपयोगी मानते हें ?
उ - बेशक़ वह काफी बड़ा काम है। इससे गीत-नवगीत के मामले में कोई समग्र राय बनाने में मदद मिली है।इसके अलावा कुछ गैर ज़रूरी धुन्ध भी छँटी है।
प्र . सॉनेट के अलावा आपने बड़ी तादाद में ग़ज़लें भी लिखीं।अब भी लिख रहे हैं।दुष्यन्त कुमार के कारण इस फार्म को हिन्दी में स्वीकृति ओर शोहरत दोनों मिलीं।हालाँकि कुछेक पत्रिकाओं ने गीत की ही तरह ग़ज़ल छापने से परहेज़ किया। आपने इस फार्म को क्या गीत के विस्तार की तरह चुना? या यह लगा कि कोई बात विशेष गीत नहीं ग़ज़ल में ही बेहतर ढंग से कही जा सकती है?
उ - ग़ज़लें हिन्दी में दुष्यन्त के पहले भी लिखी गयीं हैं। लेकिन, उसे बड़े पैमाने पर लोकप्रियता और स्वीकृति दुष्यन्त ने दिलवायी। सित्तर के दशक में धर्मयुग और सारिका में छपी ग़ज़लों ने दुष्यन्त को रातों-रात स्टार बना दिया। मेरी तरह कई लोगों ने हिन्दी में दुष्यन्त के प्रभाव से ही ग़जलें लिखीं। एक वक्त तो हालत यह हो गयी थी कि हर चौथा-पाँचवाँ आदमी ग़ज़ल लिखनेवाला मिलने लगा। मैं छन्द का आदमी था। सो, ग़ज़ल कहना मेरे लिए थोड़ा-सा आसान रहा। इस फार्म से अच्छी तरह से परिचित होने के लिए देवनागरी में मीर,ग़ालिब सहित जो कुछ भी उपलब्ध था वह सब पढ़ डाला। मीर की सादगी और ग़ालिब की गहनता ने काफी प्रभावित किया। अपनी बात को ज़्यादा असरदार ढंग से सम्प्रेषणीय बनाने के लिए ग़ज़ल मुझे सुविधाजनक लगी। मैं फारसी लिपि और उसके पिंगल से नावाकिफ़ था।सिर्फ़ लयात्मकता के वज़न पर ग़ज़ल कह पाया। श्रोता और पाठक की सराहना मिलने पर मेरा इस मामले में भरोसा बढ़ा। गीत की तुलना में ग़ज़ल कहने या लिखने में एक ख़ास तरह की सहूलियत भी थी। इसमें एक ही केन्द्रीय भाव या खयाल पर पूरी रचना लिखने की बाध्यता नहीं थी। हर शेर नया भाव, नया खयाल लिया हो सकता था।
प्र. दुष्यन्त की वे ग़ज़लें ज़्यादा चर्चित हुई थीं और सराही गयी थीं जिनकी भाषा आम फ़हम या फिर उर्दू के ज़्यादा क़रीब थी। हिन्दी की तत्सम शब्दों वाली ग़ज़लें उतनी आकर्षित नहीं कर पायीं। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे ? क्या रचना अपने फा़र्म की ही तरह अपनी भाषा को भी चुनती है ?
उ- हाँ, यह तो हुआ है। आमफहम भाषा में लिखी गयी ग़ज़लें ज़्यादा सराही गयी हैं। यहाँ तक कि दुष्यन्त की भी हिन्दी की तत्सम शब्दावलियों वाली ग़ज़लें उतनी चर्चित नहीं हो पायीं। रही बात रचना के अपने फार्म की तरह अपनी भाषा को भी चुनने की तो यह बहुत कुद रचनाकार के मिजाज पर मुनहसिर करता है। साथ ही रचना के आन्तरिक दबाव पर!
प्र. आपने पिछले सालों काष्ठशिल्प में भी काम किया। आपके इस काम की मुम्बई-दिल्ली जैसे नगरों में प्रदर्शनी भी लगी। शब्द जैसे नाज़ुक माध्यम को छोड़कर या उसमें सक्रिय रहते हुए अचानक काष्ठ जेसे भिन्न और सख़्त माध्यम में काम करने लगना क्या अचानक हुआ ? हालाँकि, इस माध्यम में काम करना अक्षरशः श्रमसाध्य था!
उ - बिल्कुल, श्रमसाध्य था। शुद्ध रूप से शारीरिक श्रम!पत्थर हो या लकड़ी वे अपने बाहरी रूपाकार से आपको शुरू में थोड़ी-बहुत सहूलियत दे देते हैं जिससे आप अपने इच्छित-कल्पित रूपाकार तक पहुँच सकें! जहाँ तक काष्ठ षिल्प जैसे माध्यम में मेरे काम करने का सवाल है इस मामले में साफ कर दूँ कि इसके लिए मैंने अपने मूल शब्द माध्यम को छोड़ या स्थगित नहीं कर दिया। हाँ,जिन दिनों काष्ठ का काम कर रहा था उन दिनों पुराने माध्यम में काम करना थोड़ा धीमा ज़रूर हो गया। इस माध्यम में जाने का थोड़ा-बहुत ख़याल ‘डाइट’ का प्राचार्य रहते वक्त बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने वगैरह बनवाने से भी आया। इसके अलावा, बरसों से सन्तोष जड़िया और अन्य षिल्पकारों का काम देखता आ रहा था। उनसे भी प्रेरणा मिली।
प्र. आपके साथ के बहुत सारे कवियों ने गद्य लिखा है। आज भी कई कवि गद्य में भी लिख रहे हैं। क्या आपको कभी ऐसी ज़रूरत या दबाव महसूस नहीं हुआ ?
उ- गद्य के नाम पर पत्र ज़रूर लिखे इसके अलावा कभी कोई और गद्य लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुइ्र्र। यहाँ तक कि गीत या छन्द कविता की तरफदारी में भी बतौर सफाई के कुछ नहीं लिखा। ऐसा कोई दबाव ही महसूस नहीं हुआ।
प्र. आपके पत्रों की काफी चर्चा रही है।हिन्दी में बहुत कम लोग रहे हैं जिन्होंने इतनी तादाद में और इतने सारे साहित्य और साहित्य के बाहर के लोगों को पत्र लिखे हैं और आज भी लिख रहे हैं । इन पत्रों का अपना बिल्कुल एक अलग और अनौपचारिक लेकिन आत्मीय अन्दाज़ रहा हे। पत्र लेखन को क्या आप किसी क्षतिपूर्त्ति या कविकर्म के पूरक की तरह लेते है ?
उ- पत्र लेखन के लिए एक तरह से काफी बदनाम जैसा रहा हूँ। मुझे पत्र लेखन हमेशा आत्मीय संवाद का भले ही कई बार वह इकतरफा हो, भरोसेमन्द ज़रिया लगा है। यों ख़त पहले से लिखता आ रहा था। बीच में जब ग़ालिब के ख़त पढ़ने को मिले तब ख़त लिखने का एक तरह का तमीज़ मिला। डायरी मैंने कभी लिखी नहीं।लेकिन पत्र लेखन मेरे लिए हमेशा सब तरह की सम्भावनाओं वाला रहा। अनौपचारिक और एकदम खुला माध्यम!ख़ासकर उस सूरत में जब आप इस मुगालते या लालच में न हों कि आपके ख़त किसी ऐतिहासिक महत्त्व के नहीं होने जा रहे और वे छपने-वपने के लिए नहीं हैं! कई लोगों को ख़त भी छपाई के मोह या सम्भावना के चलते डायरी की ही तरह नाप-तोल कर और सम्भल-सम्भलकर लिखते पाया है। मैं ख़त अपनी इकतरफा संवाद की ज़रूरत के तहत लिखता रहा। ख़त मेरे लिए मेल-जोल बनाये रखने और अपने को बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त करते रहने का जरिया रहे हैं। टेलीफेन,मोबाइल आतंकित करने वाले दौर में भी ख़त मेरे लिए भरोसेमन्द माध्यम बने हुए हैं। हालाँकि, इधर लोगों ने ख़त लिखना तेजी से बन्द या कम कर दिया है। अब रही बात पत्र लेखन को किसी तरह की क्षतिपूर्त्ति या अपने कविकर्म के पूरक समझने की जैसा कि तुम कह रहे हो तो वैसा मुझे कभी लगा नहीं! मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि सिर्फ़ कविता में रहते मेरी किसी तरह की भावनात्मक या वैचारिक क्षति हुई है और जिसकी पूर्त्ति पत्र(गद्य) लेखन के जरिये की जानी चाहिए!
प्र. एक अन्तिम प्रश्न! बाज़ारवाद और पश्चिमीकरण के इस अन्धड़ में जब चीज़ें तेजी से बदल रही और अपनी पहचानें खोती जा रही हों और उनका अस्तित्व ही गहरे संकट में घिर गया हो तब आप कला एवं कविता की क्या भूमिका देखते हैं ?
नईम |
उ- बाजारवाद, भूमण्डलीकरण के चलते बहुत सारी चीज़ें संकटग्रस्त तो हुई हैं। उनकी पहचानें तो ठीक बल्कि अस्तित्व भी संकट में पड़ा है। जहाँ तक कला या साहित्य की भूमिका और सम्भावना की बात है तो पहली बात, ये चीज़ें इधर अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इसके बावजूद यह भी लगता है कि हमारी अस्मिता से जुड़ी बहुत सारी चीजें अगर बचायी जा सकेंगीं तो कला और साहित्य की कोशिशों के जरिये ही ऐसा सम्भव हो सकेगा। दरअसल, बुनियादी सवाल मनुष्य और मनुष्यता को बचाने का है। कला और साहित्य की इस मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका बनती है।
00000---
प्रकाश कान्त
देवास (म.प्र.)
prak.kant@gmail.com
कवि नईम के साक्षात्कार की पहली किस्त नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/0-0-9-2008.html?m=0
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें