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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 सितंबर, 2024

आनंद हर्षुल की कहानी:- हत्यारा

  

            हत्यारा 

        आनंद हर्षुल 

वह बीच रात का समय था। गहरी नींद का समय। आसमान से तारे गायब थे। गायब था चंद्रमा। आसमान काले बादलों से भरा था। यह ऐसा आसमान था जो बारिश के दिनों में कभी-कभी रात भर ठहरा  रहता है। ठहरे काले आसमान के नीचे, बगीचा गहरे अँधेरे में डूबा हुआ था। उस गहरे अँधेरे को ध्यान से सुनो तो उसमें, घोंसलों के भीतर सो रही चिड़ियों की साँसों की महीन आवाज आ रही थी, जिसे सिर्फ अँधेरे में डूबे पेड़-पौधे  ही सुन पा रहे थे। सुन नहीं पा रहा था और कोई। पेड़-पौधे भी  इसलिए सुन पा रहे थे कि पत्तियों की सरसराहट, पेड़-पौधों  के पास अभी बिल्कुल नहीं थी। अभी  हवा चुप थी और  बगीचे का हर पेड़ और हर पौधा जैसे साँसें रोके खड़ा था-- सो रही चिड़ियों की साँसों को सुनता। इस तरह, इस समय, चिड़ियों की गहरी नींद, अँधेरे से लिपटी हुई चिड़ियों के पास थी। थी और पेड़-पौधों के पास भी। इस गहरे अँधेरे में, चिड़ियों की नींद के भीतर, पेड़-पौधों-फूलों की महक उतर रही थी धीरे-धीरे। अँधेरे के पास कोई महक नहीं थी। अँधेरे के पास कभी कोई महक रहती नहीं थी।  

बगीचे के गहरे अँधेरे में रखी लोहे की एक बेंच पर, एक आदमी बैठा था। उसका सिर सामने की ओर इतना झुका हुआ था कि उसकी

गरदन के ठीक निचले हिस्से की, दो उभरी हड्डियों की बीच की जगह को, उसकी ठुड्डी बस छूते-छूते रह गई थी। सिर ठीक उतना झुका हुआ था, जितना कुछ सोचते हुए, हमेशा आदमी का सिर झुक जाता है।  अँधेरे की गहराई में, बेंच पर बैठी उस आदमी की आकृति, गहरे अँधेरे की आकृति थी, जिसके 

चित्र:-गूगल 

मुँह में, बहुत छोटी एक गोल लाल रोशनी, क्षण भर के लिए, दिप-सी जल रही थी और अपने नीचे की ओर ढेर-सा सफेद धुआँ फैलाते बुझ रही थी। धुआँ जैसे उस आदमी के घुटनों से टकराकर फैल रहा था।  यह जलना-बुझना बहुत ही बेचैन-सा जलना-बुझना था। लगातार कंपकपाते हाथ में थमा हुआ था यह जलना-बुझना। इस जलने-बुझने की बेचैनी को उस फैलते धुएं से भी पहचाना जा सकता था जो उसके घुटनों से टकराकर, अँधेरे को फीका करने की कोशिश कर रहा था। यह उतना ही बेचैन जलना-बुझना था, जैसे ना चाहते हुए भी कोई आदमी हवा में ठंड से काँपता  उड़ जाए ऊपर और उसे  यह समझ ना आए कि वह यहाँ आसमान में आ कैसे गया है?  


वह आदमी अब इस शहर में, बिल्कुल अकेला रह गया था। सच तो यह था कि उसने आज ही रात ग्यारह बज कर दस मिनट पर, अपने को बिल्कुल अकेला कर लिया था। सच यह भी था कि उसे ठीक-ठीक पता नहीं था कि उसने आज रात के ठीक ग्यारह बजकर दस मिनट पर अपने को अकेला कर लिया है। कोई उससे पूछता तो वह ठीक-ठीक इस समय को नहीं बता सकता था। उत्तेजना हमेशा समय को खो देती है। उत्तेजना के साथ, उत्तेजना के आसपास, सिर्फ उत्तेजना रहती है। उत्तेजना मस्तिष्क को भी खो देती है। वैसे देखा जाए तो उसके लिए, यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण थी कि उसने अपने हाथों, इस शहर में अपने को अकेला कर लिया है, जिस शहर में पाँच साल पहले वह अकेला आया तो था, पर अकेला रहा नहीं था। यह तो कतई महत्वपूर्ण नहीं था कि उसने आज रात  ठीक कितने बजे अपने को अकेला किया है। इस तरह इस अकेले आदमी के पास से, ग्यारह बजकर दस मिनट के उस समय को जाने दिया जा सकता था, जिसने उसे इस जगह पर अकेला बैठा दिया है।   



बगीचे का माली, उस लोहे की बेंच पर बैठे आदमी को, शायद बीच रात कभी नहीं देख पाता, अगर वह अपनी उम्र के उस जगह पर नहीं होता जो रात में दो से तीन बार पेशाब के लिए उठा देती है। गहरी नींद में पेशाब की टनटनाहट उसके भीतर होने लगती है और बहुत देर तक, उठने से अपने को रोक पाना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। पर वह  जब भी पेशाब के लिए उठता है, अपने कमरे से बाहर झाँक लेता है और  बगीचा उसे  कभी गहरे अँधेरे, तो कभी हल्के अँधेरे, तो कभी सुबह के नीले अँधेरे में मिलता रहता है, क्योंकि इस कॉलोनी के बगीचे और स्ट्रीट की बत्तियाँ रात बारह बजे बंद कर दी जाती थीं कि बिजली के बिल की बचत की जा सके।  वह  बगीचे को एक बार देखता और जाकर फिर सो जाता था अपने कमरे में। कमरा बगीचे से लगी पानी की टंकी के नीचे है। पानी की  टंकी इतनी ऊँची और बड़ी है कि उसके नीचे बना यह छोटा-सा कमरा जिसमें वह रहता है—किसी को एकबार में दिखता भी नहीं है। बगीचा उस पानी की टंकी को छूते ही खत्म होता है और उसके कमरे के ठीक सामने, पास-पास खड़े, गुड़हल के फूलों के तीन बड़े पेड़ों के कारण, उसका कमरा पेड़ों के हरे गुच्छे-सा दिखता है, जिसमें गुड़हल के लाल फूल, अँधेरे में भी चमकने की कोशिश करते रहते हैं। माली ने इन तीन गुड़हल के पौधों को जब यहाँ रोपा था तो इनके बीच चार-चार फुट की दूरी रखी थी। गुड़हल के पेड़ों ने बड़ा होकर इस दूरी को मिटा दिया था और माली का कमरा उनके पीछे छिप गया था। सच कहें तो वह कई  बार माली को भी अपना कमरा नहीं दिखता है। कमरे की जगह गुड़हल के पेड़ों का झुंड ही दिखता है। शायद यह इसलिए भी है कि वह इस बगीचे का माली है और पेड़ों को ध्यान से देखने की उसके भीतर आदत है। वह पेड़ों और पौधों को ध्यान से देखकर, उनमें जलते और बुझते, उनके जीवन को देखता था। अगर पेड़-पौधों को एक माली ध्यान से ना देखे तो यह कभी पता नहीं चलेगा कि उनका जीवन कब बुझने वाला है और बुझने से पहले उसे कैसे जलाए रखा जा सकता है। कह सकते हैं कि माली पेड़-पौधों का चिकित्सक होता है। ऐसा चिकित्सक जिसके पास मरीज को जाना नहीं पड़ता है। चिकित्सक खुद बगीचे में घूम-घूम कर खोजता रहता है मर्ज कि उसका इलाज कर सके। पर अँधेरे में, यह जो बाहर झाँकने की आदत इस  माली के  भीतर बैठी हुई है, वह इसलिए है कि कभी वह चौकीदार रहा है और रात भर, एक कमरे में या कमरे के बाहर, सोए-खड़े-चलते-उठते-बैठते उसे चौकीदारी करनी पड़ी है। इससे समझा जा सकता है कि पेशाब की टनटनाहट से खुली नींद में, वह दरवाजा खोलकर बाहर क्यों झाँक लेता है?    

पहले माली थोड़ा हिचका यह सोच कर कि उस आदमी तक उसे जाना चाहिए या नहीं, जिसे वह इतनी दूर से गहरे अँधेरे के कारण, ठीक से देख नहीं पा रहा था और पहचान पाना तो बहुत मुश्किल ही था। वैसे भी यह उसका काम नहीं था। वह यहाँ माली था, चौकीदार नहीं था। वह चाहता तो दरवाजा बंद कर वापस फिर सो सकता था। वह सोच सकता था कि बेंच पर बैठा है जो आदमी, इसी कॉलोनी का ही होगा, नहीं तो इतनी रात सिगरेट धूँकते, बाहर का आदमी कैसे यहाँ बैठ सकता है? पर उस समय माली ने यह सब सोचा नहीं और उस आदमी की ओर बढ़ गया। बढ़ने से पहले बस उसने इतना किया कि अपनी पट्टेदार चड्डी के उपर एक लाल रंग का पंछा लपेट लिया जो उसकी कमर में बाँधने और बदन पोंछने-- दोनों के काम आता था। ऊपर  उसने सिर्फ एक सफेद बनियान पहन रखी थी, जिसमें उसके सीने की हड्डियाँ, बनियान की सफेदी में, बहुत ध्यान से देखने पर, हल्की उभरी-सी दिख रहीं थीं। जिससे यह साफ पता चल रहा था कि इस उम्र में जो तेजी से बुढ़ापे की ओर फिसल रही थी, वह माली के काम में यहाँ कितना खट रहा था। दिन में इस तरह वह आधे-अधूरे कपड़े में नहीं निकल सकता था कि इस कॉलोनी में उसका ‘ड्रेस-कोड’ तय था, जिसमें इस तरह बाहर निकलना, नंगा निकलने-सा ही था। सच यह था कि माली एक अच्छा आदमी था और अच्छा आदमी होने की अपनी दिक्कतें होती हैं, जिन्हें वे लोग कभी नहीं समझ पाते जो अच्छे आदमी नहीं होते हैं।  

    माली के कमरे से, उस बेंच की दूरी बमुश्किल बीस मीटर थी। जैसे-जैसे माली बेंच के करीब आता गया, बगीचे का गहरा अँधेरा झरता गया धीरे-धीरे : अँधेरे को देर तक देखो तो आँखें अँधेरे की अभ्यस्त हो जाती है और अँधेरा धुंधलाते हुए झरने लगता है!     

   माली, बेंच से तीन कदम दूर खड़ा था। पर उस आदमी  का सिर झुका ही रहा। समझ नहीं आ रहा था कि वह सो रहा था या सोच रहा था। सिगरेट के बहुत से टोटे उसके पैरों के आसपास घास पर बिखरे पड़े थे। सिगरेट का खुला पैकेट उसकी दाहिनी ओर बेंच पर रखा हुआ था, जिसमें बस एक सिगरेट बची थी।  एक बुझी हुई सिगरेट अब भी उसके ओंठों पर फँसी हुई थी। पर बुझी सिगरेट से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि वह आदमी  सो रहा है या सोच रहा है। बुझी सिगरेट ओंठों पर, सोते हुए भी फँसी रह सकती है और सोचते हुए भी। 

                                                                                      माली कुछ देर खड़ा रहा, उस आदमी की झपकी या सोचने से


बाहर आने के इंतजार में। फिर उसका धैर्य जवाब देने लगा। पहले वह एक कदम आगे बढ़ा। ठिठका। बढ़ा फिर एक कदम और आगे। ठिठका। बैठ गया फिर घास पर, जिसमें रात में कभी हुई बारिश, हल्की होकर  बैठी हुई थी। इस बार बैठकर ठिठका। बारिश के घास पर ठहरे गीलेपन को, (माली के बैठने की जगह भर) उसके कंधे में बंधा पंछा सोखने लगा। माली का ध्यान उधर बिल्कुल नहीं था। वह बेंच पर बैठे आदमी के झुके चेहरे को देख रहा था। यह अंदाज लगाने के लिए कि वह सो रहा है या जाग रहा है। तभी आदमी ने हल्का-सा अपना सिर ऊपर उठाया, जैसे उसका सिर नींद में या सोचने में या झपकी में ही ऊपर उठ गया हो।  अब माली धुंधले अँधेरे में भी उसे साफ-साफ देख सकता था। वह मुश्किल से पैंतीस-चालीस बरस का आदमी था। जिसके पास बिखरी-सी काली दाढ़ी थी। काली घनी मूँछें थी। सिर के बाल बिखरे हुए थे, पर थे घने इतने कि जब वह कंघी करता होगा तो कंघी बालों में धँस जाती होगी।  वह मोटे फ्रेम का एक काला चश्मा पहना हुआ था, जिसके लेंस के भीतर उसकी लाल आँखें थी, जिन्हें देख कर यह नहीं बताया जा सकता था कि वे रोने के कारण लाल थीं या थीं लाल रात भर जागने के कारण और ना अभी माली को उसकी वे लाल आँखें दिख रही थीं। बस चेहरा दिख रहा था, जिसके पास मुँदी हुई आँखें थीं।  उसका चेहरा माली के लिए देखा-सा चेहरा था। वह उसे नाम से नहीं जनता था, बस चेहरे से जानता था। नाम से वह अपने जैसे इस कॉलोनी में काम करने वालों को ही जानता था। रहवासियों को वह ज्यादातर चेहरे से ही जानता था। रहने वालों के कुछ नाम जरूर यहाँ-वहाँ से उड़कर उस तक पहुंचते थे और उन्हें वह याद रखने की कोशिश करता। कुछ याद रहते और कुछ वापस उड़कर गायब हो जाते थे। पर बेंच पर बैठे, इस आदमी का नाम, ना उसके पास उड़कर आया था, ना उड़कर गायब हुआ था। माली यह जरूर जानता था कि यह आदमी ठीक अपने पीछे खड़ी इमारत की चौदह में से किसी एक मंजिल में रहता है। यह बगीचा इसी तरह की चौदह मंजिली  तीन इमारतों से, अपने तीन छोरों पर घिरा था। चौथा छोर वह था, जिधर से माली आया था, जहाँ पानी की ऊँची टंकी थी और माली का नहीं दिखता-सा एक कमरे का घर था और उसके पार एक छोटा क्लब-हाउस था, जिसके तरफ हमेशा माली की पीठ रहती थी और जिसे माली कभी देखना चाहे तो भी नहीं देख सकता था, क्योंकि क्लब-हाउस के भीतर कोई  बगीचा नहीं था। क्लब हाउस के पीछे एक चौड़ा गहरा नाला बहता था, जिसके बहने की आवाज उसमें बह रही गंदगी के कारण कभी नहीं आती थी। कभी तेज दिशा बदल कर चलती तो नाले की बू माली के कमरे में भर जाती थी। 

    बेंच पर सिर झुकाए बैठे आदमी को, अपने करीब किसी के होने का आभास हुआ।  वह सोच से बाहर आया या आया  नींद की झपकी से बाहर, ठीक कह नहीं सकते, पर उसने अपनी आँखें खोली और उसे  माली दिखा, ठीक अपने सामने-- नीचे घास पर बैठा।  बैठा और एकटक देखता अपनी ओर। वह आदमी भी माली को एकटक देखने लगा। उस आदमी के चेहरे पर ‘क्या है?’ का सवाल चिपका हुआ था। साफ दिख रहा था कि माली को अपने सामने देख वह बिल्कुल भी खुश नहीं हुआ था, पर वह हड़बड़ाया भी नहीं था। वह आदमी अपनी बर्फ-सी ठंडी, लाल आँखों से माली को घूर रहा था।  

    उस आदमी की नजरें इतनी तीखी थीं कि माली हड़बड़ा कर खड़ा हो गया और खड़े होते-होते उसने कहा, ‘ बाबू यहाँ क्यों...घर में आराम करिए...’

     माली खड़ा रहा। वह आदमी उसे घूरता रहा। ऐसा लगा उसने वह सुना ही नहीं जो माली ने अभी-अभी कहा है। उसने अब माली के बाहर देखना शुरू किया। पहले अपने को देखा सीने से लेकर पैरों तक। देखा फिर बेच को दाहिनी ओर, जिसमें सिगरेट का पैकट रखा था। फिर वह बेंच के बाईं ओर देखने लगा, जहाँ कुछ नहीं था, बस थी बेंच की ही लोहे की ठंडी पट्टियाँ जो हरे रंग से रंगी हुई थीं। फिर बैठे-बैठे ही वह पलट कर पीछे अपने अपार्टमेंट को देखने लगा। देखने लगा तेरहवीं मंजिल की ओर। अपने अपार्टमेंट की बंद खिड़की से आती मद्धिम रोशनी को वह देखने लगा। उस चौदह मंजिल इमारत से, बस एक खिड़की रोशनी में झाँक रही थी जो उसके अपार्टमेंट की थी। सोचा उसने इसी क्षण कि ओह, वह कमरे की लाइट बंद करना तो भूल ही गया है। वह सोचने लगा कि यह गलती कितनी बड़ी साबित हो सकती है। फिर तुरंत ही उसने सोचना छोड़ दिया। 

     ‘अगर आप चाहें तो मैं आपको आपके घर तक पहुँचा सकता हूँ...’ माली ने भी उस आदमी के अपार्टमेंट की रोशनी में झाँकती खिड़की को देखते हुए कहा। माली को लगा कि यही उस आदमी का घर होगा जिसकी एक खिड़की रोशनी में झाँक रही है और माली ने सोचा कि हो सकता है बेंच वाले आदमी की तबीयत खराब हो। 

     उस आदमी ने अपने ओंठों से लगी, बुझी सिगरेट को जलाया। तीली की रोशनी में उसका झुका हुआ चेहरा चमका। झुके हुए चेहरे में गहरा संतोष, अजीब-सी बेचैनी के साथ था। उसने सिगरेट का एक गहरा कश खींचा। इतना गहरा कश जैसे बची सिगरेट को एक कश में ही पी जाना चाह रहा हो। उसके बाद वह थोड़ी देर, माली की ओर देखता रहा—घूरता।  

     ‘नहीं, मैं घर जाना नहीं चाहता...’ उस आदमी ने कहा। उसकी आवाज थोड़ी खरखराती और गले में फँसी-सी बाहर आयी थी, जैसे बहुत देर बाद उसने कोई वाक्य बोला हो या कुछ इस तरह कि वह नहीं बोलना चाह रहा हो और उसे बोलना पड़ा हो।  ठीक इसी समय उस आदमी ने मन ही मन यह सोचा  कि यह माली साला कहाँ से टपक पड़ा। सोचा कि वह अचंभित-गलतियाँ करता जा रहा। पहली कि उसने अपने अपार्टमेंट की लाइट खुली छोड़ दी और दूसरी यह माली, अगर वह बगीचे में आकर बैठता नहीं, तो यह मिलता भी नहीं। यह लाइट खुली छोड़ आने से ज्यादा बड़ी गलती थी और अब इससे  छुटकारा पाना मुश्किल काम होने वाला था।  

       बेंच वाला आदमी, माली को अब भी घूर रहा था। फिर  कुछ सोच उसने माली से पूछा, ‘ अभी समय क्या हुआ होगा?’

       ‘एक से कुछ अधिक हो गया होगा बाबू।’ माली ने अपने अंदाज से बताया।  

       ‘हूँ...अगर तुम्हें कोई दिक्कत ना हो तो तुम बैठ जाओ...तुम मुझे खड़े हुए बहुत अजीब लग रहे हो...यह अजीबपन तभी खत्म हो सकता है कि या तो मैं खड़ा हो जाऊँ या तुम बैठ जाओ...’ उसने बहुत मुलायम आवाज में माली से कहा। उसकी आवाज माली के ऊपर उसे सहलाती-सी गिरी। वह फिर चुप हो गया। पर इस बार उसके पास सोचने की चुप्पी थी जो उस आदमी और माली के बीच, कुछ क्षणों तक पसरी रही।

    इसके बाद, उस आदमी ने अपनी नजरें, फिर माली के चेहरे पर गड़ा दीं और देर तक माली को घूरता रहा। फिर वह कुछ सोचने लगा--अपना सिर ऊपर उठा कर। सोचता रहा। उसके बाद अपनी बालों से ढँकी ठुड्डी को खुजलाते हुए वह मुस्कुराया और उसने कहा, ‘अब मैं अकेला रह नहीं पाया हूँ तुम्हारे आ जाने से तो अब मेरे अकेले रहने का कोई फायदा भी रह नहीं गया है, इसलिए मैं तुम्हें रुकने कह रहा हूँ...मैं तुम्हें बता सकता हूँ कि मैं यहाँ  आधी रात इस बेंच में क्यों हूँ...अब यह जानना तुम्हारे लिए कितना जरूरी होगा यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ... पर मैं चाहता हूँ कि तुम जानो...क्योंकि मैं चाहता हूँ कि कोई तो जाने...मैंने उस बात को, यहाँ बैठे-बैठे अपने को तो कई बार कह चुका हूँ...पर अपने को कहने से, कहे जैसा मुझे लग नहीं रहा है... वैसे अगर तुम जाना चाहो तो जा भी सकते हो...मुझे सुनना कोई मजबूरी नहीं है तुम्हारे लिए...और जरूरी तो बिल्कुल भी नहीं है...चाहो तो तुम अभी जा सकते हो...वैसे चला जाना तुम्हारे लिए ठीक ही होगा...बस तुम्हें यह करना होगा कि तुम यह भूल जाओ कि तुमने मुझे देखा है...तो चाहो तो तुम यह सोच सकते हो कि तुमने मुझे सपने में देखा है...मैं नहीं जानता कि तुम चीजों को भूलने में कितने माहिर हो और भूलने के लिए कौन से तरीके इस्तेमाल करते हो...तुम नहीं भूल पाए तो मेरा क्या होगा, यह तुम सोच भी नहीं सकते!’ यह कहते हुए, वह आदमी इस लालच से देख रहा था कि माली उसे सुनने नीचे बैठ जाए। साफ लग रहा था कि वह बिल्कुल नहीं चाह रहा है कि माली वापस अपने घर लौट जाए। उस आदमी ने इसी बीच, टंकी के नीचे बने और गुड़हल के पेड़ों के बीच से झाँकते माली के कमरे को सिर घुमा कर एक क्षण के लिए देखा था। यह इतना त्वरित देखना था कि माली इस देखने को पकड़  ही नहीं पाया। माली देख भी लेता तो उस आदमी के इस देखने को समझ पाता यह नहीं लग रहा था।  

        माली ने जवाब में कुछ नहीं कहा। उसने बस यह सोचा कि पता नहीं यह आदमी यह सब क्या बोल रहा है? दरअसल उस आदमी का बोला, माली को ठीक-ठीक समझ नहीं आया। माली को यह भी लगा कि जरूर यह आदमी थोड़ा सरका हुआ है। माली उस आदमी के सामने बैठ गया घास पर, जैसे वह पहले बैठा था, जब वह आदमी उसे देख नहीं पाया था और अपने भीतर कहीं खोया हुआ था। सच यह था कि माली के जीवन में बरसों बाद, कुछ अलग-सा घट रहा था और इस अलग से घट रहे को माली खोना नहीं चाह रहा था।  

      उस आदमी ने, बेंच से सिगरेट के पैकेट को उठाया और उसमें बची आखिरी सिगरेट को ओंठों के बीच जला कर, एक गहरा कश लिया और ढेर सा धुआँ माली के मुँह की ओर छोड़ते हुए कहा, ‘ मैंने शायद पूरा पैकेट फूँक डाला है...’ यह कहते हुए वह हल्का-सा मुस्कुराया,’ अजीब बात है ना कि मुझे पता ही नहीं है कि मैं कितनी सिगरेट पी गया हूँ!’

     माली घास पर गिरे सिगरेट के टोंटों की ओर देखने लगा। लगा उसे कि वह उन्हें गिन ले। पर उसने जाने दिया। वह अपना पूरा ध्यान उस आदमी पर रखना चाह रहा था। 

     ठीक इसी समय माली को भी बीड़ी सुलगाने की इच्छा हुई और उसने उसे दबाया और सोचा कि इस आदमी को सुनने के बाद, वह अपने कमरे में वापस लौटकर, बीड़ी जला लेगा। सच यह था कि माली के भीतर इस आदमी के सामने बीड़ी पीने की  हिम्मत भी नहीं थी। उन दोनों के बीच मालिक और नौकर-सी दूरी थी। इस दूरी को पार करने में आमतौर पर पूरा जीवन लग जाता है और इसके बावजूद वह पार नहीं होती है। 

     उस आदमी ने बोलना शुरू किया, ‘वह जो खिड़की दिख रही है तेरहवीं मंजिल पर, वह मेरे बेडरूम की खिड़की है...हाँ वही, जिससे पीली-सी रोशनी झाँक रही है... ’ बस इतना कह वह चुप हो गया। 

    माली, पीली रोशनी से भरी खिड़की की ओर देखते उस आदमी के आगे कहे जाने वाले वाक्यों का इंतजार करता रहा। 

    वह आदमी अपने पहले वाक्य के बाद एक मिनट से कुछ ज़्यादा ही चुप रहा। फिर उसने कहा, ‘... वहाँ बिस्तर पर एक औरत पड़ी हुई है...एक मरी हुई औरत... और सच यह है कि वह किसी बीमारी या अचानक हार्ट अटैक से नहीं मरी है...जैसा की हो सकता था, पर ऐसा हुआ नहीं है...मैंने उसे मारा है...’ वह कुछ क्षण फिर रुका। वह माली के चेहरे को देखने लगा, जहाँ अचानक भय और आश्चर्य एक साथ उतर आए थे। ‘...मनुष्य को मारना किसी चूहे को मारने जैसा कभी नहीं होता... पर मैं पिछले तीन माह से उससे छुटकारा पाने की कोशिश कर रहा था... छुटकारा पाने का यह अर्थ नहीं है कि मैं उसे मारने की कोशिश कर  रहा था... हाँ, मैं यह कभी-कभी सोचता था, पर मैं कभी कर नहीं पाया था... और आज मैं कर पाया...अचानक! ओह, आज की रात कितनी अँधेरे में डूबी हुई है...मैंने अपनी उस रोशनी देती  खिड़की से इस रात को देखा...बाहर कुछ नहीं था, बस घना अंधेरा था... और  मुझे लगा कि अँधेरे में कहीं कोई नहीं है.. कुछ नहीं है, बस मेरा वह कमरा है...अँधेरे ने सबकुछ जैसे गायब कर दिया था...तो जो हुआ वह इस रात के अँधेरे ने कर दिया है... सच कहूँ तो मैं उसे मारना नहीं चाहता था...पर बाहर और भीतर दोनों तरफ घना अँधेरा हो तो सोचना बहुत मुश्किल हो जाता है... मैं कुछ सोच ही नहीं पाया...अब मुझे लगता है कि यह जो होता है अचानक ही  होता है...तुम  सोचते कहाँ हो कि यह हो जाएगा... मैं बहुत गुस्से में था... मुझे इतने गुस्से में नहीं आना था...पर हो गया अचानक...मैंने गुस्से में ही अपनी तकिया उठाया और उसके चीखते-चिल्लाते मुँह पर रख दिया....उसका चीखना-चिल्लाना तो तकिया का दबाव जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे  गों-गों की विचित्र आवाज में बदलता गया, उसकी गों-गों के साथ कुछ देर तक उसके बिस्तर पर पैर पटकने की आवाज बनी रही...फिर सब शांत हो गया...इतना शांत कि एक फूल गिरे और उसके गिरने की आवाज वहाँ उठे...तब मुझे लगा कि मैं इसे ही पाना चाहता था...जाने कब से...इस  एकदम शांत जगह को, जिसमें कोई आवाज ना हो...जहाँ फूल का गिरना भी एक आवाज हो जाए...यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि उस औरत की आदत थी कि उसने हर कमरे में गुलदस्ता रखा हुआ था और उन्हें वह रोज ताजे  फूलों से सजाती थी...पर पता नहीं क्या था कि उन फूलों की खुशबू शुरू में तो मुझे आती रही, पर इधर कुछ महीनों से उसके सजाए फूलों ने, मेरे लिए महकना बंद कर दिया था... मुझे उन फूलों की खुशबू, उन पर अपनी नाक लगा देने पर भी नहीं आती थी...उस औरत के सजाए फूल सिर्फ उसके लिए महकते थे... तुम माली हो फूलों को मुझसे ज्यादा जानते हो... तो हो सकता है तुम्हें मेरी यह बात विचित्र लगे, पर मैं सच कह रहा हूँ कि फूल मेरे लिए नहीं महकते थे...पर कुछ भी कहो, मुझे अद्भुत लगी यह शांति...पता नहीं कब से, मैं इसे पाना चाह रहा था... पर थोड़ी देर बाद ही मुझे लगा कि उस शांत समय के साथ, एक औरत की लाश भी वहाँ पड़ी हुई है...अब मैं क्या करूँ यह मुझे समझ नहीं आ रहा था...मैं एक लाश  के साथ नहीं रहना चाहता था, इसलिए नीचे आ गया...लाश के साथ रहना बहुत मुश्किल होता है...पहले मैं लिविंग-रूम में जाकर बैठा, पर मैं इस बात को नहीं भूल पा रहा था कि ठीक मेरी पीठ के पीछे एक लाश है...मुझे लग रहा है आदमी लाश के साथ नहीं रह पाने के कारण, उससे जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहता है...पकड़े जाने से बचा रहना भी इसमें शामिल रहता होगा, पर शायद लाश के साथ नहीं रह पाना, लाश को ठिकाने लगाने का दबाव, मन के भीतर ज्यादा बनाता होगा...’   

      वह आदमी फिर चुप हो गया था और माली के चेहरे की ओर देखने लगा था। जहाँ उसे डर की घनी छाया दिखी। माली का चेहरा डर से इतना काला पड़ गया था कि अँधेरे में डूब गया था। वह समझ गया कि माली के चेहरे में जो डर है वह उसके लिए ही है। एक  हत्या की सजा उतनी ही है, जितनी चार हत्याओं की हो सकती है। वह यह भी जानता था कि हत्या कर हर बार पकड़ा जाना जरूरी नहीं है। आदमी बच भी जाता है और कभी पकड़ में नहीं आता है। पकड़ आ भी गया तो सबूत के अभाव में संदेह के लाभ पर छूट जाता है। वह यही उम्मीद कर रहा था कि वह पकड़ा  ना जाए। लाश को निपटाने के लिए उसे  माली की मदद की जरूरत थी। माली को उस आदमी ने यह बात बतायी ही इसलिए थी कि वह उसे अपनी सहायता के लिए फाँस लेना चाहता था। उसने माली से यह झूठ बोला था कि वह उस औरत को मारना नहीं चाहता था।  सच यह  था कि  वह तीन महीने से इस कोशिश में था कि उस औरत से पिंड छुड़ा सके। उसके पास सुनी-पढ़ी हत्याओं के बहुत से विवरण थे। वह हत्या के उस तरीके का इस्तेमाल करना चाहता था, जिसमें पकड़े जाने का खतरा सबसे कम हो। उसने इन तीन महीनों में हत्या को तीस तरह से सोचा था। इस सोचने में घूम-फिर कर वह अंत में, तीन जगहों पर पहुँचता था। एक हत्यारे की तरह कि हत्या कैसे की जाए?  दूसरा जिसकी हत्या होनी  है उसकी तरह कि उसे हत्या होने से ठीक पहले तक यह पता ना चले कि उसकी हत्या होने वाली है। तीसरा पुलिस वालों की तरह कि हत्या के बाद क्या-क्या सबूत वे खोज सकते हैं। 

    जिसे मरना था वह उस आदमी की पत्नी नहीं थी। थी बस उसकी प्रेमिका। इस शहर में आने के बाद, वह उसे अचानक मिली थी। वह भी किसी और छोटे-से शहर से आयी थी--इस बड़े शहर में नौकरी ढूँढने। जिस कॉर्पोरेट-बिल्डिंग में उस आदमी का  आफिस था, उसकी एक लिफ्ट पर वह उसे मिली थी। बंद होती लिफ्ट पर वह झपटी थी कि लिफ्ट के बंद होने से पहले वह उसके भीतर आ सके। वह लिफ्ट के भीतर आयी तो उसकी इस हड़बड़ी पर, उसे देख कर वह मुस्कुराया था। वह भी देख कर मुस्कुरायी थी। वह सुंदर लड़की थी और मुस्कुराते ही और ज्यादा सुंदर हो गई थी। वह लड़कियों से बातचीत में माहिर आदमी था तो उसे इस लड़की के साथ कोई परेशानी नहीं हुई।  लिफ्ट के पार्किंग फ्लोर तक पहुँचने पर, उस लड़की को लगने लगा कि वह कितना अच्छा आदमी है और जाने कब से वह उसे जानती है। उस आदमी ने उस जगह तक, अपनी कार में, लड़की को छोड़ा, जहाँ वह अपनी किसी परिचित के पास कुछ दिनों के लिए  रुकी हुई थी। लड़की के लिए यह शहर नया था। लड़की के लिए वह आदमी भी नया था। लड़की के लिए शहर नया ही रहा, पर वह आदमी मिलते ही पुराना हो गया, जैसे लड़की उसे पता नहीं कब से उसे  जानती हो। इस तरह  हुआ यह कि वह लड़की, अब बस उस आदमी के लिए हँसने-बोलने  लगी। वह लड़की उस आदमी के  लिए सजने-संवरने लगी। लड़की को पता ही नहीं चला कि कब वह उस आदमी के लिए जीने-मरने लगी। जीने-मरने लगी  तो जल्द ही उस आदमी के साथ, उस आदमी के घर में रहने-बसने लगी वह लड़की। यह एकतरफा नहीं था कि  लड़की उस आदमी के जादू में रहने लगी थी, वह आदमी भी, ठीक उस लड़की की तरह ही, उस लड़की के जादू में रहने लगा था। जादू जब बोलता है तो सर चढ़ कर बोलता हैं। पर हुआ यह कि लड़की के भीतर, आदमी का जादू, सर चढ़ा रहा लंबे समय तक, पर आदमी के सर से, लड़की का जादू, बहुत जल्दी तो नहीं, पर आखिरकार धीरे-धीरे उतर ही गया। यह भी कह सकते हैं कि आदमी कमीना था और किसी एक स्त्री का होकर रह नहीं सकता था, स्त्री की एक देह को पा लेने के बाद, लंबे  समय तक उसी देह पर टिका रहना उसके लिए मुश्किल था, जबकि इस लड़की के साथ वह तीन साल बिता चुका था और यह उसकी लगभग चालीस बरस की उम्र में किसी एक लड़की के साथ बिताया गया, सबसे अधिक समय था। सच तो यह था कि यह लड़की ऐसी थी कि अब भी  उसके सर पर, लड़की का जादू कभी चढ़ जाता और कभी उतर जाता था। तो इस तरह उन दोनों ने एक दूसरे के जादू के साथ-साथ रहते हुए, अच्छा-खासा समय हो गया था। पर पिछले लगभग तीन  महीनों में यह हुआ कि आदमी के सर से  लड़की का जादू जो  उतरा तो फिर वापस चढ़ा ही नहीं। आदमी समझ गया कि अब वह उस लड़की के साथ नहीं रह सकता है। उसने मुक्ति की कोशिश की। समझाया लड़की को कि अब हमें अलग हो जाना चाहिए। हमारे बीच अब कुछ बचा नहीं है ऐसा, जिसे प्रेम कह सकें। बची बस कलह है। तुम्हें लगता नहीं कि हम एकदूसरे का कहा एक वाक्य नहीं झेल पा रहे हैं। लड़की ने कहा कि तुमने जो कहा यह तुम्हारा सच है। यह मेरा सच नहीं। तुम मुझसे ऊब गए हो। तुम्हें अब एक नई औरत चाहिए। साले अय्याश आदमी! मैं तुम्हें क्यों छोड़ूँ? तुमने तीन बार मेरा एबॉरशन कराया है। याद है ना कि भूल गए हो? मैं बिना शादी के पत्नी की तरह रहती रही हूँ तुम्हारे साथ, जबकि तुम मुझसे उम्र में पंद्रह साल बड़े हो।  और सुनो, अगर मैं पुलिस में यह रिपोर्ट लिखवा दूँ कि शादी का लालच देकर तुमने मेरा रेप किया है तो तुम जीवन भर जेल में सड़ोगे...और तब तुम, मुझसे अपनी रिहाई की भीख माँगोगे...डोलोगे मेरे आसपास समझौते के लिए...सोच लो, अगर मुझे पुलिस में रेप की रिपोर्ट लिखवानी पड़ी तो मैं फिर पीछे नहीं हटूँगी...तुम साले सड़ते रहना जेल में...  घूम फिर कर यही बातें उन दोनों के बीच पिछले तीन महीने से हो रही थीं। लड़की अब उसे रोज धमकी दे रही थी और आदमी रोज लड़की से गाली-गलौच कर रहा था, जिसके जवाब में लड़की भी आदमी को बराबरी से गाली दे रही थी। एक बार अगर किसी के अपमान के लिए अगर तुम्हारा मुँह खुल गया तो वह फिर खुला रह जाता है। उन दोनों का ही मुँह एक दूसरे के अपमान के लिए खुला रह गया था। उनका साथ एक काले बदबूदार बजबजाते नाले में बदल गया था, जिसमें साफ पानी की कोई धारा कभी आती भी तो तुरंत गायब हो जाती थी। इसके बावजूद उस आदमी ने इन तीन महीनों में पाँच बार उस औरत के साथ संभोग, उसकी आधी-अधूरी सहमति या असहमति पर किया था और शायद औरत ने, उसका बहुत ज्यादा विरोध इसलिए नहीं किया था कि वह उम्मीद कर रही थी शायद इससे सब कुछ पहले जैसा हो जाए। दूसरी बात यह भी थी कि संभोग के समय आदमी हमेशा शराब के इतने अधिक नशे में रहता था कि मना करने पर, वह बलात्-संभोग पर आ जाता था जो औरत के लिए ज्यादा कष्ट दायक होता था और उस  आदमी के लिए ज्यादा आनंददायक। जाहिर है औरत उस आदमी को उस आनंद की आदत नहीं डालना चाह रही थी जो उसके लिए यातनाप्रद था। औरत ने यह भी सोचा था कि वह आदमी के सामने संभोग के समय मुर्दे की तरह पड़ी रहेगी, पर वह वैसा ठीक-ठीक कभी कर नहीं पायी थी कि वह सच में उस आदमी से प्रेम करती थी।          

    माली ने देखा कि आदमी चुप है और कुछ सोच रहा है। माली को लग रहा था कि इस आदमी के पास आकर उससे बड़ी गलती हो गई है। वह पूरी तरह फँस चुका था। अब वह एक हत्या का साझेदार था, इसके बावजूद कि जिसकी हत्या हुई है उस औरत को ना तो माली ने हत्या के बाद देखा था और ना उसे ठीक जानता था। उस औरत का चेहरा उसने कभी देखा है या नहीं यह भी वह सिर्फ लाश को देखकर ही बता सकता था जो अभी तेरहवीं मंजिल से रोशनी फेंकती खिड़की के पीछे कहीं थी। वह इस साझेदारी से तभी बच सकता था जब वह इस आदमी के पास से भाग कर, सीधे पुलिस के पास जाए या इसी कॉलोनी के किसी प्रभावशाली आदमी के पास जाए और यह कह सके कि वह हत्या में साझेदार नहीं है और उसने अभी तक  सिर्फ एक हत्यारे को  सुना है।

   सच यह था कि माली ने यह सब सोचा ही नहीं। वैसे भी इस कॉलोनी का कोई आदमी, इतनी रात उसे दरवाजा खोल सुन लेता,


यह असंभव था। पुलिस शायद उसे सुन लेती, यह संभव था। पर पुलिस से बिना कोई अपराध किये भी, उस जैसा आदमी इतना डरता था कि वह पुलिस के पास जाने की सोच ही नहीं सकता था। सच यह था कि अभी तक वह कभी पुलिस के पास गया नहीं था। उसे जाना ही नहीं पड़ा था। वह एक सीधा-साधा आदमी था जो साइकिल पर चलता था और साइकिल वालों का पुलिस चालान भी नहीं काटती थी। साइकिल वाले आदमी की किसी गलती पर पुलिस बस दो झापड़ रशीद कर उसे भाग देती थी। माली तो इतना सीधा था कि उसने साइकिल चलाते हुए भी, अब तक कभी पुलिस का झापड़ भी नहीं खाया था।  यह भी सोचो कि यह आदमी जो उसके सामने बैठा है और जिसने एक औरत की हत्या कुछ घंटे पहले कर दी है, क्या माली को पुलिस के पास जाने के लिए छोड़ देगा कि तुम जाओ और पुलिस को बुला लाओ कि मैं उनके सामने अपना अपराध कबूल कर सकूँ? 

     ओह, मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी इस आदमी के पास आकर--- माली ने मन ही मन सोचा अपनी भाषा में जो दक्षिण की थी और इस हिन्दी-प्रदेश में ज्यादातर अकेले होने के कारण, जिसे वह अपने मन में ही बोल पाता था। वह जब अट्ठारह साल का था तो अपने बाप के साथ यहाँ आया था और बाप-बेटे दोनों-- ना यहाँ की भाषा समझते थे और ना यहाँ के लोग उनकी भाषा। पर काम की भी अपनी भाषा होती है और अपनी जरूरत तो हुआ यह कि धीरे-धीरे हिन्दी जुबान पर चढ़ती गई। बाप तो मरते तक साफ हिन्दी नहीं बोल पाया था। पर उसे बोलता सुन कोई नहीं कह सकता था कि वह दक्षिण से आया है। उसने अट्ठारह साल की उम्र से हिन्दी बोलना शुरू किया था और अब बोलते-बोलते बूढ़ा हो गया था। 

   बेंच वाला आदमी अचानक फिर बोलना शुरू कर चुका था, ‘साली नब्बे प्रतिशत औरतें  दुष्ट होती हैं...अपने आसपास का जीना हराम किए रखती हैं...तुम्हारी औरत है?’ अचानक उसने माली से पूछा। 

    ‘मर गई...’ माली ने कहा। माली ने इतनी हड़बड़ी में जवाब दिया था कि जैसे उसे लग  रहा हो कि वह अगर तुरंत जवाब नहीं देगा तो वह आदमी उससे कहेगा कि जाओ अपनी औरत को मार कर आओ, नहीं तो मैं तुम्हें मार दूँगा। 

    ‘ अच्छा है मर गई...नहीं तो तुम खुद उसे मार डालते...मैं सच कह रहा हूँ। इन्हें झेलना एक समय  के बाद मुश्किल हो जाता है.. वे बात-बात पर तुम्हें टोकने लगती हैं कि यह खाओ...यह पीओ...यह ना खाओ...यह ना पीओ...यह पहनो...यह ना पहनों...ऐसे उठो... ऐसे बैठो। तुम्हें पता ही नहीं चलता साला कि कब तुम उसकी संपत्ति बन गए हो...साली साथ रहने से पहले मेरे साथ ही पी लेती  थी। मैं व्हिस्की पी रहा होता तो वह एक बीयर मँगा लेती थी अपने लिए...साथ रहने लगी तो बदल गई...पहले उसने मेरे तीन पेग व्हिस्की पीने पर आपत्ति की... मैंने सोचा चलो भाई इसके लिए क्यों  झगड़ा करें...मैंने उसकी बात मान ली और दो पेग व्हिस्की पीने लगा...पीते अभी चार दिन भी नहीं हुए थे कि उसे लगने लगा कि मैं दो में ही तीन पेग बना रहा हूँ...पांचवें दिन मैंने अपनी टेबल पर पेग-मेसर देखा...मैं समझ गया मैं दो पेग से दो बूँद भी अधिक नहीं पी सकता हूँ। फिर उसने मेरे रोज पीने को खत्म किया, उसने कहा तुम हफ्ते में एक दिन पीया करो, यह मैं तुम्हारे लिए ही कह रही हूँ कि तुम्हारा लीवर ठीक  रहे, तुम जी सको मेरे लिए...मैंने सोचा चलो ठीक है, मुझसे प्रेम करती है...चिंता कर रही है मेरी...मैंने कहा,  ना तुम्हारा ना मेरा, बुधवार एक दिन और दे दो... इस तरह मैं बुधवार और रविवार को पीने लगा पेग-मेसर से नापकर...जबकि मैं जानता था उसका अगला कदम मेरी दारू छुड़ाना ही होगा...वह भी यह जानती थी, इसलिए वह बुधवार के लिए तुरंत तैयार हो गई थी... सिगरेट तो कब का मैं उसके सामने पीना बंद कर चुका था... यह वही सिगरेटें थी जिनका धुआँ साथ रहने से पहले, मजाक में मैं उसके मुँह की ओर उड़ा देता था और वह बस, मुस्कुराती थी...सच कहूँ तो उसके मरने के बाद आज मैंने जी भर इतनी सिगरेट पी है...उसे मारने की हिम्मत जुटाने के लिए शराब तो मैंने चोरी-छुपे पहले ही पी ली थी, जब वह बाथरूम में घुसी थी...औरतों को बाथरूम में बहुत समय लगता है...फिर भी मैंने डर और हड़बड़ी में बोतल से सीधे गटका था...लगता है मैंने नीट, तीन से चार पेग नीचे उतार ही लिए होंगे...सोचो! मैं उसे मारने वाला था, फिर भी उससे डर रहा था!’  यह कहते हुए वह मुस्कुराया, ‘वैसे सच यह भी है कि ठीक इसी तरह मैं पहले भी तीन-चार बार उसे मारने की तैयारी में शराब उससे  छुप कर गुटक चुका था, पर मैं उसे मार नहीं पाया था...इसीलिए कह रहा हूँ कि हत्या हमेशा अचानक ही होती है कि उसकी कितनी भी तैयारी कर लो वह घटती अचानक ही है...’ वह फिर मुस्कुराया।     

    उसे मुस्कुराता देख यह कोई नहीं कह सकता था कि वह एक हत्यारे की मुस्कुराहट है। चूंकि माली जानता था कि उस आदमी ने एक हत्या की है तो उसे उसकी यह मुस्कुराहट बहुत अजीब, भद्दी और डरावनी लगी। 

    ‘...यह सब कर, उसे मुझ पर कब्जे का सुख मिलता था। बाद में वह यह भी तय करने लगी कि मैं किससे मिलूँ, किससे ना मिलूँ...किससे बात करूँ, किससे ना करूँ...मेरे भाई-बहन, माँ-बाप का फोन आता तो भी उसका मुँह बनने लगता था... वह पूरी तरह सिर्फ अपने लिए मुझे चाह रही थी... ऐसा होता कहाँ है और ऐसा होना भी क्यों चाहिए? तुम्ही बताओ?’ उसने कहा और इस बार वह थोड़ा दुःखी दिखा, ‘ऐसी स्थिति में, तुम्हारे पास ज्यादा कुछ बचता नहीं है...बस दो चीजें बचती हैं... या तो तुम सामने वाले की हत्या कर दो...या आत्महत्या कर लो! वैसे अब मुझे लग रहा है कि मुझे आत्महत्या को चुनना था, मैंने गलती से हत्या को चुन लिया है... पर इसमें अब कुछ किया नहीं जा सकता है... हत्या एक ऐसी चीज है जिसे घट जाने के बाद तुम चाहो तो भी सुधार नहीं सकते हो...पर मैं अपनी एक गलती को तो सुधार ही सकता हूँ कि मैं अभी ऊपर जाऊँ अपने कमरे में और उससे इस बात की माफी माँगूँ कि मैंने गलती से उसकी हत्या कर दी है...और फिर मैं एक मजबूत रस्सी ढूँढूँ और उसी कमरे के पंखे पर लटक जाऊँ, जिसमें वह मरी पड़ी हुई है...यह दृश्य भी सही बनता है कि नीचे वह मरी पड़ी है और ऊपर मैं पंखे पर लटका मरा पड़ा हूँ...क्या कहते हो? ’ उस आदमी ने माली से पूछा और बिना उसके जवाब का इंतजार किए, फिर सोच में डूब गया। माली जवाब भी क्या देता, वह जवाब देने की जगह पर था ही नहीं। माली को लगा कि वह यहाँ है, पर नहीं है। वहाँ उन दोनों के बीच, बस चुप्पी झर रही थी। कोई भी उन दोनों के बीच, बगीचे की गीली घास पर, झरती चुप्पी का ढेर देख सकता था। 

    ‘तुम्हारे पास सिगरेट होगी?’ अचानक उस आदमी ने सर उठाकर माली से पूछा। 

    ‘सिगरेट नहीं है...बीड़ी है...’ माली ने कहा। 

    ‘चलेगा...बीड़ी ही ले आओ!’ 

    माली जब तक उठा नहीं, वह आदमी उसे घूरता रहा। इस तरह कि जैसे वह अपनी नज़र से धकेल कर माली को उठा देना चाह रहा हो। माली जब अपने कमरे की ओर जा रहा था तो  उसने अपनी पीठ पर उस आदमी की गड़ती नजर को महसूस किया। माली को यह पता नहीं था कि ठीक  उसी समय वह आदमी माली की पीठ को घूरता हुआ यह सोच रहा था कि वह औरत जिसे वह मार चुका है, इस माली के साथ सो सकती थी या नहीं। उस औरत को आदमी की  बड़ी उम्र से कोई परहेज तो था नहीं...माली मुझसे पाँच-सात साल बड़ा होगा बस...गुलदस्तों के लिए ताजे फूल खोजती औरत की माली से दोस्ती क्यों नहीं हो सकती है?  

    माली जाते-जाते अपनी भाषा में सोच रहा था कि वह बीड़ी लेकर, अब उस आदमी के पास लौटेगा ही नहीं। कमरा खोलेगा। लाइट जलाएगा। फिर लाइट बंद करेगा और चुपचाप गुड़हल के पेड़ों के पीछे छिप-छिपा कर, कॉलोनी के गेट की ओर भाग जाएगा।   


 

माली अपने कमरे के भीतर गया। उसने लाइट का स्विच दबाया जो कमरे में घुसते ही   दरवाजे के बायीं ओर पड़ता था और जिस पर माली की मटमैली अंगुलियों के निशान बन गए थे। कमरा एक ट्यूब लाइट की रोशनी से भर गया। माली ने अपनी खूंटी में टँगी कमीज को निकाला और पहन लिया।  बीड़ी का बंडल कमीज की जेब में ही था। असल में बीड़ी की तलब उसके  भीतर, उस आदमी को  सिगरेट पीते देख बहुत पहले से जागी हुई थी। पहले माली ने सोचा की कमरे में ही बीड़ी सुलगा ले और पीने के बाद गायब हो जाए। फिर उसे लगा कि अगर देर हुई तो वह आदमी कहीं कमरे तक ना आ जाए। इसी हड़बड़ी में उसने पेंट पहनने की जरूरत भी नहीं समझी थी, जबकि उसका टेरीकॉट का पुराना घिसा सा भूरा पेंट, कमीज के नीचे ही उसी खूँटी पर झूल रहा था। माली पेंट को छोड़कर पलटा। उसे बस कॉलोनी के गेट तक जाना था। वहाँ गार्ड थे। वहाँ पहुँचते ही वह इस आदमी के चंगुल से मुक्त हो सकता था। उसने अपने ही कमरे के दरवाजे को देखा जो उड़का हुआ था और जिसमें से बाहर का अँधेरा एक लंबी पट्टी-सा झाँक रहा था। अचानक माली को लगा कि उसे पेंट भी पहन लेना चाहिए। वह फिर पेंट पहनने खूँटी तक गया। दरवाजे से अंधेरी लंबी पट्टी, पेंट पहनते माली को देखती रही । पेंट पहनकर, माली दरवाजे तक आया। उसने लाइट का स्विच बंद किया। माली ने जैसे ही दरवाजा खोला, वह आदमी दरवाजे पर था, जैसे अधेरी लंबी पट्टी एक आदमी में बदल गई हो। 

     ‘मैंने सोचा कि अगर मैं तुम्हें कहूँ तो शायद तुम मुझे चाय भी पिला दो...ऐसा मुझे लगा।’ उस आदमी ने कहा और माली को लगभग दरवाजे से हटाता हुआ भीतर आ गया। 

    माली के पास बैठने के लिए बस एक मूढ़ा था पुराना, जिसमें बैठ कर वह खाना बनाया करता था, क्योंकि पालथी मारकर जमीन में नीचे बैठने पर, उसके घुटनों में दर्द भर जाता था और वह बिना किसी सहारे के उठ नहीँ पाता था और उसका सहारा बस कमरे की  दीवार और फर्श थे। माली ने स्टोव के पास रखे मूढ़े को लाकर, थोड़ी ही दूर पर, कमरे की दीवार से टिका कर रख दिया। यह जगह खूँटी और ठीक उसी ऊंचाई में, कुछ दूर पर टँगी भगवान विष्णु की फोटो के बीच थी, जिसका निचला हिस्सा, ठीक भगवान विष्णु के पैरों के नीचे, रोज-रोज जलती अगरबत्ती के धुएं से भूरा होकर धुंधला चुका था। दीवार से  माली ने मूढ़े को दीवार से टिकाकर इसलिए रखा था कि वह आदमी, जिसने कुछ घंटे पहले ही एक हत्या की है, वह  दीवार में पीठ टिका कर, आराम से बैठ सके। माली अच्छा आदमी था और अच्छे आदमी होने की अपनी दिक्कतें  होती हैं। अच्छा आदमी कितना भी भयभीत रहे, अच्छा आदमी बना रहता है!

     ‘बाबू काली चाय चलेगी...मेरे पास दूध नहीं है?’ माली ने उस आदमी से पूछा जो अब मूढ़े पर बैठ गया था और अपना सर दीवार पर टिकाए, आँखें बंद किये हुए था। माली के पास दूध कभी नहीं रहता था। माली हमेशा काली चाय पीता था। 

     ‘चलेगी, बस शक्कर एक चम्मच से अधिक मत डालना।’ आदमी ने बिना आँखें खोले कहा।  

     माली के पास, स्टोव के सामने बैठने के लिए अब मूढ़ा नहीं था। माली उकड़ू बैठ कर चाय बनाने लगा। उसने स्टोव जलने के बाद, जर्मन की गंजी को, पानी से खंगालकर, उसे स्टोव पर चढ़ाया। फिर उसमें दो कप पानी डाला। माली ने सोचा कि गनीमत है कि आज उसके पास अदरक एक छोटा टुकड़ा है। उसने अदरक को रोटी के पाटे में, बेलन से कुचरा और उसे उबलते पानी में डाल दिया। ठीक उसके बाद उसने  पानी  में दो चम्मच शक्कर डाला और उबलने दिया पानी को और फिर उसमें दो चम्मच चाय डालकर स्टोव को बंद कर दिया। चाय की पत्तियाँ गरम पानी को रंगने लगीं। 

     ठीक इसी समय, जब चाय की पत्तियां, अदरक और शक्कर डले गरम पानी को रंग रही थीं, माली ने अपने ही गले को अपने ही उस पनछे से कसता पाया, जिसे वह पेंट पहनने के बाद खूँटी पर ही टाँग आया था। माली ने अपनी टूटती साँसों के साथ यह देखा कि उसके गले को, उसी के पनछे से कसने वाला आदमी वही था, जिसके लिए वह चाय बना रहा था। माली की देह देर तक छटपटाती रही। वह आदमी छटपटाती देह को सम्हालते हुए पसीना-पसीना हो गया। यह कुछ देर बाद ही पता चला कि माली, उस आदमी को भारी पड़ा है। वह आदमी आश्चर्यचकित था कि दुबले-पतले माली के भीतर इतनी ताकत इकट्ठा थी।  माली की शांत देह, अपनी आखिरी साँस के बाद, ठीक उस जगह पर पड़ी थी कि लग रहा था की माली ने अपनी आखिरी साँस उस चाय की गंजी को देखते हुए ली है। 

   उस आदमी ने अपनी अंगुलियाँ, माली की नाक के पास ले जाकर, अपने आश्वस्त किया की माली मर गया है। आदमी अब भी हाँफ रहा था। वह लाश के पास ही पालथी मार कर बैठ गया और अपनी साँसों को सम्हालने लगा। साँसों के सम्हलते ही वह उठा और उसने चाय की वह  गंजी स्टोव से उतारी जो माली की साँस छोड़ती देह की छटपटाहटों से बची रह गई थी और अब तक गिरी नहीं थी। दो कप तो सामने ही रखे उसे दिखे, जिसमे एक कप की डंडी टूटी हुई थी। आदमी जानता था कि साबुत कप ही माली ने उसके लिए रखा था। वह जिंदा रहता तो टूटे कप में ही चाय पीता। कप तो दिख गया था, पर चाय-छननी उस आदमी को कहीं नहीं दिख रही थी। फिर खोजने पर, वह उसे एक प्लास्टिक की टोकनी में, बाकी बर्तनों के साथ मिली। उस आदमी ने साबुत कप में चाय  छान ली, फिर पता नहीं क्यों पर उसने टूटी डंडी वाले कप में बची चाय को छान दिया। उस आदमी को यह जानकार आश्चर्य हुआ कि माली ने ठीक दो कप चाय बनाई थी। दोनों कप बराबर भरे थे। यह देख वह आदमी मुस्कुराया और उसने टूटी डंडी वाला कप, मरे हुए माली के मुँह के सामने रख दिया। फिर वह अपना कप उठा कर, मूढ़े पर बैठ, दीवार से पीठ टिकाकर चाय पीने लगा। चाय पीते इस आदमी को देख कोई यह नहीं कह सकता था कि इसने अभी-अभी एक हत्या की है और लाश से बस पाँच कदम की दूरी पर, चाय पीता वह बैठा है। 

    चाय के बाद उसे सिगरेट की तलब हुई। वह माली की बीड़ी का बंडल खोजने लगा। वह उसे मिल नहीं रहा था। साला माली, कहाँ रख कर मर गया उसने सोचा। उसने यह भी सोचा कि उसे बीड़ी माँगने के बाद माली को मारना था। सोचते-सोचते, आखिरकार उसने यह सोच लिया कि माली उसके पास बीड़ी लेकर आ नहीं रहा था, बल्कि उससे भाग रहा था और तनाव में नशा हमेशा खींचता है अपनी ओर। इस तरह उसने सोच लिया कि बीड़ी जरूर उसके पेंट या कमीज की जेब में होगी। पर बीड़ी उसे माली की जेबों में नहीं मिली। असल में बीड़ी, घुटते गले से पैदा हो रही तड़प के कारण, उसकी कमीज की जेब से नीचे गिर गई थी। उस आदमी को बीड़ी का बंडल, लाश की कमर के पास मिला। उसमें सिर्फ पाँच  बीड़ियाँ थीं। माचिस उसे स्टोव के पास आसानी से मिल गई ।  उसने बीड़ी सुलगा ली और बची बीड़ियों को अपनी जेब में डाल लिया। अभी रात बची थी और उसे बीड़ियों की जरूरत फिर पड़ सकती थी।  

     वह आदमी जब बाहर आया और माली के कमरे के  दरवाजे की  सिटकनी बाहर से लगा  दी कि अगर कोई धोखे से माली के कमरे तक आ जाए तो सोचे कि माली कहीं आसपास ही होगा। बाहर अँधेरा अब भी उतना ही घना था। आदमी ने सोचा यह अँधेरा उसके लिए अच्छा है। उसे अँधेरे के नीले होने से पहले सब कुछ निपटाना होगा।  

      आदमी माली के कमरे से अपनी बिल्डिंग तक आया। उसे कोई नहीं मिला जो उसे आते देखे। उसकी खिड़की के अलावा सारी खिड़कियों की लाइट बंद थी। यह नींद  का गहरा समय था। चिड़ियाएं भी गहरी नींद में थीं। लिफ्ट नीचे ही उसे मिली। जाहिर है किसी ने तेरहवीं मंजिल से उसके उतरने के बाद अब तक लिफ्ट का इस्तेमाल नहीं किया था। वह आदमी अपने नहीं देखे जाने को लेकर आश्वस्त हुआ। यह उसके चेहरे से दिख रहा था, जब वह लिफ्ट में तेरह का बटन दबा रहा था—तेरहवीं मंजिल के लिए। 

      वह जब अपने अपार्टमेंट के दरवाजे पहुँचा तो अचानक उसे याद आया कि वह उस औरत के मरते ही, लाश के साथ ना रहने की हड़बड़ी में, अपार्टमेंट की चाबी रखना भूल ही गया था। उसने अपने को गाली बकी। कहा अब मरो साले! हत्या के बाद तुम कुछ ना कुछ भूल ही जाते हो, जिससे तुम आखिरकार फँस जाते हो! अचानक उसे याद आया कि उस औरत के पास भी एक चाबी रहती है, जिसे वह दरवाजा बंद करने के बाद, बाहर गमले के नीचे रख जाती थी। उसने याद किया कि कल औरत उससे पहले घर नहीं लौटी थी, वह पहले घर आया था तो औरत की चाबी गमले के नीचे ही होगी। वह सही था। गमले के नीचे चाबी थी। उसने सोचा कि वह कितनी अच्छी औरत थी कि उसने उसे अभी-अभी मरने के बाद भी बचा लिया था। उसने यह भी सोचा कि उस औरत की आत्मा ही यह चाहती है कि वह उसकी लाश को ठिकाने लगा कर, पकड़े जाने से बच जाए।  

        उस आदमी ने, उन दिनों ही जब वह उस औरत की हत्या को सोच रहा था--एक काले रंग का एक बड़ा-सा ट्रॉली-बेग खरीद कर रख लिया था। उसने इस बेग को खरीदने पर औरत को यह सफाई दी थी कि यह बेग बहुत सस्ता मिल रहा था तो कभी काम ही आएगा इसलिए मैंने खरीद लिया। यह भी कि हम दोनों किसी लंबी यात्रा पर गए तो दोनों के कपड़े इसमें आसानी से आ जाएंगे। औरत को कोई शक नहीं हुआ। वह सोच ही नहीं पायी थी कि वह बेग उसकी दुबली-पतली देह के लिए है। उन दोनों के बीच बहस और झगड़े तो थे, पर आदमी उससे मुक्ति पाने के लिए, किसी भी हद तक चला जाएगा—यह उसे अब भी नहीं लगता था। वह बड़ा-सा बेग उनके बेड रूम में, वार्डरोब के पास रखा रह गया था।

    आदमी जब बेड रूम में घुसा तो उसे सबसे पहले औरत की लाश ही दिखी। औरत को देख कर लग रहा था कि जैसे वह गहरी नींद में हो। कैसी अजीब बात है कि नींद और मृत्यु एक जैसे लगते हैं। मरे हुए को सोया  हुआ कहा जा सकता है और सोये हुए को मरा हुआ। 

    औरत, पलंग के एक किनारे पर, अपनी जगह ही पड़ी हुई थी,  जहाँ वह उसके बगल में रोज सोती थी जो पलंग का वह किनारा था जो बेडरूम के दरवाजे से लगा हुआ था। औरत की देह पर सिर्फ एक लाल रंग का गाउन था, जिसमें सफेद और पीले फूल खिले  हुए थे।  आदमी ने औरत के शरीर को पीठ और कमर से खींचते हुए, करवट में बदल दिया। आदमी को लगा कि औरत के गाउन के फूल उसकी हथेलियों में चिपक गए हैं। उसने अपनी दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ कर, उन फूलों को छुड़ाने की कोशिश की। पर फूल हथेलियों से झड़े नहीं। उसने सोचा कि क्या औरत के गाउन के फूल, हत्या का निशान हो सकते हैं? उसने अपनी हथेली को एक बार फिर ध्यान से देखा, जहाँ लाल-पीले फूल औरत के गाउन से मिटकर छप गए थे। उसे पता नहीं था कि औरत के गाउन में फूलों के बीच उसकी हथेलियों के निशान छप गए हैं।

     अचानक उस आदमी को शराब की जरूरत महसूस हुई। उसे लग रहा था कि  नशे में वह  यह सब ज्यादा आसानी से कर पाएगा। वह लिविंग रूम की ओर गया। शराब की बोतल वही कबर्ड में थी। उसने सीधे बोतल से शराब पी, जैसे उस औरत से छिप कर हमेशा पीता रहा था। वह भूल गया था कि वह मर चुकी है और अब वह कभी भी, किसी भी समय आराम से पेग बनाकर शराब पी सकता था। उसने फिर एक बड़ा घूँट बोतल से फिर मारा और सोफ़े पर पसरकर शराब की गुनगुनाहट का इंतजार करने लगा। वह ज्यादा देर इंतजार नहीं कर पाया, वह फिर उठा और उसने शराब का एक गहरा घूँट फिर मार लिया। अब वह एक सम्हले हुए नशे के भीतर था। अचानक उसे याद आया कि वह समय जाया नहीं कर सकता है, उसे जो भी करना है, जल्दी करना होगा।    

     औरत अब भी बेड रूम में बाईं करवट पड़ी थी। उसने, औरत के पैरों को उसके पेट की ओर मोड़ दिया। फिर उसने ट्रॉली-बेग को मुड़ी


हुई औरत के आकार के बाजू में रख कर, अंदाज लगाने की कोशिश की कि औरत की देह ट्रॉली बेग में आ पाएगी या नहीं। तभी उसे लगा की औरत के सर को, उसकी छाती की ओर दबाना पड़ेगा और वह उसकी कोशिश करने लगा। औरत दुबली-पतली थी, फिर भी आसानी से नहीं बल्कि बहुत कोशिश से ट्रॉली बेग में समा पायी। आदमी ने तेजी से हांफते हुए, ट्रॉली बेग की चेन को बंद किया और संतोष की एक लंबी और गहरी  साँस ली। 

     वह ट्रॉली बेग को उसके पहियों पर चलाते, जब अपने अपार्टमेंट के दरवाजे तक आया और उसने झाँककर कारीडोर पर देखा। वहाँ किसी की कोई  आहट नहीं थी, बस एक एलईडी बल्ब की धीमी रोशनी पसरी पड़ी थी। लिफ्ट उसके अपार्टमेंट के ठीक सामने थी। वह लिफ्ट से जब नीचे आया तो नीचे भी झाँकने पर उसने पाया कि वहाँ किसी की कोई आहट नहीं है। पता नहीं क्यों पर वहाँ तो एलईडी बल्ब की रोशनी भी नहीं थी। उसकी आँखों को बाहर के गहरे अँधेरे का अभ्यस्त होने में कुछ समय लगा। फिर वह ट्रॉली सहित लिफ्ट से बाहर आ गया। 

     गहरे अँधेरे ने उस आदमी को ट्रॉली घसीटते बगीचे की ओर जाते देखा। इस बीच वजन के कारण दो बार उसकी वह बड़ी-सी  ट्रॉली लुढ़की और गहरे अँधेरे ने देखा कि आदमी ने बहुत  कोशिश कर उसे पहियों पर फिर खड़ा कर पा रहा है कि ट्रॉली उसके उठाते ही फिर अपना संतुलन खो देती थी। फिर आदमी बगीचे की सीढ़ियों पर ट्रॉली को चढ़ाता दिखा। फिर बगीचे पर बार-बार संतुलन खो गिरती ट्रॉली को सम्हालते-घसीटते दिखा।    

    आदमी जब तक उस ट्रॉली को घसीटते माली के कमरे के दरवाजे तक पहुँचा वह पसीने से लथपथ हो गया था। दरवाजा खोलने के लिए, जैसे ही उसने ट्रॉली को उसके  पहियों पर छोड़ा तो उसने पाया कि ट्रॉली का एक पहिया ही गायब है। अब उसे खोजना जरूरी था। वह ट्रॉली को वहीं दरवाजे पर छोड़, पहिए को खोजने उस रास्ते पर चला, जिस पर वह ट्रॉली को घसीटते लाया था। उस आदमी को यह लग रहा था कि बगीचे की घास में ही पहिया कहीं होगा, पर पहिया उसे बगीचे की सीढ़ियों के पास मिला। वह बगीचे की तीन सीढ़ियों पर ट्रॉली को चढ़ाते हुए टूटा था और बीच की सीढ़ी पर पड़ा हुआ था।

   उस आदमी ने सोचा कि जैसा सोचो वैसा कभी नहीं होता। कोई ना कोई अड़ंगा होता ही है। माली भी एक अड़ंगा ही था। पर माली को अगर वह यह नहीं बताता कि उसने हत्या की है तो माली अड़ंगा नहीं बनता और रहता जिंदा। माली को अड़ंगा, नशे में उसने खुद बना दिया था। माली के मरने से थोड़ी देर पहले ही उसने यह तय किया था कि उस औरत की बॉडी को वह, माली के कमरे में ले आएगा। पहले से तय किया कुछ नहीं होता। तय की गई हत्याएं भी अचानक ही होती हैं। यह बात वह आदमी उस समय सोच रहा था, जब वह माली के कमरे में ट्रॉली बेग से, औरत की लाश को बाहर निकाल कर ठीक माली के बगल में लिटा रहा था। लाश  को निपटाने के लिए, उसने पहले से ही बहुत सी तैयारियां कर रखी थीं। उसने इस शहर के सबसे पुराने बाजार, गोलबाजार से पहले एक कुल्हाड़ी खरीदी थी। फिर एक हथौड़ी भी खरीद ली थी। फिर एक उसे एक दुकान में उसे कटार दिख गई  तो उसने उसे भी खरीद लिया था। पता नहीं औरत की हत्या के लिए क्या काम आ जाए? सबसे आखिर में कुछ सोच कर, उसने लाश को जलाने के लिए पेट्रोल भी खरीद डाला था--पूरा पाँच लीटर। पेट्रोल एक प्लास्टिक के केन में उसकी  गाड़ी की डिक्की में रखा हुआ था। अब यही उसके काम आने वाला था। बस उसे फिर अपनी बिल्डिंग तक जाना था और पोर्च में खड़ी गाड़ी से पेट्रोल निकाल कर लाना था। तभी उस आदमी को यह याद आया कि उसकी  गाड़ी की चाबी तो अपार्टमेंट  में ही है। वह जैसे ही घर पहुँचता था, चाबियाँ कांच के एक बाउल में डाल देता, जिसे उस औरत ने ही तय किया था कि उससे चाबियाँ गुम नहीं होंगी और मिलने में आसान रहेंगी। उस आदमी को लिफ्ट से अब चाबी के लिए फिर अपार्टमेंट तक जाना था और वह माली के कमरे से बाहर आकर उस ओर चल पड़ा और चलते हुए उसने सोचा कि चीजें इसी तरह बार–बार अटकती हैं और आप फँसने के करीब पहुँच जाते हो। कभी वे ट्रॉली के टूटे पहिये में अटक जाती हैं। कभी अटक जाती हैं गाड़ी की चाबी में। देखो कि  उस आदमी ने अभी भी यह नहीं सोचा था कि कॉलोनी में लगे सीसीटीवी कैमरे में वह दर्ज हो रहा है-- अँधेरे में एक परछाई की तरह यहाँ से वहाँ डोलता!

     अँधेरे ने उस आदमी को फिर हाथ में पेट्रोल का केन लिए देखा। देखा माली के घर पर घुसते। जब वह बाहर आया तो अँधेरे ने देखा कि आदमी खाली हाथ था। था बहुत ही निश्चिंत। उस आदमी को अपने अपार्टमेंट की ओर वापस जाते अँधेरे ने देखा। तभी अँधेरे ने देखा कि माली के कमरे के दरवाजे और खिड़की की सरंध्रों से काला-सफेद धुआँ बाहर आ रहा है। तभी   ऊपर चढ़ती लिफ्ट की आवाज को अँधेरे ने सुना। अँधेरा समझ गया कि आदमी तेरहवीं मंजिल तक जा रहा है, जहाँ उसका अपार्टमेंट है।


उस आदमी के अपार्टमेंट में, अब उस औरत की  देह का कोई निशान नहीं बचा था। उस औरत के देह की खूशबू उसके धुले कपड़ों में भी नहीं होगी। होगी बस उसके पहने कपड़ों में, जिसे वह सुबह धोने डालती रही होगी।  होगी उस साबुन में, जिससे वह नहाती रही होगी। किचन में उस औरत की खुशबू यहाँ-वहाँ जरूर होगी—मसालों के गंध में डूबी हुई। घर के गुलदस्तों में होगी उसकी खुशबू, फूलों के नीचे, उनकी डंठलों से उठती जो अब भी बची रह गई है कल सजे गए गुलदस्तों में। उस औरत की देह की खूशबू, उस आदमी के दिमाग में भी बैठी हुई है और उसे मिटने में समय लगेगा। 

    आदमी बहुत थक गया था। दिमाग में शराब का नशा भी बहुत घना हो चुका था। आदमी ने सोने से पहले एक बार यह सोचा कि बिस्तर की उस चादर को बदल दे, जिसके ऊपर एक हत्या हुई थी। पर चादर पर हत्या का कोई निशान नहीं था। यह बिल्कुल नहीं लग रहा था कि उस बिस्तर पर किसी की हत्या हुई है। यहाँ तक की बिस्तर पर एक सलवट भी नहीं दिख रही थी। बिस्तर की चादर, आठ इंची महंगे गद्दे पर इस तरह खोंसी हुई थी कि  मरती हुई औरत की छटपटाहटों ने, उस पर एक सल नहीं रचा था। आदमी बिस्तर में, औरत की जगह को छोड़, अपनी जगह पर सो गया, जहाँ वह रोज सोता था। शराब और थकान ने उसे तुरंत नींद में धकेल दिया। उस आदमी को, उस औरत से लिपटकर सोने की आदत थी। वह कितनी भी गहरी नींद में रहे, उसका दाहिना हाथ, औरत की देह को नींद में खोजने लगता था। यही हुआ। गहरी नींद में उस आदमी का हाथ, औरत से छूट गई जगह पर, औरत को अपनी ओर समेटने आगे बढ़ा और औरत की देह से खाली रह गया।   

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परिचय 

एक  गाँव—बगिया (रायगढ़) में जन्म। क़ानून तथा पत्रकारिता में स्तानक।उनका पहला कहानी-संग्रह 'बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’
1997 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद 'पृथ्वी को चंद्रमा’ 2003, 'अधखाया फल’ 2009 तथा 'रेगिस्तान में झील’ 2014 में जो उनकी कहानियों का चौथा संग्रह है—जिसमें उनकी प्रारम्भ से 2001 तक की कहानियाँ संकलित हैं। पहला उपन्‍यास ‘चिड़िया बहनों का भाई’ 2017 में प्रकाशित।'बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’ के लिए मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के 'सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार’ (1997); 'पृथ्वी को चन्द्रमा’ के लिए 'विजय वर्मा अखिल भारतीय कथा सम्मान’ (2003) एवं समग्र लेखन के लिए 'वनमाली कथा सम्मान’ (2014) से सम्मानित।

कहानियों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद।

Email : anand_harshul@yahoo.co.in

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MO 9425208074 / 7999286419

पता : ए-15 ऐश्वर्या किंगडम कचना रोड, रायपुर 492 014 ( छतीसगढ़ )



चित्र - रमेश आनंद 

3 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक कहानी।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ३ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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