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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 जुलाई, 2018



समलैंगिक और थर्ड जेंडर :

सहानुभूति के साथ स्वीकृति की जरूरत 

सुधा अरोड़ा



सुधा अरोड़ा 



प्रकृति सबसे बड़ी सर्जक और निर्माता है। यह प्रकृति हमें बेहद खूबसूरत फल और फूल, पक्षी और पशु , नदी और झरने, समुद्र और पहाड़ देती है और इसकी सबसे अनोखी रचना है-मनुष्य  

एक से एक अद्वितीय अंग हैं हमारे पास। आंखों से हम प्रकृति की सुंदरता देखते हैं, कानों से झरने का गुंजार सुनते हैं, पेड़ों पर लगे फल और सब्जियों का स्वाद चखते हैं। कई बार फल और सब्जियों के भी अजीब से आकार हम देखते हैं। प्रकृति के हर सृजन में कई बार अजीबोगरीब आकृतियां और रूप दिखाई देते हैं । स्त्रियों में प्रजनन की अद्भुत क्षमता है और अपने ही रक्त, मांस से वह एक और शिशु को जन्म देती है पर यह भी प्रकृति की ही देन है कि कई बार उस शिशु के अंगों में कुछ ऐसे मिश्रण हो जाते हैं कि उसका सिर ज़रूरत से ज्यादा बड़ा हो जाता है, कभी पेट के अंगों का स्थान बदल जाता है, किसी भी अंग में कोई विकृति आ जाती है, कई बार वह नर या मादा न रहकर कुछ और ही हो जाता है और इसका पता भी 12-13 साल की उम्र में बहुत देर से चलता है, जब उसमें लिंगगत विभिन्नताएं उभरने लगती हैं। इस विषमता या विकृति का ज़िम्मेदार ज़ाहिर है, वह बच्चा नहीं है और न ही उसकी मां है।

एक मां को यह मालूम ही नहीं होता कि उसके भीतर क्या और कैसा आकार पनप रहा है। वह सामान्य और स्वस्थ है या असामान्य। यह प्रकृति की विडम्बना है लेकिन समाज उस असामान्य अंग लेकर पैदा हुए बच्चे को ताउम्र इस विकृति की सज़ा देता है। 

सच तो यह है कि प्रकृति की थोड़ी सी भिन्न संरचना को हमने कभी स्वीकृति नहीं दी । अगर यह पता चल जाता कि फलाने घर में असामान्य बच्चा पैदा हुआ है तो बजाय उसके प्रति एक सहानुभूति के हम उसे तिरस्कार या उपेक्षा की नज़रों से ही देखते रहे। यही वजह है कि किन्नर को हमने ताली पीटने वाले और बच्चे के जन्म और शादी पर नाचने गाने वाले हिजड़े मानकर उन्हें कभी बराबरी का हकदार नहीं समझा और उनके प्रति सामान्य आचरण नहीं रखा। प्रकृति का हर सामान्य व्यक्ति खुद को इन भिन्न अंग वाले लोगों से श्रेष्ट  और इन्हें कमतर मानता रहा।

समाज में यह प्रवृत्ति शताब्दियों से है। अरसे तक मानसिक रोगियों को विक्षिप्त की श्रेणी में शुमार किया जाता था। मानसिक अस्वस्थता को पागलपन कहकर उसका मखौल उड़ाया जाता था। पोलियोग्रस्त या अंगविच्छेद से क्षतिग्रस्त व्यक्ति को अपाहिज कहने में कोई संकोच नहीं बरता जाता था और विकलांगों को डिसएबल्ड कहा जाता था। 

अब उन्हें डिफरेंटली एबल्ड कहा जाता है। आज समय बदला है और एक मानवीय द्रष्टि पनप रही है। धीरे धीरे हमने यह समझा कि मानसिक अस्वस्थता के रोगी को शारीरिक रोगों से कहीं ज्यादा गंभीरता और संवेदनशीलता से हैंडल करने की जरूरत है।
मानसिक रोग को अब दबाया छिपाया नहीं जाता, उनके लिये बाकायदा अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति है।

हमारी इसी मानसिकता का शिकार  ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें प्रकृति ने न पूरी तरह स्त्री बनाया और न पुरुष  । क्या हमारे सामान्य समाज में उन्हें जीने का हक नहीं । अपने अधिकारों के लिये एक लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार 15 अप्रैल 2014 को एक ऐतिहासिक फैसला आया जिसने किन्नर समाज को स्वीकृति दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रेखांकित किया कि सरकारी दस्तावेजों में अब महिला और पुरुष के साथ-साथ एक कॉलम थर्ड जेंडर या किन्नर का भी हो।

किन्नरों को सामाजिक और शिक्षा के स्तर पर पिछड़े हुए वर्ग की तरह सारी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं। कोर्ट ने अपने फैसले में किन्नरों को उन सभी न्यायिक और संवैधानिक अधिकार देने की बात कही जो देश के आम नागरिकों को मिले हुए हैं। किन्नर समाज इस फैसले को लेकर उत्साहित है। ऐसा पहली बार हुआ है कि उन्हें शादी करने, तलाक देने, बच्चा गोद लेने सहित केंद्र और राज्यों की ओर से चलाई जाने वाली सभी स्वास्थ्य व कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। 

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 19 के तहत उन्हें वैयक्तिक स्वतंत्रता के सभी अधिकार हासिल होंगे और केंद्र और राज्य सरकार का यह दायित्व होगा कि उनके अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जा सके।

अब समलैंगिकता के मसले पर आयें। समलैंगिक होना भी अपराध नहीं, एक प्रवृति है, जिसे समाज से हमेशा छिपाया जाता है। यह भी प्रकृतिगत एक संरचना है जिसमें मादा अंग लेकर पैदा हुआ एक बच्चा जब बड़ा होता है तो अपने में स्त्रियोचित गुण न पाकर अपने को पुरुष की बनावट और मानसिकता में देखता है और पुरुष अंग लेकर पैदा हुआ एक बच्चा अपनी युवावस्था में आने पर अपनी आवाज़ में तब्दीली महसूस नहीं करता और अपने को लड़कियों की मानसिकता में पाता है और पुरुषों की ओर आकर्शित होता है। यहां भावना का स्थान दैहिकता से कम नहीं है।

समलैंगिकता के खिलाफ भारतीय संविधान की धारा 377 हटाने की जब बात की गई तो कई प्रतिष्ठित हस्तियों ने अपनी असहमति जताई। कई मंचों से इसके खिलाफ कहा गया कि यह अप्राकृतिक आचरण है, इसलिये इसे कानूनी सहमति नहीं दी जानी चाहिये। लेकिन ये लोग नहीं जानते कि विवाह जैसे कानून सम्मत और वैध माने जाने वाले प्राकृतिक सम्बन्धों में भी कितने अप्राकृतिक आचरण किये जाते हैं जहां पत्नियां कुछ बोल भी नहीं पातीं और आजीवन एक असुरक्षित और दहशतज़दा जिन्दगी जीती हैं।






पूरे विश्व में समलैंगिकता के सवाल आज सिर उठा रहे हैं और समलैंगिकों के आंकड़ों में बढोतरी हो रही है ! समलैंगिकता प्राकृतिक और जन्मना प्रवृति हो सकती है लेकिन सामाजिक बदलावों के कारण वह एक अर्जित प्रवृति भी है । पश्चिम में कई गे और होमो प्रवृति  के लड़कों ने यह कहा कि आज लड़कियों में फेमिनिटी कहां बची है ? हमारी मां और दादी में जो एक स्त्रियोचित कोमलता और नमी थी , उसके बरक्स आज की लड़कियों में तो लड़कीपनही नहीं है । ऐसी लड़केनुमा लड़की के साथ ज़िन्दगी बिताने को हम अभिषप्त क्यों हो ?

जब दो अच्छे दोस्त एक दूसरे का साथ पसंद करते हैं, भावनात्मक रूप से एक दूसरे से जुड़े रह सकते हैं तो क्या सिर्फ दैहिक संबंध बनाने के लिये वे एक विपरीत सेक्स के पास जायें जबकि दैहिक संबंध बिना भावना के संभव ही नहीं है ।

न्यूयॉर्क के एलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. चार्ल्स सोकाराइड्स ने कई दषक पहले कहा था कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को पैथालॉजिकल बताती है. इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता. अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डॉ. चार्ल्स अपनी पुस्तक होमोसेक्सुअल्टी : फ्रीडम टू फॉरमें अपना वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 

‘‘ अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति’  बस यूँ ही हवा में नहीं गूँजने लगी , बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की मानववादके नाम पर शुरू की गई वकालत का परिणाम था, जिनमें से अधिकांश स्वयं भी समलैंगिक ही थे । ये लोग ट्राय एनीथिंग सेक्सुअलके नाम पर शुरू की गई यौनिक-अराजकता को , नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध दिए जा रहे एक मुँहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे ।

पश्चिम में , जब पुरुष की बराबरी को मुहिम के तहत स्त्री मर्दाना बनने के नाम पर , अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक पुरुषवत या पौरुषेयहोने लगी कि जिसके चलते उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा । नतीजा , स्त्री की जो स्त्रैण-छविपुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी , उसका लोप होने लगा । वेशभूषा की भिन्नता के जरिए , किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखाई देता था, वह धूमिल हो गया ।  इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में इमदाद की, जिसने अंततः उन्हें समलैंगिकता की ओर हाँक दिया । ’’

डॉ. चार्ल्स की यह स्थापना तीसेक साल पहले की है जहां वह इसे रोग की संज्ञा देते हैं . आज इन्हें रोगियों की तरह नहीं देखा जाता . न ही इन समलैंगिकों के भीतर इस प्रवृत्ति को लेकर कोई अपराध बोध है।

2009 में जब मैं अमेरिका के सॉगाटक बीच पर गई, मैंने वहां हज़ारों की संख्या में गेपुरुशों का जमावड़ा देखा ! वे ठहाके लगा रहे थे, गाना गा रहे थे, एक दूसरे को गोद में उठा रहे थे, गले मिल रहे थे, पीठ पर प्यार से मुक्के जमा रहे थे गरज यह कि सामाजिक स्वीकृति के कारण वे बेहद सहज और बेपरवाह थे! मुझे वह द्रश्य हैरत में डाल रहा था ।

भारत में हम ऐसे किसी सामूहिक दृष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। भारत में आज भी इसे एक ग्रंथि, एक टैबू के रूप में देखा जाता है। यह कितना बड़ा पाखंड है कि माता-पिता यह जानते हुए भी कि उनका बेटा समलैंगिक है,उसके जीवन की यह सच्चाई छिपाते हुए, उसके लिये आर्थिक रूप से अपने से नीची हैसियत वाले परिवार की बेटी को बहू बनाकर ले आते हैं और वह लड़की भी ताउम्र इस राज़ को अपने भीतर दफन कर पतिव्रता स्त्री का रोल निभाती चली जाती है। इसके पीछे सामाजिक स्वीकृति का न होना ही एक प्रमुख कारण है। कभी यह राज खुल जाता है और मां-बाप को इसके लिये जब दोषी  ठहराया जाता है तो वे कहते हैं कि हमने तो यह सोचा था कि हमारा बेटा शादी  के बाद सुधरजाएगा। दूसरे घर से आयी बेटियों को वे इत्मीनान से सुधार-गृहसमझ लेते हैं। कभी उनमें अपराधबोध नहीं जागता कि वे एक कम साधन संपन्न, दबे हुए परिवार की बेटी को भौतिक सुख सुविधायें देकर उसकी कितनी बड़ी कीमत वसूल रहे हैं और एक लडकी को मंगलसूत्र पहनाकर उससे एक सामान्य ज़िंदगी जीने का अधिकार छीन रहे हैं!

समलैंगिक सम्बन्धों को ग्रंथि बना देने के कारण हमारे समाज में ऐसे संबंधों के दुष्चक्र में पिसने वाली सैकड़ों महिलायें अपनी तकलीफ़ बयान नहीं कर पातीं . काउंसिलिंग के दौरान का अपना एक अनुभव शेयर करना चाहती हूं । एक उच्चमध्यवर्ग की महिला , जिसके पति एक मल्टी नेशनल कंपनी के चेअरमैन थे , अपनी प्रताड़ना का मामला लेकर सामने आई. उसने बताया कि जब-तब उसे घर से बाहर धकेल दिया जाता है. उसने अपने घर की सीढ़ियों पर बैठकर सारी रात काटी है . एक बार उसके पति ने उसपर पेपरवेट उठाकर फेंका, निशाना चूक गया वर्ना उसका सिर फट जाता | अपने जीवन के ये अनुभव उसने कई दिनों के सेशन के बाद साझा किये. पहले तो वह धुआंधार रोती ही रही . उसकी बात सुनने के बाद हमने उसके पति से संपर्क किया कि आप आकर अपना पक्ष रखना चाहें तो हमें अच्छा लगेगा . उसके अफसर पति आये . बेहद शालीन और संभ्रांत . आमतौर पर प्रताड़ना से जूझ रही महिलाओं के पति लाख बुलाने पर भी न आते हैं , न फोन पर बात करने को तैयार होते हैं . उनका हमारे संगठन तक आना ही हमें इंप्रेस करने के लिये काफी था।

कहने लगे - देखिये , सारा दिन मैं अपने दफ्तर में व्यस्त रहता हूं . घर लौटकर बस एक खिला हुआ चेहरा , अच्छा खाना और कभी कभार रात को पत्नी का साथ तो चाहूंगा ही , वह भी अगर यह न दे पाये तो मैं वेश्याओं के पास तो नहीं जाना चाहता कि एड्स लेकर लौटूं . उनकी बेबाकी और साफगोई ज़ाहिर थी . बातें और भी कई मुद्दों पर हुईं पर दूसरी बार जब हमने उनकी पत्नी से सवाल पूछे तो दोबारा उसका धुंआधार रोना शुरू हो गया ।

उसके आंसुओं से हम आजिज़ आ गये . हमारे कई बार उकसाने पर उसने बताया कि उसके पति उससे हमेशा  अप्राकृतिक सेक्स ही चाहते हैं . वे शुरुआत ही खजुराहो की मुद्रा से करते हैं और वह अपनी उबकाई रोक नहीं पातीं . रात आने से पहले ही उनके पूरे जिस्म पर दहशत तारी हो जाती है और वह कांपने लगती हैं . उन्होंने कभी सेक्स को एक सुख की तरह नहीं भोगा . हमने उनसे पूछा कि क्या अपनी यह आपत्ति पति के सामने उन्होंने दर्ज की ? उन्होंने कहा - इतना साहस मुझमें नहीं रहा कभी , मैं कभी उनसे किसी भी बात पर असहमति नहीं जता सकती, वे आगबबूला हो जाते हैं।       
           
बहरहाल , वह उस पीढ़ी की थीं जो आज ऑब्सोलीट हो गई है. आज की लड़कियां शायद इतना लंबा अरसा ऐसी दहशत बर्दाश्त न करें !

कई स्त्रियां यह भी कहती पाई जाती हैं कि जब उन्हें वैवाहिक संबंधों में एक पुरुष से अप्राकृतिक सेक्स और भावनाविहीन पशुवत बलात्कार ही झेलना है तो वह क्यों न अपनी मित्र के साथ एक प्रेम के रिश्तें  में रहे . अगर एक पुरुष पति अपनी पत्नी के साथ जबरन अप्राकृतिक सेक्स करता है तो दो स्त्रियों के भावनात्मक और तथाकथित अप्राकृतिक दैहिक संबंधों से किसी को क्या आपत्ति  हो सकती है ? लेस्बियन होना प्राकृतिक और जन्मना प्रवृत्ति  भी है और अपने माहौल की निर्मिति भी !

एक चिरंतन समस्या यहां भी है। समाज के हर वर्ग में जैसे दो पक्ष अनिवार्य रूप से होते हैं, समलैंगिकों में भी कुछ स्त्रियां ऐसी भी होती हैं जो औरतबाज पुरुषों  से कहीं ज्यादा वीमेनाइज़र होती हैं। यूज़ एंड थ्रोका मसला यहां भी भयावह है । कुछ समलिंगी पुरुष भी मर्दखोर औरतों की तरह ही मर्दखोर होते हैं। इन समलैंगिकों में भी चरित्रगत वैसी ही कमज़ोरी देखी जा सकती है जैसी अन्य सामान्य पुरुश-स्त्रियों में । इन्हें उसी नज़र से देखा जाना चाहिये , जिस नजर से हम लंपट औरतबाज़ पुरुषों या मर्दखोर औरतों को देखते हैं क्योंकि सामान्य संबंध की तरह समलिंगी संबंधों में भी एकनिश्ठता एक अनिवार्य गुण है। इस गुण के अभाव में यहां भी अलगाव और मनमुटाव होते हैं। 

आज के बदले हुए माहौल में विपरीत सेक्स वाले दो व्यक्ति ही विवाह के बंधन में बंध सकते हैं, यह अवधारणा दम तोड़ रही है क्योंकि विवाह अंततः बंधन ही बनकर रह जाता है और भावना विहीन बंधन बहुत लंबे समय तक चल नहीं पाता । पूरी तरह टूट कर भी घिसटता रहे तो बात अलग है और यही होता भी है। भारत में अधिकांश  वैवाहिक रिश्तें अपना आकर्षण खोकर, एक आदत और पारिवारिक सामाजिक दबाव के तहत, एक मुखौटा लगाकर, एक छत के नीचे रहते चले जाने का अभ्यास बनकर रह जाते हैं।  

पश्चिम में स्थितियां बदल रही हैं। अमेरिका प्रवास के दौरान शिकागो में एक शाम हम घूमने निकले तो देखा, कुछ दूरी पर हर लैम्पपोस्ट पर इंद्रधनुषी रंग वाले झंडे सड़क के दोनों ओर लटक रहे हैं। मैंने अपने दामाद से पूछा - यह किस देश का फ्लैग है और यहां क्यों डिस्प्ले किया जा रहा है। मेरे दामाद ने बताया कि यह इलाका बॉयज टाउन (ठवले ज्वूद) कहलाता है - गे और लेस्बियन फ्रेंडली इलाका!  रेनबो फ्लैग उनका साइन है! हम जहां रहते हैं, वहां भी आप बगल वाली बिल्डिंग में छत पर यह रेनबो फ्रलैग देख सकते हैं। मैंने कहा - यह तो एक तरह से उन्हें आउट कास्ट कर देना हुआ जैसे भारत में दलितों के लिये शहर से बाहर बस्तियां बसाई जाती थीं। उसने समझाया - ऐसा नहीं है। अब भी एक आम अमरीकी नागरिक समलैंगिकों को नीची निगाह से ही देखता है। कानून बेशक बन गया हो पर सामाजिक स्वीकृति बहुत स्वाभाविक न होकर एक दबाव की वज़ह से है। हर व्यक्ति अपने रोज़मर्रा के जीवन में एक स्वाभाविक आज़ादी तो चाहता ही है। गे या लेस्बियन ऐसी जगहों में रहकर महसूस करते हैं कि वे अपने कम्फर्ट जोन में हैं।






इन स्थितियों को देखते हुए समझा जा सकता है कि समलैंगिकों और किन्नरों को समाज की सहानुभूति से ज्यादा सहमति और स्वीकृति की जरूरत है, उपेक्षा या उपहास की नहीं। यह कोई समस्या नहीं है पर समाज में इसे एक अप्राकृतिक संबंध मानकर और दबा छिपा कर समस्या बना दिया गया है । किन्नरों के प्रति अगर हमारा समाज सहानुभूति रख सकता है तो समलैंगिकों के प्रति क्यों नहीं ? कानून या समाज को यह हक उनसे छीनने का कोई कारण नहीं है। उन्हें भी एक आम नागरिक की तरह जीने का अधिकार है।

पुनश्च

समलैंगिक संबंधों को अब अमेरिका के कई राज्यों में कानूनी स्वीकृति मिल चुकी है. सहजीवन बिताने वाली दो स्त्रियों को एक साथ एक परिवार की तरह देखा जाता है और उन्हें कानूनन बच्चे गोद लेकर परिवार बनाने का भी हक मिला है .
पश्चिम की एक कवियित्री एलेन बास अपने को घोशित रूप से लेस्बियन कहती हैं। एक साक्षात्कार में उसने कहा - ‘‘ साहित्य ने मुझे औरतों के बीच रहने की इच्छा जगाई ! मेरी दिलचस्पी वह सब सुनने में थी जो इन लेखिकाओं ने औरतों की जिंदगी के बारे में वह कहा , जिसे पहले कभी कहा नहीं गया .’’ 

एक अन्य चर्चित कवियित्री म्यूरिअल रुकेस ने कहा - ‘‘ सोचो , क्या होगा अगर एक औरत अपनी जिंदगी का सच बयान करने लगे , पूरी दुनिया में हड़कंप मच जाएगा ! यह दुनिया खुल कर बिखर जाएगी ! द वर्ल्ड वुड स्प्लि्ट ओपन ! ’’

एलेन बास की एक चर्चित प्रसंशित कविता का अनुवाद प्रस्तुत है -

‘‘ जिन्दगी तो प्यार मांगती है तब भी

जब आपके पास देने को कुछ बचा न हो

जो कुछ था , वह जले कागज की तरह

भुरभुराकर गिर जाए उंगलियों से

उसके धुंए से आपका गला रुंध जाए

और तपन से हवा भारी हो गई हो

दुख घना होकर भीतर पसरा हो

और उस दुख का वजन

आपके अपने वजन से ज्यादा हो

आप सोचने पर मजबूर हो जाएं

कि अब इसे उठायें तो कैसे.....
.
तब आप अपनी कमजोर हथेलियों में

अपने फीके मुरझाये चेहरे की तरह

थाम लेते हैं जिन्दगी को

चेहरे पर मुस्कान और आंखों में चमक भले न हो 
,
पर आप कहते हैं - आओ मेरे पास

हां, जिन्दगी ! मैं फिर से तुम्हें प्यार करूं ! ’’ ’                                        

 म्यूरिअल रुकेस


संपर्क:

सुधा अरोड़ा
मोबाइल: 9757494505

3 टिप्‍पणियां:

  1. मित्रों,
    रचना पढ़ने के बाद मुझे उसके बारे में बताने से बेहतर होगा कि यहीं अपनी राय ज़ाहिर करें, ताकि रचनाकार भी आपकी राय जान सकें।

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  2. निश्चय ही रचना मानवीय संबंधों की तीसरी लेयर को उजागर करती है।खुल कर स्वीकारने के लिए हिम्मत चाहिए।डर है समाज कही दो हिस्सो में न बंट जाए।औरत का अलग और पुरुषों का अलग।बच्चे ?

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  3. Ek Maa kee nazar se Aapne tathyon ko dekha...unka paksha liya...Aapkee nirbheekta ko Pranam

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