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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 जुलाई, 2018

मीडिया और समाज : सात

ज्ञान और चेतना के बीच खाई को बढ़ाते संचार माध्यम

संजीव जैन


आधुनिक संचार माध्यमों ने ज्ञान के जिस असीम खजाने को खोलने का दावा किया है और खोला भी है, उस ज्ञान और मानव चेतना के बीच एक बहुत बड़ी और गहरी खाई पैदा हो गई है। इस बात को सहज तरीके से नहीं लिया जाना चाहिए। ज्ञान और चेतना मानवीय अस्तित्व के ऐसे आयाम हैं जो पूरे ब्रह्मांड में सिर्फ मनुष्य को सचेतन प्राणी बनाते हैं। इस ब्रह्माण्ड के होने का बोध सिर्फ मनुष्य के पास है। मनुष्य अपने ज्ञान और चेतना जिसे संवेदना भी कहा जा सकता है, के कारण इस भौतिक विश्व को मानवीय विश्व बनाता आ रहा है। चेतना को अनुभव और ज्ञान की संयुक्त कार्यवाही कहा जा सकता है। जब ज्ञान और संवेदना को दो अलग चीजों की तरह विकसित किया जाता है तो चेतना और भौतिक विश्व के बीच की तार्किक अन्विति विच्छिन्न हो जाती है। इससे आंतरिक संगति के विखंडन का खतरा पैदा होने लगता है।

संजीव जैन


इस संदर्भ में हम ज्ञान के तकनीकी विकास और तकनीक आधारित ज्ञान की शाखाओं के साथ मानवीय चेतना या अनुभवों के संसार को जब देखते हैं तो एक बड़ी खाई दोनों के बीच नजर आती है।
ज्ञान का विस्तार बहुत है पर चेतना का संकुचन होता जा रहा है। सूचना समाज और संचार माध्यम जिस ज्ञान को परोस रहे हैं उससे मस्तिष्क को कबाड़ख़ाने की तरह भरा जा रहा है। संवेदनात्मक संवेदनों को न तो ग्रहण कर पा रहा है और न विस्तार कर पा रहा है। ज्ञान की प्रक्रिया संवेदनग्रंथियों को सक्रिय करती है जिससे मानव भौतिक विश्व से और अपने से बाहर के अन्य सचेतन प्राणियों से एक मानवीय संबंध कायम करता है। परंतु आज जो सूचना और ज्ञान को एक यांत्रिक प्रक्रिया बनाकर पेश किया जा रहा है तो मानवीय चेतना के संबंध बनाने की संवेदनशील प्रक्रिया बाधित होने लगी है। चेतना के इस विध्वंस के नतीजे हम रोज ही समाचार पत्रों और संचार माध्यमों में देख सुन रहे हैं। निरंतर पाश्विक बलात्कार और हिंसक घटनाएं हमारे ज्ञान तंतुओं तक पहुंच कर रुक जाती हैं, वे हमारी संवेदनशीलता की प्रक्रिया तक नहीं पहुंच पातीं है। संचार माध्यमों में इनकी प्रस्तुति इतनी यांत्रिक क्षणिक और कृत्रिम उत्तेजना परक होती है कि मानव की संवेदनशील ग्रंथियों तक पहुंचने से पहले ही वे दम तोड़ देती हैं।
यांत्रिक ज्ञान के बरक्स जिस पर एक विशिष्ट वर्ग का वर्चस्व है, मानवीय संवेदना को वे घटनाएं प्रभावित कर रही हैं या विघटित कर रहीं जिनके कारण मानवीय विवेक और समझ विखंडित हो रहा है। ज्ञान का संपर्क जब चेतना से कट गया तो साहित्य का स्थान मनोरंजन ले लेता है, कला का स्थान कला का व्यापार ले लेता है, संस्कृति का स्थान मासकल्चर ले लेता है और खेल ताकत का पर्याय बन जाता है। राजनीति का अपराधीकरण होता रहता है और परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार का संस्थानीकरण हो जाता है और इस सबको व्यापक वैधता मिलने लगती है। यह चेतना के विध्वंस के बिना संभव नहीं है।
संचार माध्यमों ने तमाम असंगतियों को वैधता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जन चेतना के समक्ष लगातार असंगतियों को परोसा जाता है चटपटी मसालेदार सूचनाओं के माध्यम से। इससे होता यह है कि जन चेतना यह समझने लगती है कि यह सब तो रोज ही होता है और यह कोई असामान्य बात नहीं है, चूंकि ये माध्यम विश्लेषण परक सूचनाएं प्रदान करते हैं जिससे आलोचनात्मक चेतना कुंद होती जाती है और संवेदनहीनता की परत निरंतर चेतना पर जमती जाती है।
संचार माध्यम ज्ञान की स्वाभाविक भूख को खत्म कर रहे हैं। सहज स्वाभाविक विमर्श की जगह कृत्रिम और आयोजित विमर्श और आवश्यकता अनुसार खोजी जाने वाली जानकारियों की जगह अनवरत सूचना और ज्ञान का प्रवाह ज्ञान और संवेदना की आंतरिक अन्विति को अनर्गलता में तब्दील कर देते हैं। ज्ञान मानवीय जीवन की आंतरिक अभिवृत्तियों से पैदा होना चाहिए। इस तरह ज्ञान और चेतना की आंतरिक अन्विति बनी रहती थी। अब चूंकि ज्ञान ऊपर से भरा जा रहा है या चेतना पर उड़ेला जा रहा है तो चेतना अ-चेतना में बदलने लगी है।

ज्ञान का ऊपर से उड़ेला जाना मूलतः ज्ञान के उपभोग पर जोर देता है। ज्ञान का माल की तरह का उत्पादन और उपभोग के लिए उपभोक्ता तक पहुंचाया जाता है। इस तरह ज्ञान के वस्तु की तरह उपभोग पर जोर देना ज्ञान की जड़ अवस्था तक ले जाता है। इससे ज्ञान एक पाश्विक उपभोग की अवस्था तक पहुंच जाता है। मनुष्य की चेतना का उसके ज्ञान से संबंध विच्छेद हो जाता है तो जो ज्ञान मनुष्य की जरूरत और मानवीय विकास के लिए काम करता था अब वही ज्ञान मुनाफा कमाने के लिए तमाम तरह की अमानवीय गतिविधियों कों अंजाम दे रहा है। अब ज्ञान जीवन को छिन्न-भिन्न करने के तरीके खोजता है और मुनाफा कमाने के लिये लाखों इंसानों की जिंदगी से खेलता है।
यह सब ज्ञान और चेतना की आंतरिक संगति के अभाव में हो रहा है। इस असंगति को बढ़ावा देने में संचार माध्यमों की अत्यंत गंभीर भूमिका है।
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मीडिया और समाजः छः नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/00-httpsbizooka2009.html?m=1

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