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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 जुलाई, 2018

मीडिया और समाज : आठ

अनुकरण विचारहीनता का विचार : मीडिया और विज्ञापन

संजीव जैन


मीडिया की रीढ़ है विज्ञापन। सम्पूर्ण संचार माध्यमों की प्राणवायु है विज्ञापन। विज्ञापन मीडिया की धमनियों में बहता हुआ रक्त है। विज्ञापन के बिना आधुनिक संचार माध्यम जिंदा नहीं रह सकते। विज्ञापन एक ऐसा माध्यम है जो सौ प्रतिशत झूठ को हजार प्रतिशत सच की तरह लगातार बोलता है। यह स्वयंभू ईश्वर है। झूठ का विधाता। सब जानते हैं कि विज्ञापन झूठ बोल रहा फिर भी ईश्वर की तरह उसका अनुकरण करते हैं। यही वह ताकत है जो पूंजीवाद के मुनाफे को बढ़ाती है और बाजारों को यथार्थवादी भ्रम की तकनीक का बादशाह बना देती है। विज्ञापन ब्रांड को स्थापित करता है और ब्रांड की वास्तविकता को छिपाता है। ब्रांड फैशन बन जाता है और फैशन संस्कृति का स्थान अधिकृत कर लेती है। फैशन एक रिवाज बन जाता है रिवाज सामाजिक और धार्मिक वैधता हासिल कर लेता है। इस तरह विज्ञापन हमारे सांस्कृतिक और सामासिक जीवन की शिराओं में बहने वाले खून को पूरी तरह संक्रमित कर देता है। लंबे समय तक चलते रहने से संक्रमण स्वभाविकता के रूप में मान्यता प्राप्त कर लेता है। आज की युवा पीढ़ी और बच्चे बुरी तरह से संक्रमित हैं। विज्ञापन एक रुग्ण और संक्रमित समाज का निर्माण कर रहा है।



विज्ञापन अपने तकनीकी प्रभाव और संप्रेषण की प्रक्रिया के कारण मानवीय मस्तिष्क को बहुत ही आसानी से प्रभावित कर लेता है। विज्ञापन चुनाव करने के विवेक को खत्म कर देता है। विज्ञापन आलोचनात्मक समझ को भौंथरा कर देता है। विज्ञापन वस्तु और श्रम की शोषक व्यवस्था की आलोचना की जगह उपभोक्ता को आत्मालोचन के प्रति मोड़ देता है। हम एक उपभोक्ता की तरह अपने आसपास के लोगों से तुलना करने लगते हैं। हम अपने स्वाभाविक दैहिक और भौतिक परिस्थितियों की आलोचना करने लगते हैं और वस्तुओं को खरीदने के साथ अपने सामाजिक स्टेटस को संबद्ध करने लगते हैं। यह आत्ममुग्धता की स्थिति है जिसमें उपभोक्ता डूबा रहता है। वह देश दुनिया की वास्तविकता से बेखबर हो कर अपने को पड़ोसी से अच्छा दिखने की कोशिशों में या दौड़ में शामिल हो जाता है।
इस तरह विज्ञापन वस्तु के उपभोग के प्रति आकर्षित करता है, पर उसके उत्पादन की परिस्थितियों को और श्रमिक की भौतिक दशाओं को छिपाता है और एक कृत्रिम लोकलुभावन वातावरण दिखाता है। इसे फील गुड के सूत्रीकरण में देखा जा सकता है।
 विज्ञापन मानवीय चेतना के आकाश पर टिड्डीदल की तरह छा जाता है और उसकी वास्तविक फसल को खा जाता है इसके बाद एक कृत्रिम फसल परोस देता है। यह विकल्प हीनता का दर्शन है। हमें बाजार में विज्ञापनों की भरमार दिखती है। हम इनमें से ही किसी को चुन लेते हैं यह विकल्प नहीं यह तो मजबूरी है। विज्ञापन अब वस्तुओं के प्रचार तक सीमित नहीं है अब सेवाओं का विज्ञापन और राजनैतिक उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर कर जनता के मानस को अनुकूलित करने के लिए प्रयुक्त होता है। प्रधानमंत्री को अपने कार्यों को विज्ञापन से दिखाना पड़े तो समझना चाहिए कि यह वास्तव में हुआ नहीं है। जनता के लिए किये गये कार्य यदि वास्तव में जनता तक पहुंचे हैं तो विज्ञापन किस लिए? पर यह विज्ञापन जनता तक उपलब्धियों को पहुंचाने के लिए नहीं उसके मानस को प्रधानमंत्री और उसकी पार्टी के पक्ष में अनुकूलित करने के लिए किये जाते हैं।
विज्ञापन जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। हम विज्ञापन नामक भेड़ियों से घिरे हुए हैं। चारों तरफ हर जगह हर समय आपके आसपास विज्ञापन हैं। इस तरह विज्ञापन ने सार्वजनिक और वैयक्तिक निजी समय और स्थान को अधिकृत कर लिया है। सार्वजनिक स्थानों पर बड़े बड़े होर्डिंग आपको भूतों की तरह डराते हैं। अब कोई ऐसी जगह नहीं बचती जहां विज्ञापन न हों। यहां तक शौचालय भी नहीं बचे। दीवारें, वृक्ष, आसमान सड़कें, स्कूल, अस्पताल खेल मैदान सब विज्ञापनों से भरे हैं। रेल, बसें, प्लेटफार्म जो भी सार्वजनिक स्थान थे वे सब विज्ञापनों से अटे पड़े हैं।
हमारा आपका वैयक्तिक और खाली समय विज्ञापनों से भरा हुआ है। सुबह सामाचार पत्र उठाइए मुख्यपृष्ठ विज्ञापन से भरा होगा, अंदरसमाचार आपको खोजना होंगे। मोबाइल खोलिये सबसे पहले विज्ञापन दिखेंगे। टीवी के हर पांच सात मिनट बाद विज्ञापन मिलेंगे। दो सीरियल या प्रोग्राम के बीच जो खाली समय होता है वह विज्ञापन से भरा होता है। नाटकों के बीच में जो बीच में अंतराल होता था वह हमें नाटक पर सोचने विचारने का समय देता था, अब फिल्मों और सीरियल के बीच में विज्ञापन हमारे सोचने विचारने के समय को भर देते हैं या छीन लेते हैं।


विज्ञापन सिर्फ मुनाफे का साधन मात्र नहीं है अब यह हमारी इच्छा / आकांक्षाओं को नियंत्रित और निर्देशित करता है। यह सामाजिक / सांस्कृतिक मूल्यों और प्रवृत्ति / अभिरुचियों को बदल रहा है। विज्ञापन मनुष्य की सौंदर्य चेतना को बदलकर कृत्रिम बना रहा है, अब सुंदर का अर्थ मेकअप से लिपे पुते होना है, ब्रांडेड कपड़ों के बिना हम हेंडसम और स्मार्ट नहीं हो सकते। कंपनियों के उत्पादों को देह पर चिपकाये बिना सौंदर्य बोध पैदा ही नहीं हो सकता। सौंदर्य चेतना मनुष्य की आंतरिक चेतना है जो मानवीय गतिविधियों और संबंधों के बीच पैदा होती थी। अब श्रम करना गंदा काम है, श्रम असौंदर्य का बोध कराता है। विज्ञापन ने मानवीय श्रम और संबंधों की सौंदर्य चेतना पर 'माल’ वस्तुओं को चिपका दिया।

यह राजनीतिक गतिविधियों का आवश्यक अंग बन गया है इस अर्थ में जनतंत्र को संचालित और नियंत्रित करने लगा है। यह स्वयं बहुत बड़ा उद्योग है और बड़ी पूंजी के हाथों में केंद्रित है जिससे तमाम राजनीतिक और जनतांत्रिक गतिविधियों को अपने हित में उपयोग करने का बड़ा स्पेस उसके कब्जे में आ गया है। विज्ञापन का मूल काम है - “ सीमा बनाये रखने वाली व्यवस्था पैदा करने का काम करता है। विज्ञापन का लक्ष्य न तो शिक्षा है, न मनोरंजन है बल्कि उसका बुनियादी लक्ष्य है पर्सुएशन; माल पर बातचीत, उसकी गतिविधियों बढ़ाना, समाचार मूलक ढंग से प्रसार करना, साथ ही किसी अन्य वस्तु को लोकप्रिय बनाना, उसका बाजार तैयार करना। आज विज्ञापन में जनसंपर्क और प्रमोशन का तत्त्व भी आ गया है।”१ भूमंडलीकरण, ग्लोबल मीडिया और सिद्धांतकार, पृ. ६४ जगदीश्वर चतुर्वेदी, अनामिका पब्लिशर्स, नयी दिल्ली।
“फैशन और विज्ञापन में एक सामान्य तत्त्व है कि ये दोनों उपभोक्ता को अनुकरण करने के लिए तैयार करते हैं।”२  वही, पृष्ठ ६४ अनुकरण एक तर्क हीन स्थिति है, विचार और विकल्प चुनने की स्वतंत्रता के अभाव की स्थिति है। हम विचार करना छोड़ कर दूसरों के चुने गये विकल्प को अपनाने लगते हैं और नियति को दूसरों के हाथों में सोंप देते हैं। अनुकरण हमें अकेले चुनने के साहस से वंचित करता है यह हमें भीड़ का हिस्सा बना देता है और सब तो कर रहे हैं मैं कोई अकेला तो नहीं हूं के आत्मसंतोष या आत्ममुग्धता से भर देता है। इसीलिए
“ मिशेल ने अनुकरण को विचारहीनता का विचार कहा है।” ३ वहीं, पृष्ठ ६४
विज्ञापन ने संचार माध्यमों को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले रखा है। विज्ञापन कंपनियों पर कुछ सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय निगमों का कब्जा है। ये विज्ञापन के माध्यम से सरकार की नीतियों को अपने लाभ के लिए मोड़ लेती हैं। संचार माध्यमों पर अधिकार होने से जन कल्याण विरोधी नीतियों को बहसों के माध्यम से प्रचारित किया जाता है। तमाम संचार माध्यम विज्ञापनों के वाहक मात्र हैं। संचार माध्यमों की मूल अंतर्वस्तु विज्ञापनों को हमारी चेतना की गहराई तक पहुंचाने का काम है। विज्ञापन के अलावा तमाम प्रोग्राम तो विज्ञापनों को जनता तक पहुंचाने के साधन भर होते हैं। गिरीश मिश्र ने लिखा है कि “विज्ञापन और उनका संगठन पत्र पत्रिकाओं की नीतियों और वैचारिक दिशा को नियंत्रित करने लगे।”४ उपभोक्तावाद एक विश्लेषण, ग्रंथशिल्पी, पृ. 135
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मीडिया और समाजः सात को नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_49.html?m=1


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