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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 सितंबर, 2024

रमेश शर्मा की कहानी

  

अधूरेपन के उस पार 

रमेश शर्मा 


रात ढलान पर थी बावजूद इसके अन्धेरा अब भी अपने पूरे शबाब पर था |सुबह के यही कोई चार बजने को थे | मुर्गे बांग देने की तैयारी ही कर रहे थे कि अचानक उसकी नींद खुल गयी |उसकी आँखें एकदम लाल दिख रहीं थीं |उसके चेहरे से ही लग रहा था कि उसकी नींद आज फिर अधूरी ही रह गयी | सिर्फ नींद की ही कौन कहे, देखा जाए तो अधूरेपन की एक लम्बी फेहरिस्त है उसके हिस्से ! उसके जीवन में तो बहुत कुछ ऐसा है जो अधूरा ही रहा आया है अब तक | उसने अब तक जो उम्र बिताई क्या वह उसकी मर्जी से बीत सकी ? शायद नहीं ! उसकी मर्जी भी जीवन में अधूरी ही रह गयी |  उम्र के इस बीतने पर भी उसका पूरा हक कभी नहीं रहा | उसे तो घर में हर वक्त पति और बच्चों की खातिरदारी में ही खटते हुए अपनी उम्र बितानी पड़ी  | ऑफिस में बॉस की हुकुम बजानी पड़ी और इस तरह घर और घर के बाहर बिताई हुई उम्र दूसरों के नाम ही चढ़ गयी | उसकी देह भी पूरी तरह  कभी उसकी मर्जी की देह कहाँ रही ! उस पर तो पति ने ही अपना अधिकार जमाए रखा मानो वह मिट्टी का कोई बेजान पुतला हो | और उसका मन... वह तो हमेशा उसके काबू से बाहर ही होता रहा | आज उसकी नज़र जहाँ तक जाती है   ... यहाँ से वहां तक हर जगह एक पसरा हुआ अधूरापन ही नज़र आता है उसे  ! ठहरे वक्त में वह अक्सर सोचती है ....उसके हिस्से ऐसा क्या है अब तक, जिसको लेकर वह कह सके कि मुकम्मल तौर पर वह उसका अपना ही है !

नींद से जागते ही कमरे का झरोखा खोलकर उसने बाहर झांका | उफ्फ ... बाहर अब भी कितना घना अन्धेरा है |

उसने आसमान की तरफ देखा   ..चाँद आसमान में अब भी चहलकदमी करता हुआ दिख पड़ा उसे | उसने झट से झरोखा बंद कर दिया, पर चाँद का चेहरा अब भी उसके भीतर आता जाता रहा | उस समय उसके भीतर इच्छा उत्पन्न हुई कि कोई उसके सामने आकर उसके लिए यह गीत गा दे ...चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो ! उसे कभी पता ही नहीं चला कि उसके भीतर की इच्छाएं एक-एक कर किस तरह उसके जीवन से रुखसत होती चली गयीं | पर आज अचानक मन के भीतर इस तरह की इच्छा उत्पन्न होने से उसे भीतर से थोड़ी गुद्गुदी होने लगी | उसे एहसास हुआ कि उसके भीतर अब भी इच्छाएं जीवित हैं | वर्षों बाद अपने भीतर आए इस तरह के अप्रत्याशित बदलाव से उसे थोड़ा अजीब सा अनुभव भी होने लगा |

कहीं वह शुचिता के मार्ग से विचलित तो नहीं हो रही ? इस तरह के सवालों का सामना भी उसे अपनी ही दुनिया के भीतर करना पड़ा | जिन्दगी के एक ही ट्रेक पर चलती हुई मन की गाड़ी को उसी ट्रेक पर चलने की आदत सी हो जाती है | कुछ समय के लिए उसे दूसरी ट्रेक पर ले जाने की इच्छा मात्र से मन में तरह तरह की आशंकाएं उठने लग जाती हैं |मन की गाड़ी अनियंत्रित सी होने लग जाती है | शुचिता के उल्लंघन को लेकर ऐसा तो कुछ हुआ नहीं उसके जीवन में कभी कि इस तरह उसे अशांत होना पड़े  ! वह सोचने लगी कि शुचिता के नाम पर स्त्रियाँ इतनी अपराधबोध से क्यों ग्रसित होने लग जाती हैं ? यह शब्द आखिर गढ़ा किसने है कि स्त्रियाँ इस शब्द से इतना भय खाने लग जाती हैं ? 

उसे रह-रह कर यह बात उद्वेलित करने लगी है कि कोई उससे आज मिलने आने को कहकर गया है | इसे लेकर मन के अवचेतन में कोई कौतूहल रहा हो इसलिए भी उसकी नींद आज जल्दी खुल गयी है  | नींद खुल जाए सुबह-सुबह फिर दोबारा लौटती कहाँ है | उसके लिए तो फिर रात की प्रतीक्षा करनी पड़ती है |

उसने थोड़ी देर के लिए फिर झरोखे को खोलकर बाहर झांका | झरोखे के उस पार की ठंडी हवा ने इस बार जब उसकी देह को छुआ तब आभास हुआ कि बाहर कितना सर्द मौसम है|उसने झट से कमरे का झरोखा फिर बंद कर दिया और कुछ देर तक कमरे में यूं ही टहलती रही | अटेच बाथरूम के  वाश बेसिन के पास जाकर नल की टोंटी खोलकर चेहरे और आँखों को पानी के छींटो से धोने की उसकी इच्छा हुई | इस बीच घड़ी का अलार्म बज उठा | आँखों को धोने के बजाय उसका ध्यान घड़ी की तरफ अचानक चला गया |

घड़ी देखकर उसे याद आया कि यह घड़ी तो उसे वर्षों पहले किसी ने गिफ्ट किया था | वह उसे 'किसी ने' कहकर आखिर क्यों याद कर रही है? क्या उसका नाम भी उसे अब याद नहीं रहा ? आज उसके जेहन में सवालों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था |  

गिफ्ट देने वाले को याद करते हुए धीरे-धीरे उसके मन में नए-नए सवाल आने लगे ... आखिर वह उसकी क्या लगती है कि उसने उसे इतनी महंगी घड़ी गिफ्ट की थी ? क्या रिश्ता है आखिर उससे उसका कि आज उसकी मुलाकात होने भर की संभावना से वह भीतर से इतनी बेचैन होने लगी है ? उस रिश्ते को वह टटोलने की कोशिश करने लगी ? सोचने लगी कि आज उससे मिलकर वह क्या कहेगी ? उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बातों का सिरा जिसे वह पकड़ना चाह रही है आखिर वह कहाँ गुम हो गया है |

वह नल की टोटी खोलकर अपनी अंजुरियों के सहारे चेहरे पर पानी का छींटा मारने लगी | ओह्ह..पानी कितना ठंडा है | देहरादून में ठण्ड के महीने में सुबह सुबह नल की टोटी से निकल कर बाहर आ रहे पानी को छूना कितना चेलेंजिंग होता है | उसे याद आया ...कभी-कभी ठण्ड के दिनों में वह उसके साथ देहरादून की सडकों पर मोर्निंग वाक पर निकल जाया  करती थी |उसके मोबाइल पर रफी के सुन्दर-सुन्दर गाने बजते रहते थे और वे दोनों आपस में कदम ताल करते हुए  झील तक कब पहुँच जाते थे पता ही नहीं चलता था | वे दोनों आपस में दोस्त थे या और किसी  रिश्ते के तार उनके बीच धीरे धीरे जुड़ने लगे थे, इसका खुलासा उनके बीच कभी हो नहीं पाया |

एक दिन उनमें  शर्त लगी थी कि एकदम सुबह-सुबह ठंडे पानी से जो पहले नहा लेगा तब दूसरा उसे महंगी घड़ी गिफ्ट करेगा | उसका घर उसके घर के बगल में ही था | वह वहां किरायेदार के रूप में कुछ दिनों से आकर रहने लगा था | 25 की उम्र का हंसमुख जवान | बेंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर था वह | बातचीत में किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेने की कला शायद उसे विरासत में मिली हो | वह भी उनदिनों 23 की थी और कालेज में पीजी करके नौकरी की तलाश में निकल पड़ने वालों की जमात में शामिल होने की तैयारी ही कर रही थी | उनके घरों के छत इस तरह आपस में भौगोलिक रूप से संलग्न थे कि दोनों अगर एक साथ अपने-अपने घर की छत पर चढ़ें तो उनका चेहरा एक दूसरे के एकदम आमने सामने इस पोजीशन में आ जाए जैसे कि कोई आईने में अपना ही चेहरा देख रहा हो | उनकी पहली मुलाकात इसी छत पर हुई थी जब वह एक दिन छत पर धूप सेंकने के लिए बैठी थी | 

'धूप सेंकना सेहत के लिए लाभदायक होता है' यह कहते हुए उस दिन पहली बार वह उससे मुखातिब हुआ था |उसे उसका इस तरह मुखातिब होना बुरा नहीं लगा था | पड़ोसी होने का एक धर्म भी होता है, जिसका उसने पालन किया था| बातचीत की शुरूवात उसने की थी फिर उस सिलसिले को आगे बढाने की जिम्मेदारी अब उसके ऊपर आ गयी थी| और फिर इस जिम्मेदारी को वह निभाती चली गयी थी | उन दिनों सुबह सुबह छत पर आकर घंटों बातचीत करना उनके दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था |

कड़कड़ाती ठण्ड में एक दिन सुबह-सुबह छः बजे नहा धोकर तैयारी के साथ जब वह छत पर पहुंची तो छत पर आँखें मलते हुए उसे उसका चेहरा दिख पड़ा था  |

'अरे तुम इतनी सुबह तैयार हो गयी ?' -आँखें मलते-मलते ही उसने पूछ लिया था

'और क्या ! मैं तो एकदम ठन्डे पानी से नहा धोकर सीधे छत पर आ गयी हूँ!' उसने मुस्कराते हुए उससे कहा था |

'तो क्या आज कहीं जाने की तैयारी है ?' पूछते हुए उसकी आवाज थोड़ी धीमी हो गयी थी  

'न ...आज नहीं ! बिलकुल नहीं ! आज तो तुम्हारा भी छुट्टी का दिन है ' - उसकी ओर से एक चहकता हुआ जवाब आया था 

'तो फिर इतनी सुबह नहाना धोना ?'

'ओह्हो.... कितना जल्दी भूल जाते हो तुम ! ठन्डे पानी में पहले नहाने और घड़ी गिफ्ट करने वाली बात भी तुम जल्दी भूल गए!'

 " ऎसी बेवकूफी न किया करो , तुम्हें कहीं सर्दी लग गई तो ?" उसकी बातें उसे उस दिन अच्छी लगीं थीं क्योंकि  उन बातों में उसके सेहत को लेकर एक चिंता का भाव था |

वे भी क्या दिन थे जब सुबह-सुबह ठन्डे पानी में नहा लेने की हिम्मत इस देह के भीतर मौजूद थी | देह की हिम्मत कहें या मन के भीतर का उत्साह ! .. पर वे दिन सचमुच कितने खूबसूरत दिन थे | अब आलम यह है कि इस भारी ठण्ड में

चेहरे पर पानी का छींटा मारने में भी आज उसे कितनी परेशानी महसूस हो रही है मानो मन के भीतर का उत्साह और देह के भीतर हिम्मत की मौजूदगी दोनों जीवन से जैसे विदा हो गए हों |उसने आज उस घड़ी की ओर जी भरकर निहारा | टिक-टिक करती घड़ी की सुईयां जैसे उससे बातें करने लगीं हों | घड़ी के भीतर बैटरी चार्ज अवस्था में हो तो वह चलती रहती है | उसने इस घड़ी के भीतर लगने वाली बैटरी का ध्यान हमेशा रखा |बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही उसने नयी बैटरी लाकर उसके भीतर लगा दिया | घड़ी के बंद हो जाने की चिंता ने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया था या बात कुछ और थी , इस पर उसका ध्यान कभी गया हो उसे याद नहीं | पर आज उसे लगा कि उससे जुड़ी कोई तो बात थी, जो उसके अवचेतन में बसी रहकर उसे ऐसा करने के लिए निर्देश देती रही | हरेक चीज की उम्र होती है , इस घड़ी की भी उम्र अब 24 के पार जाने को थी | उसे आश्चर्य हुआ कि यह घड़ी आज भी चल रही है |बहुत सी चीजें उम्र के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को बचाए रखती हैं ! उसे लगा कि देहरादून में आज भी सबकुछ वैसा ही है , बस उसके युवावस्था के जोश से भरे हुए दिन कहीं उड़कर अब दूर जा चुके हैं | कहते हैं दिन जो उड़कर चले जाते हैं फिर लौटकर कभी नहीं आते | कोई पूछे कि वह उन दिनों को आखिर क्यों नहीं बचा पाई तो उसके पास अब कोई जवाब नहीं है | इसका जवाब तो ज्यादातर इंसानों के पास नहीं होता है | कुछ सवालों के जवाब आखिर क्यों नहीं होते ? आखिर आज वह उसे 'किसी ने' शब्द से क्यों संबोधित कर रही है ? ..वह आज सोचती चली जा रही थी |  

वह अब पचास को छू रही है  | वह चकित है कि पूरे 24 वर्षों के बाद उसे इस तरह भी वह प्रपोज करेगा जबकि उसे अच्छी तरह मालूम है कि वे दोनों शादीशुदा हैं, और अपने अपने परिवारों की गाड़ी का बोझ कांधे पर लादे हुए जिन्दगी की सीधी और सपाट ट्रेक पर चले जा रहे हैं | क्या किसी से प्रेम का इजहार करने के लिए भी किसी को इतने बरस लग जाते हैं? इस सवाल का भी उसके पास कोई जवाब नहीं है | उसने मन ही मन सोचा ... " जीवन ही तो है ! यहाँ कुछ भी संभव है | किसी अधूरी कहानी की टूटी हुई डोरी हवा में कब लहराने लगे कुछ कहा नहीं जा सकता | संभव है कुछ लोगों के जीवन में ऐसा भी कभी होता हो| पर उन कुछ लोगों में एक दिन वह भी शामिल हो जाएगा उसने सोचा तक नहीं था !"  

और उस दिन की घटना से एक अजीब तरह के अनुभव का दौर उसके जीवन में चलकर आया था |

"अचानक 24 वर्षों बाद यूनिवर्सिटी कैंपस में कोई परिचित अफरा तफरी में मिले, उससे उसकी बातचीत बस कुछ ही देर की हो , और इसी कुछ देर की बातचीत के दरमियान ही वह पूरी हिम्मत के साथ उससे कह दे .... "आई लव यू मंजू ! मैं तुम्हें चौबीस वर्ष पहले यह कहना चाहता था, पर कभी हिम्मत न कर सका | शायद तुम्हें याद हो न हो पर मुझे याद है सबकुछ आज भी , हमारे बीच बातचीत का सिलसिला लंबा जरूर था पर इस तरह की बातचीत के लिए अपने आपको हम कभी तैयार नहीं कर सके और मन की बातें मन के भीतर ही रह गयीं | माफ़ करना मंजू  ...उन दिनों की बातें जो मेरे मन में ही रह गयी थीं आज मैंने उसे हिम्मत के साथ कहकर अपने मन का बोझ उतार लिया है | मंजू तुम अब भी वैसी ही लगती हो मुझे ! एकदम कमसिन और खूबसूरत!" बस पांच मिनट की बातचीत में उसने सबकुछ एक ही साँस में कह दिया था |

उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वह उसके साथ किस तरह का व्यवहार करे | एक बार मन में आया कि वह उसे डांटकर इस तरह कुछ भी कहने से मना कर दे |


आखिर आज वह एक शादीशुदा स्त्री है और एक शादी शुदा स्त्री से कोई इस तरह की बातचीत कैसे कर सकता है? इस तरह का सवाल भी उसके जेहन में उस समय आने लगा था | पर उस दिन वह उससे कुछ कह नहीं पाई थी | जीवन में उसकी तरह अब तक कोई उसे नहीं मिला था जिसने इस तरह उसकी सुन्दरता की तारीफ़ की हो | उसके पति ने उसकी सुन्दरता को लेकर कभी इस तरह उसकी तारीफ नहीं की थी और अंततः एक अधूरेपन की चोंट उसके मन के भीतर वर्षों से आकार लेती रही थी | अपनी सुन्दरता का जिक्र आते ही अमूमन औरतें भीतर से खिल उठती हैं |  एक शादी शुदा औरत होते हुए भी न जाने क्यों उसे उसकी बातें उस दिन अच्छी लगी थीं  | पचास को छूने की उम्र में उसकी सुन्दरता का जिक्र उसके कानों को गुंजित कर गया था | एक औरत अपने जीवन में बहुत कुछ सुनने की इच्छा लिए इस धरती पर आती है | कई बार लम्बे इन्तजार के बाद भी चीजें कानों में सुनाई ही नहीं पड़ती और उसे सुनने की इच्छा लिए ही एक स्त्री का जीवन समाप्त होने  लगता है | यह जीवन है बड़ा विचित्र ! सुनने की इच्छा भी रखो तो कई बार कोई सुनाने वाला ही नहीं मिलता | पर उसे यह चमत्कार की तरह लगा कि 24 वर्ष बाद ही सही पर इच्छित चीजों को कोई सुनाने वाला उसे  मिल ही गया था | वह भलीभांति जानती-समझती है कि उसकी संगत या उसके साथ किसी रिश्ते को लेकर कुछ सोचना-विचारना आज उसके लिए बिलकुल बेमानी है , पर जब से यह प्रसंग उसकी स्मृति में जीवित होकर सामने आकार लेने लगा है वह जीवन में पसरे अधूरेपन के दर्द से थोड़ी राहत महसूस करने लगी है | उसे अच्छी तरह मालूम है कि अपने जीवन में किसी दूसरे के लिए अब कोई स्पेस ही नहीं बचा है , फिर भी लगता है उसे कि इस 'किसी ने' नामक शख्स ने उसके जीवन की घड़ी के भीतर वर्षों से डिस्चार्ज पड़ी बैटरी को बदलकर जैसे नयी बैटरी लगा दी है | उसका मन इसी बात को सोच सोचकर आज उद्विग्न है- "अधूरेपन की नदी को पार कराने वाले शख्स, कई बार जीवन में  अचानक मिलते  हैं, और फिर मन के भीतर मृत पड़े उत्साह को पुनर्जीवित कर  दूर चले जाते हैं|"

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92 श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)

मो.7722975017

2 टिप्‍पणियां:

  1. दिल के किसी कोने को कुरेदती पुरानी बातों को ताजा करती और कहीं कहीं अतीत के झरोखों को खोलती कहानी है " अधूरेपन के उस पार"। प्रवाह और कथा के प्रभावी एकता को संजोते हुए पाठक को एक बार में पढ़ने को विवश करती शैली में लिखी इस कहानी के कथाकार रमेश वर्मा की लेखनी कमाल की है। सुंदर रचना के लिए उन्हें बधाई।

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