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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 सितंबर, 2024

औरत के जिस्म पर उग आए हैं कैक्टस के फूल

 


जयश्री पिंगले 


नहीं पता लफ़्ज़ों का लिबास पहनाकर अब तुम्हें कैसे लिखा जाए..  सिर पर चीटिंयां दौड़ रही हैं. तुम्हें महसूस करते हुए जिस्म ठंड़ा हो

रहा है. भीतर जैसे बीहड़ उमड़ पड़ा है. जिसने बुरी तरह डरा दिया  है.  आंखें बार बार वहीं जा रही हैं. वार्ड से सटा वह सेमिनार रूम. वह अस्थाई बिस्तर जिसे तुमने अपनी 36 घंटे की ड्यूटी के बाद रात 2 बजे अपने लिए बिछाया था. सुबह 7 बजे फिर तुम्हें ड्यूटी पर आना था.  सिर्फ इन पांच घंटों में क्या हुआ.  सिर्फ तुम्हें पता है.  कौन थे वे वहशी दरिंदे. एक से ज्यादा…?  तीस से ज्यादा बाहरी और अंदरूनी चोटे हैं तुम्हारे शरीर पर. जैसे बहोत बार पटका हो. सपनों से भरी तुम्हारी आंखों में कांच भर दिए हैं. नींद से भरी तुम शायद चश्मा पहनकर ही सो गई थी. हमलावर ने मुंह पर ऐसा वार किया कि चश्मे के कांच चरमरा कर तुम्हारी आंखों में धंस गए.  यह वो ही अस्पताल है, जिसे तुम अपना दूसरा घर कहती थी.  अस्पताल में तुम इकलौती डॉक्टर थी जो गांव से आए गरीब मरीजों को सुंदर अक्षरों में बांग्ला में दवाई का पर्चा लिखकर देती थीं.

वे सब मरीज अब ढूंढ़ रहे हैं तुम्हें. उन्हें तुम अपनी लगती थी. उन्हीं की तरह गांव जैसी. तुममे वह शहरी रौब नहीं था. तुमने गरीबी को अपने भीतर जीया था. हाल ही में अपना घर थोड़ा ठीक करवाकर तुम दुर्गा पूजा की तैयारी में थी. बस तब तक पीजी भी पूरा होने ही वाला था. फिर उस  रात तुम उन वहशियों की चंगुल में कैसे आ गई. सवाल बेचैन कर रहे हैं.  अब कहां ढूंढ़ा जाए तुम्हें. मेरे पास सिर्फ किताबें हैं. जो ऐसे वक्त काम आती है. पन्ने पलट रही हूं मैं औरत के जिस्म पर कहीं गई कविताओं में. वहां कैक्टस के फूल उग आए हैं.  आग उगलती उन कहानियों में  जहां लफ्जों ने अपनी चिता खुद जला दी है. यह कहकर कि वे हार गए हैं. औरत के इस खौफनाक दर्द के आगे.  अब कहां तलाशु तुम्हें और अनायास याद आता है तुम हो, तुम हो, मंटो के अफसानों में. बस, नाम भेस और जगह बदल गई है. पर वक्त नहीं बदला है. औरत भी वहीं है भेडियों के झुंड़ में. जो जीते जागते शहरों में  बेखौफ घूम रहे हैं. जंगल राज चल रहा है. कोई देखने वाला नहीं है. आज तुम हो, कल कोई और है. फिर कोई और है. भेड़िए हर जगह मौजूद हैं. और औरत सबसे आसान शिकार.

साबित हो गया है कि  हुकूमतें हवा में होती है. ऊंचे आसमान पर. जहां से औरत दिखाई नहीं देती. उस औरत को भी नहीं, जो 15 साल से  राज कर रही है.  हवाई चप्पल पहनकर अपनी राजनीति चमका रही है. लेकिन उस आरजी कर मेडिकल कॉलेज के गलियारों में अपने सुरक्षाकर्मियों की भीड़ को हटाकर कभी चहलकदमी नहीं कर पाई है.  अगर की होती तो पता चलता इन गलियारों में क्या हो रहा है.  कितना भयावह सन्नाटा है. कितना अंधेरा है यहां.  दीवारें बातें करती हैं, खास तौर पर एक औरत से. दीवारों के कान औरत के लिए ही तो बने होते  हैं. ममता वहां तुम्हारा इंतजार था.  पर तुम कहां  अपनी बस्ती और वोट को छोड़कर अस्पताल का दौरा करती.  अस्पताल के सड़े- गले पाईप और टपकती छत  ही नहीं पूरा सिस्टम ही सड़ा- गला हो चुका है. जिस प्रिंसिपल को बरसों से कुर्सी पर चिपका रखा है उसने अब सरकार की साख को ही गला दिया है. 

रात दो बजे वार्ड से सटे सेमिनार हॉल में सोने गई डॉक्टर बर्बरता का शिकार होती है. और मार डाली जाती है. सुबह तक पड़ा हुआ वह जिस्म. और प्रिंसिपल का बयान आत्महत्या की है. माता- पिता को उस मृत देह को देखने की इजाजत नहीं है. यह हिमाकत वो ही कर सकता है जिसे अपने रसूख का गुमान हो. जिसे पक्का यकीन हो कि कोई उसका बाल बांका भी नहीं कर सकता. वह कितना भी बड़ा अपराध करे. हंगामे के बाद उसे हटाया जाता है लेकिन दूसरी बड़ी जगह पर भेज कर नवाजा जाता है. ममता सरकार अब जिस संवेदना का दिखावा कर रही है.  वह जानती हैं कि इस मामले में उनके हाथ पर भी दाग आए है. महुआ मोइत्रा जैसी फायरब्रांड सांसद समेत तृणमूल कांग्रेस की सभी महिला सांसद इस मुद्दे पर बैकफुट पर आ गई हैं.  

.सिर्फ डा. संदीप घोष, आरजीकर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ही नहीं पूरे देश भर में सरकारी अस्पतालों का कबाड़ा हो चुका है. माफिया राज चल रहा है हर राज्य में ऐसे सैकड़ों संदीप घोष हैं जो भ्रष्टाचार की फसल बो रहे हैं और मंत्री से लेकर संत्री तक सबको पाल रहे है. गरीब मरीज बेइलाज हैं. महिला डॉक्टर एक सुरक्षित आराम की जगह और सुरक्षा के लिए तरस रही है.  

यह हादसा 1973 के उस दौर में ले जाता है. जब मुंबई के केइएम हॉस्पिटल में चेंजिंग रूम में अपने कपड़े बदल रही नर्स अरूणा शानबाग पर वहां के वार्ड बॉय ने हमला कर ज्यादती की. उसका गला घोटा.  42 साल वह उसी अस्पताल में कोमा में पड़ी रही. वार्ड बॉय सोहनलाल सात साल बाद जेल से छूट गया. उस पर बलात्कार की धाराएं पुलिस ने नहीं लगाई थी. आज पचास साल बाद भी कुछ नहीं बदला है. वह भी डिजिटल टेक्नॉलॉजी के इस दौर में.

देश में  बच्चियां, किशोर उम्र की लड़किया औरते कितनी महफूज है इसका डाटा सरकार की एजेंसी एनसीआरबी बता रही है. हर 16 वे मिनट में बलात्कार हो रहा है. हिंदी पट्‌टी के राज्य, असम इसमें आगे है.  कोई अछूता नहीं है. जो औरतों पर मेहरबानी करें. औरतों के नाम पर वोट है, राजनीति है. सड़क पर हंगामा है. लेकिन देश की संसद, विधानसभा का विशेष सत्र नहीं है. जो यह बताएं कि हुकूमतों को वाकई चिंता है. आरजी कर कॉलेज को लेकर भाजपा मैदान में आ गई है.  ममता को घेरने के लिए सड़क से लेकर राजभवन तक की तैयारी है. ममता सरकार में फेल लॉ ऑर्डर के नाम पर राष्ट्रपति शासन का रास्ता दिख रहा है. बंगाल चुनाव से पहले ममता की बर्खास्तगी. भाजपा के लिए मैदान साफ है. यह वो ही  सरकार है  जब यौन शोषण के खिलाफ उतरी महिला पहलवानों को सड़कों पर घसीटा गया है.  आरोपी पूर्व भाजपा सांसद ब्रजभूषण सिंह को सलाखों के बाहर खुला छोड़ा गया है.

देश भर में सड़कों पर उतरे डॉक्टर्स को भी समझना होगा कि वे अपनी लड़ाई को राजनीति की भेटं चढ़ाने की बजाय अपने बुनियादी हकों को हासिल करने में ले जाए. हर राज्य के मुख्यमंत्रियों से मांग की जाए कि वह इन अस्पतालों का दौरा करे. बेहतर प्रबंधन और महिला डॉक्टरों की सुरक्षा का इंतजाम करे. सीसीटीवी कैमरे,  महिला रेस्टरूम, शौचालयों की व्यवस्था जैसे बुनियादी जरूरतें बेहतर करे.

 निर्भया के बाद कागजों पर बहुत वादे किए गए लेकिन कहीं भी इसका असर दिखाई नहीं दे रहा है. वक्त आ गया है कि नेता बने  लोग  अब वाकई आगे की और देखे.

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वरिष्ठ पत्रकार जयश्री पिंगले

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