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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 जून, 2018

परखः तीन 


हे जादूगर कवि ! प्रेम कोई पीठ की खुजली नहीं 

गणेश गनी





गणेश गनी


जादू है
जादू है
जादू है कविता

खाली टोकरी से
निकलता है
कबूतर

कविता लिखते लिखते जब कवि अपने को कविता का जादूगर समझने लगे तो समझो कि कविता और कबूतर में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। और ऐसा बहुत सारे बड़े कवियों ने किया है। उन्हें मान सम्मान, पुरस्कार, धन, मुफ़्त की यात्राएं, पत्रिका के विशेषांक आदि बहुत कुछ इतनी जल्दी मिला कि उन्हें लगा अरे यह तो जादू है। तो बन गए जादूगर।
कवि रात में बड़ा जादूगर बन जाता है, जब रॉयल स्टैग की बोतल खुलती है-

हिरन छाप बोतल का ढक्कन खोलकर
मैंने आज़ाद किया हिरन को
और खुला छोड़ दिया उसे
अपनी नसों के जंतर मंतर में

पलक झपकते ही हिरन हो गई मेरी तबीयत!

कमाल तो यह है कि यह हिरन तब बोतल से आज़ाद हुआ जब कवि बेरोजगार था। बेरोज़गारी में भी हिरन छाप बोतल खरीदना साहस का काम है-

यह मेरी विराट और बंजर
बेरोजगारी के दिनों की एक रात थी।

कवि यदि लघुकथाओं पर गौर करता तो बेहतर होता। कवि की कुछ कविताएं कथाएं हैं और प्रवचन साथ साथ चलता रहता है-

बीसवीं सदी के अंतिम दिनों में एक बूढ़ा आदमी जिसकी उम्र लगभग अस्सी पार कर चुकी थी और जिसकी कोई जमीन जायदाद नहीं थी, एक महानगर में गया जहां उसके कुछ रिश्तेदार और एक दोस्त रहता था। पहले भी इस महानगर में वह आता जाता रहता था। पहले जब आता तंग तो बड़े भाई के घर ही रुकता था।

यह कथा लम्बी चलती है और  उस बूढ़े की यादों में बचपन और गांव आने पर समाप्त होती है। एक और गप्प भी सुन लो-

बहुत कठिन काम है बड़ी उम्र में सीखना कार चलाना। अभ्यास के बाद जब हम लौटते हैं वापिस तो शरीर नहीं दिमाग इतना थक चुका होता है कि आते ही ढेर हो जाते हैं बिस्तर पर।

इस कविता में कवि ने पूरे  ड्राइविंग स्कूल के अनुभवों का शब्द दर शब्द वर्णन किया है। काश! कवि ने कविता सीखने में भी इतनी मेहनत की होती और अनुभव इधर साझा किए होते तो नए कवियों का भी कुछ भला होता। परंतु आपको क्या कहूँ-

आप इतने बड़े हैं कि आप पर चिल्लाना भी अच्छा नहीं लगता
वो बार बार हम पर खीझता है और तरस खाता है!

राजेश जोशी की कविताओं में विविधता तो है, मगर जो रूपक, बिम्ब, मुहावरे हैं, वो अटपटे हैं। कल्पना भी सुंदर होनी चाहिए, खासकर प्रेम में, परंतु ऐसा लगता नहीं-

मैं उसके स्वप्न में जाना चाहता था

वह हरी हरी कमीज़ मैंने पहन ली
जो उसे खूब खूब पसंद थी
जिसकी दोनों जेबों में
रखी जा सकती थीं दो चिड़ियां
या दो सफेद चुहियां।

चाँद मैंने कमीज़ की जेब में रख लिया
दूसरी जेब में क्योंकि सिगरेटें थीं
इसलिए तारे, वो प्यारे प्यारे
ढेर सारे सितारे, पैंट की जेबों में भर लिए।

राजेश जोशी


यह यात्रा लम्बी चलती है। जबकि चन्द पंक्तियों में ख़त्म होने से प्रेम कविता सुंदर बन सकती थी। कहानी सुनाकर कवि ने उब ही पैदा करता है।
एक और प्रेम कविता की ये पंक्तियां पढ़ें और बताएं कि कैसे रूहानी अनुभूति को कवि बेहद हल्के अंदाज़ में बयां कर रहा है। प्रेम की व्याख्या कोई ऐसे कैसे कर सकता है-

अभी अभी लौटा हूं सारे काम धाम निपटाकर
रात का खाना खाकर
अभी अभी कपड़े बदलकर घुसा हूं
होटल के बिस्तर में
और रह रहकर पीठ में खुजली हो रही है
रह रहकर आ रही है इस समय तुम्हारी याद
यह नामुराद खुजली हर बार
और आगे खिसक जाती है मेरे हाथ की पहुंच से।

हे जादूगर कवि! प्रेम कोई पीठ की खुजली नहीं है। विद्वानों ने कहा है, प्रेम मुक्ति है, प्रेम एक खूबसूरत ज़िम्मेदारी है।
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परखः दो , नीचे लिंक पर पढ़िए।

कवि ! आपको दृष्टि दोष है मात्र
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/350-httpbizooka2009.html?m=1

2 टिप्‍पणियां:

  1. गणेश जी की टिप्पणी हिंदी कविता के महानता के आकाश में सुराख करती महसूस हो रही है। कवि जब जीवन से कट जाता है और एक साहित्यिक विलासिता के वातावरण में स्वयं को कैद कर लेता है और वही उसकी दुनिया हो जाती है। तमाम अराजक महानता के मिथक और पुरस्कारों की आत्ममुग्धता के सीखचों में बंद कवि इसी तरह की रचनाएं उगलने लगता है। यह होता है और होने दिया जाता है उन लोगों के द्वारा जो साहित्य को समृद्धि का साधन बना लेते हैं। कवि जो जनाधार लेकर जीवन आरंभ करता है समझ ही नहीं पाता कि कब वह साहित्यिक विलासिता की कीचड़ को स्वर्ग मानकर जीने लगा। यह साहित्यिक विलासिता हिंदी में बहुत तेजी से फैली है। चिंता का विषय यह है कि कोई भी इस पर टिप्पणी तक नहीं करता आलोचना की बात तो बहुत दूर है। सब आत्ममुग्धता के शिकार हैं क्यों किसी के फटे में टांग अड़ा कर अपना नुकसान करने का साहस करेगा।
    कोई कबीर ही कहसकता है-
    सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवे।
    दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे।
    गणेश जी यह साहस कर रहे हैं उनके साहस को सलाम करने के साथ साथ उनका साथ देने की जरूरत है।

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  2. इसमें कोई शक नहीं कि राजेश जोशी हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि हैं । उनकी कविताएँ साम्प्रदायिकता के खिलाफ और मनुष्यता के पक्ष में कई जगह खड़ी नजर आती हैं , उन्होंने "बच्चे काम पर जा रहे हैं" जैसी अद्भुत कविता भी लिखी है । पर हर कवि के पास हर किस्म की समुचित अन्तर्दृष्टि भी हो यह जरूरी नहीं ! प्रेम के लिए जो मुलामियत और कोमलता भरी दृष्टि चाहिए शायद उनके पास वह नहीं , इसलिए इन कविताओं में वे चूक गए हैं ।बातें दोनों पक्ष को लेकर हों , तो चर्चा अपने मुकाम को पा सकती है । बहरहाल विमर्श का यह क्रम चलते रहना चाहिए ।

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