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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 मई, 2018

स्त्री देह के बहाने से 

डॉ ऋतु भनोट 


डॉ ऋतु भनोट 
                   

महिला सशक्तीकरण की योजनाओं और लुभावनी घोषणाओं  में अपनी  जगह तलाशती स्त्री‚ अस्मिता के प्रश्नों से अभी फारिग नहीं हुई है। मनुवादी मानसिकता इक्कीसवीं सदी में भी उसे देह के पर्याय में ही ढाल कर परिभाषित करना चाहती है। कभी स्त्री के नख शिख पर कविता लिख कर अपनी काव्य प्रतिभा का लोहा मनवाता कवि उसके अवयवों का परिमाप छंदों में व्यक्त करता था और आज उपभोक्तावादी संस्कृति उसे देह में मनफ़ी करने के लिए सभी हथकंडे अपना रही है।

पुंसवादी वर्चस्व की गिरफ़्त से बाहर निकलने के लिए रास्ता खोजती स्त्री को बाज़ार ने खुले हाथों लपक लिया है। विज्ञापन‚ फैशन–शो‚ इंटरनेट तथा आभासी दुनिया में परोसी जाती स्त्री छवि उसे मात्र देह करार दिए जाने पर आमादा है।

ज़ीरो फिगर का आकर्षण स्त्री के आत्मविश्वास की धज्जियां उड़ाता एक ऐसी चुनौती के रूप में उभरा है जिसने प्रसाधन उद्योग‚ फूड सप्लीमेंट्स तथा डाइट फूड के व्यवसाय से जुड़ी कंपनियों  के व्यावसायिक लाभ में कई सौ गुणा वृद्धि दर्ज की है। स्त्री अपनी देह को लेकर इतनी असुरक्षित है कि बाज़ार के प्रतिमानों के अनुरूप ही स्वयं को गढ़ना व तराशना चाहती है।
 चमकते बाल‚ दमकती त्वचा‚ उजली रंगत और सबसे बढ़कर छरहरी काया का आकर्षण उसे दिशाहीनता के गर्त में धकेल रहा है। पुरुषों का शेविंग किट‚ परफ़्यूम‚ टुथपेस्ट‚ आफ्टर शेव यहाँ तक कि जाँघिये के विज्ञापन में भी ललचाई आँखों वाली‚ पुरुषों पर डोरे डालती‚ उनकी सुगंध से बेसुध होकर तन–-मन से समर्पित होने को आतुर‚ कम कपड़ों‚ उत्तेजक भाव-भंगिमाओं वाली ऐसी स्त्री प्रस्तुत की जा रही है जिसका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है।

 झूठे ‘ब्यूटी मिथ’का शिकार होकर स्त्री अलग प्रकार की अधीनता को अंगीकार कर रही है। स्त्री की आज़ादी‚ आत्मनिर्भरता व खुलेपन को देह-मुक्ति से जोड़ एक काल्पनिक‚ वायवी स्त्री गढ़ने की साजिश रची जा रही है। विश्व बाज़ार के उपभोक्ता को लुभाने के लिए चुस्त कपड़ों‚ आकर्षक देह-–यष्टि तथा भड़काऊ मुद्राओं वाली मॉडल तथा सेल्स गर्ल चाहिए। घर चलाने के लिए स्मार्ट‚ आधुनिक‚ पढ़ी-–लिखी परंतु संस्कारी स्त्री दरकार है। ‘हाउस वाइफ़’ के टैग को नकार ‘हाउस मेकर’ के विशेषण तले जीती स्त्री इस दबाव से ग्रस्त है कि यदि ओढ़ने–-पहनने‚ चाल–-ढाल‚ हाव–-भाव से आधुनिका दिखने में वह कहीं कम पड़ती है तो पति का मन भटक सकता है। अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ते बच्चे उसे आउटडेटिड कह कर मुँह मोड़ सकते हैं। मोटापा‚ झड़ते बाल‚ फीकी रंगत अथवा झुर्रीदार चेहरा उसे अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत नहीं करता अपितु सुन्दर व आकर्षक दिखने की अंधी दौड़ का प्रतिभागी ही अधिक बनाता है।






छोटे पर्दे‚ सिनेमा तथा पत्र-–पत्रिकाओं ने स्त्री देह को भुना कर अपना व्यवसाय चमकाया है। टीवी पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में टी॰ आर॰ पी॰ बढ़ाने के चक्कर में  सजी–धजी‚ गहनों से लदी गुड़िया के अवतार में स्त्री का छद्म रूप दिखाया जा रहा है। उसकी सारी रचनात्मकता‚ ऊर्जा व प्रतिभा पुरुषों को लुभाने व रिझाने पर ही खर्च करके परोसी जा रही है। अश्लीलता को कलात्मकता के आवरण में छिपा कर बड़ी नफ़ासत से पेश किया जा रहा है। पोर्न इंडस्ट्री फल–फूल रही है। दोहरे अर्थ वाले घटिया वीडियो से इंटरनेट अटा पड़ा है। कॉमेडी के नाम पर सस्ती चुहलबाजी की आड़ में स्त्री-देह को अनावृत्त किया जा रहा है। ग्लैमर वर्ल्ड की चकाचौंध के मायावी पाश में आबद्ध युवतियां गैरज़रूरी समझौते करने पर मज़बूर होती हैं और कई बार अनावश्यक दबावों से घबरा कर आत्महत्या कर लेती हैं ।

देह और सुंदरता के नए मानक स्त्री को व्यक्ति से वस्तु में तबदील कर रहे हैं। जिन्स के रूप में बाजार स्त्री देह का उपयोग व उपभोग कर रहा है। गोरी सुंदर लड़कियां ही अच्छा घर व वर पाती हैं अथवा अच्छा जीवन जीने‚ सफल होने के अवसर मात्रा खूबसूरत लड़कियों‚ स्त्रियों के ही हिस्से आते हैं‚ यह विचार धीरे-–धीरे स्त्री के अवचेतन में ऐसे बिठा दिया जाता है कि स्त्री होना मात्र ‘सुंदर‚ आकर्षक देह होना’ ही बन कर रह जाता है। स्त्री या तो ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ हो सकती है अथवा ‘बिम्बो’(आकर्षक परंतु बुद्धिविहीन युवती)। इन दो छवियों के अतिरिक्त स्त्री का अन्य कोई रूप बाज़ार में स्वीकृत नहीं है।

पर्दे पर दिखाई जा रही यौन हिंसा रोज़मर्रा के जीवन में भी उतर आई है। बलात्कार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही। दुधमुँही बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं तक‚ कार्यस्थल से लेकर घर की चारदीवारी तक‚ अपरिचित व्यक्तियों से लेकर अपने पिता व भाई तक के हाथों शोषित होती स्त्री, पुरुष की निगाह में देह से बढ़कर कुछ नहीं है। स्त्री की यौनिकता को गालियों में उछाल सभ्य समाज अपनी पीठ ठोंकता है‚ मर्दानगी का दम भरता है। स्त्री के अस्तित्व को मात्र देह में रिड्यूस कर पुरुष सदियों से उसका परमेश्वर बना बैठा है। शिक्षा व आत्मनिर्भरता के बल पर स्त्री ने जैसे ही दासत्व के बंधन काटने आरंभ किए तो उसे ‘मुक्त देह’के झूठे छल-छद्म में लपेट  पितृसत्ता ने फिर से देह के पायदान पर लाकर पटक दिया। सत्ता‚ राजनीति व अधिकारों की लड़ाई में बतौर युद्धस्थल स्त्री-देह ही इस्तेमाल होती है। चुनाव प्रचार कार्यक्रमों में फिल्मी धुनों पर थिरकती लड़कियों को जनता को ललचाने‚ फुसलाने के लिए हथियार के तौर पर प्रयोग किया जाता है। बलात्कार की घटनाओं का दोष स्त्रियों के चुस्त परिधान अथवा छोटी स्कर्ट के मत्थे मढ़ अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लिया जाता है। स्त्री क्या पहने‚ क्या करे‚ क्या न करे‚ किसके साथ जाए‚ कब जाए‚ निषेधों व वर्जनाओं की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि पार पाना मुश्किल है। दोहरे मापदण्ड निर्धारित किए जाते हैं ताकि स्त्री देह के स्तर से उठकर कहीं बराबर आकर खड़ी न हो जाए। महिला खिलाड़ियों की पोशाकों पर अभद्र टिप्पणियाँ की जाती हैं। खेल के दौरान उनके उघड़े वस्त्रों की तस्वीरें चटखारे ले लेकर सोशल मीडिया पर साझी की जाती हैं। सवाल यह उठता है कि हमारा समाज एक ही समय में कितने मुखौटे ओढ़कर जी रहा है और इन मुखौटों के पीछे छिपा भयावह चेहरा आखि़र कब बेनकाब होगा?

समाज की इन दोहरी चालों से स्त्री को सतर्क होने की आवश्यकता है। आत्मनिर्भरता व आधुनिकता की नई परिभाषा गढ़नी होगी। ‘ईज़ी मनी’ के प्रलोभन से  मुक्त होकर अपनी कार्यक्षमता व गुणों के बल पर स्वयं को स्थापित करना होगा। ‘स्त्री देह भी है परंतु मात्र देह नहीं है’ यह बोध अपने भीतर जगाना होगा। इस आत्मबोध के बिना अपनी पहचान दर्ज करवाने में वह कभी सफल नहीं हो पाएगी। उसे दूसरों द्वारा थमाई गई झूठी छवि को नकार अपने अर्थ स्वयं तलाशने होंगे‚ समानता व सम्मान की नींव पर अपने लिए एक नई दुनिया खुद बसानी होगी।
००

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कविताएं

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परिचय:

 डॉ. ऋतु भनोट
शिक्षा :
पोस्ट डॉक्टरेट (हिंदी), पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से पी-एच.डी. (हिंदी),एम.ए. (हिंदी), अनुवाद में डिप्लोमा (अंग्रेजी से हिंदी), राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट)
प्रकाशित रचनाएँ:
अमन प्रकाशन, कानपुर से कविता संग्रह ‘पुनर्नवा’ प्रकाशित
डॉ. राजिंद्रपाल सिंह जोश के सहयोग से 'महिला आत्मकथा लेखन के सन्दर्भ में नारी विमर्श' नामक पुस्तक की रचना।
विभिन्न समाचार पत्रों हिन्दू, जनसत्ता, दैनिक अजीत, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, आज समाज तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में १०० के लगभग आलेख, पुस्तक समीक्षा, साक्षात्कार, कहानियाँ तथा कविताएँ प्रकाशित।
समावर्तन, माटी, विभोम स्वर, परिशोध, शोधश्री, प्रतिमान, शब्द सरोकार, अनुसन्धान, e पत्रिका शब्दांकन, शिवना साहित्यकी, पल-प्रतिपल, आगमित एवं अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं में शोध पत्र, पुस्तक समीक्षा, कहानियाँ, कविताएँ व साक्षात्कार प्रकाशित।
सम्मान:
श्री विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान एवं गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा द्वारा संचालित सन्निधि संगोष्ठी द्वारा वर्ष २०१७ के विष्णु प्रभाकर साहित्य सम्मान से सम्मानित  
अनुवाद कार्य:
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पंजाबी भाषा विकास विभाग की ओर से ‘गुरु शब्द रत्नाकर महान कोश’ के पंजाबी से हिंदी अनुवाद में संलग्न।
नोबल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार वी.एस.नायपॉल के उपन्यास 'ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास' के पंजाबी से हिंदी अनुवाद में संलग्न।
स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीइआरटी) के लिए राष्ट्रीय जनसँख्या शिक्षण परियोजना के अंतर्गत नेशनल पापुलेशन एजुकेशन प्रोजेक्ट का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद
नाबार्ड (भारत सरकार) की वार्षिक दो रिपोर्टों का अंग्रेजी से पंजाबी में अनुवाद
प्रसिद्ध वास्तुकार श्री संगीत शर्मा की पुस्तक ^The Corb’s Capitol’ का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद




7 टिप्‍पणियां:

  1. ऋतु भनोट24 मई, 2018 18:46

    हार्दिक आभार

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    उत्तर
    1. बहुत अच्छा लिखा है आपने,साधुवाद ।
      आशा है इसी प्रसंग पर स्त्री के प्रति अपनी निजी अपेक्षाओं पर भी कोई लेख अवश्य लिखेगीं आप,जो कि मानसिकता पर पड़ा प्रतिविम्ब न होकर स्वयं दर्पण होगा । जय सियाराम जी की ।

      ...अवदान

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    2. बहुत अच्छा लिखा है आपने,साधुवाद ।
      आशा है इसी प्रसंग पर स्त्री के प्रति अपनी निजी अपेक्षाओं पर भी कोई लेख अवश्य लिखेगीं आप,जो कि मानसिकता पर पड़ा प्रतिविम्ब न होकर स्वयं दर्पण होगा । जय सियाराम जी की ।

      ...अवदान

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    3. ऋतु भनोट25 मई, 2018 17:22

      जी अवश्य...आभार

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  2. ऋतु भनोट26 मई, 2018 19:38

    शुक्रिया

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