image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- ग्यारह



मेरा वजूद

समोह कल कासिम 



अगर 

तुम्हें पाने के बाद भी 

न झूम उठूं ख़ुशी से मैं 

तो, इजाजत दो 

कि ख़ुश रहूँ 

तुम्हारे दिये दर्द में


तुम्हारी धुंधली होती तस्वीर 

और ख़ामोश पड़ जिस्म को 

चूमता हूँ

और हो जाता हूँ तुम जैसा 

दीवानगी की हद तक


तूफ़ान उठा है वहशत की तरह 

तूफ़ान में चक्कर खाता 

मैं कौन हूँ 

इस तरह का अहसास करने वाला ?


फिसलता है पैर 

मैं भी, 

बैंगनी अँधियारा 

ख़ुश हो, उड़ाता है हँसी 

तार तार हो गयी 

इन पागलपन भरी यादों के लिए


इस सुबह से उस सुबह तक 

हम हैं अकेले 

तुम और फ़रिश्ते 

देते हैं सहारा मेरी हिम्मत को 

फिर भी, मैं बिल्कुल अकेला 

क्या यही है मुहब्बत ?


चित्र 

फेसबुक से साभार 









तुम्हारी गर्दन मेरी बाँहें 

गर्मी बदन की और सरकती रेशमी जुल्फें 

जगा देती हैं मुझे 

चमेली सी महकती साँस 

इबादत जैसी 

मैं गड़ा देता हूँ चेहरा तुम्हारे बदन में 

भर जाता हूँ आँसुओं से 

चिड़ियाँ और तितलियाँ 

हों गवाह हमारी जिन्दगी की 

दरवाज़े और खिड़कियाँ 

नीबू के दरख़्त और बाग 

जान जाये सारी दुनियाँ 

कि जी रहे हैं हम, बखुदा 

दिये हाथ में हाथ 

करिश्मा कर दिखाया हमने


लोग मुस्कराते हैं 

मेरी बड़बड़ाहट और हँसी पे 

शायद हों परेशान 

इस तनहा इन्सान के लिए 

शायद हों समजदा 

जवानी के इस पागलपन पर 

हमें माफ़ कर देना चाहिए उन्हें 

देख नहीं पाते वे 

मेरा तुम्हारे पास होना 

माफ़ कर दो उन्हें, तुम भी



एक शाम से दूसरी शाम तक 

रहती हैं हर वक़्त मेरे पास 

गोलियाँ नींद की 

हर तमाशा है मेरे अन्दर 

फिर भी हूँ एकदम तनहा


रहती हो हर वक़्त तुम मेरे दिल में 

मेरी रूह में है तुम्हारी ही छाप 

है ऐसा ही 

जैसे हो तुम, हरदम 

जैसे हो तुम, कभी नहीं 

यही है इश्क़, यही है इएक 

०००


कवि का परिचय 

 समोह-अल-कासिम-रोमा में, 1939 में जन्म। अनेक कविता संग्रह प्रका- शित । इनमें प्रमुख हैं- 'सुरज का क़ाफिला', 'रास्ते के गीत', 'मेरा खून मेरी हथेली पर', 'ज्वालामुखी का धुआ', 'बेनकाब', 'तूफ़ानी चिड़िया', 'मौत और चमेली का कुरान', 'शानदार मौत', 'खुदा क्यों मार रहा है मुझे ?" 'मैं चाहता हूँ तुझको मौत की तरह' और 'नामुराद शब्स' आदि। इन्होंने उपन्यास, नाटक तथा लेख भी लिखे हैं। एक महान कवि और फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के एक जुझारू योद्धा । 

०००

अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए 

पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें