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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 सितंबर, 2024

सुनील कुमार शर्मा की कविताएं

 सुनील कुमार शर्मा की कविताएं 


सम्यकपन- १


झाँका भीतर 

तो पाया 

एक नया सा सच

निकल आया ।

हाथ अक्सर रुक

जाता है देते वक़्त 

करुणा भी सिर्फ

क्या महज 

एक वासना है 

जो उत्तेजित होती 

कोई अवसर देखकर   

०००


सम्यकपन- २


ऐस्कीमों की तरह 

हो जाना संतोषी 

जीवन की 

क्रान्ति है 

या समझ है 

जीवन के 

सम्यकपन की ...

०००

केनवास 


सीख जाते हैं 

खुद ब खुद 

कलियों को बचा लेना 

लेकिन कुचल देना 

सर्प का मुख 

दबा देना 

संपोलों की पूंछ  

जबकि दुनिया 

सिर्फ तितलियों से 

नहीं बनी है  ...

नहीं जान पाए

कितना  बड़ा है 

जिंदगी का केनवास..

हाँ भजते रहे जरूर

जीववहो अप्पवहो

जीववहो अप्पवहो

०००


चित्र 

फेसबुक से साभार 







एक ख्वाहिश  


चाहतें बदल देती हैं

चेहरा और अनुभूतियां

शब्द बदल देते हैं परिणाम 

उजड़ी इमारतें करती हैं 

अनुवाद घटनाओं का 

घास ढक देती है 

सब गुनाहों को 

अब मैं घास होना चाहता हूँ ...

०००


शक्ति-१


दुनिया बड़ी विचित्र है ।

धर्म है, अध्यात्म है,

दर्शन है फिर भी

उपस्थित विभिन्न 

विस्तृत तंत्रों में 

शक्ति ही हो रही सिद्ध 

सबसे सफल मंत्र ।

जैसे सांप सीढ़ी के खेल में 

चल रहे सभी अंधे दांव 

और नित खो रहीं अगणित संभावनाएं,

कौन किस की नज़र में 

कितने खाने चढ़ गया  

कब कैसे कौन गोद से उतर गया 

इस डाह में, दाह में  

अनुमानों के अनंत से प्रवाह में 

अब अंधेरों की मौज है ।

 ०००


शक्ति-२


दोराहे पर खड़ा आदमी

असमंजस में है 

शांति चाहिए या शक्ति

या दोनों एक साथ  ।

शांति से नहीं हो रही

हासिल शक्ति ।

नहीं अब हाथ की रेखाओं पर भरोसा 

आज जो रेखा सबसे बड़ी है

वह कल मझोली हो जायेगी

या फिर छोटी !

चक्र, मछली और त्रिभुज

बनते और बिगड़ते रहेंगे ।

शक्ति से खींची जाती रही है ,रहेगी 

हथेली पर सफलता की लकीर, 

कटी है छिली है महत्वाकांक्षी हथेलियाँ 

फफक रहा अंतर्द्वंद

स्वयं के प्रति भी 

जैसे स्वयं ही हिंसक हो रहा 

शक्ति कर रही ऐसे भी आत्म विस्तार ...  

०००



परछाई


परछाई,

छोटेपन की,

ओछेपन की ,

आड़ेपन की,

तिरछेपन की,

रुखेपन की ,

सूखेपन की ,

और उथलेपन की भी


विष क्रियाओं से निकाल 

सच ले आती है सामने 

अधूरेपन को आईना

दिखाती है


बोझ बन जाती है

गाहे-बगाहे 

सामने आकर

कर जाती है दुखी भी 


कविता की आंखों से

 देखो तो ...

परछाई के बोझ से 

रोज बौना हो रहा है इंसान

हर साल सिकुड़ रहा है


फिर भी, 

रील चला कर 

शॉर्ट्स बना कर अपने 

हर कोई खुश है

आत्म मगन भी है 

और आत्म मुग्ध भी 

आत्म मुग्धता का नशा

नहीं शायद अब दौर है ..

०००


बिटिया का पिता


स्कूल,

ऑफिस,

मेला या 

सिनेमा से अगर 

घर ना आये 

समय से 

बिटिया 

तो मन में  तमाम तरह की आशकाएं 

कर जाती हैं घर ...


ढाई इंच की स्क्रीन 

पर आता एक शब्द शब्द  

'अनरीचेवल'

खीच जाता है ढेरों बिम्ब ..

कोई दुर्घटना

तो नहीं हो गई

सड़क पार करने में

कहीं दोस्त 

या कोई अनजान शख्स 

जानवर तो नहीं बन गया 


आक्रोश - हताशा- भय के

निरंतर उठते चक्रवात  में छटपटाता है पिता 

निशब्द 

हो कर स्तब्ध .. 

 बिना मरे ही कितनी 

मौत मर जाता है पिता 


वो चालीस की उम्र 

में यूँ ही नहीं 

पचपन का 

हो जाता है ...


आसान नहीं होता 

बिटिया का पिता होना

सचमुच नहीं होता  ...

०००


हज़ार ऑंखें 


हर हफ्ते अब लग रहा  

ऑनलाइन त्यौहारी बाज़ार ..

सब घर पर ही डिलीवर होगा 

जेब के कद के हिसाब से 

सुविधा का निर्धारण हो रहा है   ।

विज्ञापन और छूटों की 

लंबी फेहरिस्त बता रहे हैं ,

आप कैसे बनाइये अपनी 

इच्छाओं की लिस्ट  ...

नहीं चाहिए उन्हें नकद 

समय भी बचाइये 

बाज़ार और बैंक की दूरी भी 

सिमट गयी है ।

आपकी जेब में आकर 

बैठ गये  है वह,

रंग-बिरंगे कार्ड के रूप में ।

किस्तों से किस्तों में 

लग रही है उधार लेने की लत ।

अब उधार माँगने में 

कोई शर्मिंदा नहीं होता ,

उधार अब उधार जैसा 

कतई नहीं लगता ...

बैंक निचोड़ना चाहता है बाज़ार को,

और बाज़ार बैंक को ।

रहस्य ही है आम जन के लिए 

कौन बदल रहा है किसका आचार  ...

व्यवहार पढ़ रहा है 

ना खरीदने वालों का भी,  

जैसे हर किसी का पीछा करते हुए

अनिच्छाओं के मन के 

भीतर झाँक रही हैं ,

टटोल रहीं है जेब, 

किराये पर रखी

हज़ार ऑंखें 

और लोग बेमतलब ढूंढ रहे थे 

बाज़ार के अदृश्य हाथ ...

०००



कवि का परिचय 

डॉ सुनील कुमार शर्मा 

भारतीय रेल में उच्च पदासीन अधिकारी 


कोलकाता Mob: 8902060051

Email: sunilksharmakol@gmail.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. Very nice coverage of facts of present social scenario with actual sediments, thanks sir ji 🌹🌹🙏🙏

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  2. आधुनिक जीवन की विसंगतियों को उजागर करतें हुए शानदार प्रस्तुति।

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  3. उनकी भावना नयी नयी होती हैं ,उनका शब्दभंडार काफी बड़ा है

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