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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जुलाई, 2018

मैं क्यों लिखता हूँ

शिवमूर्ति 

फसल की तरह लेखक भी अपनी ‘जमीन’ की उपज होता है। जिन परिस्थितियों में शिशु का विकास होता है वही उसके जीवन की नियामक भी होती हैं और उसके लेखन की भी। जब मेरी रचनाओं में गाँव, गरीब खेत - खलिहान, गाय-बैल, वर्ण-संघर्ष, फौजदारी और मुकदमेबाजी आते हैं तो यह केवल मेरी मर्जी या चुनाव से नहीं होता। ‘मेरे समय’ ने जिन अनुभवों को प्राथमिकता देकर मेरे अन्तःकरण में संजोया है, स्मृति के द्वार खुलते ही उन्हीं की भीड़ निकलकर पन्नों पर फैल जाती है। चूंकि मेरा बचपन गाँव में बीता, इसलिए गाँव ही मेरा  विषय बन गया।



शिवमूर्ति 



इस समय समाज का सबसे परेशान तबका कोई है तो वह है गाँव का किसान, मजदूर और पेशेवर तबका जैसे नाई, धोबी, लुहार, बढ़ई आदि। अब गाँव में इनका गुजारा मुश्किल है। पेशेवर जातियों का आधार छीन गया और किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। फलस्वरूप वह चाहकर भी खेतिहर मजदूर को सरकार द्वारा निर्धारित मजदूरी देने में असमर्थ हैं। 

गाँव की जड़ में व्याप्त जातिवाद और ऊँच -नीच की भावना भी उन्हें एक होकर अपने सामूहिक हित के लिए संघर्ष करने के रास्ते का रोड़ा बनी हुई है।

संगठन और एकता के अभाव में गाँव के लोग बड़े से बड़े जुल्म को मूक पशु की तरह चुपचाप सहते हैं। पुलिस जब जिसको चाहे बेइज्जत करती है, फर्जी मुकदमें में फँसाती है या ‘एनकाउन्टर’ कर देती है, कोई प्रतिरोध की आवाज नहीं उठती और आधी अधूरी इच्छा से उठती है तो निर्ममता से दबा दी जाती है।

प्रतिरोध की आवाज को बुलन्द करना, अन्याय और असमानता के विरूद्ध खड़े होना तथा प्रगतिशील मूल्यों को सबल बनाना ही मेरे विचार से लेखन की पहली शर्त है और ये विचार लेखन में उसी तरह घुलमिल कर आने चाहिए जैसे शरबत में चीनी घुली होती है।

वह प्रत्यक्ष दिखाई न पड़े बल्कि उसकी मिठास महसूस हो। मैं अन्याय और असमानता के विरूद्ध और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की आकांक्षा से लिखता हूँ।

मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोककर कागज, कलम की खोज शुरू होती है। जिंदगी के सफर में अलग-अलग समय और मोड़ पर इन पात्रों से मुलाकात हुई। परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवट, साहस इनके दुःख, शोक, संताप ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है। कुछ जीवित कुछ मृत। ये  जल्दी से जल्दी कागज पर अवतरित होने के लिए बेचैन हैं।

कैसे पड़ता है लेखन का बीज किसी के मन में। किस उम्र से पड़ता है ? क्या यह जन्मजात होता है ?


 हो सकता है भविष्य में वैज्ञानिक इसका सही और सटीक उत्तर खोजें। पर इतना तो तय है कि प्रत्येक रचनाकार को प्रकृति एक विशिष्ट उपहार देती है। अतिसंवेदनशीलता का, पर-दुख कातरता का। अतीन्द्रियता का भी। जिससे वह प्रत्येक घटना को अपने अलग नजरिए से देखने, प्रभावित होने और विश्लेषित करने में सक्षम होता है। यह विशिष्टता अभ्यास के साथ अपनी क्षमता बढ़ाती जाती है। माँ की तरह या धरती की तरह लेखक की भी अपनी खास ‘कोख’ होती है, जिसमें वह उपयोगी या उद्वेलित करने वाली घटना या बिम्ब को टाँग लेता है। सुरक्षित कर लेता है, अनुकूल समय आने पर उसे रचना के रूप में अंकुरित करने के लिए।

लेखक के ‘मैं’ में कम से कम दो व्यक्ति समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय और परिस्थिति से दो- दो हाथ कर रहा होता है। सबकुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है। दूसरा वह जो हर झेले, सहे, भोगे गये अनुभव को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा ‘परायों’ के झेले भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल भोग रहा हो। 

कालान्तर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे -धीरे खत्म होती जाती है। जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक दुःख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आँसू वास्तविक होते हैं।

मेरे मन में कहानी का मूल बिंद किसी दृश्य चरित्र या संवाद के देखने सुनने से उभरता है। फिर इस मूल बिंदु के चारों तरफ कहानी के अन्य अवयवों का ताना बाना बुनना शुरू होता है। मेरे मन में कहानी कभी भी एकमुश्त मुकम्मल रूप में सामने नहीं आती। ज्यों -ज्यों सोचने और लिखने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है, कहानी आकार ग्रहण करती जाती है। कभी - कभी तो कहानी के पहले और अंतिम ड्राफ्ट में मात्र दस प्रतिशत की समानता ही शेष रह जाती है। विचारधारा को केन्द्र बना कर कहानी का ढाँचा खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं है।

परिचित प्रायः जानना चाहते हैं कि कितना कमा लेते हैं लिखकर ? उत्तर सुनकर निराश होते हैं। कहते हैं कि अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते ? सुनते हैं, अंग्रेजी के लेखक लाखों कमाते हैं।


- कमाते होंगे, पर हिन्दी में इतने पाठक नहीं हैं। और जैसा हम लिखते हैं उसके पाठक तो और भी कम हैं।

- तो वैसा क्यों नहीं लिखते जिसके पाठक हैं ?

- नहीं लिख सकते वैसा। हमारा उद्देश्य लिखकर पैसा कमाना नहीं है भाई। बेहतरी के लिए परिवर्तन की कामना से लिखते हैं।

तो क्या हर पढ़ा लिखा व्यक्ति ऐसे लेखन का पाठक हो सकता है ? जिनके सरोकार हमारे सरोकार से भिन्न हैं, उसके विरोधी हैं, वे हमारे पाठक क्यों होंगे ? जो इस दुनिया में यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर हैं, परिवर्तन के पक्षधर नहीं हैं, वे हमारे पाठक क्यों होंगे ?

हमारा जेनुइन पाठक तो पढ़े लिखे वर्ग का वही तबका हो सकता है जो शोषितों वंचितों के पक्ष में खड़ा हो। जो बुराई को अच्छाई से विस्थापित करने के पक्ष में हो। जो इस दुनिया को वर्तमान से बेहतर बनाने का हामी हो।

हम जानते हैं कि ऐसे लोग ज्यादा नहीं हैं लेकिन जितने हैं वही प्रबुद्ध पाठक बन सके  तो बहुत है।

लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ-साथ होती है। भोगी नहीं होगा तो जीवन में गहरे धँसने के लिए प्रेरित कैसे होगा और योगी नहीं होगा तो सारे प्रलोभनों से स्वयं को निरासक्त करके लेखन के लिए प्रेरित कैसे होगा ?

यह दोनों भूमिकाएँ बहुत संतुलन की मांग करती हैं। जितना ही कोई लेखक इस संतुलन को साध सकेगा उतना ही गहरायी में उतर कर हकीकत को देख सकेगा और दिखा सकेगा।


 शिवमूर्ति
11 अक्टूबर 2016
9450178673

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