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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 सितंबर, 2024

मधु कंकरिया की कहानी:-सबसे शानदार नींद

 

सबसे शानदार नींद 

   

जब कभी फूलते सरसों के खेतों के बीच अपनी फूलती सांस को संभालते और मूसल से काले अपने दोनों हाथों से कुम्हड़े जैसे अपने सर के बालों को नोंचते दिखाई देते रामेश्वर बाबू तो देखने वाले समझ जाते कि हो न हो आज फिर उनकी कन्या नंबर पांच को देखने वाले परम तृप्ति के साथ खा पीकर और देखकर मना कर गए हैं। 



भोजपुरी लोक के ह्रदय स्थल सीवान जिले के सन्तु गाँव के रामेश्वर बाबू आधे किसान  और आधे टीचर हैं.

 थुल थुल शरीर ,काला भुजंग सा रंग ,मंगोलियन नाक और चश्मे के भीतर से झांकती दो निस्तेज आँखें। ऐसे हैं रामेश्वर बाबू जिन्हें स्लो  मोशन वाली अपनी जिंदगी में सिर्फ एक ही बात का गर्व है और वह है अपने ब्राह्णत्व का। बिना गंगोत्री मंत्र का जाप किये मुंह में पानी तक नहीं डालते हैं वे। एक बार किसी कारण से मियां भटकन (मुस्लिम टोला )में जाना पड़ गया था तो सारे रास्ते मुंह बनाते रहे और घर आते ही खुद पर गंगा जल का छिड़काव किया। 

               यूं तो ठहरे संस्कृत के अध्यापक पर मन है उनका जो रमता है दर्शन में। जब कभी वेद वेदांत की चर्चा करते करते रोयों से भरी अपनी छाती पर चौड़ी चकले सी अपनी हथेली को पंजे की जैसे फैलाकर आँख मूंदकर ‘अहं ब्रहास्मि ‘ का नारा बुदबुदाते हैं तो देखने वाले कहते हैं कि स्वर्गीय विवेकानंद की आत्मा उनमें प्रवेश कर गयी है। 

                पर इधर एक जमाने से लोगों ने रामेश्वर बाबू को न तो दर्शन की चर्चा करते सुना है और न ही ‘अहं ब्रहास्मि ‘ का नारा बुदबुदाते। आजकल तो उनका समस्त दर्शन ,चिंतन उनकी कन्या नंबर पांच पर ही टिका हुआ है। चाहे सुबह गाय की नाद में चारा डालना हो या खोप से धान निकालना या खुरपी से खर पतवार छांटना ,कन्या दूर हो या पास ,चिंतन में धूप हवा की तरह वह ही समायी रहती ,कानी आँख से उसे ही देखते रहते। कन्या का मोबाइल बजता कि कान खड़े हो जाते। जबतक फोन चलता रहता उनकी सारी चेतना कानों में ही समायी रहती और यदि कहीं कन्या फोन पर खिलखिला पड़ती तो कन्या के भटकते  चाल चरित्र की  आशंका  से वे धूजने लगते। कानों में जैसे  गर्म लावा उतरने लगता। 

               एकदम शुरू में ऐसा नहीं था ,बिल्कुल नहीं था। अपनी इस मातृहीना और सबसे छोटी पुत्री के लिए उनका नेह भादों के बादलों सा बरसता। बेटी लीलावती थी भी सौ फ़ीसदी पिता की ही बेटी । लेकिन जाने किस मनहूस घडी में पुत्री ने परिवर्तन नामक संस्था में कदम रखा और विधाता की जाने किस साजिश के चलते भिखारी ठाकुर की बिदेसिया का गाना ‘इ सजनी हो  ..... ए सजनी हो पियवा गईले कलकतवा ‘सुना कि विरह में कलपती सुंदरी के दर्द की संवेदनात्मक गूँज से दिल जुड़ा गया उसका। बस अब तो आठों पहर वही गाना चेतना में खुद गया। जब देखो वही गाना गुनगुनाती मिलती। 

               तब कुछ भी ऐसा नहीं लगा था उन्हें कि स्वच्छ हवा की तरह  बहती ,लहर की तरह मचलती इस पुत्री पर लगाम खींचने की जरूरत महसूस होती उनको। अभी तक का पुत्रियों का इतिहास बेहद संतोषजनक था उनका। विधाता ने धन दौलत देने में चाहे कृपणता बरती हो लेकिन आज्ञाकारी पुत्रियों के मामले में अक्षय कोष का पिटारा परम उदारता के साथ खुला छोड़ रखा था। एक के बाद एक पुत्रियां निर्विघ्न पैदा होती गयी ,सावन की घास की तरह बढ़ती गयी ,रामेश्वर बाबू के शब्दों में महंगाई की तरह बढ़ती गयी। प्रथम कन्या तो बहुत जल्द और बिना विशेष खर्च और परेशानी के ही सलट  गयी .

                          लेकिन उस बात को तो हो गए आज अठारह वर्ष। दहेज़ तो तब भी देना पड़ा था पर आज की तरह लड़के लड़कियों के बीच व्यक्तिगत पसंद नापसंद का ठसका नहीं था। जन्म पत्री मिली की राम मिल गया ‘वाली बात थी। प्रथम कन्या जितनी सरलता और किफ़ायत से निपटी ,बाद की कन्याओं में उतनी ही तकलीफ हुई। खर्चा और परेशानी दोनों ही बढ़ते गए और इस प्रकार कन्या नंबर पांच तक आते आते रामेश्वर बाबू की धनुष पर चढ़ी प्रत्यन्चा सी देह दुःख के भार से झुक कर कमाननुमा हो गयी थी। घने काले घुंघराले बालों से लदा सर अब गंजा होकर वार्निश सा चमकने लगा था। कन्याओं के लिए दहेज़ जुटाते जुटाते चार पीढ़ियों की एकमात्र निशानी पुश्तैनी मकान तक बिक गया था पर फिर भी असीम धैर्य और सहन शक्ति की अद्वितीय मिसाल कायम करते हुए रामेश्वर बाबू गृहस्थी का बोझ ढ़ोते चले आ रहे थे। पर इस कन्या की शादी की चिंता ने तो उनकी कमर ही तोड़ कर रख दी थी। लगता था जैसे उसकी जन्म पत्री में राहू और केतू कुंडली मारकर बैठ गए थे और जब जब विवाहयोग बनता उसको लाठी से खदेड़ कर बाहर कर देते। कुंडली के ग्रहों की बेरुखी से परेशान  होकर अंत में रामेश्वर बाबू ने कुछ आधुनिकता के प्रभाव और कुछ कुंडली के नहीं मिलने की परेशानी से बचने के लिए निर्णय लिया   कि अपनी इस अंतिम कन्या का विवाह वे बिना कुंडली मिलाए ही करेंगे।  

            कई दिनों तक उन्हें यह दुःख सालता रहा कि यह महत्वपूर्ण निर्णय उन्होंने शुरू में ही क्यों नहीं ले लिया .पर ‘बेटर लेट देन नेवर ‘ की तर्ज पर नए सिरे से और जोर शोर से युद्ध स्तर पर वर की खोज शुरू कर दी। क्योंकि आगामी अगहन को उनकी कन्या सत्ताईसवाँ वर्ष पूरा करने जा रही थी। 

 सत्ताईसवाँ साल ! कहाँ प्रथम कन्या को उन्होंने फ्रॉक पहनते ही ब्याह दिया था और कहाँ यह धींगड़ी !

                         


उनको लगा कि इस विषय पर वे अधिक सोचे तो कहीं उन्हें नर्वस ब्रेक डाउन न हो जाए। इस कारण  आँखें मूंदे कुछ पलों के लिए वे आध्यात्मिक आनंद में लीन  होने  की चेष्टा करने लगे। पर बाह्य दृष्टि के बंद होते ही अंत:दृष्टि में उनकी पुत्री की छवि और भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी। 

                        उनकी बाकी कन्याओं से यह कन्या है भी सर्वथा भिन्न।पूरी बिगडैल बा. लगता ही नहीं कि उसी वंश वृक्ष की है। जहाँ घरेलू किस्म की बाकि सभी कन्याओं का सारा समय कामचलाऊ पढ़ाई और घर के काम काज में बीतता वहीँ जब देखो तभी यह रंग मंडली की ओर भागती रहती। पहले पहल तो कुछ भी समझ नहीं पाए रामेश्वर बाबू ,पर एक बार किसी पड़ौसी के कहने पर कि उनकी सुपुत्री जाने किस फलां खान की बीवी बन कमर मटका मटका कर हाथ लहरा लहरा कर नाच गा रही है  वे रंग मण्डली पंहुचे। जबतक वे पंहुचे रिहर्सल शुरू हो चूका था। 

            बिल्ली झोले से बाहर निकल चुकी थी।

            हारमोनियम ,मृदंग ,ढोलकी और मंजीरों की दुनिया से घिरी लीलावती घर की सारी मान मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाती ,अपने नाच से बिजली गिराती नाच रही थी।‘दादा लेरवा खोजला दुलहवा हो बाबूजी ..’ के बोल के साथ दीवानी बनी थिरक रही थी। इतनी एकात्म थी पूरे माहौल के साथ कि देख कर भी देख नहीं पायी वह रामेश्वर बाबू को। 

              भौंचक रामेश्वर बाबू ! 

               सुहानी गुनगुनाती हवा कब अल्हड़ अंधड़ बन गयी ,उन्हें भान तक न हुआ। कंप्यूटर पढ़ाई के नाम पर यह सब हो रहा है ! इसके तो पंख निकल आए हैं - हजार हजार बिच्छुओं का डंक जैसे एक साथ लगा हो ,वे गुस्से में इस कदर तिलमिलाए कि पूरे ज्वालामुखी ही बन गए। पुत्री से बिना मिले बिना बतियाये ही घर की और चल पड़े। 

                   मच गयी ग़दर।  खिंचता गया अबोला। उम्मीद थी कि पुत्री अपनी तरह से पहल कर दूर करेगी यह अबोला। पर जमाने बाद जिंदगी ने शरबत से भरपूर जो प्याला उसके सामने पेश किया था उसे छक कर पीने की अपनी चाहत को कैसे दरकिनार करे वह !

       दिन बीतते जा रहे थे।पल पल स्वप्न बुनती  खोयी खोयी पुत्री के रंग ढंग देख रामेश्वर बाबू ने और भी जोर शोर से वर खोज अभियान शुरू कर डाला की कहीं पानी सर के ऊपर से ही न गुजर जाए। समय की नाजुकता और बदनामी के खौफ से थरथराते हुए  महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ियों से उतरने में ही बुद्धिमानी समझी उन्होंने । इस अभियान के आरम्भ में तो उनकी  महत्वाकांक्षाओं में सभी कुछ शामिल था - उच्च शिक्षा ,सुदर्शन ,आदर्श पारिवारिक पृष्ठभूमि ,जन्म कुंडली का मिलान आदि। पर अब तो उनकी  महत्वाकांक्षा सिर्फ एक सजातीय वर तक ही रह गयी थी। रामेश्वर बाबू ही नहीं तमाम बंधु बांधव नाते रिश्तेदार भी  चिंता  में  दुबले  होते जा रहे  थे। कुछ  शुभचिंतकों को तो कन्या के चिर कुंवारी रहने के लक्षण तक दिखलाई पड़ने लग गए थे ,इन सबसे घबड़ाकर कई बार तो रामेश्वर बाबू कन्या को दूजवर तक से ब्याहने तक की सोचने लग गए थे। काणी आँख से एक आध को देख भी आए थे वे । पर कन्या का भाग्य था कि एकदम ही फूटा सिक्का  ,कहीं भी तो नहीं चल पा रहा था। 

         ऐसे में लीलावती की ये रास लीलाएं।कई टोलों में बंटा छोटा सा गाँव। जनश्रुतियों की लहरों पर चढ़ ,आए दिन लीलावती की सच्ची झूठी बातें उनके तिवारी टोले  तक पंहुच ही जाती। 

हे भगवान् क्या होगा  ? वे फिर माथे पर हाथ धर बैठ जाते -  बदनामी  द्रौपदी के चीर की तरह दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थी।  अकेले होते कि बिल्ली की तरह दुबका बैठा तनाव उनपर झपट पड़ता। 

 पुत्री को फिर समझाया -   आमदनी ही करनी है तो कुछ भी कर ले ,ट्यूशन पकड़ ले,कहीं मास्टरनी बन जाय पर ये नौटंकी वाला धंधा बंद कर दे । 

पुत्री ने कुछ जवाब न दिया लेकिन जैसे ही जागता भोर का पाखी वह दनादन सारे कार्य निपटा पहुंच जाती रंग मण्डली। वहां पहुँच वह सबकुछ भूल जाती ,फीकी बदरंग जिंदगी में रस घुल जाता। आखिर फिर गुहार लगायी  रामेश्वर बाबू ने तो  आया  विचित्र जवाब - हम  खुशियों की खोज में हैं ‘

                    



पुत्री का जवाब सुन आँखें कपाट तक चढ़ गयी थी रामेश्वर बाबू की .यह बगावत की माटी कहाँ से पायी उसने ?ओह !जिसे  अंगुली पकड़ चलना सिखाया वह आज फलसफा झाड़ रही है.सीने में अजीब सा दर्द लहराने लगा। अपना वजूद पेड़ से टूटे और हवा में उड़ते सूखे पत्ते सा नज़र आया.तल्खी से जवाब दिया उन्होंने - जिस घर में शादी होगी वहां भी क्या नाटक करेगी ?हारमोनियम लेकर जाएगी ?

       लीलावती की बुआ भी रामेश्वर जी को ऐसी त्रासद हालत में सँभालने अपने गाँव से आ गयी थी। बहुत जोर लगाया उसने अपनी ओर से भी। जादू टोना ,गंडा  ताबीज ,झाड़ फूंक क्या  नहीं किया उसने लेकिन फिर भी कन्या  के हाथ पीले न होने  थे न हुए। 

              एक बार तो हद ही हो गयी ,बेटी बेचवा नाटक में लीलावती की शादी साथी कलाकार सुदामा से हो गयी थी। नाटक की अपार सफलता पर मंद मंद मुस्कुराती घर पंहुची लीलावती तो बुआ ने दरवाज़ा बंद किया और लाल भभूका आँख लिए पंजे निकालते  धमकाते हुए तीर चलाया - सच सच बोलबा बबुनी का तेरा लगन उस सुदामा दलितबा  से हो गवा  ?हम न कहब  पूरा तिवारी टोला कहब ई बात  । 

               बदनामी ने अब न केवल उसका घर देख लिया था वरन  घुटने टेक बैठ गयी थी। 

               मरियल से मरियल रिश्ते भी अब आँख दिखाने लगे थे। जहाँ भी बात चलाते रामेश्वर बाबू ,लीलावती के रंग मंडल के रंगीन किस्से पहले पहुंच जाते। इक्का दुक्का रिश्ता घर तक आ भी जाता तो लीलावती अपनी प्रतिभा को छिपाने का मोह संवरण कर नहीं पाती और खुद ही बता देती अपने रंग मंडल के बारे में और अपनी भूमिका के बारे में। कौन जाने इन गुणों पर ही मुग्ध हो जाए कोई ।  

              वक़्त को लम्हा लम्हा गुजरते महसूस कर रहे हैं रामेश्वर बाबू। बहिनिया द्वारा बनाया हलवा,ठेकवा ,मुड़ी ,लिट्टी चोखा सब धरा रहता ,वे मुंह तक नहीं लगाते और गुमसुम पड़े रहते। हर रात सिरहाने दुःख चहकता फिरता। हर आनेवाला पल जैसे कन्या के चेहरे का नमक उडाता मिलता ।कौन ब्याहेगा इस पके रंग ,पके चेहरेवाली और हवा उडी लड़की को ?नीम के पेड़ तले लगी खटिया पर लेटे लेटे रह रह कर  सहमे परिंदे की तरह फड़फड़ाते रहते। अब न आँगन में दाने चुगती चिड़ियाएँ दिल बहलाती न कूकती कोयल। हर वक़्त सुरमई बादलों की उदास छाया में रहते रहते टूट कर बिखरने लगे थे रामेश्वर बाबू ने। न वर मिला न कन्या का रंग मण्डली छूटा।  

  लम्हा लम्हा हिसाब लेती जिंदगी के भार से टूट रही थी लीलावती  भीतर ही भीतर। अनब्याही वह  नहीं रहना चाहती थी। दहकती सेज सी जिंदगी और यौवन की उठती भाव तरंग  के लिए  उसे साथी की जरूरत शिद्धत से महसूस हो रही थी। 

           समय की आवाज़ को सुनते हुए उसने भी अपने मन की तरंग से कुछ कुछ समझौता करते हुए अपने लिए दुर्दिन के खाते में एक वर देख रखा  था - सह रंगकर्मी सुदामा बाल्मीकि जिसने ‘बेटी बेचवा ‘ नाटक में उसके वर की भूमिका निभाई थी । जब जब सुदामा के नैन टकराते लीलावती के कजरारे कजरारे मद  भरे नैनों से, उसके दिल में कुछ कुछ होने लगता था। पर लीलावती को उसमें बाली उम्र के स्वप्नों वाला महबूब तो कभी नजर ही न आया ,बस कामचलाऊ वर के रूप में वह ‘चलेबुल ‘ था । फिर जिस तेजी से उसके विवाह का ग्राफ  गिरता जा रहा था कहीं वह भी हाथ से निकल गया तो ? क्या नहीं किया उसने खूबसूरत वर पाने की जुगाड़ में ?अपने को सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रदर्शित करने के लिए । विभिन्न कोणों से ग्रेसफूली मुस्कुराना सीखा ,’मॉड मैनर्स सीखे ,हलकी फुलकी अंग्रेजी और कंप्यूटर भी सीखा।  पर किसी को उसके श्याम रंग पर आपत्ति थी तो किसी को उसके मंगोलियन नाक नक्श पर। और जब से उसने नाट्य मंडली क्या ज्वाइन कर ली उसका बाजार भाव तो मुंह के बल गिर गया।  इसलिए अब उसने अपने ह्रदय को समझाया - प्रेम का मधुवन चाहे न सजे इस सुदामा के साथ पर जिंदगी ठीक ठाक गुजर जाएगी।

         इस नयी दृष्टि ने उसकी सृष्टि बदल दी। अब उसने सुदामा को कलाकार की नजरों से देखना शुरू किया और आश्चर्य ! वही सुदामा जो शुरू शुरू में उसे बुरा तक लगता था अब उसमें उसे ठीक ठाक महबूब तक नजर आने लगा था। और फिर तो ऐसा आलम भी आया कि जिस दिन वह महबूब अपनी नीली जींस और पीली धारीदार टि शर्ट में लैवेंडर की खुशबू उडाता शैम्पू किये उड़ते बालों में उसके सामने आता तो उसके भीतर भी कुछ कुछ होने लगता। 

   नाटक का सत्य अब जीवन का सत्य बनने जा रहा था। 

                    पर अभी तो उसने मैच का सेमीफइनल ही जीता था। असली टक्कर तो अब थी। क्या  गुजरेगी पिता पर जब उन्हें पता चलेगा कि उनकी उच्च जातीय ब्राह्मण पुत्री किसी दलित को वरमाला पहनाने जा रही है। कहीं पिता पर यह हकीकत चट्टान बन कर न टूट पड़े। यदि उसका पिता सक्षम और सामर्थ्यवान होता तो वह बड़ी आसानी से उससे टककर ले सकती थी। पर जिंदगी की मार खा खा कर हर तरफ से टूटे ,असहाय और विधुर बाप से टककर लेने में और उन्हें अपमान की गहरी खाई में धकेलते जैसे उसकी अंतरात्मा उसको कचोट रही थी। भींग रही थी पलकों की झालर। कल्पना में अंगोछा मुंह पर रखे धार धार कांपते रोते बिलखते पिता दिखने लगे। मन में थोड़ा बहुत संतोष था तो सिर्फ यही कि उसने पिता को भरपूर समय दिया था वर खोजने के लिए और खुद भी उसने उसी नाले में डुबकी लगाने के लिए तैयारी भी कर ली थी जिसमें उसकी बड़ी बहनें तैर रही थीं पर उसकी किस्मत में यदि रास्ता बदलनेवाली नदी ही बनना लिखा तो वह क्या करे। और यदि यौवन की आखिरी दहलीज पर खड़ी वह अब भी नहीं संभली तो फिर शायद ही जिंदगी उसे सेकंड चांस दे। 

  पर सवाल था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?कौन जाकर रामेश्वर बाबू को यह खबर दे कि उनकी तीस वर्षीया बेटी एक दलित के साथ रजिस्ट्रेशन करवाने जा रही है। वह खुद ?नहीं यह तो असंभव है। उसका होनेवाला वर ?या बुआ ?या अंतरंग मित्र ?

दिन भर जलती रही विचारों की होली। आखिर शाम खूब सोच समझकर उसने धड़कते दिल एवं कांपते हाथों से एक पत्र द्वारा ही पिता को यह सूचना भिजवाई कि आगामी सप्ताह वह सुदामा के साथ अपनी शादी का रजिस्ट्रशन करवाने जा रही है। 

            


डाली ,उसे निहारा और चादर तानकर लम्बी सो गए जो उनकी पिछले तीस सालों की सबसे शानदार नींद थी। 

०००

मधु कंकरिया 

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