image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 जुलाई, 2018

मीडिया और समाजः पांच


अतिशयता की भिक्षा और मायालोक

संजीव जैन


संजीव जैन


मीडिया ने सूचनाओं की अतिशयता पैदा की है और हम जानते हैं कि किसी भी चीज की अति बेकार होती है। जब चीजें बिना जरूरत के अपने आप मिलने लगती हैं तो उनका कोई मूल्य नहीं होता। पर सवाल यह उठता है कि संचार माध्यमों ने सूचनाओं की अति क्यों की है? चौबीसों घंटे हजारों चैनल और अन्य माध्यम सूचनाएं परोस रहे हैं, क्यों? सूचनाएं बिखरी पड़ी हैं तमाम संचार माध्यमों पर, क्यों? सूचनाओं का यह प्रवाह आखिर क्यों प्रवाहित किया जा रहा है? सूचना युग, सूचना समाज जैसे पदबंध मस्तिष्क की जिज्ञासा वृत्ति जिसे cognitive brain कहा जाता है, को कुंद करने के लिए काम करते हैं। सूचनाओं का मूर्तिकरण-दृश्यात्मकता मस्तिष्क की वास्तविक रचनात्मकता को, कल्पना शक्ति को, चीजों को अपने परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य में देखने और समझने की जिज्ञासा और चिंतनशीलता को एक दम खत्मकर देती है। जब से सूचनाओं के रूप में मानवीय संज्ञानात्मक प्रवृत्ति का डिजिटाइजेशन हुआ है एक पूरी पीढ़ी की दिमागी उर्वरता खत्म होती जा रही है।
सूचनाओं की अति के पीछे यही एक सबसे अमानवीय लक्ष्य है जिसे साधा जा रहा है। मानवीय मस्तिष्क की उर्वर जिज्ञासाओं को हमेशा के लिए समाप्त कर देना। यह पूंजीवादी व्यवस्था के अनंतकाल तक चलते रहने के लिए आवश्यक है, अतः वह यह काम बहुत ताकतवर ही तरीके से अंजाम दे रहा है। संचार माध्यम एक अत्यंत अमानवीय कार्य संपादित कर रहे हैं, सूचनाओं की अति से और उनके दृश्यीकरण से।
मानवीय मेधा को यदि तकीनीकीकृत होने से बचाना है तो उसे सूचनाओं की अतिशयता से अपने आपको बचाना होगा।

पूँजीवाद अमीरों को अपनी अतिशयता को भिक्षा के रूप में बांटने की छूट देता है, साथ ही अमीरों को भिक्षा देने की बाध्यता से मुक्त भी करता है। यह एक ऐसा समीकरण है जो संपूर्ण पूँजीवादी परोपकार या चैरेटी नामक भिक्षानुदान को जायज ठहराकर मानसिक और वैचारिक नियंत्रण को अंजाम देता है। पूँजीवादी चैरेटी या भिक्षानुदान एक अमानवीय क्रूरता है। यह ठीक वैसा ही है कि सिगरेट बेचने वाली कंपनी केंसर अस्पताल खोले और उसमें तम्बाकु के इस्तेमाल से होने वाले केंसर के रोगियों को इलाज में कुछ छूट प्रदान करे।
पूँजीवाद के द्वारा वैचारिक और संवेदनशीलता पर नियंत्रण की अनेक तकनीकों में से ‘भिक्षानुदान’ भी एक तकनीक है, जो खासतौर से बुद्धिजीवियों के विचारों पर और आम आदमी की संवेदनाओं को अपने पक्ष में इस्तेमाल करती है। जनसंचार माध्यम इस युक्ति को पूँजीवाद के खूनी चेहरे को लोककल्याणकारी बनाकर पेश करने में उपयोग करते हैं। जब भी कोई बड़ा पूँजीपति चैरेटी में कुछ देता है तो इस खबर को तमाम संचार माध्यम मुख्य समाचार में बार-बार प्रशंसात्मक भाषा में प्रस्तुत करते हैं। ताकि लोगों तक पूँजीवाद की कल्याणकारी छवि पहुँचे। संचार माध्यमों का यह जन विरोधी चरित्र है जो जनचेतना के अंदर एक अत्यंत अमानवीय और हिंसक छवि को कल्याणकारी छवि की तरह बैठा देती है। इसके बरक्स संचार माध्यम कभी भी उन पूँजीपतियों की उस क्रूर और हिंसक छवि को पेश नहीं करता, जो हिंसक और उत्पीड़नकारी गतिविधियाँ अंजाम दी जाती हैं, जिनमें हजारों लाखों लोग हताहत होते हैं, या उत्पीड़न का शिकार होते हैं, और इन गतिविधियों के पीछे पूंजीपतियों की मुनाफा कमाऊ नीतियां होती हैं, प्रस्तुत नहीं करते। जैसा कि अभी हाल में तमिलनाडु के तुतीकुड़ी बंदरगाह पर कॉपर कारखाने के खिलाफ कर रहे जनविरोध में पुलिस द्वारा गोली चलाने से 11 लोग मारे गये। लोग वहाँ के प्रदूषण से सांस नहीं ले पा रहे हैं। इस घटना के बाद किसी भी जन संचार माध्यम ने उस कारखाने के मालिक की हत्यारी छवि को पेश नहीं किया। जबकि पुलिस से अधिक उत्तरदायी कारखाने का मालिक था इस तमाम घटना के लिये। लेकिन यही कारखाना मालिक किसी चैरेटी में भिक्षानुदान करेगा तो तमाम संचार माध्यम उसकी लोककल्याणकार छवि को मुख्य समाचारों में छापेंगे। ऐसा हजारों घटनाओं में देखा गया है। यह संचार माध्यमों का जन विरोधी चरित्र है जो जन चेतना को अनुकूलित करता है, जो भेड़ियों को नील गाय की छवि में प्रस्तुत करता है।

अतिशयता को भिक्षा के रूप में बांट देने की युक्ति का बड़े व्यापक रूप में प्रयोग किया गया है। पूँजीवाद के वित्तीय साम्राज्यवादी रूप ने संपूर्ण विश्व में इस युक्ति को अनेक रूपों में प्रयोग किया है। इस युक्ति को शेष विश्व में वैधता दिलाने के लिये संचार माध्यमों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से अमेरिका ने दुनिया के जितने देशों पर सैनिक कार्यवाही की है, उनकी रिपोर्टिंग और छवि निर्माण के मीडिया के प्रयासों का अध्ययन हमें इस युक्ति की बर्बरता को बताता है। अमेरिका के वियतनाम से लेकर ईराक तक जो भी सैनिक कार्यवाहियाँ हुईं है, वे पहले तो संबंधित देश को अपराधी या लोकतंत्र विरोधी, या जन विरोधी या सिद्ध करते हैं। फिर लोकतंत्र या मानवाधिकारों के समर्थक और रक्षक के रूप में अमेरिका की छवि पेश करते हैं और फिर इसी तर्क के आधार पर अमेरिका की सैनिक कार्यवाही को जायज ठहराते हैं, लाखों लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या, शहर के शहर बमबारी से बर्बाद किये जाते हैं, स्कूल, अस्पताल, पुस्तकालयों पर बमबारी की जाती है और इन सबको मीडिया जायज सिद्ध करता है, जैसे बच्चों के स्कूल और अस्पतालों से अमेरिका के ऊपर परमाणु बमों का हमला होने वाला हो और अमेरिका आत्मरक्षा में यह आक्रमण कर रहा है। लाखों करोड़ों लोगों की जिंदगी को तहस-नहस किया जाता है और फिर अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उन बर्बाद शहरों के पुनर्निमाण का ठेका दिया जाता है। इस कार्यवाही को मीडिया जनकल्याणकारी कार्यवाही के रूप में पेश करता है। प्रत्येक अमेरिकी सैन्य कार्यवाही के आरंभ से अंत तक की अमेरिकी और उसके समर्थक देशों की रिपोर्टिंग को ध्यान से देखिये यही युक्ति प्रयोग होती हुई दिखेगी।
सैनिक कार्यवाहियों के रूप में यह जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना जाल बिछाने के लिये गया सफाई अभियान चलाया जाता रहा है, वह दरअसल इन कंपनियों की अतिशय पूँजी को मुनाफा कमाने के लिये ठिकाने लगाने का हथंकडा है, जिसे चैरेटी या उपकार की शक्ल में मीडिया प्रस्तुत करता है। अतिशयता की भिक्षा के अनेक हिंसक और दमनकारी रूप संपूर्ण विश्व में दिखाई देंगे यदि हम मीडिया के चश्मे को उतारकर उन लोगों के साथ खड़े होकर देखेंगे जो या तो उत्पीड़ितों के पक्ष में हैं, या स्वयं उत्पीड़ित वर्ग में शामिल हैं। अमेरिकी टेंकों पर बैठकर की गई भारतीय मीडिया के ईराक युद्ध की रिपोर्टिंग हमें सब कुछ वही दिखायेगी जो साम्राज्यवादी हितों को पोषित करती है। ईराक या फिल्सितीन में मरने वाले बच्चों, स्त्रियों और मुक्ति संघर्ष के सदस्य हमेशा ही पुतले या मानवता विरोधी नजर आयेंगे यदि हम इजरायल और अमेरिकी मीडिया के चश्मों का प्रयोग करते रहेंगे।



1.    जनमाध्यमों का मायालोक, नोम चॉम्स्की, ग्रंथशिल्पी, पृ. 157
                       

मीडिया और समाज: चार नीचे लिंक पर पढ़िए

सूचना समाज की असंगत परिणति

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_53.html?m=1


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें