सलीब-I
ख़ालिद अबू ख़ालिद
तुम आये हवा पे सवार
उस जगह से
जहाँ से होती है हवा की शुरुआत
जहाँ से होती है शुरू हर बरसात
तुम आये हवा पे सवार
इस खंडहर शहर के किनारे
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
आते ही
तुम फेंक देते हो अपना जाल बेफ़िक्री से
बेख़बर हालात से
तैरता है जाल बालू के ढूहों पर
मछलियाँ, सिर्फ़ साये हैं मछलियों के
निगाह जाती है जहाँ तक
सलीब ही सलीब
जन्नत से दोज़ख तक
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
बरसों तक
सलीबों से भरी टोकरी
ढोयी है मैंने
फिर भी,
रुला देता है हर नया चेहरा
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
जिधर भी घूमो
बंद कर लो निगाहें
दिखाई पड़ेगी फिर भी
दहशत सिर्फ़ दहशत
हमारा वक़्त रह गया है
कोलतार की
एक झील की मानिन्द
जो उतरा सो डूबा
हम डाल दिये गये हैं
किसी प्रेत द्वारा गहरी खदान में
पीस दिये गये हैं धूल में, धूल जैसे
हमारे दिलों की चिन्गारी
दफ़्न कर दी गई है
उसी गहरी काली खदान में
०००
चित्र रमेश आनंद
सलीब-II
सलाम,
स्वागत है तुम्हारा दोस्त
मेहमान मेरे
जाने न दूँगा तुम्हें कभी भी
तूफ़ान उठा है तुम्हारी अगवानी में
लपेट लेंगे तुम्हें, हजारों हज़ार तूफ़ान
तूफ़ान उठा है
तुम्हारे अनगिनत जालों के समुन्दर से
जिसे तुम फेंकते हो और खींच लेते हो
फिर फेंकते हो, फिर खींच लेते हो
इतने फट गये हैं जाल
मरम्मत होगी नामुमकिन
तुम्हें नहीं मिले मोती
तुम्हें नहीं मिले सीप
सलीब पे टँगा मैं
देखता हूँ तुम्हारी एक-एक हरकत
बालू के ढेर पर लगा के तम्बू
तुम दौड़ते इधर-उधर
अपने ख़्वाबों के मोतियों की तलाश में
सोचते हो मिलेंगे यहीं कहीं
अफ़सोस है तुम्हारे लिए
अलकतरे के समुन्दर में
मोती भला कहाँ
लौटते हो जब अपना चिथड़ा जाल लिये
उड़ा ले जाता है रेतीला तूफ़ान तुम्हारे तम्बू
मेरी तरह तुम भी
टंग गये सलीब पर
आँखें टिकी हैं क्षितिज पर
गिड़गिड़ाते, पुकारते हर आदमी को
रुको, जहाँ भी हो तुम
यहाँ रहते हैं वे
जो खून पी जायेंगे तुम्हारा
यह टापू भरा है कीड़ों और गद्दारों से
यहाँ रुक गया है वक़्त
अरे, जरा मुस्कराना
हमारे नग़मों पर
हमारे दिल की धड़कनों पर
हमारी पलकें झपकती हैं जल्दी जल्दी
हमारी चमकदार आँखों में उतर आया ख़ून
बेपनाह सन्नाटा, हवा और पानी के घर तक
काश,
तुम, तुम होते
सिर्फ़ तुम, तुम होते
क्या सुना तुमने
मेरा और दोस्तों का नग़मा ?
और देखा मुझे
उखाड़ते उँगलियों के नाख़ून ?
मेरी वहशत देखकर
भागे तुम दहशत से
छोड़कर अपना सलीब
रुको, लादो इसे अपनी पीठ पर
फिर दफ़ा हो यहाँ से
फूंक-फूंक कर रखना कदम
रुको, जहाँ भी हो तुम
०००
चित्र
फेसबुक से साभार
सलीब-III
इसके पहले
कि तुम अलविदा कहो, मेरे दोस्त
इसके पहले
कि तुम भूल जाओ हमारी भूख, मेरे दोस्त
एक प्यारी पुरवैया की ख़ातिर
एक प्यारी मुस्कान की खातिर
कहना चाहूँगा, जाओ सिर्फ़ कल तक के लिए
आह, कल है कितना पास
आठ बजे
नौ बजे
दस बजे
दस बजकर दो सेकण्ड
शायद इन्तज़ार कर रहे थे तुम
कि हम कहें कुछ भी
माफ़ करना दोस्त,
मेरी और मेरे दोस्तों की ख़ामोशी
पैदा होने को होता है कोई जब
होता है सब कुछ ख़ामोश
फिर भी बंधाता है उम्मीद
अलविदा मेरे दोस्त, अलविदा
छोड़ गये हो अपने पीछे
मायूस खतों के पहाड़
और रोशनाई का
काला, गहरा और ख़ौफ़नाक कुआँ
०००
कवि
ख़ालिद-अबू-ख़ालिद - 1937 में सिलाल एथार में जन्म। इनके जन्म के पहले ही पिता की जिओनिस्ट और ब्रिटिश फौजों के बीच हुए युद्ध में मृत्यु । इन्हें
०००
अनुवादक
राधारमण अग्रवाल
1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए
पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।
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