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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 जुलाई, 2018

पड़ताल:

स्त्री एहसासों को जीने की चाहत : मैं भी औरत हूँ। 
डॉ कविश्री जायसवाल

डॉ कविश्री जायसवाल


प्रकृति ने सभी कार्य को ठीक ढंग से पूरा करने के लिये किसी न किसी साधन की व्यवस्था की है, जिसके द्वारा हम उस कार्य को पूरा करते हैं। इनमें से कुछ कार्य है जो प्रकृति के अनुसार अपने आप चलते रहते हैं जैसे वातावरण में परिवर्तन होना, दिन रात होना आदि। लेकिन इसके अतिरिक्त पृथ्वी पर स्त्री पुरूष के जीवन को बढ़ाने के लिये उनके शरीर में यौनांगो तथा जननेन्द्रियों की रचना की है किन्तु कभी-कभी ईश्वर से भी चूक हो जाती है, वो स्त्री पुरूष की संरचना करते समय जैसे कहीं खो जाता है कुछ भूल जाता है। कुछ ऐसा जो स्त्री-पुरूष दोनों को अधूरेपन का एहसास दिलाता है। इस अधूरेपन को कुछ स्त्री-पुरूष अपने जीवन का अभिशाप मानकर घुट-घुट कर जीवन जीते हैं तथा कुछ इसे अपने जीवन की चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं और चिकित्सीय सुविधा लेकर अपने जीवन के इस अधूरेपन को भरने की कोशिश करते हैं और सफल भी होते हैं।







 ‘‘मैं भी औरत हूँ।’’ इसी अधूरेपन को भरने की कथा है। हिजड़ा जीवन से मुक्ति, सम्मानपूर्ण जीवन सम्बन्धी, सामाजिक, चिकित्सीय, धार्मिक, अवधारणाओं एवं तथ्यात्मक सत्यों पर ही आधारित उपन्यास ‘‘मैं भी औरत हूँ’’ की लेखिका स्वयं एक स्त्री रोग एवं प्रसूती विशेषज्ञ है। उपन्यास में लेखिका ने मंजूला और रोशनी का ऑपरेशन से हिजड़ापन दूर करने का उल्लेख करते हुए आधुनिक चिकित्सा पद्धति की प्रगति से परिचित कराया है।
कभी-कभी कोई समस्या एक बड़ी दुर्घटना का कारण बनती है रोशनी जो इस उपन्यास की नायिका है, एक ग्रामीण पृष्ठभूमि से है। उसके घर-परिवार व गांव में कोई शौचालय न होने के कारण उसे रोज सुबह अंधेरे ही शौच के लिये जाना पड़ता है। लेखिका ने उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से ही गांव में कोई भी शौचालय न होने के कारण शौच की समस्या की ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित किया। रोशनी एक अल्हड़ किशोरी है। उसकी मां अक्सर रोशनी को इतनी सुबह अकेले शौच के लिये जाने को मना करती है।

‘‘माँ कहती’’ अब तू बड़ी हो रही है रोशनी अकेली इतनी सुबह बाहर शौच के लिये मत जाया कर, पर रोशनी हँस देती है। माँ मैं अकेली कहाँ होती हूँ? मेरी संगी-साथी तो बहुत होते हैं। ‘‘कौन होते हैं तेरे साथ, बता तो जरा अपनी सहेलियों के नाम? माँ पूछती, तो जवाब मिलता, माँ देखो हवा मेरी सखी है, मेरे साथ अठखेलियाँ करती है, सूर्य भगवान सुबह-सुबह प्रकट होकर मुझे आर्शीवाद देते हैं। पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट मानों मुझसे बात करने को उत्सुक रहती है, और कोयल अपनी मीठी-मीठी तान सुनाकर मुझे संगीत के लिये प्रेरित करती है, कहती हैं, आओ मेरे साथ संगीत की मधुर तान छेड़ों और मस्त हो जाओ।’’

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रोशनी दसवीं क्लास में पढ़ रही थी। कैशोर्य अवस्था से युवा अवस्था में पदार्पण कर रही थी। उसके स्त्रियोचित अंग विकसित हो रहे थे। कभी-कभी जीवन की कोई घटना हमारे पूरे वजूद को हिला देती है। देश भर में शायद ही कोई अखबार हो जिसमें प्रतिदिन बलात्कार की खबर न छपती हो। ऐसी एक घटना रोशनी के साथ घटती है, जो उसके जीवन में भूचाल ला देती है क्योंकि बलात्कारियों के माध्यम से ही उसे पता चलता है कि वह हिजड़ा है, सामान्य युवती नही। यदि वह सामान्य युवती होती तो निश्चित रूप से उस दिन उसके साथ बलात्कार होता। इस दृश्य को उपन्यासकारा ने दर्शाते हुए लिखा है-
 ‘‘वह गांव से काफी दूर निकल आयी थी। कहीं घर लौटने में देर न हो जाये, यही सोचकर वह एक खेत में खड़े हुए पेड़ की ओर मुड़ गई। खेत की मेड पर खड़ा हुआ यह पीपल का पेड़ काफी अच्छी ओट देता था। रोशनी ऐसे ही पेड़ों की ओट लेकर बैठ जाती थी। शौच से निवृत्त होने। ज्यों ही वह एक पेड़ की आड़ में बैठने लगी, उसने चार-पांच लड़को को पास की एक झाड़ी के पास खड़े देखा तो वह थोड़ी सहम-सी गई। वह अपना लोटा उठाकर जाने लगी। इतने में ही दो लड़के उसकी ओर दौड़े, अरे ठहर साली, कहाँ जाती है? बड़ी मुश्किल से तो आज हाथ लगी है। अरे भाई.................. तुम चाहते क्या हो? रोशनी बहुत घबरा गई थी...... चल उठ ..... चल हमारे साथ चल। हम भी मजा करेंगे और तुझे भी करवायेंगे।

रोशनी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए चिल्लाई .................... अरे बचाओ, मुझे बदमाशों से बचाओ। चुप, साली चिल्लाती है, एक जोरदार थप्पड़ रोशनी के गाल पर मार दिया और फिर जोर से उसका मुँह हथेली से बंद कर उसे गोद में उठाकर ले चला। .............. चुप रह रांड, नहीं तो अभी और बुरा हाल करूँगा, रोशनी अर्धचेतन अवस्था में पहुँच गई थी। उसका फूलों जैसा नाजुक बदन निश्पाप हृदय। उसे रौंदा जा रहा था। वह असहाय थी, असमर्थ थी, अपनी रक्षा करने में। कुछ ही मिनटों बाद वह लड़का अपने कपड़े झाड़ते हुए वापस पहनने लगा।

दूर खड़े हुए लड़के दौड़कर आये और बोले, अरे सुरेश ................... हो गया, मजा आ गया ..................... खाक मजा आ गया, यह साली तो हिजड़ा है। हिजड़ा, बाकी चार के मुँह से एक साथ निकला। हाँ भाई हिजड़ा ही है, हमने बेकार में अपना समय बर्बाद किया, चलो यहाँ से। तू सच कह रहा है, उन चारों को शायद विश्वास नहीं हो पा रहा था। मैं झूठ क्यों बोलूँगा, तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है तो तुम खुद देख लो, नीचे तो उसके कुछ है ही नहीं। पर ऊपर तो सब है ............ हाँ हाँ ऊपर ही है, पर नीचे कुछ नहीं।’’ 

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पन्द्रह बरस की किशोरी रोशनी इस आधे घण्टे में तीस वर्ष की महिला के रूप में परिवर्तित हो गई थी। उसका मानसिक असंतुलन हो गया था। बार-बार उसे वह शब्द याद आ रहे थे, कि ‘अरे यह तो हिजड़ा है।’ वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, ‘‘रोशनी बिस्तर पर लेटी हुई फूट-फूटकर रोये चली जा रही थी। आज उसके साथ यह कैसी अनहोनी व भयंकर दुर्घटना हुई थी। वह बाल-बाल बच गई थी, पर बचने का कारण जो उसने सुना, उससे वह हतप्रभ थी। क्या मैं लड़की नहीं हूँ? क्या मैं औरत नहीं हूँ? मैं हिजड़ा हूँ? वह सिहर उठी। उसने अपने स्तनों पर हाथ फेरा, जो धीरे-धीरे विकसित हो रहे थे, फिर उसने ऐसा क्यों कहा? अनेक प्रश्न उस किशोर कन्या के मन को उद्वेलित कर रहे थे, पर वह यह प्रश्न किससे पूछे? किसे अपना हमराज बनाए? यदि यह बात किसी के कान में भी पड़ गई, तो हो सकता है, वह उसकी हँसी उड़ाए, उसे दया की नजर से देखे या किसी दूसरे को बता दें और पूरे गांव में यह बात फैल जाए। नहीं वह इस बात की किसी के साथ साझेदारी नहीं कर सकती, मन में उतार-चढ़ाव चल रहा था।’’

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युवावस्था के प्रारम्भ होते ही यौन शिक्षा के अभाव में युवक एवं युवतियों का मन कितना विचलित रहता है। परिवारों में कोई भी शरीर में होने वाले बदलावों के सम्बन्ध में कोई बात नहीं करता। स्त्रियाँ भी अपनी बेटियों को ये सोचकर कि वे ये सब जानकर बिगड़ जाऊँगी। कुछ नहीं बताती है। रोशनी भी अपने शरीर के बदलावों तथा बलात्कार न कर पाने पर लड़कों द्वारा खींज कर उसको हिजड़ा कहते हुए छोड़कर भागने के बाद से बहुत चिंतित एवं विचलित रहने लगती है। वह अपनी शारीरिक संरचना को समझने के लिए एक दिन, ‘‘उसने अपना कमरा बंद किया और सलवार उतारकर सामने जाँघों के बीच में एक शीशा रखकर उसने अपना निरीक्षण करना शुरू किया। ऊपरी बनावट बिल्कुल वैसी ही थी जैसी उसने छोटी लड़कियों, नन्हीं बच्चियों में देखी थी पर उन उभारों के नीचे उसे कोई छेद दिखाई नहीं दिया। उसने अपनी अँगुली से टटोला पर वहाँ कुछ नहीं था। फिर उसने एक पेंसिल लेकर उसका पीछे का हिस्सा वहाँ पर दबाया लेकिन वह वहीं रहा, अपितु थोड़ा और दबाने पर उसे दर्द अनुभव होने लगा। रोशनी काँप उठी तब क्या उस लड़के ने जो कहा क्या वह सच है। वह लड़की नहीं है, वह औरत नहीं है। अब मैं फिर क्या हूँ? क्या इसीलिये मुझे माहवारी प्रारम्भ नहीं हुई? क्या मेरी शादी नहीं हो पायेगी? क्या मैं कभी माँ नहीं बन पाऊँगी? ओह-क्या मैं नपुंसक हूँ? पर फिर मेरी ऊपरी बनावट स्तन आदि तो ठीक है पर क्या अन्दर कुछ ठीक नहीं है, यह सब मुझे कौन बताएगा?’’

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अचानक एक दिन वह टी.वी. पर स्टे फ्री सिक्योर का विज्ञापन देखते हुए अपनी माँ सुधा से पूछ बैठती है कि लड़कियाँ इसका प्रयोग कहाँ करती है? तब उसकी माँ उसे मासिक रक्तस्त्राव के बारे में बताती है, तब उसकी बड़ी बहिन मंजुला भी कह बैठती है, ‘‘पर माँ मुझे तो ऐसा कुछ नहीं होता। नहीं हुआ तो हो जायेगा। किसी को जल्दी व किसी को देर से होता है, कहने को तो सुधा ने रोशनी को यह कहकर चुप करवा दिया, पर एक डर मन-मस्तिष्क पर हावी हो गया। दोनों लड़कियों में से किसी को भी अभी तक मासिक स्त्राव आरम्भ नहीं हुआ था। रोशनी तो खैर अभी पंद्रह वर्ष की है पर मंजुला तो सत्रह की होकर अठारहवे में लग गयी है। अट्ठारह वर्ष की उम्र में ही मुझे शादी होते ही मंजुला गर्भ में रह गई थी। नहीं, अब कोई आलस्य नहीं करेगी। कल ही दोनों लड़कियो को लेकर गाजियाबाद दिखाकर लाना है।’’ 

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 अगले दिन दोनों पति-पत्नी अपनी दोनों पुत्रियों के साथ डॉ.रमन्ना के नर्सिंग होम पर पहुँचे। डॉ.रमन्ना अनुभवी डॉक्टर थी। उन्होंने लड़कियों की केस हिस्ट्री ली व फिर उनकी जांच करने के बाद उन्हें अल्ट्रासांउण्ड कराने को कहा। ‘‘बीमारी के बारे में आपको अल्ट्रासाउण्ड के बाद ही निश्चित तौर पर बता सकूँगी। क्योंकि कुछ मरीजों के बारे में हमारा परीक्षण ही हमें सही निर्णय करने में सहायक होता है, पर कुछ रोगों में हमें मशीन की सहायता लेना आवश्यक हो जाता है। अल्ट्रासाउण्ड के पश्चात् ही मैं विस्तारपूर्वक दोनों की बीमारी के बारे में बता सकूँगी। वैसे यह संयोग ही है कि मैं इतने वर्षों के बाद दो मरीज एक साथ वह भी दोनों बहने, एक जैसी विकृति से ग्रस्त देख रही हूँ।’’

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 अल्ट्रासाउण्ड के बाद डॉक्टर ने दोनों बहनों के शारीरिक कमी को उनके माता-पिता के समक्ष रखा और उनका ऑपरेशन करवाने के लिये कहा, ‘‘आपकी दोनों बेटियों में भगवान ने कुछ कमी बनाई है, शारीरिक कमी बनाई है, शारीरिक तौर पर। मंजुला में भगवान ने गर्भाश्य, अण्डाश्य सब कुछ बनाया है पर उसकी योनि नहीं बनी है। मासिक स्त्राव बाहर निकलने का रास्ता प्रकृति ने नहीं बनाया है। हम ऑपरेशन द्वारा नकली योनि बनाकर इस कमी की पूर्ति कर देंगे, तब इसे हर महीने मासिक रक्तस्त्राव भी होगा। यह शादी भी कर सकेगी व इसके संतान भी उत्पन्न हो सकती है। ऑपरेशन के बाद इसमें कोई कमी नहीं रहेगी, पर छोटी लड़की रोशनी को भगवान ने न तो गर्भाश्य बनाया है और न ही योनि बनाई है। इसकी भी हम कृत्रिम योनि तैयार कर सकते हैं। बाकी बाहरी स्त्रियोचित अंग इसके वैसे ही है। अतः यह पत्नी तो बन सकेगी पर मां नहीं बन पायेगी और न ही इसके कभी मासिक रक्तस्त्राव होगा।’’ 


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 रोशनी ईश्वर को धन्यवाद देती है कि भगवान ने उसे हाथ पैर आंखे आदि सभी अंग तो दिये हैं, इतना अच्छा मस्तिष्क दिया है, शरीर का एक ऐसा अंग ही तो नहीं है और फिर यदि वह शादी नहीं करेगी तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। देखना, मैं एक दिन इस भाग्य को बदल दूंगी। कोई न कोई ऐसा कार्य करूँगी जो किसी ने न किया हो। फिर सब मेरी शारीरिक विकृति को ध्यान न देकर मेरे भाग्य की सराहना करते नजर आयेंगे। ‘‘धन्यवाद भगवान। तुमने मेरे ऊपर इतनी दया तो की कि मुझे ऐसी विकृति दी जो दिखाई नहीं देगी। यदि भगवान मेरी एक आँख छीन लेता तो सबको मैं कानी दिखाई देती या एक पैर से लंगड़ी होती तो सब मुझे लंगड़ी कहकर चिढ़ाते। अब कम से कम मैं देखने में तो ठीक-ठाक। सब लोग तो मुझे सुंदर ही कहते है, मैं क्यों परेशानी अनुभव करूँ।’’ 

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फिर दोनों बहनों का ऑपरेशन कर स्त्री रूप में दिया जाता है। पहले मंजुला का ऑपरेशन होता है, ‘‘प्लास्टिक सर्जन ने मंजुला की जांघ से एक तेज धार वाले चाकू से उसकी पतली-पतली चमड़ी की परतें निकाली, व उन्हें सेलाइन के घोल में तैरा दिया गया। फिर उन्होंने बाह्य योनि के हिस्से में छेद बनाया व डिस्केशन द्वारा वे लोग गर्भाश्य के मुँह तक पहुँच गये, ज्योंही गर्भाश्य का मुँह योनि के खुलने पर संपर्क में आया कुछ महीनों से मासिक स्त्राव का इकट्ठा हुआ काले रंग का रक्त बाहर आ गया।’’


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ऑपरेशन की सभी आवश्यक विधियों को सम्पन्न करते ही सभी ने प्रसन्न मुद्रा में राहत की सांस ली।
फिर रोशनी का भी सफल ऑपरेशन होता है और उसे भी अधूरी स्त्री देह से मुक्ति मिल तो जाती है किन्तु मां बनने का एहसास फिर भी अधूरा रहता है। डॉ. रमन्ना कहती, ‘‘जितना हम कर सकते थे, उस कमी की पूर्ति करके एक योनि हमने बना दी है, पहले जांघ से हमने स्किन की ऊपरी तह निकाली, जिस बाद में योनि के स्थान को डिसेक्ट करके उसे उस रॉ एरिया पर लगा दिया गया है। अब आप इसकी शादी कर सकेंगे, पर न तो मासिक स्त्राव इसे होगा, ना ही बच्चे।’’ 

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कुछ वर्षों बाद बड़ी बहन मंजुला का विवाह एक डॉक्टर विपिन से हो जाता है और उनके घर एक पुत्र का जन्म होता है पुत्र जन्म के समय मंजुला की माँ सुधा को बहुत चिन्ता होती है वह मंजुला का प्रसव डॉ. रमन्ना से ही करवाती है क्योंकि डॉ. रमन्ना ने ही मंजुला का ऑपरेशन किया था, ‘‘अब डॉ. रमन्ना को निर्णय लेना था कि मंजुला का नॉर्मल प्रसव करवाया जाये या ऑपरेशन से बच्चा उत्पन्न करवाए। उन्हें यही डर था कि नॉर्मल प्रसव करवाने में जो नकली योनि बनाई है उसमें पता नहीं मुख का संकुचन कितना होगा। प्राकृतिक योनि तो बच्चों को प्रसव देते समय पूरी तरह से फैल जाती है व प्रसव के पश्चात् अपने संकुचन गुण के कारण पुनः अपनी पूर्ववत हालत में लौट आती है। चूंकि इस प्रकार केस चार-पांच हजार में से किसी एक को होता है। अतः यह योनि किस प्रकार का व्यवहार करेगी, उसके लिये वे निश्चित नहीं थी। फिर उन्होंने मन ही मन ऑपरेशन करने का निर्णय लिया व मंजुला का सिजेरियन ऑपरेशन कर दिया।’’ 

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 उधर रोशनी का कैरियर ग्राफ भी तेजी से ऊपर की ओर चढ़ता रहा। एक्जीक्यूटिव, फिर असिस्टेंट मैनेजर, मैनेजर, ए.वी.पी., वी.पी., फंग्शनल हैड आदि बनने के बाद आज वह ग्लेनमार्क कम्पनी की सी.ई.ओ.है। चौबीस वर्ष की उम्र में आई.आई.टी.देहली से इंजीनियरिंग, एमटैक व अहमदाबाद के प्रसिद्ध इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट कॉलिज से एम.बी.ए. करने के पश्चात् अपनी बुद्धिमत्ता व योग्यता के बलबूते पर ही आज वह इस मल्टीनेशनल कम्पनी ग्लेनमार्क की सी.ई.ओ. बन गई। किन्तु फिर भी जैसे सांप अपनी केंचुली में बदं होता है वैसे ही उसने अपने आस-पास के लोगों से अलग-थलग एक आवरण में अपने को लपेट रखा है। कभी-कभी वह बहुत हताश होती है और रोने लगती है, ‘‘भगवान ने मेरे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है। मुझे इतना अच्छा दिमाग दिया, सुंदर बनाया पर मेरे साथ यह पक्षपात क्यों किया? क्यों मुझे शरीर का एक अंग न देकर मेरा जीवन निरर्थक कर दिया? मैं पत्नी बनने का सुख पा सकती हूँ पर मैं किसी पुरूष को इसलिये स्वीकार नहीं कर पा रही हूँ कि मैं उसे बच्चा नहीं दे सकती। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं है, कई महिलाओं के बच्चे नहीं होते, उनके सब कुछ होता है, पर वे माँ नहीं बन पाती है, तो क्या वे जिंदगी का सुख नहीं मांगती। फिर मैं स्वभाव से इतनी अलग क्यों हूँ?’’ 


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 यद्यपि रोशनी का ऑपरेशन सफल था किन्तु फिर भी वह अपने को पूरी स्त्री नहीं समझ पाती थी उसे हर पल अधूरेपन का एहसास होता था। इसी कारण उसने छत्तीस वर्ष की हो जाने पर भी शादी नहीं की थी। वह पुरूषों से हमेशा एक दूरी बनाकर रखती थी। एक दिन अचानक रोशनी की तबियत खराब होती है वह कई दिन ऑफिस भी नहीं गई। उसके ही ऑफिस का सहयोगी ओंकार पटेल उसकी देखभाल करता है। ओंकार मन ही मन रोशनी को पसंद करता था। एक दिन बीमारी के कारण रोशनी आंख बन्द करके चुपचाप लेटी थी, उसी निद्रित अवस्था में ही उसने पटेल का हाथ अपने सीने पर रखा। उसे उस समय लग रहा था, कि मानो ये हाथ उसकी मां के हैं। पटेल ने इसको रोशनी की स्वीकृति माना और फिर मर्यादा के सब बंधन टूट गये। उनके शरीर एक हो चुके थे व रोशनी को अनुभव हो रहा था कि वह इतने बड़े सुख से अब तक वंचित क्यों रही? ‘‘आज रोशनी के अंग-अंग में खुशी झलक रही थी। उसका दिल कह रहा था कि वह बालकनी में खड़ी हो खूब चिल्ला-चिल्लाकर कहे कि ओ कालोनी की महिलाओं, देखो-देखो, मैं भी एक सामान्य औरत हूँ। मैं भी तुम सब जैसी ही हूँ, मैं भी शादी कर सकती हूँ।’’ 


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फिर दोनों परिवारों ही सहमति से परिणय सूत्र में बंध जाते हैं। रोशनी पत्नी बनने के बाद मां बनने का सुख भी पाना चाहती है। जिन स्त्रियों में भ्रूण नहीं होता है वे अन्य किसी स्त्री के भ्रूण में अपने पति का वीर्य स्थापित करवा कर भी अपनी स्वयं की संतान पा सकते हैं। रोशनी भी सेरोगेट मदर से अपना बच्चा पाना चाहती है। इला सांवत नामक स्त्री को वे सेरोगेटेड मदर के रूप में पाते भी है, परन्तु उन्होंने उस स्त्री के साथ कोई वैधिक अनुबन्ध नहीं किया हुआ होता है और इला द्वारा बताई हुई परिस्थितियों पर भरोसा कर लेने के कारण उन्हें धोखा मिलता है। परिस्थितवश उन्हें अपनी संतान जो कि एक लड़का था, नहीं मिलती है और वे अनाथालय से एक नवजात लड़की को गोद लेते हैं और अपना सुखी परिवार बनाते है।

इस तरह से हम कह सकते हैं कि अन्य उपन्यासों की तुलना में से यह उपन्यास चिकित्सीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी लेखिका स्वयं स्त्री रोग विशेषज्ञ है। शायद इसीलिये उन्होंने इस उपन्यास का रचना भी जन सामान्य को हिजड़ों की शारीरिक संरचना समझने तथा हिजड़ों की अवसादपूर्ण जीवन में जागृति लाने के उद्देश्य से किया है। यह पुस्तक एक खास तरह के नजरिये के साथ पढ़े जाने की मांग करती है कि अगर थर्ड जेण्डर के लोगों को पारिवारिक तथा सामाजिक सहयोग प्राप्त हो तो वे लोग समाज के साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं।
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कविश्री का एक और लेख नीचे लिंक पर पढ़िए

बलात्कार:स्त्री और समाज
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/blog-post_43.html?m=1


सन्दर्भ सूची -
1. मैं भी औरत हूँ - अनुसूया त्यागी, प्रथम पृष्ठ 
2. वही - पृष्ट सं0-10, 11   
3. वही - पृष्ट सं0-14
4. वही - पृष्ट सं0-17
5. वही - पृष्ट सं0-18
6. वही - पृष्ट सं0-19
7. वही - पृष्ट सं0-21
8. वही - पृष्ट सं0-29
9. वही - पृष्ट सं0-26
10. वही - पृष्ट सं0-29
11. वही - पृष्ट सं0-49
12. वही - पृष्ट सं0-57
13. वही - पृष्ट सं0-60
14. हिन्दी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेण्डर, डॉ0 विजेन्द्र प्रताप सिंह 



डॉ. कविश्री जायसवाल
असि.प्रोफेसर (हिन्दी)
एन.ए.एस.कॉलिज, मेरठ
मो.नं.-9412365513

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