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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 जून, 2018

मीडिया और समाज : चार

सूचना समाज की असंगत परिणति

संजीव कुमार जैन

हम जिस सूचना युग में फेंक दिये गये हैं, बगैर किसी आंतरिक सुसंगति के, उसमें मानव की आनुभविक सामाजिकता को तबाह कर दिया गया है। यह वह समाज है जिसमें सूचनाओं के तंत्र ने चेतना की संगति को विच्छिन्न कर दिया है। भूमंडलीय वृत्त में समय और सूचनाओं के बीच विसंगति का जो घालमेल पैदा किया गया है उसने मानव जीवन के संगत समय और चेतना के बीच की अन्विति को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हम अपने स्थानिक समय, परिवेश और सामाजिकता से जिस तरह काट दिये गये हैं, वह इस सूचना समाज की ही असंगत परिणति है। हमारी चेतना में अपने समय और परिवेश से यह अलगाव तो पैदा कर दिया गया, परंतु हमें इस भूमंडलीय वृत्त के किसी भी भौतिक-स्थान और समय की आंतरिकता से जुड़ने नहीं दिया जा रहा है। यह जो स्थिति है वह पूर्णतः असामाजिक, अनैतिहासिक व्यक्ति की उपस्थिति है, जिसकी कहीं कोई जड़ें नहीं हैं।


संजीव कुमार जैन

सूचना समाज या नेटवर्क सोसायटी एक पूर्णतः अमूर्त संकल्पना है। इसका कोई भी भौतिक अस्तित्व नहीं है। यह हमें अपने आंतरिक-तंत्र जो भौतिक परिवेश से गुंथा होता है, से उखाड़ तो रही है पर वि-(या सु) स्थापित नहीं कर पा रही है। सूचना समाज का कोई चेहरा नहीं है, आकार नहीं है, उसकी कोई अपनी निजी पहचान नहीं है, ऐसा इसलिये कि उसका भौतिक आधार नहीं है। यह समाज एक ऐसे अमूर्त नेटवर्क से जुड़ा है जिसके ‘तार’ जो न तो मूल्यपरक हैं न भौतिक अस्तित्वपरक हैं अतः इसमें नियंत्रण और विघटन के तत्व तो विद्यमान हैं परंतु संगति और मूल्यपरकता का नितांत अभाव है।
हम आज जिस समय में रह रहे हैं, वह गहन ‘पजलिंग’ परिवतर्नों का समय है, जो अपने औद्योगिक समय और समाज से बहुत अलग है। यह संदेहास्पद समय और समाज है जिसमें होेने वाले परिर्वतनों के हम उपभोक्ता मात्र हैं, न हम उनके होने में भागीदारी कर सकते हैं, न उन्हें रोकने में। सूचनाओं के उत्पादक और संचार के मालिकों द्वारा जो कुछ भी बदल दिया जाता है, हमें उसे स्वीकार्य करने की स्वतंत्रता है। तकनीकी भाषा में जिसे रिसीवर कहा जाता है, आज का व्यक्ति एक रिसीवर मात्र है। रिसीवरों का कोई समाज नहीं होता। वे साथ -साथ ‘स्टोर में’ रखे रह सकते हैं, पर वे एक सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं होते हैं।
अनावश्यक और गैरजरुरी सूचनाओं के अतिरेक और निरंतर के प्रवाह ने सामाजिकता के लिये जरूरी और अनवार्य ज्ञान को असंगत और अप्रसांगिक बना दिया है। अनावश्यक और गैर जरूरी सूचनाओं ने हमारे बीच भय का माहौल पैदा किया है। आज हर मनुष्य अनजाने डर को अपने आसपास महूसस करता है। अतः सूचना समाज एक भयाधारित समाज है। हम विश्वास और सदभावना की जगह शक और क्रूरता के वातावरण को महसूस करते हैं।

सूचना समाज या नेटवर्क सोसायटी ने ‘सामाजिकता’ और मानवीय जीवन की आंतरिक संगति की तबाही का मंजर रचा है। विसंगति यह है कि हमें इस तबाही को महसूस करने ही नहीं दिया जाता है और विडंबनापूर्ण तरीके से हम अपनी ही तबाही का जश्न मनाते देखे जा सकते हैं। जश्न मनाने के तौर तरीकों को गौर से देखो तो पता चलता है कि मानवीय चेतना किस हद तक विखंडित हो चुकी है कि उसे हजारों लाखों उसके जैसे ही मानवों की भूख और उत्पीड़न दिखाई नहीं देता, अपने उन्माद पूर्ण मनोरंजन और देह को सजाने के विलासितापूर्ण उत्पादों के समक्ष। भूख और खाद्य सामग्री की बर्बादी के दो बिल्कुल असंगत ध्रुवों के बीच यह सूचना समाज निर्मित है।

सूचना समाज एक क्रूरतापूर्ण समाज निर्मित कर रहा है। हिंसा का उत्सवीकरण, भूख का राजनैतिकीकरण, शोषण का संस्थानीकरण, चेतना के विध्वंस का बौद्धिकीकरण, ज्ञान और संवेदना का विखंडनीकरण सिर्फ और सिर्फ एक क्रूर समाज में ही चल सकता है। वस्तु और उपभोग की संगति को जिस अनुपात में माल और मुनाफे में बदल दिया गया है, उसी अनुपात में पूरी दुनिया में हिंसा और उत्पीड़न को बढ़ावा मिला है। संपूर्ण विश्व में करोड़ों व्यक्तियों की नृशंस हत्यायें पूँजी के राजनैतिकीकरण से प्राप्त लाभों के लिये की जाती रहीं हैं, और की जा रही हैं। इनमें स्त्रियाँ और बच्चे सर्वाधिक संख्या में हताहत हुए हैं। इन नरसंहारों के तमाम आकंड़े इसी ‘नेटवर्क’ पर उपलब्ध हैं, परंतु इन्हें कभी भी आईपीएल, फुटवाल विश्वकप, या विश्वसुंदरी प्रतियोगिताओं की तरह प्रवाहित नहीं किया जाता क्योंकि वे माल और मुनाफे की संगति के खिलाफ जाते हैं, और सूचनाओं द्वारा नियंत्रित और संचालित समाज इतना पंगु है कि वह कभी भी इनकी गहराई में जाने की जरूरत नहीं समझता बल्कि इन्हें देखने को अभी अनावश्यक और हिकारत भरा कर्म समझता है। इससे अधिक और क्रूर समाज नहीं रचा जा सकता।
वियतनाम में लाखों लोगों की नृशंसतापूर्ण हत्यायें की गईं, तो हमारा उनसे क्या लेना-देना, लेबनान, अफगानिस्तान, ईराक और फिल्स्तिीन में बेकसूर लोगों को सिर्फ इसलिये मारा गया कि एक ‘सूचना सम्राट’ के पास उनके खिलाफ इस बात की (सबूत नहीं) सूचनायें थी कि वे ‘सूचना सम्राट’ की ताकत को चुनौती दे सकने लायक कुछ हथियार एकत्र कर रहे हैं, और सूचना सम्राट को अपने आत्मरक्षा के अधिकार के तहत उन्हें तबाह कर देने का अधिकार है। हम इस सूचना सम्राट के झकास-घर पर चरणवंदन करते हैं। हमें मरने वालों से क्या लेना-देना, हमें तो सूचनायें निरंतर मिलनी चाहिये बस, मनोरंजन के साधन और पूँजी का प्रवाह निर्वाध गति से हमारी ओर आते रहने चाहिये। शक-आधरित हत्याओं के कई मंजर हमने अपने आसपास भी पिछले वर्षों में महसूस किये हैं और इन ‘शक’ वाली सूचनाओं का कोई आधार नहीं होता, पर उन्हें अंजाम दे दिया दिया जाता है। एक व्यापक हिंसा के दृश्य एक भयवीत समाज को पैदा करते हैं। हिंसा एक तकनीक है व्यापक जनसमूह को अपने नियंत्रण में रखकर मुनाफा कमाने की जिसे पूँजी आधारित तंत्रों में प्रायः ही प्रयोग किया जाता है।

सूचना द्वारा नियंत्रित समाज एक पराधीन और दास समाज होता है, इस समाज में स्वतंत्रता एक खोखला शब्द भर होता है, जो ताकतवर और वर्चस्वीवर्ग के हितों को और उनकी ऐयाशियों को जायज ठहराने के काम आता है। कानून और कानून बनाने वाले, उनका पालन करवाने वाले और कानून के रक्षक सब के सूत्र मूलतः पूँजी के हितों की रक्षा के साधनों और लक्ष्यों से नाभिनालबद्ध होते हैं। जनहित तब ही तक उनके ऐजेंडे में होते हैं, जब तक वे सीधे-सीधे पूँजी और पूँजीपतियों को चूनौती न दे रहे हों। जैसे ही जनता के हित पूँजी के हितों के लिये खतरा बनने लगते हैं, तंत्र उनके साथ हिंसापूर्ण तरीके से निपटने लगता है और सूचनायें जनता के प्रतिरोध आंदोलन को कानून के दायरों से बाहर जाने का तर्क देकर उस हिंसा को जायज ठहराने लगती हैं, या उस हिंसा को अदृश्य कर देती हैं। जनसंहार को अप्रसांगिक बनाकर अदृश्य कर देना सूचना समाज की बड़ी तकनीक है। चूँकि सूचनाओं के आका यह जानते हैं कि ‘जनता शीघ्र ही भूल जाने की आदत का शिकार है, जब तक उसे याद नहीं दिलाया जाये वह इस तरह की चीजों पर प्रतिक्रिया नहीं करती’, इसलिये जनहित वाली सूचनायें जो पूँजी के खिलाफ जाती हैं, सूचनातंत्र से प्रायः गायब रहती हैं, या उनकी दिशा को बदल दिया जाता है।
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मीडिया और समाज: तीन नीचे लिंक पर पढ़िए

मैकाले, मीडिया और समाज

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