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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 सितंबर, 2024

 अक्कै पद्मसाली की कविताएं 


हम सब भारतीय हैं 

अक्कै पद्मसाली


वो हिंदू

है ये मुसलमान

मैं क्रिश्चियन

तुम बौद्ध, जैन, और कुछ

कहने वाले धर्मों से परे 

हमारा धर्म है मानव धर्म

हम सब भारतीय हैं।


उसकी जात वो है

इसकी जात है ये

मैं हूँ उस जात का

तुम हो इस जात के, और बहुत कुछ 

अन्य जातिओं से परे

हमारी जाति है मानव जाति

हम सब भारतीय हैं।


वो काला है

ये गोरा

मैं कांस के रंग का

तू भूरा, पीला, और न जाने क्या-क्या

रंगों से परे 

है हमारा सच्चा रंग

हम सब भारतीय हैं।


वो है ब्राह्मण

ये क्षत्रिय

मैं वैश्य

तुम शूद्र 

इन वर्णों से परे है

हमारा भावनाएं हैं एक

हम सब भारतीय हैं।


वो है पुरुष

ये स्त्री

वो लैंगिक अल्पसंख्यक पुरुष 

वो लैंगिक अल्पसंख्यक स्त्री से परे

हमारी आत्मा में लिंग है

हम सब भारतीय हैं।

०००

चित्र 
आसमा अख़्तर
 








तिरस्कृत 


बेटा होगा हमें बेटा

हमारे वंश का चिराग होगा हमारा बेटा

परिवार का नाम रौशन करे हमारा बेटा


हे भगवान!

हमारी गोद में जो है वो क्या बेटा नहीं!?

कोई बात नहीं बेटी तो है!?

ये कैसा है बच्चा

नहीं है ये यहाँ का 

हमारे द्वारा अस्वीकार्य बच्चा 

संसार द्वारा अस्वीकार्य बच्चा। ओह! 


क्यों चाहिए हमें ये तकलीफ़

क्यों चाहिए हमें ये भिखारी

क्यों चाहिए हमें ये दुर्भाग्य

क्यों चाहिए हमें ये अपमान

क्यों चाहिए हमें यह शापित जीव। ओह!


क्या बना दें इसे अनाथाश्रमों का गुलाम

छोड आऊं किसी मेले में

जहां हो मनुष्यों का सैलाब

फ़ेंक दूँ किसी दूसरे शहर के कूडे में 

गले में बांधकर लकडी कर दूँ इसका अंत

किसी कुंए में धकेलकर

मार डालूँ इसे! हे भगवन!


रेलगाडी की आग में डालकर इसे

उसका धुँआ बना दूँ

मीठी खीर में डालकर जहर,

हो जाऊँ मुक्त

परदेस के पाप के कुँए में झोंक दूँ

या बना कर एक गाँठ इसकी गर्दन में 

झुलाऊँ एक झूले की तरह।


जीवित मृतक हो जैसे

होकर भी न हो जैसे

बोलूँ मैं अगर जी लो ऐसे ही चोरी-छुपे

जगह-जगह भटकते हुए जाए जो ये

इसकी यात्रा कभी न लौटने वाली यात्रा हो। हाँ!

०००

कवि :- अक्कै पद्मसाली











अनुवादक 

डॉ. मैथिली प्र राव, गत 27 वर्षों से हिंदी के अध्ययन एवं अध्यापन से जुडी हैं। इस दौरान वो जैन संस्था समूह के

महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में सेवारत थीं। इन्होंने अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति के अलावा, अध्यक्षता का निर्वहण किया है एवं बीज व्याख्यान दिए हैं। अनेक शोध पत्रिकाओं में इनके शोध परक आलेख प्रकाशित हैं। हिंदी एवं शिक्षण के प्रति इनके योगदान के लिए अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। संप्रति ये एक स्वतंत्र अनुवादक के रूप में कन्नड से हिंदी में साहित्यिक अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं। कर्नाटक सरकार के स्नातक-पूर्व हिंदी के पाठ्यक्रम समिति की बाह्य सदस्य हैं एवं एनसीईआरटी के हिंदी के पाठ्यचर्या क्षेत्र समूह की सदस्य के रूप में इनका सक्रिय योगदान रहा है।

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