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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 जुलाई, 2018

शिवदयाल की कविताएँ



शिवदयाल




ताक पर दुनिया
   
चीजें संभालते
दम नहीं घुटता उसका
जरूरी-गैरजरूरी के बीच
अंतर नहीं करती वह
अपने हिसाब से
सबका बराबर ख्याल रखती है
जब भी दिखती है
क्षमता से अधिक उठाती दिखती है
..कि हम ही उसकी योग्यता
कम आँकते हैं शायद
जबकि यह परम आश्वस्ति का भाव है
कि चीजें ताक पर हैं

यह भी नहीं कि
काई बनी-बनाई चीज ही हो ताक
जिस पर हम
अपनी बुद्धि तक रख छोड़ते हैं
और निश्चिन्त हो रहते हैं
कई बार चीजें और सामान
अपनी औकात भूल
उसकी भूमिका निभाने लगते हैं
और ढोना शुरू कर देते हैं
जैसे - कुर्सी पर किताबें
और उसके ऊपर चाय की प्याली
चौकी पर संदूक
और उसके ऊपर कपड़े-लत्ते..

यह कितना कुछ ढोता चला जा रहा हूँ
दुनिया और दुनियादारी...
जिसे ताक पर रख छोड़ना था
खुद उठाए फिर रहा हूँ
बोझा भारी हो रहा है
कोई आकर कुछ उठा ले जाता
- कुछ जरूरी ....




नंदी का वंशज
       
जा, तू चला जा
अभी कितनी ही योनियाँ बची हैं
फेरे लगाने हैं
अभी तो कितने ही जनमों के
सोच कि तू जनमा ही नहीं!

जीते रहने का विकल्प
कितना त्रासद है
काश तू समझ सकता !
तेरा पुंसत्व ही
तेरा शत्रु ठहरा
ओ अबोध!

हजारों सालों की सहयात्रा का
अंत देखने को ही तू जनमा, तो देख -
यह दोराहा
जहाँ से आदमी और बैल के
अलग हो रहे रास्ते

लेकिन यह क्या वरदान नहीं
कि आदमी को अब बैल नहीं चाहिए ?
कि तेरे पौरुष-कोषों को कूटा नहीं जाएगा
बड़भागा है तू
जो उस पीड़ा, उस क्षोभ
और लाचारी से अनजान रहेगा
तेरे कंधे पर
जुए का निशान नहीं रहेगा

कोसों चलते जाने
चलते चले जाने की विवशता
चाहे वह कोल्हू के केन्द्र की
परिधि खींचने की ही हो
कंधे पर भारी जुआ
पीठ पर हुरपेटा
रक्ताभ आँखों की तरेड़
मुख में गरम झाग
उबलती साँसों से धिकते नथुने
नथुनों में फँसी
चुभती, रगड़ खाती रस्सी
जिसका एक, अंतिम सिरा
हड़ाह हरवाहे के हाथों में
नकेल नहीं, समूचा स्वत्व अपना !
धिक्कार ऐसे निर्वीर्य पौरुष पर!

देख, यह नया इतिहास बन रहा है
आदमी के माथे का
कलंक मिट रहा है
बछड़ा अब बैल नहीं बन रहा है।

अपनी माता की ममता से
बलात वंचित,
दूर कहीं छोड़ आए हुए
ओ नन्हें-से बछड़े
कान आगे कर तू किसकी आहट सुनता
टकटकी लगाए किसकी राह देखता
अब कौन आने को है ..

अभी तो तेरी देह से
जनम के रोएँ तक नहीं गिरे
लेकिन तू जा,
तनिक मत ठहर इस देस
तेरे मुख में अब नहीं उतरने की
गर्म दूध की रसधार
वैसे भी तू कहाँ छक सका
एक बार भी जी भर कर वह अमरित
जो केवल तेरे लिए
तेरी माता के थन में उतरता है !
अपनी ही लार को मथ-मथ कर
कितने दिन तू चाटेगा
यह भी तो सोच
कि जी गया तो क्या-क्या दुःख काटेगा !

ठेसाह घुटने
फटे खुर
जगह-जगह छिला-कटा
उद्रग, विशाल ककुद
ढहते किले के कंगूरे-सा अब भी तना
पीठ पर ढेलों के निशान
मानो घृणा, तिरस्कार, मानमर्दन से
लड़खड़ाती चाल
न कोई आश्रय न ठिकाना
हर द्वार बेगाना
रास्तों से अपकुशन की तरह गुजरना
डरते, ठिठकते, बचते निकलते लोग
भय और उत्तेजना  में रंभातीं, डकरतीं
खूँटे से बँधी गउएँ ....

जाने किस जनम का पाप काटने को
इस जनम दर-दर भटक रहा
नंदी का वंशज
जिसकी पीठ पर विराजते
स्वयं देवाधिदेव !

जा, तू जा
अपने पुरखों के लोक जा
ओ नंदी के नन्हें-से वारिस
यहाँ वही रहेगा
जो दुहा जा सके !

देखना अपने को

डाइनिंग हाॅल के एक कोने में
वाश बेसिन के ऊपर
एक बड़ा-सा आइना टँगा है
जो हमारे साथ
तब से चला आ रहा है
जब कि घर में कोई
डाइनिंग रूम नहीं था।

लाल फ्रेम लकड़ी का
विवर्ण और विदीर्ण हो चला है
उसकी कसावट शीशे  पर
ढीली हो चली है
लेकिन लेकिन शीशा बिल्कुल ठीक है -
एकदम साफ - बेदाग
- इसमें मूँछों के पके बाल
साफ नजर आते हैं
होठों के ऊपर रोएँ आ रहे थे
यह इस आइने ने ही कई बरस पहले
दिखाया था,
मेरा रामांच तब उसमें भी उतर आया था।

बदलते, जैसे पुराने पड़ते चेहरे
चेहरे पर गाढ़ी होती रेखाओं का
और कौन होगा ऐसा आत्मीय और प्रामाणिक साक्षी
जो तबसे मुझे देख रहा है
जब कि मेरा कद वहाँ तक पहुँचा भी नहीं था
जिस ऊँचाई पर यह आइना टँगा रहता था
और जिसमें खुद को देखने के लिए
पंजों के बल खड़ा होना पड़ता था।

आज यह आइना देखता हूँ
तो मेरा अतीत उचक कर
उसमें से झाँकने लगता है
अपने को देखने की
जब कोई और जगह नहीं
तो आश्वस्त हूँ, यह आइना है











कूड़ा समय

(1)
अपशिष्ट
आधुनिकता की पहचान है
और उसकी परिणति भी
अपशिष्ट का परिमाण, उसकी संष्लिष्टता
आदमियों ही नहीं
देशों की भी औकात का पैमाना है
सबसे छोटे आदमी
छोटे इसलिए भी हैं
कि इस ‘अपशिष्ट युग’
या कि ‘कूड़ा-समय में
कूड़ा बना सकने का
सामर्थ्य नहीं रखते
उत्पादन उपभोग की
जटिल संरचना से वे बाहर हैं

छोटे लोग
छोटे इसलिए भी हैं
कि वे बड़ों द्वारा उत्सर्जित कूड़े से भी
काम चला सकते हैं
छोटे लोगों का यह बड़ा काम है
कूड़े में अपना भविष्य बीनने के बहाने
जो दुनिया उनके रहने योग्य न हो सकी
उसे हमारे रहने योग्य रहने दे रहे हैं

(2)

इस दुनिया से
किसने कितना लिया
कूड़ा इसका हिसाब बताता है
जो इस दुनिया से
सबसे कम लेते हैं -
सबसे कम हवा
सबसे कम अन्न-जल
सबसे कम सुविधा
सबसे कम अधिकार
वे सबसे कम कूड़ा उपराजते हैं

बैकुंठ के दरवाजे
अब केवल उन्हीं के लिए खुलेंगे
क्योंकि वे ही
मात्र वे ही
इस धरती को
कल के लिए भी छोड़ रहे हैं।









पहचान
   
जाती हुई पहचानें
छोड़ती हैं जरूर
अपने पीछे कोई चिह्न अपना

निर्जल होता ताल
छोड़ जाता है अंदर मिटटी में
थोड़ा गीलापन
कटती हुई फसल खेतों में
कुछ दाने बिखेर जाती है

बिना बरसे भी
गुजर गए बादल हवा में
थोड़ी नमी छोड़ जाते हैं
टूटा हुआ कोई आत्मीय सम्बन्ध
एक कसक तो छोड़ ही जाता है

और देखिये
किन युगों में गायब हो गए सरीसृप
छोड़ गए थे अपनी हड्डियां
मनुष्य छोड़ गए थे
नगर-भवन-सभ्यताएं….

हम क्या छोड़नेवाले हैं
अपने पीछे ?
छोड़ना होगा कुछ तो कुछ जरूर
वैसे चाहे-अनचाहे भी कुछ न कुछ
छूट ही जाता है…

इन चिह्नों का होना
भविष्य में अपना होना है




 बेवजन

सिर्फ ग्राहक के
इंतजार में नहीं झुकी होगी पीठ
सर को घुटनों पर टिकी
कोहुनियों का अवलम्ब
न हो तो
मानो अपने ही वजन से
वह जमीन पर गिर जाए!
गो अपनी पसलियों को
चीथड़ों में छुपाए फिर भी
वे सचमुच
इंतजार कर रहे हैं

फुटपाथ को रौंदते
अनगिनत पाँव ....
जिन पर टिकी हैं उनकी
लाल डोरियों वाली आँखों से
झाँकती निस्तेज निगाहें..
कि कोई कदम
शायद इस ओर बढ़ आए

अपने ही पाप से भारी होती
इस दुनिया के किसी बाशिंदे को
शायद खुद अपने वजन का
अंदाजा लगाने की दरकार हो आए,
या फिर गुमान ही ....

या ऐसा होता कि
डायटिंग से इकहरी होती जाती
किसी युवती की निगाह में ही आ जाती
उनकी वह धूलिधूसरित वेइंग मशीन वजन मापने की

या काश ऐसा होता कि
इन अगणित पदचापों को सुनते,
आपस में जैसे लड़ते-उलझते और संभलते
किस्म-किस्म के पैरों को निहारते
भूखे पेट ही सही उन्हें नींद आ जाती!

इस दुनिया में
जबकि हर चीज अपना वजन खो रही है
एक अदद वजन मापने की मशीन के सहारे
वे अशोक राजपथ के फुटपाथ के किनारे
किसी वजन वाले का अब भी
इंतजार कर रहे हैं ....!   
         





वार

वे पहले
मारते हैं शब्दों से
जुमलों से गोदते हैं
पहले.पहल
जैसे . गद्दार !
तब करते हैं
खंजरों.तमंचों से वार  …!

मालूम है इन्हें
कि अगर कहीं
खाली भी जाये वार खंजर का
तब भी शब्द
अपना काम करते रहेंगे…

एक पूरा
मुकम्मिल इंतजाम है यह
चाँदमारी का
जिसमें शिकार बच निकला
तब भी जीते जी मरता रहेगा !
मारने वाले को और क्या चाहिए ?

जो खेलते हैं शब्दों से
जो रहते हैं शब्दों की दुनिया में
ताज्जुब है
शब्दों की इस भूमिका से
अनजान बने हुए हैं
कि शब्द भी करते हैं काम तमाम
कि जैसे खंजर और तमंचे
जाने कबसे
जाने कबसे….!   







फेरीवाले 
   
फेरे लगाते फेरी वाले
कभी न डिगते
कभी न थकते
ये वामन के डगवाले

अपने.अपने फेरों में
जो रहते.हरदम गुम
उन्हें उनकी याद दिलाते
खोमचा बक्सा ठेलावाले

कितनी.कितनी चीजों से
करते हैं आबाद
खाली जगहें भरते हैं
बूंदे झुमके तालेवाले

चाहे सूरज चाँद सितारे
सबके अपने फेरे
घूम.घूम कर बता रहे
‘हरेक माल एक दाम’वाले

हम भी तो हैं लगा रहे
जनम.जनम के फेरे
सोए हुओं को जगा रहे
पुकार लगाते फेरीवाले




सोमालिया 
                      
मरते हो तो मरो
साबुत इंसान से
कंकाल में तब्दील होते हुए मरो
भूखी आँतों में
गोलियाँ खाते हुए मरो ...

मगर मुझे,
मेरे होने को क्यों भेजते हो लानत ?
ओ दूर देश में बसने वाले
कृष्णकाय लोगो ?

जब मैं
सुबह की चाय पर
अखबार देख रहा होता हूँ
तुम्हारी भूख से गलती
और गोलियों से बिंधती देह
किस बात का हिसाब माँगती है ?
या कि शाम की शराब से पहले
अपने चमचमाते जूते के फीते
खोल रहा होता हूँ
तुम्हारे तलवों के नीचे
की तपती मिट्टी और सिर पर
गिद्धों के डैनों की छाया
क्यों भर देती है अकस्मात
मेरी शिराओं में
बर्फीली सिहरन ?

और जब बत्तियाँ बुझाकर
बहुत मीठे सपनों को
आमंत्रित करता
सोने की तैयारी कर रहा होता हूँ
तो क्यों सहसा पड़ जाता हूँ
उधेड़बुन में कि
दुनिया में जितना अन्न पैदा होता है
उसका कितना हिस्सा
चूहे हजम कर जाते हैं ?

भूख और घृणा के महा-अलाव में सिंकते
मेरी ही धरा के सहवासियो
देखो,
मुझे बख्श दो !
मैं कर भी क्या सकता हूँ
तुम्हें एक इंसानी गरिमा से पूरित
मृत्यु देने के लिए !








         
फसल

चुप-चुप रहते हैं
इन दिनों रामेसर चाचा !
कभी के इतने बड़बोले
बात की बात में दूसरों की लगोट खोलें
ताली मार-मार कर हँसने-हँसानेवाले
चाची को चिढ़ाने, फिर रिझानेवाले
रामेसर चाचा !

बड़कू की कलकत्ते में मारी गई मति
न रुपया न पैसा
न चिठ्ठी न पतरी
माई के कलेजे में हूक
बहू का दिल दो टूक
बेआस मन को देती विश्वास
कि एक दिन जरूर फलेगा
नीम वाली मइया का भाखा,
तीज-जीतिया का उपास !

रोती-फेंकरती पोती को
जब गोद में लेते चाचा
छाती पर लगता
धरा हो जांता !

छोटकू का कुछ पता नहीं
दो महीने पहले बैठाया था
पंजाब की गाड़ी में
थोड़ा डर था थोड़ा पछतावा पर
लड़का था जिद पर
संग गाँव के दो छोरे और
क्या करते !
सुनते हैं, ट्रेने लड़ती हैं, लुटती हैं
अच्छे भले लोगों के हो जाते हैं गुर्दे गायब
और अनचक्के मारे जाते हैं
सोते हुए बिहारी मजदूर !

बिटिया अलग है बेहाल ससुराल में
नैहर लिवा जाने के लिए
बुलाया है भाई को
भाई बचा एक नन्हकू !

नन्हकू को इधर नेताजी पोटिआए हैं
जाने क्या खिलाए-पिलाए हैं
अब तो राम ही जी का सहारा है
बगदल, बेकहल, बनबाकर ...
कुछ कहो तो अगिया कर
पोलटिस झाड़ने लगता है।

गाँव की हवा अलग खराब
छूटी चौपाल, बिछड़े सब दोस्त-यार
ऊपर से चाची ने जबसे पकड़ी है खाट
चित्त बेकल है, जियरा उदास
जब देखो तो कलपती हैं
जोड़कर काँपते हाथ-
अब चलाचली का टेम है
कहा-सुना सब माफ !

गुमसुम
बीड़ी सुलगाते-बुझाते
सोचते हैं रामेसर चाचा
हुई उनसे ऐसी क्या भूल
जहाँ रोपा था हुलसकर उड़हुल-कनेर
उग आए वहाँ बेर-बबूल !
इन दिनों रामेसर चाचा
चुप-चुप रहते हैं
कभी के इतने बड़बोले
रामेसर चा....

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परिचय 


शिवदयाल
हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवं वैचारिक लेखन के  क्षेत्र  में लगभग तीन दशकों से सक्रिय ।
बहुमुखी व बहुविधात्मक लेखनए पूर्णकालिक लेखक।
उपन्यासए कई कहानियांए कविताएं समेत दर्जनों वैचारिक निबंध प्रकाशित। ललित निबंध एवं समीक्षाएं तथा कुछ पटकथाएँ भी लिखीं। रचनायें धर्मयुगए वागर्थए समकालीन भारतीय साहित्यए साक्षात्कारए पुस्तक वार्त्ताए हिन्दुस्तानए आजकलए पूर्वग्रहए दस्तावेजए संवेदए सबलोगए परिकथाए जनसत्ताए प्रभात खबर आदि पत्र.पत्रिकाओं में प्रकाशित।

पिछले कई सालों से जनसत्ता में वैचारिक लेखों.निबंधों का प्रकाशन। 
कुछ कहानियोंए कविताओं एवं लेखों का अनुवाद मराठी एवं उर्दू में प्रकाशित। 
अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में वक्ता के रूप सहभागिता। अनेक साक्षात्कार प्रकाशित एवं प्रसारित। अनेक रचनाएं अनेक पुस्तकों में संगृहीत। अनेक वेब पोर्टलध्साइट पर रचनाएं प्रकाशित एवं उपलब्ध।
पिछले कई वर्षों से गत्यात्मकता और विकास पर केन्द्रित पत्रिका ष्विकास सहयात्री  के संपादक। बाल मासिक ष्बाल किलकारीष् के संपादक।

प्रमुख पुस्तकें.
एक और दुनिया होती. उपन्यासए अनन्य प्रकाशनए दिल्ली।
छिनते पल छिन. उपन्यासए नेशनल पब्लिशिंग हाउसए नई दिल्ली।
मुन्ना बैंडवाले उस्ताद. कहानी संग्रहए भारतीय ज्ञानपीठए नई दिल्ली।
बिहार में आंदोलनए राजनीति ओेर विकास . कांति प्रकाशनए पटना।
बिहार की विरासत यसंण् . वाणी प्रकाशनए नई दिल्ली।

संपर्क.
 ए1ध्201ए आर के विला अपार्टमेंटए महेश नगरए ;
बोरिंग रोड पानी टंकीद्ध पटना.800024  


6 टिप्‍पणियां:

  1. Sabhee Kavitayein khaskar KOODA HOTA SAMAY aur FASAL bahut achhi, marmik hain.

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  2. कुछ कविताएँ तो निस्संदेह अलग और पुरअसर हैं,'नंदी' सहित.

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  3. सभी कविताएँ संवेदना को झकझोरने वाली हैं, दार्शनिक विश्लेषण ने सौंदर्य को निखारा है,शब्द विन्यास बेहतर, नदी की भाति प्रवाह सभी कविताओं में है जो रोचकता को बनाए रखता है.

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  4. संवेदना के धरातल पर काफ़ी–कुछ सोचने के लिए विवश करतीं अच्छी कविताएँ।

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  5. अच्छी रचनाएँ

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