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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं फ़िलिस्तीनी कविताएं -दो

 

मोईन बिसेसो की कविताएं 

अनुवादक: राधारमण अग्रवाल 

काल कोठरी की तीन दीवारें


होती है जब सुबह

मैं लड़ूंगा आखिरी दम तक
दीवार का
कोई न कोई हिस्सा तो खाली होगा
इस्तेमाल कर सकता हूँ जिसे
कागज की तरह
गली नहीं उँगलियाँ
साबुत हैं अब भी

आती है आवाज़ 
दीवार के पार से
गुपचुप सन्देश
धागों जैसी हमारी नसे
हमारी नसों जैसी पत्थरों की नसें
हमारा ख़ून उबलता है
बेजान पत्थरों की नसों में
रह रह आते हैं सन्देश
दीवार के पार से

फिर बन्द हुई एक कोठरी
फिर मार दिया गया कोई कैदी
फिर बुनती है एक कोठरी
फिर लाया गया कोई कैदी


दो

०००

चित्र 


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होती है जब दोपहर


रख दिया जाता है मेरे सामने 

एक टुकड़ा कागज़ 

एक क़लम 

और एक अदद चाभी मेरे घर की


चाहते हैं वे 

करूँ काला जिस कागज़ के टुकड़े को 

वही करता है ख़बरदार 

झुकना मत !


तुम्हें क़सम है 

अपने घर के एक-एक ईंट की 

करती है चाभी ख़बरदार 

झुकना मत !


आती है आवाज़ 

ठकठका रहा है कोई 

दीवार के उस पार 

कुचले हाथों से किसी तरह 

झुकना मत !


बारिश की एक-एक बूंद 

काल कोठरी की छत से टकराती 

चीखती कानों में, करती खबरदार 

झुकना मत !

०००

तीन

सूरज ढलने के बाद


कोई नहीं है मेरे पास

न कोई देख पाता है

न कोई सुन पाता है 

इस आदमी की आवाज़ 


हर रात जब बंद हो जाती है कालकोठरी 

पड़ जाते हैं ताले 

वह निकल पड़ता है बाहर 

मेरे जख्‌मों से, लहूलुहान 

चहलकदमी करता है तंग कोठरी में 

वह मैं ही हूँ

वह है बिल्कुल मेरे जैसा 

जैसा कि मैं कभी था

मेरे बचपन-सा, 

मेरी जवानी-सा 


दरअसल वह है 

मेरा अकेला सहारा मेरा इश्क़ 

वह है एक खत 

लिखता हूँ जिसे मैं हर रात 

वही है कागज़

वही है लिफ़ाफ़ा 

और वही है टिकट 

वही है मेरा जहान 

वही है मेरा मुल्क़


आज की रात

मैंने देखा उसे फिर से

जख्‌मों से निकलते 

उदास सदमे से 

थका, परेशान 

खामोश नापती कोठरी को 


एक भी लफ़्ज़ नहीं  

कि कह रहा था मानों 

नहीं देख पाओगे मुझे 

कभी भी 


अगर कुछ भी लिख दिया 

अगर कुछ भी क़बूल कर लिया ....

०००

मोईन बिसेसो

ग़ाज़ा में 1927 में जन्म हुआ। 'लोटस' पत्रिका के उप-प्रधान सम्पादक रहे। 1980 में लोटस पुरस्कार से सम्मानित।उनकी किताब ' गेहूं की बालियों से बम तक ' उनकी अपनी ज़िन्दगी और जद्दोजहद के बारे में है। उसमें कविताएं भी है। उसका फ्रेंच और अरबी भाषा में अनुवाद हुआ है।  मोईन बिसेसो की 1984 में लन्दन में मृत्यु हो गई थी।



परिचय 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।


'मौत उनके लिए नहीं '

फिलिस्तीनी कविताओं की कड़ी -2

सौजन्य - सुधा अरोड़ा 


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