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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- सात

 

हत्यारे-सपनों के शहर के

अतोफ जानम


ऐ, रौशनी वाले दरवाजे के पहरेदार 

जालिम, भगा दिया था तूने मुझे

बच्चा जान कर


चाहा था घुसना जब, बरसों पहले

धमकाया, मत आना फिर कभी 

शाही मुहर लगे 

इजाजतनामे के बगैर 

और भी बतायीं तूने बहुत सी वजहें 

मसलन, बंद है शहर 

मैं आया क्यूँ नंगे पैर 

ऊँची हैं दीवारें 

लगे हैं शीशों के टुकड़े 

अटके हैं जिनमें तमाम 

अनजान राहगीरों के बदन के लोथड़े



चित्र

 रमेश आनंद 










ऐ, रौशनी वाले दरवाजे के पहरेदार 

देख, आया हूँ मैं, फिर से 

लाया हूँ साथ 

न सिर्फ़ इजाजतनामा 

बल्कि सारी की सारी शाही मुहरें भी 

आया हूँ अपने खून सा बहता हुआ 

ऊँचा किये सर, चम्पे के फूल-सा 

हो गया हूँ नर्म और


आईने की तरह साफ़, आँसू जैसा 

अपने महबूब की आँखों में 

घुल गया हूँ 

उसकी आँखों के साथ कलेजे की आग

नींद में है इस वक़्त 


जनाब, 

यह शहर है इतना खूबसूरत 

चमकता हुआ, बुलाता है दूर से 

कलियाँ देखती हैं उचक उचक के 

हल्की हवा में, झूमती हैं बार-बार 

हवा जो आयी शहर के अन्दर से 

छूती है मुझे 

खून जो बचा था मेरी धमनियों में 

नाचता है बार-बार


जनाब, 

पूरी कर दी हैं मैंने सारी शर्तें 

और खानापूरी 

देखिये, यहाँ मेरे दस्तखत 

किये गये हैं मेरी थकी हुई बरौनियों से 

कहाँ हैं मेरे पुरखों की अमानत 

इस दरवाजे की चाभियाँ ? 

मैं दाखिल होना चाहता हूँ फ़ौरन 

दरवाजे के अन्दर

बहते झरने और जलती आग को 

सीने से लगाने


जनाब, 

जवाब देने लगे हैं घुटने 

दरख़्वास्त है, मुझे इजाजत दें


जनाब, 

लगता है मौत पुकार रही है मुझे

निकला जा रहा है दम

शहर घिर गया है क्रयामत से

क़यामत की रात का साया

पड़ गया है पूरे खूबसूरत शहर पर 

क़यामत की रात

 क़हर ढाती 

घसीटती उसे 

उमेठती बाँहों को 

तहा कर रख लेगी उसका जिस्म 

अपने लबादे में 

ले जायेगी उसे 

चबा जायेगी उसे 

दूर, बहुत दूर

०००


कवयित्री 

अतोफ जानम - युवा कवयित्री। 1983 में कविता संग्रह 'आने वाला वक़्त' प्रकाशित हुआ ।


अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

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