रात दिन की दहशत
(अपनी दोस्त रोडमैरी के लिये)
फदवा तूकान
मुर्दे टहलते हैं
अपनी गलियों में
जिन्न, मिल जाते हैं काली दीवारों के साथ
आर पार दिखते हड्डियों के ढाँचे
बहन,
उढ़ा दो कफ़न मुर्दा जिस्मों को
शर्म,
शर्म करो, बहन है मेरी बिना कपड़ों के
पड़ोसी भी हैं बिना कपड़ों के
कुछ नहीं बचा हमारे पास
ढंक पायें शर्म जिससे अपनी
नंगे पेड़ हिल रहे पागलों की तरह
उड़ गये हैं चिड़ियों के पर, उन पर से
होती है दस्तक दरवजे पर, अचानक
सिपाही हैं शायद
मेरी बहन
चक्कर लगाती इधर से उधर
उधर से इधर, जुनून में
सिपाही, और ज्यादा सिपाही
मैं भी घूमता हूँ इधर उधर
फिर, घूम पड़ता हूँ पीछे
चारदीवारी के पार से
आती है आवाज़
इश्क़ के मारे आशिक़ की आवाज़ महबूबा
हो चुकी किसी ग़ैर की
रह गया मैं, एक नामुराद आशिक़
बोलो, कुछ तो बोलो जानेमन
मैं रहा हूँ क़रीबी तुम्हारा
रौशनी तुम्हारी आँखों की
क़सम ख़ुदा,
तुम्हीं हो मेरी आँख और निगाह महबूबा,
डूब जाने दो मुझे
अपनी आँखों की गहराई में
मत ढकेलो परे
तोड़ देते हैं दरवाज़ा
कम्बख़्त सिपाही
या खुदा, रहम कर
जानेमन, उदास हो ?
ले लो मेरे दिल का ख़ूनी लाल गुलाब
रख लो इसे अपने दिल में,
धड़कनों के पास
दरवाज़े पर हैं सिपाही, या रब,
छोड़ दिया है ख़ुदा ने भी मेरा साथ
ढंक लो अपना चेहरा
अपनों ने ही
भोंक दिया खंजर पीठ में
क़हर की रात दरवाजा खोल बदज़ात
दरवाज़ा खोल, हरामी की औलाद
लगता है, दुनियाँ की हर जबान में
गाली दे रहे सिपाही
महबूबा मेरी,
जाग उठा हूँ बिना सपनों वाली नींद से
कॉफी पीने से शायद
हो जाये भारीपन ग़ायब
ख़ामोशी
कभी न ख़त्म होने वाली ख़ामोशी
उदासी और गुजरे दर्द पर डालता हूं निगाह
कौन सा रास्ता रह गया है चुनने को
ख़ामोशी, सिर्फ़ ख़ामोशी
या ख़ुदा, आख़िर क्यों
एलकोड के अख़बारों में
रोज़ छपती हैं ख़बरें
बेथेलहम ! खोरबत बेत सकारिया के इलाक़े में किसानों ने कार
आसियों की तरफ़ से बढ़ते बुलडोज़रों को देखा है।
बताया जाता है कि इन बुलडोज़रों ने खेतों और फ़सलों का भारी नुक़सान किया है।" एक शिकायती ख़त जो किसी इब्राहीम अताउल्ला, बमुक़ाम वेत सकारिया, कार आसियों के मग़रिब में, ज़िला बेथेलहम द्वारा, लड़ाई के महकमे को लिखा गया -
मेरे खेतों को हथिया लेने के बाबत
जनाब, आपको इत्तिला हो कि जिस ज़मीन के बारे में आपको लिखा जा रहा है वो हमारे दाना-पानी का अकेला सहारा है। इससे इक्कीस लोग की परवरिश होती है। इनकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मेरे ऊपर है। परसों, बुलडोज़रों ने पूरी फ़सल तबाह कर दी जिससे हमारा साल भर का गुज़ारा होता। आपसे भूखे बाल बच्चों के नाम पर दरख़्वास्त है कि, बराये मेहरबानी, मेरी ज़मीन लौटवाने में मदद करें। ज़मीन के एवज़ में मुझे कोई पैसा या दूसरी ज़मीन नहीं चाहिये ।
-बक़लम
इबाहीम अताउल्ला
बार-बार
हर बार वही बासी ख़बरें
कुछ भी नहीं
जो हो क़ाबिले ग़ौर या नया
फँसता मालूम पड़ता है गला
रेशमी कीड़े,
चूस लोगे तुम
मेरे ख़ून की एक एक बूंद
क्या रह पायेगी ज़िन्दगी भला उसके बाद
या ख़ुदा, क्या हो रहा है
टूटती नहीं ख़ामोशी घुमाता हूँ रेडियो की सुई
क्या हो रहा है दुनियाँ-जहान में
अँधा जिन्न,
ली ले जा रहा है आदमी पर आदमी
बेलफास्ट भी नहीं है अछूता
सुनहरे फूलों का सर
काट दिया गया हो किसी टाइम बम से
यही है हश्र वियतनाम का
उदासी रोज़ जज़्ब होती है
वियतनाम की मिट्टी में
खाद है नेपाम बमों की
नोंच रहे गिद्ध अधमरे जिस्मों को
फैल गये ख़ूनी पंजे
दहशत दे रही मौत का पैग़ाम
किसने फैलायी
ये खौफ़नाक़ दहशत
हमारे जहान में ?
किसने उढ़ा दिया है
खौफ़ का कफ़न
ऐ ख़ुदा मुहब्बत है कहीं बाक़ी
या हो गई फ़ना ?
टूटती है ख़ामोशी आख़िर
किसी जानवर की दर्दनाक आवाज़ से
दूर जंगल में
ठहाके लगा रहा है ख़ुदा
तूफ़ानी बादलों की ओट से
०००
सभी चित्र गूगल से साभार
कवि का परिचय
फदवा तूकान-नेपोलिस में 1917 में जन्म। स्वयं शिक्षित कवियित्री, महान कवि स्व० इब्राहिम तूकान की बहन हैं। इनके अनेक कविता-संग्रहों के कई कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध संग्रह हैं- 'एक दिन', 'इसे मैंने पा लिया', 'बन्द दरवाजे के सामने', 'अकेले दुनियाँ की छत पर', 'रात और बड़े लोग', 'पहाड़ी रास्ता - बेढब रास्ता' (आत्मकथा) तथा 'जुलाई वगैरह'।
अनुवादक
राधारमण अग्रवाल
1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।
हृदय विदारक रचनाएँ। सुन्दर अनुवाद
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