मोहम्मद-अल-असद की कविताएं
कभी-कभी
कभी-कभी
गीत सुनते सुनते
लगता है गूंज रही हो
अपनी ही आवाज
कभी-कभी
पलटता है तख्ता जब,
किसी सत्ता का,
लगता है निकाले जायेंगे मुल्क से
कभी-कभी
सुनाई पड़ती है
चट्टानों से टकराती लहरों की आवाज
लगता है
समुन्दर कायम है अब भी धरती पर
पर होता है ऐसा
कभी-कभी
सिर्फ़ कभी कभी
खयालों में अक्सर
सुनाई पड़ता है अपना नाम
रेडियो की खबरों में
०००
चित्र
फेसबुक से साभार
वही निकोसिया/वही कॉफी
पुराने दरवाजे के पास
खड़े हैं पेड़
और मकान, छोटे गुम्बदों के साथ
टिकाये पीठ पेड़ के तनों से
खड़े हैं कुछ बुजुर्गवार
चुस्कियाँ कॉफी की,
पेड़ों की घनी छाँव तले
वही बेंच वही बूढ़ा दुकानदार
चिपका टेढ़े किवाड़ों के साथ
वही खामोशी
दुश्वार है समझ पाना इस इत्मीनान को
मैं भी पीना चाहूँगा कॉफ़ी
उन्हीं घने पेड़ों की छाँव तले
चखना चाहूँगा
उसी लाजवाब तुर्की कॉफी का
वक़्त को हराने वाला स्वाद
०००
सफ़ेद पत्थर
बनाते हैं हम
सफ़ेद पत्थर से
घर
औजार
और मशालें,
करते हैं हम
शाम की तैयारी
चिड़िया उड़ जाती है
दबाये पत्ती चोंच में
हमारी परछाईं
फैल जाती है
हरियाली की क़ालीन पर
पहाड़ियों के पैरों तले
फिर खिसकने लगती है धीरे धीरे
जब डूबता है हमारा सूरज
सुनसान गलियों में
खाली ढाबों में
खामोशी के साथ
बच्चों के स्कूल के आस पास
समझो, हमारा घर आ गया
छोड़ देते हैं घर मुँह अँधेरे
बरकरार रहती है हमारी पाक सफ़ेदी
बच्चे खेलते कापियों, रजिस्टरों से
छोड़ते अपनी नन्हीं उँगलियों के निशान
बच्चे खेलते हैं सुकून से
बारिश में
दोस्त भटक रहे भीड़ में
भीड़ भी चल पड़ेगी अभी
फिर कब देख पायेंगे किसे
शाम उतरती है बच्चों पर
सब कुछ है खामोश
इसका उतरना, इसके रास्ते
मशाल
बना देती है परछाई
खामोश कर देती है सपनों को
फैल जाती है बच्चों के बिस्तर पर
और तुम्हारा दिल
जीता है अंधेरे में
उतरती है जब रात
देर हो चुकी है बहुत
जाने के लिए
देर हो चुकी है बहुत
रौशनी के लिए
जब दिल गुम हो गया हो
जब पत्थर हो गए हों नर्म
चिड़िया दबा लेती है चोंच में
धूल
ओस
और आखिरी पेड़
०००
कवि
मोहम्मद-अल-असद - उम्र 40 साल। कवि और समीक्षक । प्लास्टिक घि भी माहिर । इनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हैं जिनमें 'घनी छाँव में, 'मैंने खींचना चाहा तुम्हें समुन्दर में', 'चिड़िया उतरती है तुम्हारे किनारें और 'आदशों का राज्य' प्रमुख हैं। इनके दो समीक्षात्मक ग्रंथ 'फिलिस्तीनी प्लास्टिक कला' और 'कविता की भाषा' है। अनेक लेख अखबारों में प्रकाशित हुए, खासतौर से कुवैत में।
०००
अनुवादक
राधारमण अग्रवाल
1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में एयरफ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।
बहुत सुंदर कविताएं
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