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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 जुलाई, 2018


कहानी:
बहादुर को नींद नहीं आती

धीरेन्द्र अस्थाना



धीरेन्द्र अस्थाना 




बिजली के खंभे के नीचे प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा बहादुर खंभे सा जाग रहा है। दूर निर्माणाधीन बिल्डिंग के मैदान में दिन भर हुड़दंग मचाने वाले चारों कुत्ते भी सो गए हैं. सड़कों पर लगे खंभे अपने कमज़ोर, पीले उजास के साथ ऊंघ रहे हैं। पत्तों में सरसराहट तक नहीं है। वे ख़ामोश पेड़ों पर लटके स्तब्ध हैं। हर समय जागते रहने वाला मायावी शहर चालीस डिग्री टेंप्रेचर में अपने शरीर के छाले गिन रहा है। सूर्यकिरण बिल्डिंग के लगभग हर फ्लैट से एसी के चलने की आवाज़ बहादुर के कानों में पानी की समवेत बूंदों की तरह टपक रही है। शहर ने आज सुबह ही पंद्रह अप्रैल की संख्या के बाहर छलांग लगाई है। दस साल से तो बहादुर इसी बिल्डिंग के बाहर खड़ा पूरी रात जागता है। उसे याद नहीं पड़ता कि इतनी जानलेवा गर्मी से कभी उसका पाला पड़ा हो।

 बहादुर के केबिन में पंखा है लेकिन केबिन में बैठते ही नींद पंजे मारने लगती है। वह भूले से भी नींद के आगोश में नहीं जाना चाहता। बिल्डिंग के लोग बोलते हैं वाचमैन को सोने की पगार नहीं मिलती। वाचमैन जागता रहेगा तभी न बिल्डिंग के लोग भी चैन से सो पाएंगे। बिल्डिंग के चेयरमैन सतीश बहादुर के अलावा बहादुर को यहां का कोई सदस्य कभी नहीं भाया. अकेले सतीश साहब हैं जो उसे बहादुर कहकर बुलाते हैं वर्ना तो सब साले उसे वाचमैन-वाचमैन कहकर पुकारते, गरियाते और दुरदुराते रहते हैं। बहादुर दस साल से इस बिल्डिंग में कदमताल कर रहा है। इन दस सालों में उसके हालात में कोई बदलाव नहीं आया। हां, एक राहत ज़रूर है कि सोसाइटी ने उसे रहने के लिए कमरा, टॉयलेट और किचन दिया हुआ है। बिजली पानी भी मुफ्त है। इस कारण बहादुर का काम चल जाता है। पगार के पूरे सात हज़ार रूपये वह गांव भेज देता है। नेपाल के पोखरा शहर के गांव, जहां उसकी पत्नी, उसकी मां और दो बच्चे रहा करते हैं। दोनों बच्चे कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं।

 बहादुर का अपना खर्चा बिल्डिंग के दुपहियों और कारों को धोने से निकल जाता है। बहादुर के जीवन में हरदम बस एक ही आस टिमटिमाती है कि किसी तरह उसका बड़ा लड़का जंग बहादुर पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी दफ्तर में काम पर लग जाए। वह दिन आया नहीं कि बहादुर तुरंत यह रात को जागने वाली लीचड़ नौकरी छोड़कर वापस गांव चला जाएगा। कितने-कितने अरमान लेकर आया था बहादुर इस हर समय जागने वाले शहर में। सारे अरमान यहां की गर्मी, सर्दी और बरसात में जल गए, ठिठुर गए, बह गए। शहर तो बड़ी बात है बहादुर ने तो सूर्यकिरण बिल्डिंग के बाहर का भी पूरा इलाका इन दस सालों में नहीं देखा है।

सहसा बहादुर को लगा कि पेशाब का आवेग नसों को झनझनाता हुआ पूरे बदन को कंपकंपा रहा है लेकिन टॉयलेट जाने के नाम पर वह डर गया। पता नहीं क्यों होता है ऐसा कि जब भी वह टॉयलेट जाता है, या चाय पीने जाता है तभी कोई न कोई सोसाइटी का मेंबर बिल्डिंग के बंद गेट के बाहर बाइक या कार का हॉर्न बजाने लगता है। थोड़ी भी देर होने पर मेंबर तड़ाक से बहादुर को गरिया देते हैं। हर चौथे रविवार सोसाइटी कमेटी की मीटिंग में बहादुर की पेशी होती है कि वह ड्यूटी के समय गेट पर नहीं था, अगर बिल्डिंग में चोरी हो गई तो कौन ज़िम्मेदार होगा।

 दो बार बिल्डिंग में चोरी हो भी चुकी है लेकिन दोपहर के समय इसलिए बहादुर दोनों बार बच गया। दिन के समय सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड तैनात रहता है बल्डिंग में, जिसका खाना रहना सब एजेंसी वाले देखते हैं। लेकिन ये गार्ड न तो कार वगैरह धोते हैं और न ही किसी मेंबर का कोई निजी काम करते हैं। ये सुबह आठ बजे से लेकर रात आठ बजे तक बल्डिंग के गेट पर सिर्फ खड़े रहते हैं। बहादुर रात की ड्यूटी करने के बाद गाड़ियां साफ करता है। सोसाइटी के बिजली पानी के बिल भरता है और सबसे खतरनाक बात यह कि वह कमेटी के चेयरमैन, सेक्रेटरी, ट्रेजरर और कमेटी मेंबर्स की हथेली पर अनवरत नाचता है।

 चेयरमैन सतीश बहादुर खाने पीने के शौकीन हैं इसलिए उनका कोई काम बहादुर को नहीं कचोटता। सतीश साहब अगर अपने लिए व्हिस्की की बॉटल मंगवाते हैं तो बहादुर को भी देसी जीएम के लिए पचास रूपये अलग से देते हैं। रात का बचा मुर्गा, मटन, पनीर, कीमा, आलू गोभी, पालक पनीर, कढ़ी, रोटी, पराठे बहादुर को सुबह सुबह सौगात की तरह मिल जाते हैं। इससे बहादुर की नाश्ते-खाने की समस्या किसी हद तक दूर हो जाती है। बहादुर को इसीलिए सतीश साहब का काम करने में कोई उलझन नहीं लगती। लेकिन बाकी लोग तो ऐसा बर्ताव करते हैं कि बाप रे बाप। सब बहादुर को अपना गुलाम जैसा समझते हैं। इन लोगों पर बहादुर को हरदम गुस्सा आया रहता है। बहादुर अपने जीवन और बिल्डिंग के मकड़जाल में उलझा झूल रहा था कि तभी गेट पर एक टैक्सी आती दिखी। बहादुर अलर्ट हो गया। चेयरमैन सतीश बहादुर उतर रहे थे। बहादुर चौंक गया। रात दस बजे सो जाने वाले सतीश साहब रात डेढ़ बजे कहां से आ रहे हैं! बहादुर अदब से खड़ा हो गया।

‘क्या बहादुर, कैसे हो?’ सतीश बहादुर ने लड़खड़ाती आवाज़ में पूछा। बहादुर समझ गया साहेब किसी पार्टी-शार्टी से लौटे हैं।

‘ठीक हूं साहेब।’ बहादुर तत्परता से बोला ‘मालिक अगर दो मिनट गेट पर रुकें तो भाग कर पेशाब कर आऊं।’

‘जाओ।’ सतीश साहब बहादुर के केबिन से टेक लगाकर खड़े हो गए। लौटने पर बहादुर उन्हें लिफ्ट के अंदर तक छोड़ आया। इस ग्यारह माले की बिल्डिंग में सतीश बहादुर छठे माले के पहले फ्लैट यानी 601 में रहते थे।

 फ्लैट में घुसकर सतीश साहब जूते मोजे और कपड़े उतार बैडरूम के बिस्तर पर ढह गये। उनकी पत्नी को जंगल, पहाड़, खंडहर घूमने का बड़ा शौक था। सो वह हर गर्मियों की छुट्टियों में कहीं घूमने निकल जाती थीं। इस बार वह एक पैकेज टूर के तहत कान्हा के जंगल में शेर से मिलने गई हुई थीं। सतीश जी विपरीत सोच के थे। वह सोचते थे कि उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो वह पच्चीस हज़ार रूपये खर्च करके शेर देखने जाएंगे। बोरीवली के नेशनल पार्क में शेरों को उन्होंने दसियों बार देखा था। लेकिन जनतांत्रिक सोच के तहत पति पत्नी ने जो जीवन जीना चुना था वहां एक दूसरे की रुचियों के आगे किसी का अवरोध नहीं था। पत्नी को घूमने का शौक था सतीश जी को खाने-पीने का।

नींद में जाने से पहले सतीश जी ने सोचा – बच्चों की परवरिश में उनसे कोई चूक हो गई क्या? अगर नहीं तो ऐसा क्यों है कि उम्र के बासठवें पायदान पर वह इतने तन्हा हैं। अड़तीस और चौंतीस साल के दो बेटों के पिता हैं वह। उपर से समृद्ध भीतर से दरिद्र। यह कैसा समाज हमने बना दिया है। दोनों बेटे खुद से कभी फोन नहीं करते। सतीश बहादुर करुणासिक्त होकर कभी फोन लगाते हैं तो घंटी बजकर कट जाती है। इसके बाद संदेश आता है – ‘मीटिंग में हूं, फ्री होकर फोन करता हूं।‘ लेकिन दोनों बेटों की तरफ से फ्री होने के बाद वाला फोन कभी नहीं आता। सतीश साहब के दोस्त बताते हैं – ‘वी ऑल आर इन सेम बोट। जमाना बदल गया है सतीश बाबू।’ सोच की किसी दूसरी उपकथा के द्वार में नहीं घुस पाते सतीश साहब। वह लाईट बंद कर, एसी ऑन कर, चादर ओढ़ पलके बंद कर लेते हैं।

गेट पर खुदको जगाये रखने के प्रयत्न में बहादुर हलकान हुए जा रहा था। आज उसके पास कहीं से रात के खाने का पैकेट भी नहीं आया था। सो वह भूखे पेट हमाली कर रहा था। सतीश साहब को टैक्सी से उतरते देख सुबह मिलने वाले नाश्ते की उम्मीद भी दम तोड़ बैठी थी। आने वाली सुबह महीने के अंतिम रविवार की होगी। बहादुर की पेशी का स्थाई भाव। क्या मैं इस बिल्डिंग की नौकरी छोड़ नहीं सकता, बहादुर सोच रहा है। वाचमैन की ज़िन्दगी में सुख नहीं होते क्या? बहादुर सोचता है और खुद से पूछता है – सुख क्या होता है? दो बच्चे पढ़ रहे हैं क्या यही सुख है। वह खुद एक कमरे में बिना किराया दिये रहता है, सोता है, क्या यही सुख है। बहादुर को नींद नहीं आती। उसकी नींद की कुर्बानी पर गांव में मां और बीवी बच्चे चैन से सोते हैं शायद यही सुख है। क्या किसी ने सुख को देखा है, बहादुर जानना चाहता है। क्या दो तीन और चार कमरों के घरों में रहने वाले सूर्य किरण बिल्डिंग के लोगों ने सुख को अपना चाकर बना रखा है। अगर हां तो इस बिल्डिंग के किसी फ्लैट से कोई महिला, कोई पुरुष या युवक-युवती कभी कभार छत से कूद कर क्यों मर जाता है? हर दो चार महीने में इस बिल्डिंग में पूछताछ करने पुलिस क्यों आती रहती है? बहादुर को कुछ समझ नहीं आता।

यह तो बिल्कुल नहीं कि रात के अंधेरे में कारों के पीछे खड़े-पड़े लड़के-लड़की किस सुख की तलाश में एक दूसरे पर हिलते-डुलते रहते हैं? ये अलग बात है कि ऐसी हरकतों से बहादुर को ज्यादा कमाई हो जाती है। ये लड़के-लड़की उसे सौ का नोट देकर अपने कारनामों की पहरेदारी में खड़ा कर देते हैं। बहादुर पहरेदार ही तो है न। तभी इंटरकॉम की घंटी बजी। बहादुर भागकर केबिन में गया। सातवें माले के तीसरे फ्लैट से फोन था – ‘एंबुलेंस को बुला, बीवी को सिर में चोट लग गई है।’

बहादुर घबरा गया, बोला – ‘सर मेरे पास न तो नंबर है और न ही फोन में बैलेंस।’

‘फोन रख।’ 703 ने फोन पटक दिया। कुछ ही देर में बहादुर ने देखा एक एंबुलेंस गेट के पास आ रही है।

 उसी समय 703 की घायल औरत और उसके परिजन भी नीचे आ गए। बहादुर ने दरवाजा खोल दिया। एंबुलेंस घायल औरत और उसके परिजनों को लेकर निकल गई। बहादुर ने दरवाजा लॉक कर दिया और फिर से खंभे की तरह जागता खड़ा हो गया।





बिल्डिंग के सबसे खतरनाक लड़के ने गेट के खंभे से दारू का खाली खंबा टकराकर तोड़ दिया और अट्ठाहस लगाने लगा। बहादुर दहशत से घिर गया। उस लड़के टिल्लू की विकराल हंसी देख बहादुर ने सोचा क्या यही सुख है? लेकिन दारू के खंबे से टूटे कांच की किरचें कल सुबह किसी के पांव में गड़ गईं और पांव में जख्म हुआ तो वह भी क्या कोई सुख होगा? बहादुर उलझ गया। टिल्लू के लिए गेट खोल वह विनम्रता से झुक गया।

‘देखा।’ टिल्लू बोला, ‘हम अच्छे अच्छों की मरोड़ देते हैं।’

गेट का खंभा? इसकी मरोड़ दी! बहादुर फिर उलझ गया।

बहादुर को नींद नहीं आती। सबसे ज्यादा डर उसे नींद के चले आने से लगता है। इस अचानक चली आने वाली नींद ने उसे सोसाइटी के सदस्यों के सामने बहुत बेइज्जत किया है। उसके तीन मोबाइल इस नींद की ही भेंट चढ़े हैं। इन भेंटों के बाद तो उसने मोबाइल को जेब में रखना ही बंद कर दिया। गांव में फोन करना होता है तो कमरे पर जाकर फोन लाता है और बात करके वापस कमरे में रख आता है। गाढ़ी कमाई से खरीदे इस चौथे फोन की सुरक्षा को लेकर कुछ ज्यादा ही सतर्क रहता है बहादुर।

बहादुर की चेतना में पहले मोबाइल के गुम हो जाने की याद खट्ट से जल गई। शायद सुबह चार बजे का वक्त होगा। गेट पर मच्छर काट रहे थे इसलिए बहादुर ने केबिन में कछुआ छाप अगरबत्ती जलाई और केबिन में बैठकर नेपाल समाचार पढ़ने लगा। बिल्डिंग में आने वाली तमाम गाड़ियां आ चुकी थीं। सड़कों पर सन्नाटा था। दो घंटे बाद उठकर बहादुर को फ्लैट नंबर 206, 304 और 703 की कारें साफ करनी थीं क्योंकि ये लोग सुबह सात बजे ड्यूटी पर निकल जाते थे।

 इस बिल्डिंग के सब लोग आपस में एक दूसरे को ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन बहादुर सबको नाम और चेहरे से पहचानता है। इस कारण भी वह बिल्डिंग के लिए ज़रूरी बना हुआ है। दिन की ड्यूटी में तो कंपनी के गार्ड बदलते रहते हैं। कभी राम प्रसाद आता है, कभी भोले राम तो कभी शंकर सेठ पर रात की ड्यूटी का बहादुर कभी नहीं बदलता। पता नहीं कैसे बहादुर को झपकी लग गई। झपकी में वह पोखरा पहुंच गया। जहां उसका बड़ा बेटा जंग बहादुर बता रहा था कि ‘पढाई पूरी करते ही एक नामी कंपनी में उसे एरिया मैनेजर की पोस्ट पर काम मिल जाएगा। रहने के लिए वन बीएचके वाला फ्लैट भी मिलेगा। जंग बहादुर सपने में कह रहा था नौकरी मिलने के बाद आप वाचमैनी की नौकरी छोड़कर मेरे पास आ जाना बापू। मैं कोशिश करूंगा कि आपको भी अपनी कंपनी में कहीं फिट करा दूं। दस हजार तो महीने भर का आपको मिल ही जाएगा।‘

इस सपने का सीना फाड़कर एक झन्नाटेदार झापड़ बहादुर के गाल पर बजा। चौंककर और घबराकर बहादुर की आंख खुली तो सामने टिल्लू खड़ा था। बहादुर की आंख में आंसू उतर आये। इतना कमज़ोर उसने खुद को कभी नही पाया था। गाल पर हाथ फिराते हुए वह रिरियाया –
‘ चांटा मार दिये साहेब?’
‘अबे हम तो चांटा ही मारे हैं ससुर, कोई डकैत आ जाता तो गर्दन ही उड़ा ले जाता। तुमको सोने की पगार मिलती है क्या?’ नशे में धुत्त टिल्लू बहादुर को ज्ञान दे रहा था। बहादुर ने कमीज़ की जेब में हाथ डाला, मोबाइल गायब था।
 बहादुर चीखा – ‘साहेब हमारा मोबाइल?’

‘हमको क्या पता बे, कोई चुरा ले गया होगा।‘ टिल्लू ने इतराकर कहा और लिफ्ट के भीतर घुस गया। बहादुर का चेहरा और दिल दोनों बुझ गये। वह उठा और बिल्डिंग की कुछ बत्तियां बुझाने चला गया। सुबह के पांच बज रहे थे। बिल्डिंग में आमदरफ्त बढ़ने वाली थी। फूल वाले, दूध वाले, पेपर वाले आने वाले थे। जिम वाले बिल्डिंग के लोग जाने वाले थे। एक छोटी सी झपकी ने बहादुर को दो हज़ार के मोबाइल की चपत लगवा दी थी। उसका दिल उससे छूटकर रोने को उतावला था। बाद में टिल्लू के विरोधी लड़के श्याम ने बताया कि बहादुर का मोबाइल टिल्लू ने ही बहादुर की जेब से निकाल लिया था और गली के अंत में मौजूद मोबाइल रिचार्ज की दुकान पर पांच सौ रुपये में बेच दिया था। सुनकर कैसा तो मन हो गया था बहादुर का। थू अमीर लोग। बहादुर ने हलक का सारा कड़वापन सड़क पर उलट दिया था। ऐसा नीच जीवन तुम्हारा। तुमसे तो लाख गुना हम अच्छे। तुम्हारे खोए हुए सड़क पर पड़े पर्स और मोबाइल हम लौटा देने वाले ठहरे।
चांटे की चमक के बाद बिल्डिंग की चाकरी से मन उचट गया बहादुर का। उसने दिन वाले गार्ड से पूछा – ‘तुम्हारी कंपनी हमको नहीं रख सकती क्या?’

दिन के गार्ड ठाकुर ने ज्ञान दिया, कंपनी केवल उन लोगों को रखती है जिनका पर्मानेंट पता ठिकाना, आधार कार्ड पैन कार्ड वगैरह सब होता है। बहादुर तुम ज्यादा आराम से हो, हम कंपनी के लोग एक कमरे में दस के हिसाब से रहते हैं। हमारे टिफिन में सिर्फ दाल चावल होता है। तुम तो मुर्गा मटन भी खा लेते हो कभी कभी। हमें जो पगार के सात हज़ार मिलते हैं उसमें से खाने रहने के दो हज़ार कंपनी काट लेती है। तुम पूरे सात हज़ार पाते हो, उपर से रहना मुफ्त, गाड़ियों की सफाई से कमाई अलग। हां इतना जरूर है कि हम पर कोई हाथ नहीं उठा सकता। तुम ठहरे गरीब की लुगाई, कोई भी तुम्हें लतिया देता है। तुम अनाथ हो बहादुर।

इस ज्ञान से बहादुर डर गया। दो जवान होते बेटों, मां और पत्नी के बावजूद बहादुर अनाथ है। उसे कोई भी लतिया सकता है। अपमान की इस सुबह बहादुर रुआंसा था। टिल्लू सूर्यकिरण बिल्डिंग के सेक्रेटरी परमानंद यादव का आवारा लड़का था। वह बिल्डिंग के बाकी आवारा लड़कों का नेता टाइप भी था। खुद परमानंद यादव एक उभरते हुए नेता और बिल्डर थे। वह बात-बात में लोगों को गालियों से नवाज़ा करते थे। वह बिल्डिंग के लोगों से भी टेढ़ी भाषा में ही बात करते थे – ‘ऐ चार महीने का मेनटेनेंस बाकी है। पैसा देना है या पानी का कनेक्शन काट दूं।‘

बहादुर पानी छोड़ने चला गया। बिल्डिंग में हर माले पर उसकी सीटियां गूंजने लगीं। उसकी सीटी सुनकर बाकी लोगों के साथ चेयरमैन सतीश बहादुर भी जागे। मुंह धोकर उन्होंने पानी की टंकी के नलों और आरओ मशीन को चालू कर दिया। दो गिलास पानी पिया और हॉल में टहलने लगे। आठ दस राउंड के बाद ही उन्हें हमेशा की तरह प्रेशर आ गया तो वे टॉयलेट में चले गए। जब तक वह फ्रेश होकर बाहर निकले दरवाजे पर दूध की थैली, फूलों का पैकेट और अख़बार टंग चुके थे। सतीश साहब चाय नाश्ता तैयार करने के लिए किचन में घुस गये। पूरे पांच दिन उनकी यही दिनचर्या रहने वाली थी। पांच दिन कान्हां के जंगलों में बिताकर श्रीमती सतीश बहादुर वापस आयेंगी तब तक सतीश साहब को यही दिनचर्या जीनी थी।

 श्रीमती सतीश बहादुर उर्फ सपना मैम सूर्यकिरण बिल्डिंग ही नहीं आसपास के तमाम इलाके की प्रख्यात शख्सियत थीं। वह पांचवीं से दसवीं तक के बच्चों को व्यक्तिगत ट्यूशन पढ़ाती थीं। ट्यूशन पढ़ाना उनका प्रोफेशन नहीं जुनून था।
 सतीश साहब कभी-कभी कहते थे – ‘सौ साल बाद जब इस बिल्डिंग की खुदाई होगी तो अपनी मेज पर तू ट्यूशन पढ़ाती मिलेगी।‘

मुंबई के सुदूर उपनगर मीरा रोड के कनकिया रोड कहे जाने वाले लंबे रास्ते पर दायें किनारे खड़ी सूर्यकिरण बिल्डिंग में जब सतीश साहब फ्लैट बुक कराने आये थे तो पत्रकार बिरादरी के उनके दोस्तों ने कहा था – ‘कहां जंगल में रहने जा रहे हो?’ मगर सतीश साहब की तंग जेब को इस बिल्डिंग का वन बीएचके फ्लैट सात लाख में खरीदना ही रास आया था। आज सतीश साहब सत्तर लाख के फ्लैट में बैठे हैं। मैक्डोनाल्ड के कॉर्नर से शुरू होकर उनका कनकिया वाला लंबा रास्ता मीरारोड की खाड़ी पर समाप्त होता है। बीच में हैं कैफे कॉफी डे, सिनेमैक्स मल्टीप्लैक्स थिएटर, दसियों बैंकों के एटीएम, पांच बैंकों की शाखाएं, डेढ़ दर्जन बीयर बार एण्ड रेस्त्रा, बरिस्ता, रेमण्ड, बाटा, पैंटालून, पेपे जीन्स, करीम, दिल्ली दरबार, दो महंगे स्कूल और एक बड़ा सा पुलिस मुख्यालय। सतीश साहब एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के मुंबई ब्यूरो चीफ रहे दस बरस। रिटायर हुए तो बिल्डिंग के लोग बोले अब आप संभालो यह झंझटिया राजकाज।

सतीश साहब ने भी सोचा पूरा दिन कहां व्यस्त रहेंगे तो सपना मैम के विरोध के बावजूद संभाल ली सूर्यकिरण बिल्डिंग की चेयरमैनशिप।

सतीश बहादुर इस जागते रहने वाले शहर में सन 1990 की 15 जून को दाखिल हुए थे। वह देश की राजधानी दिल्ली से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आये थे, यह सोचकर कि दो-चार साल गुजारकर वापस दिल्ली लौट जाएंगे, लेकिन रोजगार ने उन्हें यह मोहलत ही नहीं दी कि वे दिल्ली लौट पाते। सो थोड़ा सुभीता हुआ तो मीरा रोड की सूर्यकिरण बिल्डिंग में ठिकाना जमा लिया।

याद आता है सतीश साहब को। इसी बिल्डिंग से दोनों बेटों का विवाह कराया। शादी के बाद एक अपनी पत्नी के साथ गया कांदिवली के चारकोप इलाके में दूसरा गया अंधेरी में कि उसकी पत्नी का दफ्तर था अंधेरी के डीएन नगर में। बेटा था सिनेमेटोग्राफर तो उसका ज्यादातर कामकाज अंधेरी से ही ताल्लुक रखता था। बड़े की बीवी टीसीएस में मैनेजर, छोटे की बीवी जीटीवी में एचआर परसन। छोटा बेटा क्राइम रिपोर्टर। इस तरह सतीश बहादुर और उनकी पत्नी अपने सीनियर सिटीजन दिनों को स्पर्श करने के साथ ही अकेले छूट गये।
सहसा सतीश साहब का मुंह कसैला हो आया। एक अकेला, उजाड़ और कमजोर जीवन बिताने के लिए ही चुना था उन्होंने इस मायावी शहर का बनैला एकांत।

 इस शहर में बिना किसी कारण कोई किसी को फोन तक नहीं करता। एक दूसरे के घर आने जाने की रवायत तो दूर की बात है। रिटायर होने के पौने दो साल होने को आये सतीश साहब को याद नहीं आता कि दो चार साहित्यिक समारोहों के आमंत्रण के अलावा कोई फोन आया हो। इसी कारण उन्होंने अपने पोस्टपेड मोबाइल को प्रीपेड में बदलवा दिया है और एमटीएनएल का लैंडलाइन कटवा दिया है। चाय नाश्ता करके सतीश बहादुर टहलने के लिए उतरे तो वाचमैन बहादुर ने रास्ता रोक लिया।

‘बोलो बहादुर।’ सतीश बहादुर बोले।

‘कैसे बोलें साहेब, कल रात हमारा चौथा मोबाइल किसी ने चुरा लिया।‘

‘सो रहे थे क्या?’ सतीश बहादुर ने पूछा।

‘साहेब झपकी लगना इतना बड़ा गुनाह है क्या कि चार चार मोबाइल बिल्डिंग वाले चुरा लें?’

‘बहादुर क्या बोल रहे हो, बिल्डिंग वाले तुम्हारा मोबाइल क्यों चुरायेंगे भला।’

‘हमको सजा देने की खातिर साहेब।‘ बहादुर रुष्ट था, ‘नींद आ जाना कोई गुनाह थोड़े ही है साहेब, हमारा मोबाइल दिलवा दो, टिल्लू भैया ने उठाया है।‘

टिल्लू! सतीश साहब सहम गए। सेक्रेटरी का बदतमीज़, बदजुबान, नशेड़ी बेटा।

‘बात करता हूं।’ सतीश साहब ने कहा और निकट के पार्क की तरफ रवाना हो गये। वहां से उन्हें ग्यारह बजे तक लौट आना था क्योंकि साढ़े ग्यारह बजे खाना बनाने वाली सुप्रिया आ जायेगी।


महीने का अंतिम रविवार था। बहादुर की पेशी का दिन।
सूर्यकिरण बिल्डिंग हाउसिंग सोसाइटी की मैनेजमेंट कमेटी के पूरे पंद्रह सदस्य गार्डन में कुर्सियों पर जम गये थे। कुर्सियां बहादुर ने ही लगाई थीं। बीच में एक बड़ी सी मेज रख दी गई थी। दिन का गार्ड चाय समोसे लेने गेट के बाहर वाली दुकान सुमन स्वीट्स पर गया हुआ था।

‘बोलो बहादुर।’ बिल्डिंग के सेक्रेटरी परमानंद यादव बोले और पेंट की जेब से बहादुर का कुछ रोज पहले गुम हुआ चौथा मोबाइल मेज पर रख दिया।
‘साहेब यह आपके पास?’ बहादुर चौक गया।
‘इसे तुम्हारे केबिन की मेज की दराज से तब निकाला गया था जब तुम सो रहे थे।’ यादव जी ने दो टूक आरोप मढ़ा।
‘इसका मतलब रात के समय कभी भी कोई हादसा बिल्डिंग में हो सकता है।’ यह ट्रेज़रर गंगेश तिवारी थे।

‘यह तो गलत बात है बहादुर।’ यादव जी बोले, ‘बार बार सोते पकड़े जाओगे तो कैसे चलेगा? सोसाइटी ने तुम्हें कितनी सारी सुविधायें दे रखी हैं, बाहर किराये से घर लेकर रहोगे तो पूरी पगार उसी में खप जायेगी।’

बहादुर सिर झुकाये खड़ा था। क्या कहता।आखिर चाय समोसे के नाश्ते के बाद सभा इस फैसले के साथ बर्खास्त हुई कि आइंदा से बहादुर का सोता हुआ फोटो निकाला जाये और सजा के तौर पर हर बार दो सौ रुपये काट लिये जायें। मतलब महीने में 5 बार सोता पकड़ा गया तो पगार में से हज़ार रुपये गुल।
 

बहादुर ने सोना छोड़ दिया।
उसके चेहरे पर एक स्थाई उदासी ने घर बना लिया। वह अपनी आत्मा के अंतिम कोनों अंतरों तक बुझता चला गया। उसका कभी कभी चहक कर मटन चावल पकाने का उत्साह भी जाता रहा। गाड़ियां धोने में पहले वह अपना दिल लगा देता था। बड़े जतन से इस तरह कारों को धोता मानों वह खुद उन कारों का मालिक हो। अब साफ पता चलता कि कोई रोबोट है जो कारों को पोंछा मार रहा है। वह सारे ही काम यंत्रवत करने लगा। गुम हुआ चौथा मोबाइल उसे वापस मिल गया था जिसे उसने अपने टीन के बक्से में बंद कर दिया। गांव बात करनी होती तो चेयरमैन साहब के घर चला जाता। साहब होते तो साहब के फोन से, न होते तो सपना मैम साहब के फोन से बात कर लेता। इन दोनों के ही नंबर उसने गांव में छोड़ दिये थे। सूर्यकिरण बिल्डिंग में अब थोड़ा बहुत रागात्मक संबंध बहादुर को सतीश और सपना परिवार के बीच ही जलता बुझता समझ आता। सतीश साहब का काम वह अब भी राजी खुशी करता।

बिल्डिंग में रात जाती रही। सुबह आती रही। पुराने किरायेदार जाते रहे, नए किरायेदार आते रहे। फूल उगते रहे, पत्ते झरते रहे। आम के पेड़ों में कच्चे आम लगते रहे, बहादुर उन्हें तोड़कर घर-घर पहुंचाता रहा। कभी कभी अपने लिए भी चटनी पीस लेता और दाल चावल के साथ चटखारे लेकर खाता।
लंबे समय बाद फिर किसी महीने का अंतिम रविवार आया। धीरे-धीरे कमेटी के सभी सदस्य कुर्सियों पर आकर बैठ गये। बहादुर हमेशा की तरह एक कोने में खड़ा रहा। दिन का गार्ड गेट पर ड्यूटी दे रहा था।

‘क्या बहादुर?’ सेक्रेटरी यादव ने परिहास किया – ‘कई महीने से तुम सोते हुए नहीं पकड़े गये!’
‘जी साहेब।’
चाय समोसे का नाश्ता समाप्त हुआ तो सहसा बहादुर मुस्कुराने लगा। सब चौंक कर बहादुर की मुस्कुराहट को समझने का प्रयत्न करने लगे। बहादुर की मुस्कान हंसी में और फिर कातरता में ढलने लगी।

उसने जेब से चाभी का एक गुच्छा निकाला और मेज पर रख दिया – ‘यह रही मेन गेट और टैरेस की चाभी।’ फिर उसने एक और गुच्छा निकाला –
 ‘यह रही चैक-बॉक्स की चाभियां।’ फिर आखिरी दो चाभियां मेज पर रखता हुआ वह बोला – ‘और यह मेरे रूम की दोनों चाभियां।’

‘क्या हुआ?’ दो तीन सदस्यों ने समवेत स्वर में पूछा। वैसे पूरी कमेटी ही अचंभे में थी।

‘मैं आपका काम छोड़ रहा हूं साहेब।’ बहादुर हंस हंस कर रो रहा था।
‘क्यों?’ सेक्रेटरी परमानंद यादव ने गहरा आश्चर्य जताया।
बहादुर हाथ जोड़कर सबके सामने आधा झुक गया और गंभीर, पथरीली आवाज़ में बोला – ‘क्योंकि वाचमैन को भी नींद आती है साहेब।’

चेयरमैन सतीश बहादुर को छोड़कर बाकी सब अपने क्रोध और बेचारगी में सन्निपात के रोगी की तरह कांपने लगे थे।
ठीक इसी समय वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे से सटी कांदिवली पूर्व की एक बिल्डिंग ‘अंतरिक्ष’ के सामने एक टैम्पो से बहादुर का सपना उतर रहा था।
जंग बहादुर का सामान।
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8 टिप्‍पणियां:

  1. बहादुर के ज़रिए कथाकार धीरेंद्र अस्थाना ने हृदयहीन होते जा रहे महानगर के चरित्र को बखूबी साकार किया है। सतीश जी का अकेलापन इस समय का सच है और आने वाले समय में और भी भयावह होने वाला है। इस अच्छी कहानी के लिए धीरेंद्र अस्थाना को बहुत-बहुत बधाई।

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  2. Bahut achhi kahani.Dhirendra mere Priya kathakar hain.kshama sharma

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  3. कितने हृदयहीन हो गए हैं हम मानो यही कहना चाहती है कहानी .......

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  4. बेटे के रूप में बहादुर का कैरियर संपूर्ण हो गया।
    कहानी अच्छी लगी। वास्तविकता के करीब।

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  5. आहा ! अंत तो रोते रोते हंसा गया ....और हंसते हंसते रुला गया ।

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  6. Kahani main bada dam hai
    Bahadur naheen...kam hai
    Kuch to manavata nibhayen
    Bahadur pareshaan hoten hai
    Aur tang karna dharm naheen hai.

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