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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 सितंबर, 2024

ओम प्रकाश अमित की कविताएं

  

रहेगा ही

            

मैं यहाँ से निकल तो जाऊँगा

चला जाऊँगा कहीं भी

लेकिन ' यह ' जो है

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें












वह भोर से ही ग्वाले  का उठना

चारा पानी देना मवेशियों को

घर्र घर्र करते निकलते दूध

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें


वो जाती हुई भैंसें गायें  

खेत में चरने के लिए

दौड़ती 

फुदकती 

मकनाती हुईं

कुलांचे भरती हुईं

और वो

घर की ओर लौटते हुए

रम्भाते हुए आना

यों ममता का सागर 

छलकाते हुए आना

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें


वो सिरी और छब्बी लोहार की 

दहकी हुई भठ्ठियाँ

ठक्क ठक्क करती 

गूँजती हथौड़े की ध्वनियाँ

बनते गगरे, 

लोटे, 

करछुल और तावे

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें


वो रग्घू और उदल कुम्हार की 

पिनपिनाती नाचती चाकें

बनते पुरवे और दियलियाँ

नरिया मोघिया और थपुवे 

जिन खपरैलों से सजते छाजन

और वे आदमकद कुंड़े और गगरियाँ

जिसमें ता मूँद कर रखे जाते सुरक्षित

अनाज गुड़ और खाँड़

वो मटके का पानी

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें


वो सिवान के  पेडों पर 

चहकती चहचहाती गौरैया 

मक्का और बजरी की 

पकती बालियों पर

सुग्गों और पंक्षियों के झुण्ड का उतरना

टीन को बे ताल ही ताल देना

यूं ही नहीं थी 

पूरे सिवान में 

टीन वादन की चर्चा


खा ले खा ले 

जो हो खाना

तुझसे बचा हुआ ही

घर जायेगा दाना

कुछ ऐसे ही 

अनगढ़े गीत गाना

उन चिड़ियों को उडाना

या बुलाना

बिठाना

खिलाना

नहीं निकल सकेगा

रहेगा ही मुझमें


गाँव के दक्खिन से बहती गंगा नदी में

पता नहीं आस्था अधिक है

या पाप से मुक्ति की कामना

अथवा नरक का डर


बड़के भोर से ही

लगने लगते गोते

बजने लगते घंटे 

गूँजने लगतीं ऋचाएं

झाँझ और करतल ध्वनियों के साथ

गूँजती प्रार्थनाएं

और मस्जिद के कंगुरे से फूटती

अजान की सदायें

नहीं निकल सकेगा 

रहेगा ही मुझमें

 ०००



       


भिनभिनाना

                        


उन्हें पसंद नहीं

फूलों से भरी हुई घाटियाँ

खुश्बुओं से महकती हुई घाटियाँ

हरियाली से 

लहलहाती और झूमती हुई  घाटियाँ


वे वहाँ पर

बारूदों की दमघोंटू गँध  भर कर

उसे उजाडे जाने 

और जलाये जाने का

जश्न मनाते हैं


क्योंकि उन्हें पसंद नहीं

फूलों पर मड़राती हुईं तितलियाँ

गुनगुनाती हुई

अपनी भाषा में 

कुछ गाती हुईं मधुमक्खियाँ


वे उसे 

भिनभिनाना कहते हैं


उन्हें पसंद नहीं 

यूँ मधुमक्खियों का प्रेम प्रदर्शन

एकता का आह्वान

सामुहिकता का गान


उन्हें पसंद नहीं

दूर दूर तक फूलों का खिलना

उससे रस लेना

छत्ते बनाना

सामुहिकता के पर्याय का जीवंत होना

तो उन्हें कतई पसंद नहीं

 ०००

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