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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 सितंबर, 2024

वनिता बाजपेई की कहानी

 


 मैनेजमेंट और दुधारू गाय

 वनिता बाजपेई

 शाम का धुंधलका है ,कॉलेज परिसर में मरियम की मूर्ति के सामने रंग बिरंगी लाइट जल रही हैं ,लगभग पूरा परिसर वीरान है, एक अजीब सी चुप्पी  है वातावरण में ,तभी दूर एक साइकिल नजर आती है ,पुरानी  सी साइकिल पर कोई कॉलेज से निकल कर बाहर जा रहा है, पास से देखने पर एक शिखा धारी सज्जन नजर आते हैं जो साधारण से कपड़े पहने हुए हैं, व्यक्तित्व में कोई महत्वपूर्ण बात नजर नहीं आती बस अपने चेहरे से मेहनतकश दिखते हैं , आंखों में बौद्धिकता की एक चमक सी दिखाई देती है, गेट पर पहुंचते हैं, दरबान एक उचटती सी  दृष्टि से उन्हें देखता है और बड़े से लोहे के गेट का एक संकरा  सा रास्ता खोल देता है ,उसे पता है साइकिल ही तो है निकल पजाएगी ,निर्लिप्त भाव से गेट लगा लेता है । साइकिल पर जा रहे सज्जन श्री चतुर्वेदी हैं, नाम ? नाम में क्या है, अपना नाम ही वह लगभग भूल गए हैं ,सब उन्हें चतुर्वेदी जी ही कहते हैं।

 किसी चिंता में दिखाई देते हैं ,अमूमन तो वो  चिंता या चिंतन में ही होते हैं, अब नौकरी से उकता  गए हैं या कहना चाहिए थक गए  हैं, यह थकान शारीरिक से लेकर मानसिक तक है ,अपने से भिन्न  संस्कृति वाले  इस कॉलेज में वैसे तो उनकी बहुत इज्जत बहुत है  पर बस इज्जत ही इज्जत है, अब इस कठिन समय में इज्जत से काम नहीं चलता ,अब राशन की दुकान पर इन चीजों का कोई मोल नहीं ,वहां तो नोट चलते हैं नोट, जो उन्हें गिन गिन कर दिए जाते हैं, इन्हीं गिने गिनाए नोटों से अनगिनत काम करने होते हैं, घर में बीवी है जो गृहिण है, दो बच्चे एक लड़का एक लड़की हैं, लड़का सवाल नहीं करता परंतु लड़की सवाल पूछती है,  उसकी आंखों में सपने कम और सवाल ज्यादा हैं । वह उससे बचे बचे फिरते हैं ,शायद इसीलिए खुद को झोंक रखा है कॉलेज में, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि 


पूरा कॉलेज उनके मजबूत कंधों पर टिका है ,कंधे कितने मजबूत हैं यह तो सिर्फ वही जानते हैं। साइकिल पर पैडल मारते मारते सोच रहे हैं ,अचानक उनकी सोच को विराम लग जाता है, पीछे कोई बेसब्री से बार-बार हॉर्न  दे रहा है ,बड़ी सी कार में कोई किशोर है, इस युवा पीढ़ी के पास ना तो समय है ,और ना सब्र । पता नहीं कहां पहुंचने की इतनी जल्दी है, वह साइड में हो जाते हैं ,सड़क किनारे कोई बुजुर्ग महिला भुट्टे बेच रही है और सामने खड़ा व्यक्ति चिक चिक कर रहा है, कपड़े से तो अभिजात्य लगता है पर कपड़े और सोच दोनों में अभिजात्य  हो यह महत्वपूर्ण है, अम्मा सड़क के किनारे लगभग नाली के पास बैठी है, बेहद कम रौशनी है ,जबकि थोड़ी ही दूरी पर बिग बाजार रोशनी से जगमगा  रहा है, कुछ लाइट तो अनावश्यक ही दिखती है, चलो ट्रैफिक  कुछ कम हुआ वह फिर निकल पड़ते हैं ,हल्की बूंदाबांदी है पर उन्हें आदत है, मौसम की अनुकूलता या प्रतिकूलता उन पर असर नहीं करती ,उनका जीवन ही इतनी प्रतिकूलताओं  से भरा हुआ है कि उन्हें अब फर्क नहीं पड़ता, शहर में सब उन्हें गाय कहते हैं ,गाय। चतुर्वेदी जी आप तो सीधी साधी गाय हो ,और आपका मैनेजमेंट आपको दुह रहा है ,जैसे गाय हर रूप में कुछ ना कुछ देती अवश्य है ऐसे ही वह निचोड़ रहे हैं आपको ,मरने पर चमड़े का भी प्रयोग कर लेंगे ,आप निकलिए इनके चंगुल से ,पर क्या करें उनके आदर्श उनके संस्कार इन सब पर भारी है ,एक बार नौकरी कर ली और नमक खा लिया तो बस उसी के जाकर बन बैठे, कहीं और जाना उन्हें नमकहरामी  जो लगता है, घर आ गया है, साइकिल खड़ी करते हैं ,हाथ पैर धो कर सीधे पिछवाड़े पहुंचते  हैं,यहां पर ही ऐसी दो आंखें हैं जो उनका बेसब्री से इंतजार करती हैं,बाकी घर में तो उनका आना मात्र एक दिनचर्या है ।रोज आते हैं तो आज आ गए, उसमें क्या है ,वैसे भी क्या लाए होंगे साथ में ,जिसके लिए बच्चे उनके पास दौड़े-दौड़े जाएं ,पर ये आंखें जो पिछवाड़े मैं उनका इंतजार करती मिलती है उसकी बात कुछ और है ,यूपी से जब आए थे तब यह घर ले लिया था लोन लेकर, वरना आज के समय में खुद की छत बनाना उन जैसों के लिए एक सपना है ,घर के पीछे और आगे दोनों तरफ दालान भी बना लिए थे ,और पीछे के दलाल में बंधी है उनकी गंगा जो उन्हें देखते ही आगे पीछे होने लगती है, और अपने हाव-भाव से प्रेम प्रदर्शित करती है, वह भी रोज कॉलेज से आ कर इससे दुलार करते हैं, गंगा मूक  प्राणी है ,परंतु आंखों से अपने हाव भाव से ,और रंभा कर अपनी बात कहती है, दोनों की स्थिति लगभग एक सी है, दोनों खूटे से बंधे हैं, वह बोल नहीं पाती और यह बोल नहीं सकते, संध्या आरती कर भोजन करने बैठते हैं पत्नी बताती है कि बच्चों की फीस भरनी है ,बिजली का बिल और फलां  सामान कल लेकर आना है, वह जानती है कि यह  समय सही नहीं  है, यह सब कहने का ,पर मजबूर है ,खाने के समय ही दोनों की ठीक से भेंट हो पाती है ,पत्नी को हां बोल कर उठते हैं ,कॉलेज से बहुत सारा काम लेकर घर आए हैं वह निपटाना है ।बस कुछ इस तरह ही जिंदगी चल रही है ।

एक दिन की  घटना से वह परेशान हो जाते हैं परेशान क्या  लगभग टूट से जाते हैं ,उनकी गाभिन गाय गंगा को कोई चुरा ले गया ,खूब ढूंढा दिन रात भटकते रहे परंतु कहीं नहीं मिली ,पत्नी बता रही थी कि सामने मैदान में बांधा था थोड़ी देर के लिए ,तभी से गायब है ।घर की गति जैसे रुक सी गई है, सब कुछ चल रहा है ,पर सब यंत्र वत ,वह थाने में भी रिपोर्ट लिखा आए  हैं पर उन्हें पता है कुछ नहीं होगा, उनकी रिपोर्ट लिखते समय बंकिम दृष्टि से देख रहे थे उन्हें सभी पुलिसवाले ,उनके पास गंगा की फोटो भी थी ,क्यों ना होती वह तो परिवार का एक सदस्य ही तो थी, अब पता नहीं कहां होगी, कुछ खाया पिया होगा या नहीं चिंता में हो करवटें बदलते हैं ।पत्नी भी यंत्र चालित काम निपटाती  है, दिनभर गंगा से चलने वाला उनका वार्तालाप थम गया  है।शाम को जब वह वापस आते गंगा से अपनी सारी बातें कहते एक वही तो थी जो उन्हें टका सा  जवाब नहीं देती थी ,बल्कि अपनी  नीली आंखों से देखती और सिर हिलाती  थी ,जीवन लगभग थम गया है, पर नौकरी ,और नौकरी में उनका दोहन चल रहा है ,कॉलेज में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ानी है इसीलिए सब को निर्देश दिए गए हैं कहीं से भी लाओ वरना तनख्वाह कम कर दी जाएगी। उन्हें बार-बार वह बात याद आती की मैनेजमेंट उनको दुह रहा है पर क्या करें ।

परिवार में एक शादी आ गई है भोपाल जाना है, उनके लिए त्यौहार या उत्सव उल्लास लेकर नहीं तनाव लेकर आते हैं, जीवन की उत्साह धर्मिता उत्सव धर्मिता लगभग समाप्त हो गई है, बच्चे दोनों बड़े हो गए उनके सपने उनकी उम्र के अनुपात से दोगुने बड़े हो रहे हैं ,गंगा की याद अब कम हो गई है उनके जीवन मैं अकेलेपन के सिवा कुछ नहीं है यूं तो घर में 3 सदस्य और भी हैं परंतु वह ऐसे प्रश्न बनकर उनके सामने आते हैं जिनके उत्तर उनके पास नहीं है, हारे थके साइकिल खींचते घर पहुंचे हैं आज गंगा को गुमे  लगभग डेढ़ साल हो गया उन्होंने जीवन से समझौता सा कर लिया है ,वैसे गंगा  ने सपनों में आना नहीं छोड़ा है, वह हमेशा उन्हें सपनों में दिखती रही, पर अब जब आती है तो ऐसा लगता है जैसे कुछ कहना चाहती है  वह समझ नहीं पाते ,आदतन पिछवाड़े जाते हैं और चुपचाप वापस आ जाते हैं। शादी से लौट आए थे जीवन वैसे ही मशीन की तरह चल रहा था मन में इतनी उलझनें  लिए रहते हैं कि कई बार आसपास नहीं देख पाते ,कॉलेज से लौटे हैं साइकिल खड़ी  हैं और घर का गेट खोलते हैं ,तभी पीठ पर कुछ टहोका  सा लगता है कुछ परिचित स्पर्श पाकर  वह पलटते  हैं पीछे गंगा खड़ी है, कृष काय , घर से गई थी तो गाभन थी अब लगभग बुड्ढी  लग रही है, लोगों ने लगता है दूध के साथ साथ उसका खून भी चूस लिया है उसके गले में हाथ डाल देते हैं बार-बार एक ही बात उन्हें याद आती है चतुर्वेदी जी आप तो गाय हैं गाय और मैनेजमेंट आपको दुह हो रहा है।

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डॉ वनिता बाजपेई 

सह प्राध्यापक हिंदी

प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ़ एक्सीलेंस

शासकीय महाविद्यालय विदिशा मध्य प्रदेश ।

दो काव्य संग्रह रंग बेरंग तथा सहलेखन में महाकाव्य रक्षेन्द्र पतन प्रकाशित 

त्रिपथ काव्य संकलन में कविताएं प्रकाशित।

दो साझा काव्य संकलन प्रकाशित

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख कविताएं तथा व्यंग्य प्रकाशित जैसे समावर्तन, सुबह सवेरे,क़िस्सा कोताह, पत्रिका इत्यादि

आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण ।  

स्थानीय सम्मान

पता , इंद्रप्रस्थ कॉलोनी अहमदपुर रोड विदिशा 

464001

vanita.bajpai@yahoo.in

9425451564

9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कहानी । आनंदकृष्ण, भोपाल

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  2. अति सुन्दर

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  3. बहुत अच्छी कहानी मामीजी👌

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  4. दिल को छू लेने वाली कहानी है सीधे सच्चे इंसान को सभी गाय ही कहते हैं

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  5. बहुत सुन्दर माता जी 🙏, साँझा करने के लिए निपुण भाई को धन्यवाद

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  6. प्रो. के के पंजाबी14 सितंबर, 2024 16:59

    रहस्य, भावना एवं संवेदना से लबरेज़ इस अद्भुत कहानी को पढ़ते वक्त मुझे कई जगह न केवल रुकना पड़ा बल्कि थमकर गहराई से सोचना भी पड़ा । यूं लगा जैसे कि ये सारी बातें कहीं आसपास ही चल रही हों । कहानी के पात्र अपने से लगे और गंगा से भी रिश्ता कुछ जाना-पहचाना, जुड़ा सा लगा।
    कहानी को पढ़ते वक्त, जिन माइलस्टोन्स पर मैं थम गया उन पर सभी का ध्यान चाहता हूं :

    "नाम में क्या है, अपना नाम ही वह लगभग भूल गए हैं ।"
    "अब राशन की दुकान पर इन चीजों का कोई मोल नहीं, वहां तो नोट चलते हैं नोट ।"
    "उसकी आंखों में सपने कम और सवाल ज्यादा हैं ।"
    "खाने के समय ही दोनों की ठीक से भेंट हो पाती है ।"
    "शाम को जब वह वापस आते गंगा से अपनी सारी बातें कहते "एक वही तो थी जो उन्हें टका सा जवाब नहीं देती थी ,बल्कि अपनी नीली आंखों से देखती और सिर हिलाती थी ।"
    "उनके लिए त्यौहार या उत्सव उल्लास लेकर नहीं तनाव लेकर आते हैं ।"
    "लोगों ने लगता है दूध के साथ-साथ उसका खून भी चूस लिया है ।"

    जाने क्यों लगा कि मैं मुंशी प्रेमचंद के कहानी संग्रह की कोई रचना पढ़ रहा हूं ।

    इस सुंदर रचना हेतु, वनिता जी को कोटिशः धन्यवाद । अपेक्षा है कि वे भविष्य में भी इसी तरह अपनी और साहित्यिक रचनाएं, हम सब से साझा करती रहेंगी ।🙏💐

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