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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 जुलाई, 2018

वक्तव्य:

यह एक दुनिया

सत्यनारायण 




सत्यनारायण


आज इस अवसर पर मैं उन सभी के प्रति अपना आभार प्रकट करना चाहूंगा जिनके कारण मैं साहित्य में आ पाया। षब्दों की यह दुनिया जिसको मैंने बचपन से अपने करीब पाया। बाहर का संसार जब भी दुःखी या निराष करता या वहाँ रहते हुए अकेलेपन का बोध होता या वहाँ की चिंताओं के सामने स्वयं को निर्बल या असहाय पाता तो ये षब्द ही होते जो मेरा संबल बनते। रात की खोह में मैं उनके बीच दुबक जाता। आज भी वे उसी तरह मेरे साथ हैं।

बचपन में भी माँ से सुनी कहानियां और गीत। गर्मियों में रातभर खेतों में रेवड़ के बीच चोखल्या खटीक की बातें। बाद में हिन्दी ही नहीं विभिन्न भाषाओं के लेखकों की रचनाएं जिन्हें पढ़ने के बाद अपने जीवन के उजाड़ को थोड़ा बहुत हरा कर पाया।

मैं नहीं जानता यदि साहित्य की खोह नहीं होती तो मेरा जीवन कैसा होता? क्योंकि डामर की तपती सड़कों के बीच मेरे लिए साहित्य ही वह हरा दरख्त था जिसकी छाया तले मैं सुस्ताता रहा। वह आज तक चला आ रहा है।
हर बार नये आदमी से मिलने पर लगता है कि मैं कितना कम जानता हूँ। एक बार रामदेवरा के मेले में एक डोकरी मिली। किसी सवाल के जवाब में उसने तपाक से कहा था - ‘‘तू काई जाणे मैं अखा इंडिया नै जाणूं।’’ और मैं हतप्रभ रह गया था। क्या मैं सचमुच अपने इंडिया को जानता हूँ ? ऐसे ही एक बार अजमेर में चीन के प्रसिद्ध कथाकार लाओष के उपन्यास ‘‘रिक्षावाला’’ का ष्या   मिला। उसने जिस दुनिया की सैर करवाई वह मेरे लिए अब तक अजानी थी। मैं भांत - भांत के चेहरों से मिलता रहा हूँ या उनके बीच रूकता। और हर बार मुझे लगता कि मैं कितना कम जानता हूँ। ‘‘यह एक दुनिया’’ ऐसी ही है जो मेरा संबल है तो लेखन का स्त्रोत भी।
एक बार मेरी एक पत्रकार मित्र ने मेरे घर को देखकर पूछा था (जो पहले कभी भूतों का बासा कहा जाता था और इसीलिए कोई किराये पर नहीं लेता था) तुम अकेले कैसे इस खण्डहर में रह लेते हो? क्या डर नहीं लगता? मैंने कहा था - मैं अकेले रहना चाहता हूँ पर ढेर सारे लोग हैं जो रहने नहीं देते। मेरे भीतर इतने चेहरे टहलते हैं कि बता नहीं सकता।

करीब पाँच दषक पहले अपनी ढ़ाणी से चलकर षहर आया तो पुरानी बस्ती में अपने भाई का घर ढूंढते हुए एक बुढ़िया की कोठरी तक पहुँच गया। भाई का घर पास ही था पर ताला लगा हुआ था। तब मकानों के इतने जंजाल नहीं थे। सिर्फ का बखत देखकर उसने कहा - अब कठै जाणो? ब्या   कर सो जाओ, भाई ने सुबह हेरयो। इन षब्दों पर मैं लटूम लिया था। बाद में षहर में रूका तो एक कारण वह बुढ़िया भी थी। जब वह मरी तो मेरे लिए सिक्कों की एक पोटली छोड़कर गयी जो कुछ उन दिनों चलन में थे और कुछ नहीं। खुष होने पर वह हर किसी को ये सिक्के देती कि ‘‘म्हारा नाम की फलाणी मिठाई खा ली जै’’ पता नहीं वह बदलती हुई दुनिया से अजानी थी या अजानी बने रहना चाहती थी, मैं कभी समझ नहीं पाया।
वह दिन और आज का यह दिन मैं ऐसे ही लोगों की तलाष में भटकता रहा। भांत - भांत के लोग जो सिक्कों की तरह चलन में थे और जो चलन में नहीं थे पर खरे थे और खरे हैं। जैसे रामदेवरा के मेले में मिली वह डोकरी। घोर संकट में इन चेहरों और साहित्य ने ही सहारा दिया। आज भी जब कोई दुःख घेरता है तो रेणु, प्रेमचंद, दोस्तोयवस्की, काफ्का, ज्ञानरंजन, विजयदान देथा, इब्राहिम षरीफ, उदयप्रकाष आदि के साहित्य में दुबक जाता हूँ।
मित्रों, हमारे चौतरफ एक ऐसा सामाजिक परिवेष है जो सचमुच बेहद डरावना है, विषेषकर हिन्दी लेखक के लिए। हिन्दी इतने - इतने लोगों की भाषा है। इस देष में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा। पर उसमें हिन्दी लेखक की स्थिति? मुक्तिबोध अंत तक क्राई नीड और षमषेर बहादुर सिंह? इतने बड़े कवि अपने अंतिम दिनों में अहिन्दी भाषी प्रदेष में जाकर रहने के लिए विवष हुए। अभी की घटना है देवेन्द्र इस्वर की मौत कैसे हुई? और ब्रजेष्वर मदान? आप सब जानते हैं मरने की खबर ही दो साल बाद पता चली। राजस्थान के ही अनोखे षायर सौराई का तो मैं ही नहीं जयपुर के तमाम मित्र साक्षी हैं। आज तक उनका साहित्य प्रकाषित नहीं हो पाया। वे मरे तो युवनेष्वर की तरह खानाबदोष लोगों के बीच और एक दिन भौचक अपने घर से घूमने के लिए निकले हिन्दी के कहानीकार और अद्भुत नाटककार स्वेदष दीपक पता नहीं कहाँ चले गये? आज तक नहीं लौटे।
यह सब हमारी चिंता में षामिल नहीं होना सचमुच चिंता का विषय है। मंगलेष डबराल के षब्दों में कहूं तो ‘‘हिन्दी अगर एक छोटी सी भाषा होती, लोग उसे प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो उसका लेखक इतना अकेला नहीं होता। मुक्तिबोध नामक एक विराट पेड़ होता, जिस पर नागार्जुन के घने पत्ते होते और षमषेर नाम की एक सुन्दर चिड़िया उस पर बैठकर मीठी गजल गुनगुनाती। लेकिन मैं एक ऐसे समाज का सदस्य हूँ जहाँ भाषा और षिक्षा के प्रति बहुत कम सम्मान है, संस्कृति की सजगता बहुम कम हो चली है, लेखक को पोषण और आलम्बन देने वाला पाठक समुदाय नहीं रह गया है और कुछ मिलाकर भ्रष्ट सत्ता राजनीति ही सबसे बड़ा रोजगार है, जिसमें लोग पूरी अष्लीलता से लगे हुए हैं। षायद इसीलिए साहित्यिक जन अपनी ही बिरादरी में गोल बनाकर किसी कबीले की तरह रहते हैं, जहाँ अनेक बार आपसी कलह और संवादहीनता दिखाई देती है तो इसलिए कि सभी अपनी - अपनी तरह से हताष और एकाकी हैं और सभी उसे अपनी तरह से छिपाते रहते हैं।’’
एक लेखक की हैसियत से मैं यह महसूस करता हूँ कि ऐसे लोग जो तमाम तकलीफों के बावजूद इस दुनिया की हिलती चूलें ठीक करने में लगे हुए हैं, अपनी-अपनी जगह अपनी - अपनी तरह से। चाहे वह इमारत पर रंग रोगन करने वाला हो या ट्रक ड्रायवर या एक एम. ए. रोड से उजड़ा मोची हरीषचंद्र या इदरीस या बूढ़ी बामणी या केसर क्यारी। इन्हीं के बीच सलता पलता मैं जो कुछ देख पाया वही दुनिया मेरी रचनाओं में है। षैलेष मटियानी के षब्दों में कहूं तो ‘‘एक व्यक्ति की हैसियत से भोगते हुए जिन दुःखों से हम गुजरते हैं स्मरणीय ये दुःख कभी नहीं हो सकते। स्मरणीय होते हैं वह मानवीय करूणा और संवेदनषीलता, जिसका साक्षात्कार हमें इन दुःखों से गुजरते हुए होता है।
अंत में मैं के.के. बिड़ला फाउण्डेषन और बिहारी पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ जिसने मुझे इस पुरस्कार से गौरवान्वित किया। असल में तो यह पुरस्कार मेरे लिए नही उन लोगों के लिए जो मेरी पुस्तक ‘‘यह एक दुनिया’’ में आए हैं। दूसरे षब्दों में कहूं तो अभी भी कई जो छूट गये और ऊपर तली हो रहे हैं। षायद उन्हें भी कभी कागज के पन्नों पर टांक पाऊंगा। मेरे लिए तभी इस पुरस्कार की सार्थकता होगी।
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सत्यनारायण की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/1.html?m=1


सत्यनारायण
कृतियाँ : फटी जेब से एक दिन, रेत की कोख में, सितम्बर में रात (कहानी) इस आदमी को पढ़ो, यहीं कहीं नींद थी, जहाँ आदमी चुप है, यह एक दुनिया, यायावर की डायरी (रिपोर्ताज) तारीख की खंजड़ी (डायरी) अभी यह धरती, जैसे बचा है जीवन (कविता) यादों का घर (संस्मरण) नागार्जुन, रचना के सरोकार, रचना का स्वाभाव, रचना की पहचान (आलोचना)
अनुवाद : सितम्बर में रात (कहानी) मराठी में अनुवाद। अभी यह धरती (कविता) अंग्रेजी व गुजराती में अनुवाद।
सम्मान व पुरस्कार : राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा कन्हैयालाल रुहल पुरस्कार। आचार्य निरंजननाथ सम्मान। राजस्थान पत्रिका द्वारा सृजनात्मक साहित्य सम्मान। के. के. बिड़ला फाउण्डेषन द्वारा बिहारी पुरस्कार सहित कई सम्मान व पुरस्कार। 
‘कथादेष’ में बरसों तक ‘‘यायावर की डायरी’’ स्तम्भ लेखन।
सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, जयनारायण व्यास विष्वविद्यालय, जोधपुर राजस्थान
मो. 9414132301

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