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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 जुलाई, 2018

मीडिया और समाज : नौ


मनोरंजन : ध्वनि और छवियों का बाजार और मीडिया

संजीव जैन

आज मनोरंजन एक उद्योग है जो हम तक ध्वनि और आभासी छवियों के बाजार के रूप में पहुंचता है। अब हम तकनीकी मनोरंजन के दौर में हैं। एक कृत्रिम, आभासी और बिना सहभागिता के मनोरंजन के द्वारा निर्मित समाज का निर्माण कर रहे हैं। आज की किशोर और युवा पीढ़ी अस्वस्थ मनोरंजन के नशे में चूर है। मनोरंजन जो चौबीसों घंटे उपलब्ध है, पर जो चित्तवृत्तियों और तन को स्वस्थ (हेल्दी)नहीं बना रहा बल्कि बीमार, तनावपूर्ण और मोटा बना रहा है।



मानवता के विकास के आरंभ से ही मनोरंजन शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का एक साधन था चूंकि तकनीकी मनोरंजन युग से पहले मनोरंजन उद्योग नहीं था, मनोरंजन एक प्रत्यक्ष सहभागिता के साथ ही संभव होता था। खेल या दृश्य कोई भी माध्यम हो हमारी भौतिक और मानसिक सहभागिता जरूरी थी। सदेह सहभागिता से शारीरिक और मानसिक विकास होता था। व्यक्ति सामूहिक जीवन की कला सीखता था। बच्चे साथ साथ रहने के मूल्यों और संवेदनाओं को अपने अंदर विकसित करते थे। खेल जो मनोरंजन का सबसे सशक्त और एक महत्वपूर्ण साधन था सहभागिता के नियमों से संचालित होता था। सहभागिता के नियमों और निर्देशों को सहभागिता करने वाले स्वयं बनाते और लागू करते थे। वे सामूदायिक संघर्ष और समन्वय के सिद्धांतों को प्रत्यक्ष रूप से सीखते थे। मनोरंजन खेल के शारीरिक और मानसिक दोनों आयामों को साथ साथ विकसित होने देता था। दैहिक और मानसिक अन्विति जीवन की धूरी होती है। तकनीकी और कम्प्यूटराइजड मनोरंजन और खेल के साधन इस अन्विति को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं।

तकनीक द्वारा निर्मित मनोरंजन के साधन अस्वाभाविक रंग और ध्वनियों का संयोजन होता है। यह संयोजन हमारे मस्तिष्क की क्रियाविधि पर प्रभाव डालता है यह प्रभाव अक्रिय प्रभाव होता है। यह दैहिक सहभागिता के बिना का प्रभाव होता है। यह सिर्फ उत्तेजना पैदा करता है। तनाव पैदा करता है। स्नायु तंतुओं पर कोई रचनात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। तकनीकी और यांत्रिक सक्रियता हमारी संवेदनात्मक सूचनातंत्र को तबाह कर देती है। चूंकि कम्प्यूटराइजड खेल और इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम पर जो मनोरंजन उपलब्ध है दूसरों के द्वारा प्रोग्राम्ड है, इसलिए उसमें शारीरिक और मानसिक सक्रिय भागीदारी संभव नहीं है। खेलने वाले की मानसिक भागीदारी भी अनुकरणमूलक होती है जो सुनिश्चित आने वाली दशाओं या स्टेजेज को देखता रह जाता है उसकी कोई योजना या रणनीति की वहां कोई आवश्यकता ही नहीं होती। पूरा गेम या कोई भी मनोरंजन कार्यक्रम पहले से विशिष्ट मानसिक स्थिति के लिए तैयार किया गया होता है। इस तरह संचार माध्यमों पर मनोरंजन एक अनुकूलन के लिए प्रोग्राम्ड किया गया होता है।

आभासी खेल मनोरंजन के सबसे ख़तरनाक साधन हैं। ब्लू व्हेल गेम ने यह सिद्ध कर दिया कि मनोरंजन के इस साधन की मानसिक अनुकूलन की क्षमता कितनी खतरनाक है। सैकड़ों लोगों ने आत्महत्या कर ली। यह मानसिक अनुकूलन का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह सभी आभासी खेलों पर लागू होता है। चूंकि आभासी खेल ज्यादातर बच्चे या किशोर - युवा खेलते हैं। उनको एक विशिष्ट तरह के अनुशासनात्मक  नियमों के तहत व्यवस्था के प्रति अनुकूलित कर दिया जाता है। अप्रत्यक्ष आभासी तकनीकी खेल और मनोरंजन के अन्य तरीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग अपने वास्तविक जीवन के प्रति पजेसिव हो जाते हैं। उनमें एक सहज स्वीकार्य का भाव आ जाता है। वे पारिवारिक और भौतिक संबंधों के प्रति निष्क्रिय और संवेदनहीन संबंध बना लेते हैं। उनमें उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव खत्म होता जाता है यथार्थ और वस्तुगत जीवन के प्रति। घरेलू खाने-पीने के प्रति उदासीनता और बाजारू गतिविधियों के प्रति सक्रियता एक बड़ा उदाहरण है। कम्प्यूटराइजड और नेटवर्क आधारित मनोरंजन प्राकृतिक और स्वाभाविक मनोवृत्तियों को तकनीकी बना देता है। स्वाभिक रंग अपदस्थ हो जाते हैं, कृत्रिम रंग हमारे बाहरी और दैहिक जीवन पर छा जाते हैं। बालों का स्वाभिक रंग अब गंदा लगता है, चेहरा अपने वास्तविक रूप में बदसूरत है, बिना फेसियल के, आंखों के वास्तविक रंग चेहरे पर शोभा नहीं देते। तमाम जीवन कृत्रिम रंगों से पुत गया है। यह मनोरंजन के तकनीकी साधनों के लगातार प्रयोग से ही संभव हुआ है।
कम्प्यूटर आधारित मनोरंजन ध्वनि और छवियों की श्रृंखला बनाता है। यह अत्यंत जटिल तकनीकी संयोजन है। इस संयोजन में मानव मस्तिष्क को अनुकूलित करने की तकनीकी क्षमता होती है। इन छवियों और ध्वनियों को स्वाभाविक ध्वनि और छवियों की तरह बनाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में हमारी रंगों और ध्वनियों को संवेदनीय बनाने वाली चेतना कृत्रिम निर्मित के प्रति अनुकूलित होती जाती है और स्वाभाविक के प्रति अन-अनुकूलित। इस तरह मनोरंजन एक उत्पाद की तरह, एक वस्तु की तरह हमारे जीवन के खाली समय और स्थान को घेरकर उसे कृत्रिम बना देता है।

तकनीकी मनोरंजन के साधनों ने बच्चों और युवाओं की सहनशक्ति और प्रतिरोध की क्षमता को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है। असफलता को सहने की मानसिक और शारीरिक क्षमता जो प्रत्यक्ष सहभागिता वाले मनोरंजन से मिलती थी वह अब जीवन से नदारद है। यही कारण है कि परीक्षाओं में जरा सी असफलता उन्हें आत्महत्या तक ले जाती है या अवसाद में ढकेल देती है।

मनोरंजन एक संपूर्ण दैहिक और मानसिक गतिविधि होनी चाहिए। परंतु अब ऐसा नहीं है। अब जो मनोरंजन लगातार परोसा जा रहा है वह ध्वनि और छवियों के तकनीकी प्रभावों के द्वारा निर्मित है। यह प्रभाव हमारे श्रृव्य और दृश्य इंद्रियों पर लगातार दुष्प्रभाव डालता है। यह कृत्रिम ध्वनि और छवियां जीवन की वास्तविक आवाजों और व्यक्तियों के प्रति उदासीन बना देता है।
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मीडिया और समाजः आठ नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_16.html?m=1


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