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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 जुलाई, 2018


यात्रा वृतांत: 

लाहुल स्पीती यात्रा -- 
(चंडीगढ़शिमलानारकंडा )

रश्मि रविजा


रश्मि रविजा 


 भाग एक  

मेरा  पहाड़ घूमने का मन था ,पर जानी सुनी , भीड़ भरी जगहों पर नहीं। मुझे एक मित्र ने 'लाहुल स्पीति ट्रिप' सुझाया। इसके पहले मैंने यहाँ का नाम भी नहीं सुना था। फिर तो इंटरनेट खंगाला गया ,काफी कुछ पढ़ा और ग्यारह दिनों की ट्रिप प्लान कर ली।  'लाहुल स्पीती' हिमाचल प्रदेश में स्थित दो जिलों का नाम है ,जिन्हें पहाड़ों का रेगिस्तान भी कहा जाता है..करीब  15000 फीट पर स्थित यह भारत की चौथी सबसे कम आबादी वाली जगह है. यहाँ सिर्फ ऊंचे पहाड़, नदियाँ, झरने मिलने वाले थे. हमारी यात्रा के पड़ाव थे ,चंडीगढ़- नारकंडा- सराहन- सांगला- चिट्कुल-काल्पा- टाबो- काज़ा - चंद्रताल - मनाली- चंडीगढ़। हमने सब जगह होटल की बुकिंग कर दी।



मुंबई से चंडीगढ़ की सुबह की फ्लाइट थी। मुंबई की ट्रैफिक से तो सभी वाकिफ हैं। सुबह ऑफिस जाने वालों का रश भी होता है. लिहाजा हम मार्जिन लेकर चले थे फिर भी हमारे 'ओला कैब' का ड्राइवर धीमा था या उस दिन ट्रैफिक ही ज्यादा थी पता नहीं. पर हम बहुत लेट हो गए. बोर्डिंग बंद हो चुकी थी। जेट एयरवेज के कर्मचारी किसी तरह भी नहीं मान रहे थे। जब हमने काफी रिक्वेस्ट की तो उस लड़की ने अपने किसी सीनियर से बात कर कहा कि 'आपलोग जा सकते हैं पर आपका सामान नहीं जा पायेगा।  कोई छोड़ने आया है तो उनके हाथ घर भिजवा दीजिये।' कितनी अजीब सी बात है, बिना सामान हम कैसे जाते। फिर थोड़ा मक्खन लगाया तो उसने कहा, 'अच्छा दोपहर की फ्लाइट से भेज देंगे।' पति और बेटे  के कुछ कहने से पहले ही मैंने हामी भर दी। चंडीगढ़ से हमें तुरंत ही निकल जाना था और शिमला होते हुए 182  किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 'नारकंडा' पहुंचना था। दोपहर को निकलते तो मुश्किल होती पर और कोई चारा ही  नहीं था। उस लड़की ने एक दूसरे कर्मचारी को बुलाया और हमें उसके सुपुर्द कर दिया। वो लड़का हमें दौड़ाते हुए बिना किसी क्यू में लगे,सिक्योरिटी चेक करवा बाहर तक ले गया। वहाँ उसने जेट एयरवेज़ के एक सूमो को इशारे से बुलाया और एयरक्राफ्ट तक ले जाने के लिए कहा. एक आदमी प्लेन के नीचे इंतज़ार में खड़ा था।  हमे देखते ही बोला ..."हरी अप ,वी वर वेटिंग फॉर यू " .एयरक्राफ्ट के अंदर गई तो पाया एयरहोस्टेस ,'सुरक्षा निर्देश ' देने की तैयारी कर रही थी और सबलोग हमें घूर रहे थे कि 'कौन हैं ये लेटलतीफ लोग ' . मन कृतञता  से भर गया था और मैंने सोचा था ,जेट एयरवेज़ के वेबसाइट पर जाकर एक धन्यवाद ज्ञापन लिखूंगी। पर लौटते वक्त उनके व्यवहार ने ऐसा मन खट्टा किया कि मैंने थैंक्यू नोट लिखना कैंसल कर दिया.


 चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर हम टकटकी लगाए देख रहे थे कि शायद हमारा सामान आ गया हो। और जब काफी देर बाद हमारा बड़ा सा बैग नज़रों की ज़द में आया तो सारी  मायूसी काफूर हो गई.  हमने एक इनोवा बुक की थी , जो हमें चंडीगढ़ एयरपोर्ट से रिसीव कर सारी जगहें घुमा फिर चंडीगढ़ छोड़ जाने वाली थी । बाहर ड्राइवर इंतज़ार में ही था। एक मेजदार बात हुई. मेरे साथ ही एक महिला अपनी ट्रॉली धकेलते हुए जा रही थी...जब हमारी नज़रें मिलीं तो अनजान होते हुए भी हम दोनों एक दूसरे को देख खुल कर मुस्करा दिए, 'हम दोनों ने बिलकुल एक जैसा टॉप पहना हुआ था :) .मुंबई के एक ही स्टोर से खरीदा होगा.

 लम्बी चौड़ी सड़क पर गाड़ी तेजी से भाग रही थी. सडक लगभग खाली सी थी जो मुम्बई के ट्रैफिक की अभ्यस्त आँखों को सुखकर लग रही थीं.

 शिमला में एंटर करते ही घुमावदार सड़कें, लाल, हरे  रंग  वाली टीन की छतें, ऊँचे चीड़ के वृक्ष और उनके पार पर्वतों की चोटियां मन मोह ले रही थीं।  शिमला पहुँचते अँधेरा घिर  आया. शिमला से हमें गर्म कपड़े खरीदने थे।  आगे 'रोहतांग पास' वगैरह में मौसम ठंढा होने वाला था और हम मुम्बईकर के पास गरम कपडे होते  नहीं. मेरा हॉलिडे का मूड, ठंढी हवाशिमला की पतली गालियां, छोटी दुकानें, लाल लाल गाल वाले प्यारे से बच्चे। सब कुछ इतना  खुशनुमा लग रहा था कि मन हो रहा था, खरामा खरामा चलती रहूं पर ड्राइवर बार बार फोन कर रहा था कि हमें नारकंडा पहुंचते बहुत रात हो जायेगी, पहाड़ी रास्ता है...और रास्ता भी खराब है. बिना ज्यादा घूमे, मोलभाव किये पहली  दूकान में जो मिला...हमने स्वेटर,जैकेट,मफलर सब खरीद लिया |
( सिर्फ चंद्रताल में जैकेट काम आये ,बाकी स्वेटर वगैरह अब तक वैसे ही नए पड़े हैं. जुलाई के महीने में बाकी सारी जगहों पर जरा भी ठंढ नहीं थी और मौसम बहुत खुशनुमा था। )





नारकंडा का रास्ता सचमुच बहुत ही भयावह था। पतली सी सड़क. कहीं,कहीं कच्ची भी, दोनों तरफ झाड़ियाँ और अँधेरे में सिर्फ हेडलाइट के सहारे बढ़ती हमारी गाड़ी।  बरसों से इतना अँधेरा रास्ता मैंने देखा ही नहीं था. मुंबई में तो सड़कों पर इतनी गाड़ियां और उनके हेडलाइट से इतना उजाला होता है कि दो बार ऐसा हुआ है, मैं तीन घंटे का सफर करके आ गई हूँ और हेडलाइट ऑन ही नहीं की। दोनों बार शाम  को चली थी, रास्ते में अन्धेरा तो हो गया था पर अहसास ही नहीं हुआ. एक बार तो बिल्डिंग के नीचे गाडी पार्क करने के बाद मैंने हेडलाइट ऑफ करने की सोची तो पाया ऑन ही नहीं किया था। दूसरी बार, घर के पास का एक स्ट्रीट लाइट खराब था ,मैंने सोचा इतना अँधेरा क्यों लग रहा तब ध्यान गया कि हेडलाइट ऑन ही नहीं है. ट्रैफिक पुलिस पकड़ लेती तो हेवी फाईन लगता पर उन्हें भी इतनी बत्तियों की चकाचौंध में पता ही नहीं चला होगा.


अब तक हम थक कर चूर हो चुके थे ,निढाल से पड़े थे। जंगलों के बीच एक ढाबा नज़र आया, ड्राइवर से आग्रह किया गया, 'कुछ खाकर चाय पी जाए।' आँखों के सामने गर्मागर्म समोसे और पकौड़े की प्लेट नाच रही थी। पर ढाबा बिलकुल खाली था ,एक औरत कुछ रख,उठा रही थी. दो लडकियां टी वी देख रही थीं. पता चला, बिस्किट और चाय के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. माँ आवाज़ लगाती रह गई, पर देश-विदेश, मैदान- पहाड़ कोई भी जगह हो, किशोरावस्था एक सी होती है. लडकियां टी वी के सामने से नहीं उठीं. माँ ने ही हाथ का काम छोड़ स्टोव जला, चाय बनाई ।  वे लोग जितना हो सके स्टोव या लकड़ियों पर खाना बनाती थीं. गैस बचा बचा कर खर्च करती थीं.


नारकंडा 

नारकंडा में हमारा होटल एक छोटी सी पहाड़ी पर था. दोनों तरफ ढलान और ढलान पर हल्की रौशनी में नहाते चीड़ के पेड़ एक तिलस्म सा रच रहे थे।  होटल की बगल में कुछ लोहे की कुर्सियां और गोल टेबल रखे थे। किनारे रेलिंग थी और रेलिंग के पार गहरी घाटी।  तभी हल्की सी बारिश शुरू हो गई. होटल के शेड में लगे बल्ब से छन कर आती रौशनी में नाचती बारिश की बूंदें कुछ इतनी भली लग रही थीं कि मन हुआ उस  फुहार में कुर्सी पर देर तक बैठी रह जाऊँ ,पर थके शरीर ने इज़ाज़त नहीं दी। कुछ देर बाद संगीत और शोर शराबे की आवाज़ आने लगी ।  खिड़की से देखा, कुछ युवा उसी फुहार में गाना लगा, पार्टी कर रहे थे। हमने सोचा ये तो शिमला से आये होंगे ,हम तो मुम्बई से करीब २००० किलोमीटर का सफर करके आये हैं। खाना भी हमने रूम में ही मंगवाया और उन सबकी एन्जॉयमेंट पर रश्क करते सो गए.

सुबह मैं सबसे पहले उठ कर बाहर को चल दी। नीचे से होटल तक आती लाल घुमावदार पतली सी सड़क के  दोनों तरफ जहां तक नज़र जाती ,कुहासे में लिपटे लम्बे लम्बे चीड़ के पेड़ नज़र आ रहे थे. . ऐसा दृश्य बस फिल्मों में ही देखा था। शायद किसी ब्लैक एन्ड व्हाईट फिल्म में नायिका जोर जोर से विरह के गीत गाती ,ऐसे ही पेड़ों के बीच भटकती रहती थी . पेड़ पर कुछ बंदर उछलकूद मचाते ,पकडापकड़ी खेल रहे थे। सोचा, मजे है इनके तो आँखें खुली और खेल शुरू , नहाने धोने, खाने-पीने की चिंता ही नहीं...:)








बहुत शौक था की किसी अनजान शहर में सुबह सुबह मैं अकेली निरुद्देश्य  घुमा करूं. लिहाजा चलती चली गई. शहर बस अलसाया सा अधमुंदी आँखों से माहौल का जायजा ले रहा था. इक्का दुक्का लोग सड़कों पर थे. पर सड़क मरम्मत करने वाले इतनी सुबह से काम पर लगे थे।  सब अठारह-बीस वर्ष के लड़के लग रहे थे। पता नहीं वहीँ के थे या फिर दूसरे शहरों से मजदूरी करने आये थे। इतनी सुबह उन्हें फावड़ा चलाते देख,अपने इस तरह निफिक्र  घूमने पर कुछ गिल्ट भी हुआ.

 चौराहे पर एक मंदिर था। लोहे का जालीदार दरवाजा बंद था।  भगवान जाग भी गए होंगे पर पुजारी पर निर्भर थे। वो जब उन्हें नहलाये-धुलाये, भोग लगाए। थोड़ी देर सड़कों पर भटकती रही, पीछे से बेटा भी आ गया। एक छोटी सी चाय की दूकान थी. हमने चाय की फरमाइश की तो दुकानवाले ने कहा, 'अभी बना देता हूँ  '. पूरे हिमाचल ट्रिप पर मैंने पाया ,वे लोग चाय ऑर्डर करने पर बनाते थे. बनी बनाई चाय नहीं होती थी. इस से हमारा फायदा ये  हो जाता कि हम फरमाईशी चाय बनवाते, 'चीनी जरा काम डालना, थोड़ी अदरक इलायची डाल  देना।'

चाय पीकर हम होटल वापस आ गए।  अब तैयार हो, थोड़ा 'नारकंडा'  घूमते हुए 'सराहन' के लिए निकलना था। सामान पैक करते खिड़की के पार जो नज़र गई तो टूर ऑपरेटर की बात सही साबित होती लगी.उसने कहा  था ," यहाँ  हर दो मिनट  पर दृश्य बदल जाते हैं " अब तक सामने दिखती पहाड़ी बादलों में लिपटी पड़ी थी. अब मानो पहाड़ी ने बादलों की चादर परे  फेंक दी थी . सूरज की नरम रौशनी  में नहाये छोटे छोटे लाल हरे खिलौने से घर खूबसूरत लग रहे थे। मैंने तस्वीरें लेने की सोची पर फिर लगा, हाथ का काम पूरा कर लिया जाये. बैग की ज़िप बंद कर जैसे ही कैमरा ले खिड़की के पास गई....आलसन पहाड़ी ने फिर बादलों की चादर अपने ऊपर खींच ली थी.  कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था.

एक सीख भी मिली,.... जो दृश्य अच्छा लगे, झट कैमरे में कैद करो, वरना बदल जाएगा.


 लाहुल स्पीती यात्रा वृत्तांत --
(सराहन, सांगला, चितकुल  )
 सराहन

नारकंडा से हम सुबह दस के करीब ,सराहन  की तरफ चले .रास्ता बहुत ही खूबसूरत  था ,पतली घुमावदार सडकें, ढेर सारी हरियाली के बीच सेब के बाग़ . मैंने पहली बार पेड़ों पर लगे सेब को देखा सेब के पेड़ तो देखे थे पर सेबों के मौसम में कभी हिमाचल आना नहीं हुआ था . गुच्छे में लटके लाल लाल सेबों को देखकर  मैं तो जैसे पागल हुई जा रही थी. एक जगह मैंने गाड़ी रुकवाई और फोटो खींचने के लिए उतर पड़ी. मेरा उत्साह देख सब डर गए कि मैं कोई सेब तोड़ ना लूँ, पर बिना पूछे कैसे हाथ लगा सकती थी .अक्ल घर थोड़े ही भूल आई थी, साथ लेकर चल रही थी |लिहाजा पेड़ों के सामने ढेर सारे फोटो खिंचवाए .कई जगह  सतलज नदी भी संग संग चली और उसका कल कल करता  मधुर स्वर...सफर को संगीतमय बना रहा था . तीन बजे के करीब हमलोग सराहन पहुँच गए |

सराहन हिमाचल का एक छोटा सा गाँव है .इसे किन्नौर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. यह शिमला से 165 और नारकंडा से100 किलोमीटर की दूरी पर   समुद्र तल से लगभग 7100 फुट की उंचाई पर स्थित है. पहले यह 'बुशहर रियासत 'की  राजधानी था .शायद कठिन भोगोलिक परिस्थितिओं को देखते हुए बाद में राजा राम सिंह ने रामपुर को बुशहर की राजधानी के रूप में विकसित किया और अंतिम राजा के रूप में श्री वीरभद्र सिंह जी ने इसका प्रतिनिधित्व किया.  हिमाचल के लोग उन्हें आज भी राजा साहब कह कर बुलाना पसंद करते हैं.

सराहन के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान कभी शोणितपुर कहलाता था. और यहाँ का सम्राट बाणासुर था, जो राजा बलि का पुत्र था. वह भगवान् भोले शंकर का परम भक्त था. त्रेता युग में रावण और बाणासुर के बीच में काफी संघर्ष होता रहा है, उस वक़्त बाणासुर ही एक अकेला ऐसा योधा था, जिससे रावण कभी जीत नहीं सका”.






होटल में सामान रख कर खाना खाया और यूँ ही भटकने निकल गए . एक छोटे कस्बे के बाज़ार सा था जहां जरूरत की सारी चीज़ें मिल रही थीं .स्कूल  यूनिफ़ॉर्म में बच्चे स्कूल से लौट रहे थे . स्कूल की  इमारत भी बड़ी सी थी. कुछ बच्चों से रोक कर स्कूल के विषय में बात की तो पता चला, अच्छी पढ़ाई होती है और  सारे विषयों के शिक्षक भी हैं . छोटे से कस्बे के हिसाब से अच्छी खबर थी. हिमाचल में शिक्षा  का स्तर अच्छा दिखा और जितने भी लोगों से मिली , स्त्री-पुरुष, सभी बारहवीं  पास जरूर थे |

दूसरे दिन सुबह तैयार हो हम भीमकाली मंदिर देखने निकल पड़े|

सराहन का भीमाकाली मंदिर बहुत प्रसिद्ध है. दूर दूर से लोग भीमा देवी के दर्शन करने आते हैं और मन्नतें माँगते हैं . 'बुशहर राजवंश' की ये कुलदेवी हैं .आज भी विजयादशमी के समय वीरभद्र सिंह यहाँ पूजा करने आते हैं. यह मंदिर राजाओं के महल के अंदर स्थापित था और उनका निजी मंदिर था पर अब यहाँ सार्वजनिक स्थान है. यह मंदिर सब तरफ से सेबों के बाग़ से घिरा हुआ  है.पर्वत शिखर श्रीखंड की  पृष्ठभूमि में यह बहुत ही मनमोहक लगता है.

यह 51 शक्तिपीठों में से एक है .कहते हैं शिव जी जब सती का शव कंधे पर लेकर तांडव नृत्य कर रहे थे तो सती का कान यहाँ गिरा था और भीमाकाली देवी प्रगट हुई थीं. मन्दिर के  दो भव्य भवन है . एक का जीर्णोद्धार  किया गया है और एक अपेक्षाकृत नया है.

 हिंदू और बौद्ध वास्तुशिल्प से निर्मित यह मंदिर लगभग 2,000 वर्ष पुराना है, मगर इसका जीर्णोद्धार कर इसको पुनः वही आकार दिया गया है। पत्थरों और लकड़ी के इस्तेमाल से बना यह मंदिर शत-प्रतिशत भूकंपरोधी है। मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर आप हिमालय को साक्षात निहार सकते हैं।  यह मंदिर अपनी विशिष्ट निर्माण शैली, लकड़ी की कलात्मक नक्काशी, और चांदी  चढ़े दरवाजों के लिए विख्यात है. उलटे पिरामिड की शक्ल में बने इस मन्दिर का नीचे बना आधार छोटा है, पहली मंजिल बड़ी और दूसरी मंजिल पहले से भी बड़ी है.,जिसके ऊपर छत्र है . मुख्य मन्दिर भी दुसरी मंजिल पर ही है. मन्दिर निर्माण की एक और विशिष्टता यह है कि यहाँ लकड़ी के स्लीपर तथा पत्त्थर की  सिलें एक एक ऊपर एक रखकर मुख्य दीवारें  बनाई गई है. ये दीवारें और ढलवां छत बौद्ध प्रभाव को दर्शाती हैं. निर्माण की इस विशिष्टता के कारण यह गर्मी सर्दी आसानी से शहन कर लेती हैं. अनुमानतः यह सातवीं, आठवीं, शताब्दी में बना था .. इस से पता चलता है कि उस समय तिब्बत के साथ भारत का व्यापार शुरू हो चुका था . लकड़ी और पत्थर से बनी दीवारें हैं और छत काफी नीची है.






मन्दिर का बाहरी दृश्य भी  मंत्रमुग्ध कर देने वाला है. यह मन्दिर बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है. मुख्य मन्दिर तक जाने में बड़े बड़े तीन आंगन पार करने पड़ते हैं .जहां देवी शक्ति के तीन अलग अलग रूपों की मूर्ति मन्दिर में स्थापित है. देवी भीमा की अष्टधातु से बनी अष्टभुजा वाली मूर्ति सबसे ऊपर वाले प्रांगण में है. पैगोडा आकार के छत वाली इस मंदिर में पहाड़ी शिल्पकारी के बहुत सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं.दीवारों पर लकड़ी के ऊपर देवी देवताओं, फूल पत्तीकी सुंदर नक्काशी है. मंदिर के प्रांगण में जाने वाले बड़े बड़े दरवाजों से गुजरना होता है उनपर चांदी मढ़ी हुई थी .

मंदिर के अंदर स्त्री या पुरुष बिना सर ढके नहीं जा सकते .गार्ड उन्हें एक हिमाचली टोपी पहनने के लिए देता है. चमड़े की  बनी कोई वस्तु बेल्ट या पर्स भी लेकर नहीं जा सकते . इन्हें रखने के लिए बाहर लॉकर बने हुए हैं. हैरानी की बात ये लगी कि लॉकर के पास ही ,ताले चाबी भी रखे थे . लॉकर में अपना समान रखो और ताला लगाकर चाबी जेब में डाल कर ले जाओ. कहने में शर्म आ रही है पर अपना उत्तर भारत होता तो ताले-चाबी कब के चोरी हो गए होते . यहाँ ट्रेन के टॉयलेट में मग और बैंक,ऑफिस  वगैरह में पेन भी जंजीर में बंधी होती है :(

पुरानी मन्दिर वाले प्रांगण में बहुत बड़े घड़े और कडाही पर्यटकों के दर्शनार्थ रखे गए हैं. हमने भी उनके संग कुछ  फोटो खिंचवाए .

सराहन का पक्षी विहार भी मशहूर है.हम वहाँ गए भी पर पता चला आजकल बंद है वह पक्षियों का प्रजनन काल है, उस वक्त पर्यटकों की आवाजाही से वे डिस्टर्ब  हो सकते हैं.. सही है,पक्षी हैं तो क्या,उन्हें भी आराम और  प्राइवेसी चाहिए ही. . वहीँ पर कुछ खूबसूरत मजदूर औरतें किसी भवन निर्माण में काम कर रही थीं और सुस्ताने के लिए रेत पर बैठी थीं. मुझे इतनी प्यारी लगीं कि मैंने उनकी तस्वीर ले ली .

सराहन में कई बौद्ध मठ भी हैं . एक मठ के प्रांगण में गए तो पाया, मठ बंद था .पर वहां मेरे मन  की मुराद पूरी हो गई. मठ कुछ उंचाई पर था उस से लगा हुआ कुछ नीचे एक सेब का बाग़ था .सेब से लदे डाल,मठ के प्रांगण में झूल रहे थे .पहले तो मैंने उन्हें तोड़ने की एक्टिंग करती  हुई तस्वीरें खिंचवाई. वहीँ दो तीन औरतें बैठी हुई थीं .वे मेरा कौतूहल  देख ,मुस्करा रही थीं.पता चला उनका ही बाग़ है और मैंने उनसे आग्रह किया, 'एक सेब तोड़ लूँ '.उन्होंने हंसते हुए इजाज़त दे दी...'एक क्या दो चार तोड़ लो'.पर मैंने दो ही तोड़े  .सेब अभी खट्टे ही थे पर इतने रसभरे और क्रंची कि मजा आ गया.


एक बहुत ही भव्य मठ एक पहाड़ी  के ऊपर बना हुआ था .वहाँ बुद्ध की विशालकाय मूर्ति थी .ऊपर से देखने से धुंध में लिपटा पूरा सराहन दिख रहा था . एक बौद्ध भिक्षु ने कतार से चमचमाते दीयों में दिया और बत्ती सजा रखी थी. पीतल के कई दीप स्तम्भ भी थे, जो सब चमचमा रहे थे . निश्चय ही वो बौद्ध  भिक्षु बहुत ही श्रद्धा लगन से अपना काम करता था . मठ के नीचे एक सेब का पेड़ दिख रहा था , जो फलों से इतना ज्यादा लदा हुआ   था कि उसकी पत्तियाँ भी नजर नहीं आ रही थीं. लौटते हुए हमें पानी बहने का स्वर तो सुनाई दे रहा था पर कहीं कोई धारा दिखाई नहीं दे रही थी....आवाज़ का पीछा करते रहे तो पाया...पत्थरों के नीचे से एक पतला सा झरना बह रहा था .इतनी बड़ी बड़ी शिलाएं भी उसकी आवाज़ नहीं दबा पा रही थीं ( हम स्त्रियों की आवाज़ सी )

अब शाम होने को आई थी...हम होटल लौट आये .दुसरे दिन सांगला के लिए प्रस्थान करना था .


सांगला

'सांगला' हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित एक सुरम्य पहाड़ी शहर है। भारत-चीन सीमा पर अपनी स्थिति की वजह से 1989 तक इस स्थान के दौरे के लिये, यात्रियों को भारत सरकार से एक विशेष अनुमति लेनी पड़ती थी। हालांकि, बाद में इस क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये इस नियम को समाप्त कर दिया गया। बस्पा नदी की घाटी में स्थित यह जगह तिब्बती सीमा से काफी निकट है।तिब्बती भाषा में 'सांगला काअर्थ है 'प्रकाश का रास्ता'। इसकी  की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत  है चारों तरफ हिमालय की उंची पहाड़ियों से घिरा और वन, ढलानों और पहाड़ों से छाया हुआ है।यहाँ सेब, खुबानी, अखरोट, देवदार के वृक्ष बहुतायत में हैं. बताया जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी वनों और प्राकृतिक सम्पदा से इतनी ज्यदा घनी थी कि अज्ञातवास के दौरान ,पांडव यहीं छुपे  थे . 

इन पहाड़ी रास्तों पर कहीं कोई होटल या ढाबा नहीं मिलता कि रुक कर कुछ खाया पिया जाए. हमें बेतहाशा भूख लग गई थी. जब होटल पहुंच कर खाना ऑर्डर करने के लिए बुलाया तो उसने पूछा, 'आप जो कहें वही बना देंगे , हमें सामान लाने बाज़ार  जाना होगा.' .अगस्त का महीना वहाँ घूमने के लिए बहुत मुफीद मौसम है पर पर्यटकों के लिए ऑफ सीजन है. पर्यटक, गर्मी या दशहरे की छुट्टियों में ही ज्यादातर आते हैं.

खाना तैयार होने में वक्त लगने वाला था . हमने कहा, 'हम बाज़ार में जाकर ही कुछ खा लेते हैं, अब आप शाम  को खाना बनाना' . होटल का कुक भी हमारे साथ ही बाज़ार आया .वहाँ एक रस्टोरेंट में दाल रोटी और सब्जी आर्डर की  सब्जी का स्वाद कुछ अजीब सा था , चाइनीज़ जैसा पर पूरी तरह वैसा भी नहीं .लेकिन हमें इतनी भूख लगी थी कि गर्म गर्म फुलके के साथ वो सब्जी भी स्वादिष्ट लगी . पास की टेबल पर एक कपल बैठा था . वो हमारे होटल में नहीं ठहरा  पर शायद  उनके होटल में भी खाना नहीं बना था. वे लोग भी दाल रोटी सब्जी खा रहे थे .वहाँ वाशबेसिन पर गजब जुगाड़ दिखा. एक बड़े से प्लास्टिक डब्बे में नल लगा हुआ  था और वही डब्बा वाश बेसिन के ऊपर टंगा था .







 होटल में पहुंचे तो पीछे की तरफ एक अद्भुत दृश्य दिखा . हमारे होटल और पहाड़ियों के बीच एक इन्द्र्धनुष तना हुआ था . इतने करीब से इन्द्रधनुष पहली बार देख रही थी, हमने इन्द्रधनुष के साथ एक सेल्फी  ले ली :) खिड़की से दिखता दृश्य बचपन में बनाई पेंटिंग सरीखा लग रहा था .बर्फ से लदी चोटिया ,पहाड़ों के ढलान पर देवदार के वृक्ष ,उसके ऊपर मखमल सा बिछा हरा चारागाह और नीचे बहती बलखाती चंचल  नदी ...नदी के किनारे फलों से लदे सेब के बाग़ .नदी की कलकल धरा का मधुर संगीत हमें यहाँ  तक सुनाई दे रहा था .बहुत देर तक  हम उन दृश्यों में खोये रहे . फिर ख्याल आया नदी तक घूम आया जाए .   नदी के किनारे ढलान पर एक गाँव बसा हुआ था . हम पूछते पाछते चल दिए ,.रास्ते में कई महिलायें पत्तों का बड़ा सा बोझा लादे ,घर की तरफ लौट रही थीं. . वे सर्दी के मौसम के लिए पशुओं का चारा इकठा करके रख  रही थीं.लाल लाल गालों वाली सुंदर पतली छरहरी महिलायें ,तेजी से इधर उधर काम से आ जा रही थीं. एक से रुक  र्मैने कुछ बात की तो वो पूछने लगी, कहाँ से आई हैं? और बम्बई कहने पर उसकी आँखें चमक उठीं, फिर उसने पूछा, '...कैसा लगा हमारा देस?" मेरे  'बहुत अच्छा ' कहने पर मुस्करा कर बड़ी मीठी आवाज़ में बोली, ;"फिर आना' . अनजान लोगों को भी अपने देस फिर फिर आने का न्योता, ये पहाड़ों के निश्छल लोग ही दे सकते हैं.

थोडा नीचे जाने पर ,नाग देवता का बहुत सुंदर मन्दिर मिला . उसके द्वार पर बड़े बड़े नागों की आकृति बनी हुई थी. वहाँ लिखा था ,'पारम्परिक वेशभूष में ही मंदिर के अंदर प्रवेश करें' .वैसे भी मंदिर बंद था . उस प्रांगण में ऐसे चार मंदिर थे ....कुछ लड़के लडकियाँ ,मन्दिर के प्रांगण में इक्खट दुक्खट खेल रहे थे . पूरे देश में ही लडकियां इसे खेलती हैं . खेलने के लिए बस थोड़ी सी जगह और एक पत्थर का टुकड़ा ही  तो चाहिए . शाम गहराने लगी थी , होटल से इतनी पास  दिखती नदी अब भी दूर नजर आ रही थी. और हम सोच रहे थे, जितना नीचे उतरते जायेंगे, वापस चढना भी पड़ेगा.सो लौट पड़े. एक छोटी सी दूकान में चाय पी और समोसे को याद करते  हुए मोमोज खाए .यहाँ समोसे चाट पकौड़ी की जगह बस मोमोज ही मिलते थे, जो मुझे नहीं पसंद (नॉनवेज खाने  वाले कहते हैं , वेज मोमोज अच्छे नहीं होते, नौन्वेज ज्यादा स्वादिष्ट होते हैं , अब  हम शाकाहारियों को ये कैसे पता चलेगा )

दूसरे दिन हमें भारत-तिब्बत  की सीमा पर बसे अंतिम गाँव 'चिट्कुल' के लिए निकलना था.


चितकुल

चितकुल बस्पा नदी के किनारे बसा बहुत ही खूबसूरत छोटा सा गाँव है. सांगला से २८ किलोमीटर की दूरी पर है. सांगला से चितकुल का रास्ता इतना खूबसूरत है कि आज भी आँखें बंद करती हूँ तो सारे दृश्य साकार हो उठते हैं. यह पूरा रास्ता फैले हुए जंगल के बीच से होकर गुजरता है.रास्ते के ,पार्श्व में बहती बसपा नदी...पिघलते ग्लेशियर की छोटी छोटी धाराएं, आस-पास पड़े बड़े बड़े सफेद गोल पत्थर, तरह तरह के घने हरे पेड़, दूर चमकती बर्फीली चोटियाँ रास्ते को नयनाभिराम बना देती हैं.  महसूस होता है , स्वर्ग अगर कहीं है तो ऐसा ही होगा..हर तरफ हरियाली से भरा यह क्षेत्र ,भोजपत्र के घने जंगलों के लिए विख्यात है. कभी भोजपत्र का उपयोग कागज़ की तरह किया जाता था ,हमारे ऋषि मुनियों ने भोजपत्र पर ही कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है. भोजपत्र, टिम्बरलाइन (समुद्रतल से ३३०० मीटर की ऊँचाई ) से ऊपर उगने वाल दुर्लभ वृक्षों में से एक है. इसका जंगल हज़ारों वर्षों में पनपता है.


बीच में एक पुल पार करना पड़ा और हम पुल से उतरकर नदी तक जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए . दूर से बहती हुई, पत्थरों से टकराती नदी की धारा बहुत तेज थी .एक पत्थर पर बैठ जैसे ही धारा में पैर डाला तो अगले ही पल निकाल लेना पड़ा...लगा पैर सुन्न हो जायेंगे...इतना बर्फीला,ठंढा पानी था .

 गाँव में लकड़ियों से बने हुए बहुत छोटे छोटे एक दुसरे से लगे हुए घर थे .बीच में एक बड़ा सा नाला बह रहा था .उस नाले का पानी इतना साफ़ था कि मैंने उसकी भी एक तस्वीर ले ली .गाँव  के किनारे खेतों में सरसों भी फूली हुई थी और एक पति पत्नी मिलकर खेत में कम कर रहे थे . एक घर के बाहर चटाइयों पर शलजम, गोभी सूख रहे थे .वहीँ एक बूढ़े सज्जन बैठे थे .पूछने पर बताया कि ये इंतजाम सर्दियों के लिए है. सर्दियों में इनका ही सूप बनाकर पीते हैं. गाँव के बीच में थोड़ी सी खाली जगह पर पड़ी एक लाल बेंच बहुत खूबसूरत लग रही थी . मन हुआ देर तक वहाँ बैठी रह जाऊं. चितकुल में आलू के बहुत उत्कृष्ट किस्म की अच्छी खेती होती है . दुनिया भर में यहाँ के आलू मशहूर हैं,क्योंकि यहां उगाये आलू को दुनिया में सबसे अच्छा माना जाता है और यह काफी महंगा भी है।


यहाँ एक स्थानीय देवी चिटकुल माथी का सुंदर मंदिर है, जो गांव के मूल निवासियों द्वारा माता देवी के रूप में भी जाना जाता है। हिंदू देवी गंगोत्री को समर्पित है,  .पर दोपहर के वक्त मंदिर बंद था ,हमने बाहर से ही दर्शन कर लिए. यहाँ बौद्ध मठ भी हैं .

वहाँ एक वॉलीबॉल कोर्ट भी था , जहां कुछ युवा  वॉलीबॉल खेल रहे थे .पास ही बहुत सारे बुजुर्ग, बैठे कोई मीटिंग कर रहे थे . चिट्कुल में दसवीं तक का एक स्कूल भी है और गाँव का हर कोई साक्षर है. सुदूर सीमा का अंतिम गाँव  जरूर है पर सारी आधुनिक सुविधाएं वहाँ पहुँच चुकी थी .घरों के ऊपर डिश एंटेना लगे हुए थे .पास की दूकान में पेप्सी, बिस्किट, चिप्स सब कुछ मिल रहा था .हमने भी वहाँ बैठ चिप्स के साथ अदरक इलायची वाली स्वादिष्ट चाय पी.

 उन्हीं खूबसूरत रास्तों को आँखों में भरते हम सांगला वापस हो लिए . होटल में खाना खा कर ,'कामरू किला' देखने चल पड़े.| कामरू किला अब एक हिंदू देवी कामाक्षी को समर्पित मंदिर में बदल गया है. पहले यहाँ  राजा रहते थे . यह काफी ऊँची एक पहाड़ी पर स्थित है. पर सीढियां बनी हुई हैं क्यूंकि पूरे पहाड़ पर घर बने हुए हैं और लोग बसे हुए हैं . रस्ते में सेब के पेड़ भी हैं और कई जगह सीढियों पर पेड़ की डाल से मेहराब सा बना हुआ है ,जिसपर हरे-लाल सेब बन्दनवार से सजे थे . सेबों की दीवानी मैंने उनके नीचे खड़े होकर भी एक तस्वीर खिंचवा ली |







हम चढ़ते जा रहे थे ,पर सीढियां खत्म होने का  नाम  ही नहीं ले रही थीं. पर शिकायत करते शर्म आ रही थी क्यूंकि लगातार लोग सीढियों से ऊपर जा रहे थे . एक बहुत बूढी महिला भी सीढ़ी चढ़ रही थीं. कुछ मजदूर पीठ पर दस -पन्द्रह ईंट एक थैले में बांधकर ऊपर चढ़  रहे थे और जाने कितने फेरे लगाते होंगे वे.

पूरी हिमाचल यात्रा के दौरान मैंने एक भी किसी स्थानीय मोटे स्त्री-पुरुष को नहीं देखा . पहाड़ों के ऊपर चढने का अभ्यास अतिरिक्त चर्बी कहाँ जमने देगा . ऊपर चढने के बाद पाया किले का विशालकाय दरवाजा बंद था और उसपर मोटा ताला जड़ा हुआ था .पर निराशा में डूबनेसे बेहतर  हमने सोचा किले के पीछे बसा गांव ही घूम आयें .कुछ युवा वहाँ बैडमिन्टन  खेल रहे थे .पूछने पर बताया कि पुजारी किसी काम से नीचे  गया होगा,थोड़ी देर में आ जाएगा .हम ऊपर ही इधर उधर घूमते रहे . कई जगह सफेद-काले-भूरे झबरीले कुत्ते पड़े सुस्ता रहे थे  .पहाड़ पर लोग कुत्तों का बहुत ख्याल रखते हैं. सारे कुत्ते बहुत हृष्ट पुष्ट थे. और अच्छी ब्रीड के लग रहे थे. थोड़ी देर बाद लौटे  तो पाया, पुजारी लौट आये थे . उन्होंने अंदर जाने से पहले एक हिमाचली टोपी पहनने के लिए दी और कमर में बाँधने के लिए एक कमरबंद सा दिया . बिना इसके किले में प्रवेश वर्जित था. जब रजिस्टर में अपना नाम लिखने की बारी आई तो पाया ऊपर के सारे नाम विदेशी थे , हॉलैंड ,
इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया ,जर्मनी, इजरायल आदि से पर्यटक थे. भारतीय नाम भी होंगें जरूर पर रजिस्टर के उस पेज पर नहीं थे .हमने अंदर से किला देखा, जिसमे कभी राजा रहते थे पर अभी वो एक साधारण से घर जैसा ही  लग रहा था .लकड़ी से बने इस किले की  अवस्था बहुत जर्जर थी . अच्छी देखरेख की  सख्त जरूरत है . मंदिर वाला कमरा उसने नहीं खोला ,बताय कि वो विशेष अवसरों पर ही खुलता है. किले के प्रांगण से नीचे पूरा सांगला नजर आ रहा था .यहाँ शाम हो चुकी थी ,पर दूर पहाड़ियों पर अभी भी सूरज की रौशनी चमक रही थी....पहाड़ के नीचे का आधा हिस्सा,अँधेरे में घिरा था  और ऊपर की चोटियाँ सूरज की पीली  रौशनी में दैदीप्यमान  थीं. बहुत ही अनूठा दृश्य था .बाद में तो हर शाम यह नज़ारा देखने को मिला.

नीचे उतरना बिलकुल मुश्किल नहीं लगा . गाड़ी हमने वापस भेज दी और धीरे धीरे टहलते हुए बाज़ार का चक्कर लगाते हुए होटल लौट आये. . होटल में गर्मागर्म खाना तैयार था , बिलकुल तवे से उतारे हुए फुल्के और घर सा बिना ज्यादा तेल -मसाले का खाना. ऑफ सीजन में आने के फायदे |


अगले दिन हमे कालापा के लिए निकलना था.

क्रमशः......




परिचय 

रश्मि रविजा

 विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख एवं कहानियाँ प्रकाशित
आकाशवाणी मुंबई से कहानियों एवम वार्ताओं का नियमित प्रसारण।
 उपन्यास 'काँच के शामियाने ' ,
 महाराष्ट्र साहित्य अकादमी के  प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत।

6 टिप्‍पणियां:

  1. So beautiful story and tour didi mera khud ka man kr raha hai jane ja ye padhne ke bad

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  2. बहुत जीवंत यात्रा वृत्तांत ... मुझे भी हिमाचल के यह इलाका बहुत प्रिय है।तस्वीरें और लगायें....
    यादवेन्द्र

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  3. खूबसूरत इलाके का मोहक वृतांत। आपके साथ साथ घूमने का आनंद देता हुआ। कुछ और तस्वीरें होती तो आनंद दोगुना हो जाता।

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  4. मीनाक्षी जी
    यात्रा वृत्तांत की आगे की कड़ी में और तस्वीरें देखी जा सकेंगी।

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  5. शुरू से अंत तक एक सांस में पढ़ा जाने वाला व्रतांत ।
    सुंदर लिखा .

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  6. बेहतरीन वृतांत..आपके साथ यात्रा का आनंद आ गया।

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