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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- बारह

 





अमृत

(मर्ज-बिन-उमर के नाम)


तौफ़ीक़ जियाद


तुम्हें मालूम था 

कि ये मैं ही था


लौटा बरसों बाद 

किसी अजनबी की तरह 

यादों के डंक रोते बिन आँसुओं के 

घिसटते कदम 

जैसे ढोये हो ग़म की लाश


तुम मुड़ीं मेरी तरफ़ 

देखा, एक नश्तर सा लगा सीने में अनमने सलाम किया 

कोशिश करने लगीं उठने की 

पर सैकड़ों जंजीरों की जकड़न 

पकड़े रही तुम्हें, कस कर


तुम्हारी आवाज़ खो गई कहीं 

मेरा नाम लेने में 

खो गई मेरी भी आवाज़ 

गूंजती थी जो कभी, झरने सी


कुछ मत कहो 

मैंने पी लिया है

 दुख का अमृत 

मेरी प्यारी, मर्ज-बिन-उमर 

००


चित्र फेसबुक से साभार 








नाज़ारेथ की लड़कियाँ


कितनी बार, 

कितनी बार गुजर गई हैं बग़ल से काली आँखों वाली 

नाज़रेथ की ख़ूबसूरत लड़कियाँ 

भले घरों जैसे चाल-ढाल वाली 

कुछ उठाये बच्चे गोद में 

कुछ कुंवारी लड़कियाँ 

मानो फूल तैर रहे हों सड़कों पर 

कुछ के बच्चे बंधे हैं पीठ पर 

नाजुक कमर की पट्टी के सहारे 

काँख में दबी हैं गेहूँ की बालियाँ 

आ रही हैं आवाज़ें 

खेतों से, खलिहानों से


शामें गुजरती हैं 

तालाब के किनारे 

गाते गीत बाबा आदम के ज़माने के तुर्की लड़ाई और भगोड़े सैनिकों के बारे में 

अफ़सरों की नाइन्साफ़ी के बारे में कैसे बेच डाले गये बाजूबन्द

हथियारों के लिए 

और भी न जाने क्या-क्या


न बताओ मुझे कुछ और 

अगर ये दरिन्दे वही हैं


चुरा लिया जिन्होंने हमारे वतन को यक़ीनन, 

तब हमारी हिम्मत 

चूमेगी आसमान

०००

कवि -तौफ़ीक़ जियाद

आधुनिक फ़िलिस्तीनी कविता के एक महत्त्वपूर्ण कवि ।



अनुवादक 


राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

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