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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जून, 2018

मीडिया और समाजः तीन


मैकाले , मीडिया और पूंजीवाद


भारतीय आधुनिकीकरण की एक महत्वपूर्ण विसंगति है कि यहाँ पश्चिम से जो भी मिला वह छन-छन कर मिलता रहा है, परंतु भारतीय मनीषा ने आजतक भी इसकी खिलाफत नहीं की है, बल्कि इसे ही सबकुछ मानकर सिरोधार्य किया है, और हमेशा के लिये उपकृत्य महसूस किया है। आधुनिकीकरण का आरंभ भारत में आधुनिक शिक्षा के विकास से माना जाना चाहिये। भारत में लार्ड मैकाले को इसका श्रेय दिया जाता है। शिक्षा को पाश्चात्य पद्धति से आरंभ करके उसने प्राच्य पद्धति को अप्रसांगिक बना दिया था। दरअसल यह शिक्षा या शिक्षा पद्धति को अप्रसांगिक बनाने भर का काम नहीं था, यह वह कदम था जिसने भारतीय मनीषा को ही अप्रसांगिक बना दिया था, और हम आजतक भी अपनी मूल चिंतन-परंपरा को आधुनिकीकरण से संबंद्ध नहीं कर सके। मैकाले और उसके पैरोकारों ने भारतीय मस्तिष्क से स्वतंत्र विचार करने की मौलिक क्षमता ही छीन ली थी।

संजीव जैन

मीडिया और समाज के संदर्भ में मुझे ‘लार्ड मैकाले’ इसलिये याद आया कि उसने शिक्षा के क्षेत्र में जो सिद्धांत लागू किया था वह सिद्धांत आज भी भारतीय जीवन के तमाम आयामों पर यथावत लागू है। इस सिद्धांत को हम अधोमुखीन्यस्यंदन सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत का अर्थ था कि ‘‘शिक्षा ऊपर से नीचे की ओर छन-छन कर जाना चाहिये।’’ छन-छन कर जाने का अर्थ है कि नीचे के तबके को बिट्रिश शासन के पालतु बनाने के लिये जितनी शिक्षा की जब जरूरत हो तब उतनी ही शिक्षा उन तक पहुंचाई जाये। यही सिद्धांत पूंजीवाद ने अपने कारखानों के मजदूरों के लिये मेहनताना देने में अपनाया था। अर्थात् मजदूरों को काम करने के लिये जिंदा रहने लायक मजदूरी भर दी जानी चाहिये। लार्ड मैकाले जैसा मानवीय मस्तिष्क का शोषक दूसरा कोई नहीं हुआ। वह पूँजीवादी व्यवस्था का बड़ा सिद्धांतकार था जिसके सिद्धांतों को पूँजीवाद आज भी यथावत लागू कर रहा है।
चूँकि आधुनिक तकनीक आधारित मीडिया के तमाम रूपों और प्रकारों पर पूँजीपतियों का वर्चस्व है और यह वर्चस्व बनाया गया है, लोकतांत्रिक जन मानध्यमों को खत्म करके। द्धितीय विश्वयुद्ध के बाद से यह वर्चस्व अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की रक्षा करने और उनके अकूत लाभ कमाने के तरीकों में से एक ताकतवर तरीका भर बन कर रह गया है। मीडिया चूँकि विश्वस्तर पर एक साथ सक्रिय रह सकता है, उसके इस गुण के कारण उसके द्वारा बाजार के हित में व्यक्तियों को उपभोक्ता बनाने का ठेका मीडिया को दे दिया गया है। इसके साथ ही जैसा कि पूँजीवादी व्यवस्था हमेशा ही अपनी नीतियों का वर्चस्व बनाये रखने के लिये अनेक तरह के लोककल्याणकारी दिखने वाले भ्रमों की सृष्टि करता रहा है, जन संचार के माध्यमों के साथ भी उसने लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, स्वतंत्र और अभिव्यक्ति की मौलिकता का पक्षधर मीडिया होने का मायालोक रच दिया। इस मायालोक में विश्व की तमाम आबादी उलझती गई। यह मायालोक शिक्षित और बुद्धिजीवियों को ज्यादा अनुशासनात्मक तरीके से अपने संजाल में फंसा लेती है, क्योंकि उसके मस्तिष्क को शिक्षा के पूँजीवादी तरीकों के लगातार प्रयोग से अनुशासित किया जा चुका होता है। अतः शिक्षित वर्ग को पूँजीवादी मीडिया के द्वारा फैलाये जा रहे सुनहरे मायालोक के सीमांत लाभों को अपने लिये उपलब्ध देखकर पगला दिया जाता है और एक विशाल - भूमंडलीय मानवचेतना के विध्वंस का, मानवीय स्वतंत्रता के वस्तुकृत रूपों का, मानवीय हिंसा के अनेक रूपों का - बाजार बना दिया गया। इस बाजार को निरंतर अपने अधीन रखने के लिये एक ऐसे संचार माध्यम की आवश्यकता होती है जो उपभाक्ता को उतनी ही सूचनायें प्रदान करे जितनी सूचनाओं से बाजार का अस्तित्व बना रहे और उसके खिलाफ जन चेतना कभी भी विध्वसंक रूप न ले सके। इसलिये आधुनिक पूँजीवादी मीडिया मैकाले के उपर्युक्त सिद्धांत को यथावत अपनाता है। आज उपभोक्ता के विशिष्ट वर्ग हैं, मीडिया इन वर्गों को सूचनायें छान-छान कर उपलब्घ कराता है। अर्थात् उतनी ही सूचनायें उपलब्ध कराता है जितनी उसे एक अच्छा उपभोक्ता और एक बुर्जुआ नागरिक बनाये रखे। जनता के पास कभी कभी पूँजीवादी उत्पीड़न की सूचनायें प्रसारित नहीं की जातीं। उत्पीड़न जब अवश्यंभावी रूप ले लेता है तो उस जानकारी को प्राकृतिक घटना या उत्पीड़क वर्ग की गलत जीवन पद्धति या उनकी गलति के रूप में ही पेश की जाती है। उसके पीछे के वास्तविक कारणों और कारकों को कभी ये संचार के माध्यम प्रस्तुत नहीं करते हैं।
सूचनाओं को कब प्रसारित करना, कितना प्रसारित करना, कैसे प्रसारित करना, उसके किस हिस्से को हाईलाइट करना, किस हिस्से का छिपा देना, जिन चीजों की छिपाया जाता है, वे सबसे महत्वपूर्ण होती हैं, उन्हें छिपाने के लिये दूसरी सूचनाओं को लगातार प्रक्षेपित करते रहना ताकि जनता छिपाई गई सूचनाओं के संबंध में ध्यान ही न दे सके, सोच ही न सके। इन सब कार्यों के लिये संचार माध्यमों के कामकाजी स्थलों पर हजारों विशेषज्ञ सक्रिय रहते हैं। तमाम सूचनाओं पर कई तरह के फिल्टर लगाये जाते हैं, जनता तक पहुँचने से पहले। इनत तमाम फिल्टरों का एक ही उद्देश्य होता है ‘जनता के मस्तिष्क को’ पूँजी के हितों के अनुकूल बनाये रखना। व्यापारिक लाभों का सर्वापरि रखा जाता है और इसके लिये जनता की सोच को नियंत्रित रखना ही एक मात्र उपाय है। नोम चाम्स्की ने  लिखा है कि ‘‘यदि उनकी (जनता की) सोच को नियंत्रित नहीं किया जाता है तो निश्चित रूप से हमारे (व्यापारी वर्ग ) लिये स्थितियाँ विपरीत होने जा रही हैं।’’1 जन माध्यमों का मायालोक, पृ. 51
पूँजीवाद मैकाले के उपर्युक्त सिद्धांत को अपने द्वारा कमाये गये लाभ को निचले स्तर तक पहुँचने देने में भी करता है। भूमंडलीकरण के पैरोकार लाभों को बूंद बूंद नीचे पहुँचाते हैं। वे जितना भी देते दिखते हैं, वह उनके द्वारा कमाये गये लाभों की बूंद भी नहीं होती। और जो वे वेतन भत्तों और पैकेजों के माध्यम से प्रदान करते हैं, वह दरअसल नीचे से लाभ को सोखने के लिये किया गया छिड़काव भर होता है। लाखों के पैकेजे की खबरें जन माध्यम बहुत बड़े अक्षरों में छापते हैं, पूँजी के आगमन की खबरें बहुत उँचे स्वरों में मीडिया में बोली जाती हैं, निवेश की खबर के रूप में परंतु कभी जनता को उसके द्वारा कमा कर ले जाई गई वह धनराशि जो जनता के मेहनत की गाढ़ी कमाई होती है, नहीं बताई जाती। विदेशी निवेश कितना देश से निकाल कर ले जा रहे हैं, इस सूचना को छिपाया जाता है, पैकेज प्राप्त व्यक्ति से कितना गुना अर्थार्जन किया जा रहा है इस बात को कभी नहीं बताया जाता। यह तमाम सूचनायें जो छिपाई जाती हैं, वे जनता के वास्तविक उत्पीड़न की होती हैं।
नोम चाम्स्की ने लिखा है कि - ‘‘यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि जिन लोगों का मालिकाना देश पर है, वे प्रसन्न रहें, अन्यथा सभी लोगों को तकलीफ उठाना पडे़गी, क्योंकि वे निवेश को नियंत्रित करते हैं, और वे ही यह तय करते हैं, कि वहाँ क्या चीज उत्पादित होगी और कैसे वितरित होगी और लाभों का कितना हिस्सा रिस-रिसकर नीचे उन लोगों तक पहुँचेगा, जो मालिकों के यहाँ खुद को भाड़े पर उसी हालात में चढ़ा पाते हैं, जब मालिकान उन्हें भाड़े पर लेने की स्थिति में होते हैं। ऐसे में सड़कोे पर भटकने वाले बेघर लोगों के लिये सर्वोच्च प्राथमिकता यही हो सकती है कि वे यह सुनिश्चित करें कि विशाल बंगलों में रहने वाले लोग पर्याप्त रूप से संतुष्ट बने रहें। एक प्रणाली के भीतर जो विकल्प मौजूद होते हैं और जो सांस्कृतिक मूल्य यह थोपती है, उनके तहत दब्बूपना, हुक्म का गुलाम बने रहना, और सार्वजनिक हितों से किनारा कर लेने के अलावा अल्पावधि के व्यक्तिगत लाभों को अधिकतम बनाने की कोशिश में लगे रहने का काम ही तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। इसके अनुसार ही राजनैतिक कार्रवाइयों की हद अपेक्षाकृत सीमित होती है। एक बार जब पूँजीवादी लोकतंत्र के ढांचे बन जाते हैं, तो वे काफी टिकाऊ बने रहते है, भले ही इसके बाद लोगों को कितनी भी तकलीफ क्यों न उठानी पड़े।’’ वही पृ. 42 यह एक ऐसा विश्लेष्ण है जो वास्तव में सभी पूँजीवादी लोकतंत्रों में देखा जा सकता है। तमाम मीडिया इस दब्बूपन और अधिकतम अल्पावधि के लाभों में उलझे रहने की संस्कृति को निरंतर परोसती है। जन संचार माध्यामों के इस जनविरोधी चरित्र को समझना और उसके संजाल से जन चेतना को मुक्त करना एक बड़ा दायित्व है, जिसे चुनौती की तरह अपनाया जाना चाहिये।
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मीडिया और समाज: दो     

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